हिन्दी उपन्यास अनुदित
मनोज कुमार
इसी ब्लॉग पर हमने पहले हिन्दी साहित्य की विधाएं के अंतर्गत संस्मरण और यात्रा-वृत्तांत पर पोस्ट डाला था। यहां देखें। अब इसी श्रृंखला के तहत प्रस्तुत करते हैं उपन्यास साहित्य।
प्रेमचंद ने उपन्यास के संबंध में लिखा है,
“मैं उप्न्यास को मानव-जीवन का चित्र समझता हूं। मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है।”
उपन्यास ‘उप’ और ‘न्यास’ से मिलकर बना है। ‘उप’ का अर्थ समीप और ‘न्यास’ का अर्थ है रचना। अर्थात् उपन्यास वह है जिसमें मानव जीवन के किसी तत्त्व को उक्तिउक्त के रूप में समन्वित कर समीप रखा जाए।
इसमें उपन्यासकार मानव जीवन से संबंधित सुखद एवं दुखद किन्तु मर्मस्पर्शी घटनाओं को निश्चित तारतम्य के साथ चित्रित करता है। उपन्यास एक ऐसी लोकप्रिय साहित्यिक विधा है जिसे मानव जीवन का यथार्थ प्रतिबिंब कहा जा सकता है। वस्तुतः उपन्यास में एक ऐसी विस्तृत कथा होती है जो अपने भीतर अन्य गौण कथाएं समेटे रहती है। इस कथा के भीतर समाज और व्यक्ति की विविध अनुभूतियां और संवेदनाएं, अनेक प्रकार के दृश्य और घटनाएं और बहुत प्रकार के चरित्र हो सकते हैं, और यह कथा विभिन्न शैलियों में कही जा सकती है।
उद्भव
उपन्यास के उद्भव के संबंध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। डॉ. गुलाब रॉय, शिवनारायण श्रीवास्तव आदि विद्वानों की धारणा है कि भारतीय उपन्यसों के अंकुर भारत की प्राचीनतम साहित्य में ही उपलब्ध हैं। वे कहीं बाहर से नहीं आए। किन्तु डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, नलिनी विलोचन शर्मा तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी इससे सहमत नहीं हैं। उनकी मान्यता है कि उपन्यास का संबंध संस्कृत की प्राचीनतम औपन्यासिक परंपरा से जोड़ना विडंबंना मात्र है। इस वाद विवाद के पंक न फंस इतना ही कहना है कि उपन्यास का प्रारंभ वहीं से मानना चाहिए जहां से मनुष्य ने एक दूसरे के पास और निकट आना सीखा।
इस प्रकार विचार पूर्वक देखा जाए तो उपर्युक्त सभी विद्वान हिन्दी उपन्यास का पश्चिमी साहित्य की देन मानते हैं। और यह ठीक ही प्रतीत होता है। क्योंकि 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में, भारतेन्दु युग में, जब हमारे यहां हिन्दी उपन्यासों का श्रीगणेश हुआ था, यह विधा पश्चिमी साहित्य में पूर्ण रूप से विकसित थी। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रभाव के कारण सर्वप्रथम बांगला साहित्य, पश्चिमी साहित्य की इस पूर्ण विकसित विधा से प्रभावित हुआ। परिणामस्वरूप बंग्ला उपन्यासों की रचना हुई। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक बंगभाषा में बहुत अच्छे उपन्यास निकल चुके थे। बांग्ला साहित्य की इस साहित्यिक परिवर्धन से भारतेन्दु युगीन साहित्यकारों ने हिन्दी उपन्यासों की आवश्यकता को अपरिहार्य समझा। हिन्दी साहित्य के इस विभाग की शून्यता को जल्द हटाने के लिए आरंभ में बंग भाषा से अनुवाद होते रहे।
भरतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ही अपने जीवन में बंगभाषा के एक उपन्यास के अनुवाद में हाथ लगाया था, पर पूरा न कर सके। पर उनके समय में ही प्रतापनारायण मिश्र और राधाचरण गोस्वामी ने कई उपन्यासों के अनुवाद किए। पं. राधाचरण गोस्वामी ने ‘बिरजा’, ‘जावित्री’ और ‘मृण्णमयी’ नामक उपन्यासों के अनुवाद बंगभाषा से किए।
बाद में 1873 में बाबू गदाधर सिंह ने बंग्ला के दो उपन्यासों ‘बंगविजेता’ और ‘दुर्गेशनंदिनी’ को हिन्दी में अनुदित किया। राधाकृष्णदास ने बंगला के दो उपन्यासों का हिन्दी में अनुवाद किया जैसे – ‘स्वर्णलता’, ‘मरता क्या न करता’। बाबू रामकृष्ण वर्मा ने ‘चित्तौरचातकी’ का बंगभाषा से अनुवाद किया। कार्तिकप्रसाद खत्री के किए अनेक बंगला उपन्यास के अनुवाद जैसे ‘इला’, ‘प्रमिला’, ‘जया’, ‘मधुमालती’ इत्यादि काशी के भारत जीवन प्रेस से निकले।
लाला श्रीनिवास दास के ‘परीक्षा गुरु’ को हिन्दी का प्रथम मौलिक उपन्यास माना जाता है।
‘परीक्षा गुरु’ के पश्चात मौलिक उपन्यासों की एक परंपरा सी चल पड़ी।
(ज़ारी…!)
