काव्यशास्त्र –१६
- आचार्य परशुराम राय
आचार्य क्षेमेन्द्र
आचार्य क्षेमेन्द्र कश्मीर वासी थे। इनका काल ग्यारहवीं शताब्दी है। कश्मीर नरेश अनन्तराज के शासन काल में इनका समय आता है। इसके अतिरिक्त अनन्त राज के बाद उनके पुत्र कलश के शासन काल में भी आचार्य क्षेमेन्द्र की उपस्थिति रही। कश्मीराधिपति अनन्तराज का शासनकाल 1028 से 1063 ई. तक माना जाता है और तदुपरान्त महाराज कलश का शासनकाल आता है।
आचार्य क्षेमेन्द्र के पिता प्रकाशेन्द्र एवं पितामह सिन्धु थे। इन्होंने आचार्य अभिनवगुप्त को अपना साहित्यशास्त्र या गुरू कहा है:-
श्रुत्वाभिनंवगुप्ताख्यात् साहित्यं बोधवारिधे: (वृहत्कथामंजरी)।
ये काव्यशास्त्र के इतिहास में 'औचित्यवाद' के प्रवर्तक हैं और औचित्यविचारचर्चा काव्यशास्त्र को इनकी अनुपम देन है।
इन्होंने लगभग 40 ग्रंथों का प्रणयन किया है लेकिन वे सभी उपलब्ध नहीं हैं। इनमें से भारतमञ्जरी, वृहत्कथामञ्जरी, औचित्यविचारचर्चा, कविकण्ठाभरण, सुवृत्ततिलक, समयमातृका आदि कुछ ही ग्रंथ मिलते हैं। अवसरसार, अमृततरंगकाव्य, कनकजानकी, कविकर्णिका, चतुर्वर्गसंग्रह, चित्रभारतनाटक, देशोपदेश, नीतिलता, पद्यकादम्बरी, बौद्धावदानकल्पलता, मुक्तावलीकाव्य, मुनिमतमीमांसा, ललितरत्नमाला, लावण्यवतीकाव्य, वात्स्यायनसूत्रसार, विनयवती और शशिवंश इन सत्रह ग्रंथों के केवल नाम यत्र-तत्र मिलते हैं।
सुवृत्ततिलक छंदशास्त्र पर लिखा गया ग्रंथ है। इस ग्रंथ में आचार्य ने छंदविशेष में कविविशेष के अधिकार की चर्चा की है, जैसे अनुष्टुप छंद में अभिनन्द का, उपजाति में पाणिनि का, वंशस्थ में भारवि का, मन्दाक्रान्ता में कालिदास, वसन्ततिलका में रत्नाकर, शिखरिणी में भवभूति, शार्दूलविक्रीडित में राजशेखर का। कविकण्ठाभरण को कविशिक्षापरक ग्रंथ मानना चाहिए।
'औचित्यविचारचर्चा' ग्रंथ काव्यशास्त्र से सम्बन्धित है। आचार्य क्षेमेन्द्र औचित्य को ही रस का प्राण मानते हैं। औचित्य को परिभाषित करते हुए वे लिखते हैं।:-
उचितं प्राहुराचार्या: सदृशं किल यस्य यत्। (औचित्य विचार चर्चा)
उचितस्य च यो भावस्तदौचित्य प्रचक्षते॥
आचार्य क्षेमेन्द्र अनौचित्य को रसभंग का सबसे बड़ा कारण मानते हैं या यों कहना चाहिए कि अनौचित्य को ही एक मात्र रसभंग का कारण कहा हैं:-
अनौचित्यादृते नान्यद् रसभङ्गञंस्य कारणम्।
- अर्थात अनौचित्य के अतिरिक्त रसभंग का दूसरा कोई कारण नहीं है।
आचार्य अभिनवगुप्त के एक और शिष्य क्षेमराज का नाम आता है जिन्होंने शैवदर्शन पर कई रचनाएं लिखी हैं। आचार्य अभिनवगुप्त के परमार्थसार नामक ग्रंथ पर टीका भी लिखी है। कुछ विद्वान क्षेमेन्द्र और क्षेमराज को एक ही व्यक्ति मानते हैं, जबकि कुछ इन दोनों को भिन्न व्यक्ति मानते हैं। भिन्न व्यक्ति मानने वाले विद्वान यह तर्क देते हैं कि क्षेमराज शैव थे और क्षेमेन्द्र वैष्णव क्योंकि आचार्य क्षेमेन्द्र ने भगवान विष्णु के विषय में दशावतारचरितम् लिखा है। जो दोनों को एक ही व्यक्ति मानते हैं, उनका तर्क है कि आचार्य क्षेमेन्द्र पहले शैव थे और बाद में आचार्य सोम से वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षा लिये। वैसे आचार्य क्षेमेन्द्र ने अपने ग्रंथ दशावतारचरितम में अपना एक नाम व्यासदास भी बताया है।
