लड़की |
हरीश प्रकाश गुप्त, हिन्दी अनुवादकआयुध उपस्कर निर्माणी, कानपुर |
खेलती है गली में नुक्कड़ में, बच्चों के साथ, उसे छूट है खेलने की । गुड्डे और गुड़िया से सजाती और शृंगार करती है फिर कराती है शादी दोनों की । घरौदा- मिट्टी का, अपने मकान के एक कोने में- एक घर, रंगती है पोतती है सजाती है बिठा देती है उसमें गुड्डे और गुड़िया को । अब नहीं खेलती गुड्डे और गुड़िया से घरौंदे से, उसकी बड़ी समझ में अब इनकी कोई जरुरत नहीं, उसका बनाया घरौंदा अब भी खड़ा है- भर दी जाती हैं उसमें आलू, प्याज और सब्जियाँ |
हरिश जी की एक और अच्छी कविता.धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है?
जवाब देंहटाएंआज अक्षय त्रितिया है। और इस प्रान्त मे गुड्डी गुड्डो की शादी आज के दिन कराने का रिवाज है। इस मौके पर लिखी गई इस कविता के लिये बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत संवेदनशील रचना....एक लडकी की जिंदगी उतार दी है शब्दों में
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील रचना!
जवाब देंहटाएंक्लासिक!
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है?
इस कविता की व्याख्या नहीं की जा सकती । कोई टीका नहीं लिखी जा सकती । सिर्फ महसूस की जा सकती है । इस कविता को मस्तिस्क से न पढ़कर बोध के स्तर पर पढ़ना जरूरी है – तभी यह कविता खुलेगी ।
जवाब देंहटाएंsamwedanshil rachana par shaandaar .
जवाब देंहटाएं