जानकारी भरी पोस्ट
जवाब देंहटाएंbahut umda jaankaari dene ke liye manoj ji,
जवाब देंहटाएंbahut bahut dhnyvaad
hindi kee upanyaas yaatra gyanvardhak hogi... shuruaat achhi ho rahi hai..
जवाब देंहटाएंआपका ब्लॉग पोस्ट हमेशा ही मेरे लिए कुछ नयी जानकारी लेकर आता है .
जवाब देंहटाएंइस बेहतरीन पोस्ट के लिए धन्यवाद !
उपन्यास के बारे में विस्तृत जानकारी मिली ...और पहले उपन्यास का नाम भी ...अच्छी श्रृंखला की शुरुआत
जवाब देंहटाएंमनोज जी!
जवाब देंहटाएंकिसी शब्द या संकल्पना की परिभाषा देना सबसे मुश्किल काम है। आपने साहित्य के सबसे अधिक लोकप्रिय और व्यापक विधा को परिभाषित करने का बहुत अच्छ प्रयास किया है। यह गद्य साहित्य का अन्यतम रूप है जिसका आधार कथा है और गद्यात्मक कथा का प्राचीनतम रूप बाणभट्ट की कादंबरी है। अतः इसका सूत्र संस्कृत से जोड़ सकते हैं। पहले के कथानकों का आधार उच्च वर्ग के पात्र हुआ करते थे अब सामान्य जन हो सकते हैं। उपन्यास आधुनिक युग की उपज है - उस युग की जिसका दृष्टिकोण सर्वथा व्यक्तिवादी हो गया है, अराजकता का बोलबाला है, बाहरी दुनिया में तो कम, हमारे आंतरिक जगत् में अधिक। समष्टि को दबाकर व्यक्ति ऊपर उठ आया है। इन्हीं परिस्थितियों का प्रतिफल हमारा उयन्यास साहित्य है। सामाजिक और मनोवैज्ञानिक उपन्यासों के कथानक परिवार, गांव, देश, विश्व, महिलाओं की स्थिति, सामाजिक प्रथाएं, व्यक्ति और समूह की समस्याएं, आर्थिक परिस्थितियाँ, राजनीतिक विचारधाराएं, दार्शनिक सिद्धांत आदि अनेक विषय हैं जिनमें से किसी या किन्हीं को उपन्यास में प्रधानता दी जाती है। प्रेम चंद के उपन्यासों में ये सारे विषय मिलते हैं क्योंकि हिंदी में आम जीवन के पात्रों की शुरुआत उन्होंने ने ही की।
बधाई।
उपन्यास के नाम से प्रेमचंद ही ज़हन में आते हैं. बहुत ही उम्दा जानकारी भरी पोस्ट. पहले उपन्यास का नाम भी पाता लगा.आभार. .
जवाब देंहटाएंMaine apni pathy-pustak me jitna padha tha usse jyada jankari mili..aapko hriday se dhanyvad..aapko padhna bahut achchha lagta hai.
जवाब देंहटाएंI was wondering if you ever considered changing the page layout of your website?
जवाब देंहटाएंIts very well written; I love what youve got
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