इत्येष विष्णोरवतारमूर्तें: काव्यामृतास्वादविशेषभक्या।
श्रीव्यासदासात्यतमाभिधेन क्षेमेन्द्रनाम्ना विहित: प्रबन्ध:॥
भारतीय काव्यशास्त्र को आचार्य क्षेमेन्द्र की देन सदा याद रखी जाएगी। इनके ग्रंथों में इनकी विद्वत्ता हर जगह मुखरित होती हुई देखी जा सकती है।
आचार्य भोजराज
धारा राज्याधिपति महाराज भोज का काल ग्यारहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है। भारतीय इतिहास इन्हें विद्वानों के आश्रयदाता, उदार और दानशील राजा के रूप में प्रकाशित करता है। कश्मीर नरेश अनन्तराज और धारा नरेश भोजराज दोनों समकालीन थे। दोनों ही समान रूप से अपनी विद्वत्प्रियता के लिए प्रसिद्ध थे। कश्मीर राज्य के इतिहास ‘राजतरङ्गिणी’ में इस प्रकार उल्लेख मिलता है:-
स च भोजनरेन्द्रश्च दानोत्कर्षेण विश्रुतौ।
सूरी तस्मिन् क्षणे तुल्यंद्वावास्तां कविबान्धवौ॥
यहाँ 'स' सर्वनाम कश्मीरनरेश अनन्तराज के लिए प्रयोग किया गया है।
महाराज भोज विद्वानों का आदर करने के साथ-साथ स्वयं एक उद्भट विद्वान भी थे। ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ और ‘शृंगारप्रकाश’ दोनों ही काव्यशास्त्र के उत्कृष्ट ग्रंथ हैं। ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ में पाँच परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में काव्य के गुण-दोषों का विवेचन करते हुए पद, वाक्य और व्याक्यार्थ के 16-16 दोष तथा शब्द और अर्थ के 24-24 गुण बताए गए हैं। द्वितीय परिच्छेद में शब्दालंकारों, तृतीय में अर्थालंकारों और चतुर्थ में उभयालंकारों का निरूपण किया गया है। पंचम परिच्छेद में रस, भाव, पञ्चसन्धि तथा वृत्तियों (शैलियों) की विवेचना मिलती है। चौदहवीं शताब्दी में महामहोपाध्याय रत्नेश्वर जी ने रत्नदर्पण नामक इस पर टीका लिखी।
‘शृंगारप्रकाश’ काव्यशास्त्र का शायद सबसे बड़ा ग्रंथ है। इसमें कुल 36 प्रकाश हैं। इनमें से प्रथम आठ प्रकाशों में शब्द और अर्थ पर अनेक वैयाकरणों के मतों का उल्लेख है। नवम और दशम प्रकाशों में गुण और दोषों का निरूपण है। ग्यारहवें और बारहवें प्रकाश में महाकाव्य और नाटक का विवेचन किया गया है। शेष प्रकाशों में उदाहरण सहित विस्तार से रसों का निरूपण मिलता है।
महाराज भोज द्वारा वर्णित शृंगार सामान्य शृंगार नहीं है। वह अपने में चारों पुरूषार्थों को समाविष्ट किए हुए है। इन्होंने श्रृंगार रस को ही रसराज कहा है। इसके अतिरिक्त इनके अन्य ग्रंथ भी हैं, यथा ‘मन्दारमरन्दचम्पू’ आदि।
भारतीय काव्य-शास्त्र पर आपके द्वारा दी जा रही जानकारी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इससे रचनाकारॊं को अपनी परंपराओं की जानकारी मिल रही है और काव्य के गुण-दोषों को समझना भी आसान हो रहा है।
जवाब देंहटाएं