आम आदमी की हिंदी
प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए
मनोज कुमार
आज संचार का युग है। इस युग में संचार माध्यमों ने अपनी एक अलग पहचान बना ली है। पिछले कुछ दशकों से जनसंचार माध्यमों का अभूतपूर्व उदय हुआ है। सांस्कृतिक, शिक्षा, विकास और सामाजिक विकास में सूचना और संचार का काफी अहम योगदान रहा है। देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने में संचार तंत्र काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
अब यह बहस का मुद्दा हो गया है कि संचार माध्यम हिंदी को बना रहा है या बिगाड़ रहा है। कुछ लोग इसे व्यवसायिक हिंदी का नामाकरण कर अलग रास्ता दे रहे हैं। यह प्रयोजन मूलक हिंदी है। यह चौतरफा फल-फूल रही है। फैल रही है। बांग्मय की आदि-भाषा संस्कृत से आसूत हिन्दी का भाषाई और साहित्यिक इतिहास सर्वथा एवं सर्वदा समृद्ध रहा है ! संस्कृत, अपभ्रंश, अबहट, प्राकृत और पाली से होती हुई हिन्दी ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, अंगिका, बज्जिका जैसे उपभाषाओं के साथ आज खड़ी बोली की संज्ञा धारण कर चुकी है! समस्त साहित्यिक गुणों से लैस एवं सुव्यवस्थित वर्णमाला और सुगम, सुदृढ़ व्याकरण के बावजूद इक्कीसवीं सदी की व्यावसायिकता जब हिन्दी को केवल शास्त्रीय भाषा कह कर इसकी उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न लगाने लगी तब इस समर्थ भाषा ने प्रयोजनमूलक हिन्दी का कवच पहन न केवल अपने अस्तित्व की रक्षा की, वरण इस घोर व्यावसायिक युग में संचार की तमाम प्रतिस्पर्धाओं को लाँघ अपनी गरिमामयी उपस्थिति भी दर्ज कराई।
यही प्रयोजनमूलक अथवा फन्क्शनल हिंदी आज पत्रकारिता की भाषा है जिसमें खरबों के देशी-विदेशी निवेश हो रहे हैं। किंतु ऐसा नहीं है कि प्रयोजनमूलक संज्ञा पाने के बाद हिंदी पत्रकारिता का उदय हुआ है। हिंदी तो पत्रकारिता की भाषा तब से है जब इसका प्रयोजन बिल्कुल असंदिग्ध था। स्पष्ट शब्दों में कहें तो हिन्दी पत्रकारिता का शंखनाद हिन्दी साहित्यकारों के द्वारा अठाहरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही किया जा चुका था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिंदी पत्रकारिता की भूमिका अवर्णीनीय है। आधुनिक हिंदी साहित्य के युगपुरूष भारतेंदु हरिश्चंद्र की कवि-वचन सुधा और हरिश्चन्द्र मैग्जिन इसका प्रमाण है। उसके बाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, माखन लाल चतुर्वेदी, आयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध से लेकर प्रेमचंद तक सभी नामचीन साहित्यकार हिन्दी पत्रकारिता के आकाश में दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह उज्जवल रहे हैं।
आज से दो दशक पहले तक पत्र पत्रिकाओं के स्तम्भ सीमित होते थे – धर्म, साहित्य, संस्कृति, ज्योतिष, राजनीति, समाज-सुधार, समाज कल्याण, आदि। आज फैशन, फिल्म, इंटरनेट, मोबाइल, एसएमएस, ब्लॉग, शेयर बाज़ार, आदि से जुड़े समाचार भी प्रमुखता पाते हैं। इन सब विषय वस्तुओं के अलावा स्थानीय छाप लिए हिंदी एक नए रंग में देखने को मिलती है।
यह कहना कि प्रयोजनमूलक हिंदी आधुनिक युग की देन है मेरे ख्याल से तर्कसंगत नहीं है। आधुनिक युग ने हिन्दी को केवल प्रयोजनमूलक नाम दिया है कोई प्रयोजन नहीं। अगर यह कहें कि हिंदी आज प्रयोजनमूलक है तो यह भी मालूम होना चाहिए कि हिन्दी निस्प्रयोजन कब थी ? अगर हिंदी निस्प्रयोजन होती तो लगभग चार सौ साल पूर्व रचित तुलसीदास के रामचरित मानस की एक-एक चौपाई आज चरितार्थ नहीं होती। अगर व्यावसायिकता की बात करें तो भारत के साथ–साथ मलेशिया, फिजी, मोरिशस, करेबिआई द्वीप समूह के अतिरिक्त दुनिया भर में पढ़े जाने वाला रामचरित मानस भारत के प्रतिष्ठित गीता प्रेस, गोरखपुर से सर्वाधिक छपने वाली किताब का खिताब पा चुका है। तो जिस भाषा में ऐसे एक-दो नहीं बल्कि अनंत कालजयी साहित्य के सृजन की क्षमता हो वह निस्प्रयोजन कैसे हो सकती है? आखिर किसी भाषा का प्रयोजन क्या है? अभिव्यक्ति! और यही अभिव्यक्ति लोकहित का उद्देश्य धारण कर देश और काल की सीमा से परे चिरंजीवी हो साहित्य कहलाने लगता है। इस प्रकार इस बात में कोई दो राय नही कि हिन्दी में अभिव्यक्ति और साहित्य-सृजन दोनों की अपार क्षमता है। अतः यह संस्कृत तनया अपने जन्मकाल से ही प्रयोजनवती रही है। सो हमारा उद्देश्य हिन्दी का प्रायोजन अथवा इसकी प्रयोजनमूलकता सिद्ध करना कतई नहीं है। किंतु आज जिस प्रयोजनमूलक हिंदी की चर्चा ज़ोर-शोर से की जा रही है उससे मुंह चुराना भी उपयुक्त नहीं है।
----- अभी ज़ारी है ....
एक अच्छा आलेख प्रयोजनमूलक हिंदी पर।
जवाब देंहटाएंमहत्त्वपूर्ण आलेख!
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क्यों हम सब पूजा करते हैं, सरस्वती माता की?
लगी झूमने खेतों में, कोहरे में भोर हुई!
संयुक्ताक्षर "श्रृ" सही है या "शृ"?
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संपादक : सरस पायस
tathya purn satya vivechanaatmak aalekh ! Dhanyawaad !!!
जवाब देंहटाएंआपका आभार!!!
जवाब देंहटाएंप्रयोजन्मुलक हिन्दी पर सम्पुर्न लेख पदना चाहुन्गा.
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