अंक-13
हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में आपने
पढ़ा कि आचार्य जी अर्थाभाव से निपटने के लिए काम की तलाश में प्रयाग गए। आचार्य
जी ‘हिन्दी का व्याकरण’, ‘रस’ व ‘अलंकार’ विषय पर पुस्तक
लिखना चाहते थे लेकिन अपने मत पर दृढ़ रहने के कारण ‘सम्मेलन’ में बात नहीं बनी। अन्ततः
कटरा में रामनारायणलाल जी से ‘ब्रजभाषा का व्याकरण’ लिखने पर सहमति बनी और यह ग्रंथ प्रकाशित भी हुआ। अपने इस ग्रंथ में उन्होंने
भूमिका में पं. कामता प्रसाद गुरु के ‘हिन्दी का व्याकरण’ की आलोचना की थी, इससे साहित्य जगत में तूफान गया था।
आचार्य जी का जीवन
जितना सरल एवं सादगी से परिपूर्ण था, वहीं उनका व्यक्तित्व अत्यंत दृढ़, मुखर एवं
निर्भय। भाषा के प्रति निष्ठा उनके रक्त में रची-बसी थी। भाषाविद् का असम्मान उनके
लिए असहनीय था। बात यदि सम्मान की आ जाए तो वह नफा-नुकसान का आकलन किए बिना किसी
भी स्तर का विरोध करने में तनिक भी हिचकते न थे, भले ही सामने कितनी भी बड़ी
शख्सियत क्यों न हो। यह घटना उनके व्यक्तित्व के इस पहलू को स्पष्ट चित्रित करती
है।
कुछ समय पूर्व काशी
में श्री मैथिलीशरण गुप्त का सम्मान करने और उन्हें अभिनन्दन-पत्र भेंट करने का एक
कार्यक्रम आयोजित किया गया था। मुख्य अतिथि देश के एक सर्वमान्य नेता थे। साहित्यिक
के प्रति क्षुद्र भाव से प्रेरित अपने आशीर्वचन में उन्होंने शब्द कहे - ‘ऐसे समारोह तो मृत्यु के बाद ही अच्छे लगते हैं’। ये शब्द असम्मान के सूचक थे और किसी को भी ठेस लगने
के लिए पर्याप्त थे। आचार्य जी हालॉकि कार्यक्रम में वहाँ उपस्थित नहीं थे और यह उन्हें
समाचार-पत्रों से पता चला था, लेकिन एक साहित्यिक के सम्मान समारोह में ही उसके असम्मान
से वे बहुत व्यथित हुए। यह घटना उनके मस्तिष्क में छाई रही। उन्होंने निश्चय किया
कि जब कोई राजनेता ऐसे कार्यक्रम में पधारेंगे तो वह वहाँ न जाएँगे।
‘ब्रज साहित्य मण्डल’ के तत्वावधान में सेठ कन्हैया लाल पोद्दार का अभिनन्दन मथुरा में होना था। कार्यक्रम
की अध्यक्षता कोई राजनेता नहीं बल्कि पं. कृष्ण दत्त पालीवाल करने वाले थे। एक
साहित्यिक के रूप में पं. पालीवाल जी के प्रति आचार्य जी के मन में श्रद्धा भाव था
इसलिए वह उसमें सम्मिलित होने से इनकार न कर सके। फिर भी उसमें घटी एक घटना ने
उन्हें उत्तेजित कर दिया।
हुआ यह था कि कुछ
गणमान्य लोग जो कार्यक्रम में पहुँच नहीं सके थे, उन्होंने बधाई संदेश भेजे थे,
जिन्हें संयोजक महोदय ने प्रारम्भ में पढ़ा। उनमें एक बधाई संदेश उत्तर प्रदेश के
मुख्यमंत्री पंत जी का भी था, जो उनकी ओर से उनके प्राइवेट सेक्रेटरी ने हस्ताक्षर
कर तार द्वारा भेजा था। हालॉकि वह पंत जी की कार्यशैली से परिचित थे, पंत जी भी उनका
आदर करते थे और कुछ अवसरों पर उन्होंने आचार्य जी की निजी तौर पर मदद भी की थी
तथापि पोद्दार जी जैसे व्यक्ति के लिए भी उन्होंने हस्ताक्षर करने का भी समय न
निकालकर मात्र औपचारिकता का निर्वाह करवा दिया था। इससे आचार्य जी को गुस्सा आ
गया। अपने भाषण में उन्होंने आधे घण्टे तक इसी विषय पर बोला। ‘मण्डल’ वालों को कांग्रेस से आर्थिक सदद की आशा थी, सो उन्हें यह
पसंद नहीं आया। पालीवाल जी से नाराजगी भी हुई। पालीवाल जी का कहना था कि उनकी बात
तो सही है लेकिन उन्हें मंच से यह नहीं कहना चाहिए था जबकि आचार्य जी का कहना था
कि यह अपमान पूरे साहित्य जगत का है, पोद्दार जी तो निमित्त मात्र हैं और जब यह
सार्वजनिक रूप से किया जा सकता है तो उनका प्रत्युत्तर भी यहीं उपयुक्त था। ‘मण्डल’ वालों को यह रास नहीं आया। इस प्रकार आचार्य जी ने अपने दृढ़
और मुखर स्वभाव के चलते विरोधी ही अधिक बनाए।
इस अंक में बस इतना ही।
अब के साहित्यकारों में वह विदोह कहाँ !
जवाब देंहटाएंराजनेता साहित्यकारों की कीमत कहाँ जान पाते हैं..
जवाब देंहटाएंप्रेरक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंहाजिर।
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