अंक-15
हिन्दी के पाणिनि – आचार्य
किशोरीदास वाजपेयी
आचार्य परशुराम राय
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आचार्य जी ने ज्वालापुर से दूर कनखल में
अपना निवास बनाया। ज्वालापुर में आधी आबादी मुस्लिम थी। वहाँ कसाईखानों में
गो-हत्या होती थी, किन्तु कोई विरोध नहीं करता था। हरिद्वार देवभूमि है, अतः वहाँ
यह सब होना आचार्य जी को खलने लग। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से एक प्रार्थना छपवाई
कि कसाईखानों में गोहत्या बन्द कर दी जानी चाहिए, क्योंकि हरिद्वार कस्बा एक
तीर्थस्थल है और इससे लोगों की भावना आहत होती है। यह प्रार्थना उन्होंने स्वयं ही
बाँटी। उनके इस कृत्य से कांग्रेसी भी नाराज हो गए और मुसलमान भी। उनपर हिन्दूवादी
होने का आरोप लगाया जाने लगा तथा विस्थापितों को भड़काकर दंगा कराने की शिकायत
जिला मजिस्ट्रेट से की गई। कुछ दिन पश्चात दंगा हो गया जिसमें सैकड़ों जाने गईं
तथापि आचार्य जी पर आरोप सिद्ध न हो सका और वे बच गए।
जनवरी 1948 में जब महात्मा गाँधी की
हत्या हुई तो हिन्दू महासभा तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग पकड़-पकड़कर जेल
में डाले जाने लगे। तब कांग्रेसियों ने षडयंत्र करके उन पर ‘संघ का कार्यकर्ता’
होने का आरोप लगवाकर उन्हें पकड़वा दिया: जेल से छूटने के पश्चात आचार्य जी ने
स्वाभाविक-आत्मरक्षार्थ ‘संघ’ तथा ‘सभा’ से अपना लगाव प्रकट किया क्योंकि यह उस समय जरूरी हो गया था। आचार्य जी को इन संगठनों के कुछ विचार
पसंद तो आते थे, किन्तु उन्होंने कभी इनकी सदस्यता नहीं ली।
सहारनपुर जेल में नजरबन्दी
के जब चार-साढ़े चार माह हो गए तो उन्हें न्याय की आशा क्षीण हो गई। तब उन्होंने
प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम एक लम्बा पत्र लिखा। यह पत्र जिला मजिस्ट्रेट श्री
रामेश्वर दयाल जी के मार्फत भेजा। पत्र में उन्होंने लिखा कि उन्होंने वही किया है
जो आप भी करते आए हैं और जिसके लिए महात्मा गाँधी और सरदार पटेल जैसे उनके नेताओं
ने निर्देश दिए हैं - “जनता को अब अपने पैरों पर खड़े हो जाना
चाहिए, केन्द्र सरकार इस समय पंगु है”। उन्होंने अपनी जान जोखिम में डाली,
गुण्डों से मुकाबला किया। अब साम्प्रदायिक कहकर उन्हें जेल में डाल दिया गया। उन्होंने
निश्चय किया कि वे अब इन नेताओं के कहने में न आएँगे और यदि उन्हें पन्द्रह दिन
में न छोड़ा गया तो वे सोलहवें दिन से अनशन प्रारम्भ कर देंगे।
मजिस्ट्रेट ने यह
पत्र आगे पहुँचाया या नहीं, उन्हें नहीं पता, लेकिन बाद में जेलर ने उनसे
जमानत-मुचलके भरकर छोड़ने के लिए कहा। वे ठहरे पुराने कांग्रेसी, जमानत पर छूटना उन्हें
स्वीकार नहीं था। तब जेलर ने उन्हें एक सप्ताह बाद जमानत-मुचलका भर देने की शर्त
पर पहले छोड़ देने के लिए कहा तो वह सहमत हो गए, क्योंकि इससे उनकी बात भी रह जानी
थी। छूटने के बाद वह सीधे घर गए, आवश्यक व्यवस्थाओं से जब निवृत्त हुए तब
शब्द-शास्त्र पर कलम चलाने पर विचार करने लगे।
तबतक एक सप्ताह
बीत चुका था और एक दिन जिला मजिस्ट्रेट की चेतावनी लेकर एक पुलिस का आदमी उनके घर
आ धमका। जिस पर लिखा था – ‘एक सप्ताह का समय समाप्त हो गया है। यदि तीन दिन के भीतर जमानत-मुचलके न
दिए, तो कानूनी कार्रवाई की जाएगी।’ जमानत भरना तो दूर आचार्य जी ने उस कागज के उलटी तरफ लिख कर वापस कर दिया कि वह जमानत देने को
तैयार नहीं हैं, घर पर व्यवस्थाएं कर दीं हैं, अतः अब वह जेल में और छह माह रह
सकते हैं। कैदी को पहले छोड़ने और बाद में जमानत की माँग करने पर हाईकोर्ट में उनको
(मजिस्ट्रेट को) इसका सामना करना आसान नहीं होगा। अतः यह उनके हित में ही होगा कि
अब जमानत-मुचलके की बात न उठाएँ। इस प्रकार जब मजिस्ट्रेट साहब फँस गए तो कागज
दाखिल-दफ्तर हो गया और मामला बन्द। कांग्रेसियों के एक बार फिर चिढ़ने की बारी आ
गई थी।
उसके पश्चात, आचार्य
जी के मस्तिष्क में जिन-जिन विषयों पर मंथन चल रहा था उन्होंने अपना सम्पूर्ण
ध्यान साहित्य सृजन पर केन्द्रित कर दिया।
इस अंक में बस इतना
ही।
अच्छी कूटनीतिक चाल थी आचार्य जी की!! उनके साहित्यकार के रूप में रूपांतरित होने का प्रकरण जानने की जिज्ञासा बढती जा रही है!!
जवाब देंहटाएंसंघ और कांग्रेस का पुराना बैर लगता है...आचार्य जी के जीवन से संबंधित चर्चाएं रोचक और प्रेरणास्पद हैं।
जवाब देंहटाएंपढ रहे हैं।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक प्रस्तुति के आभार.
जवाब देंहटाएंअपने आदर्शों पर अड़े रह कर कैसे काम निकाला जाता है वह कोई आचार्य किशोरीदास जी से सीख सकता है. आभार!
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