जीवन परिचय
जन्म : कवि, कथाकार, समालोचक एवं संसद सदस्य श्रीकांत वर्मा का जन्म छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में 18 सितम्बर 1931 को हुआ था।
शिक्षा : प्रारम्भिक शिक्षा के लिए उनका दाखिला बिलासपुर के एक अंग्रेज़ी स्कूल में कराया गया लेकिन वहां का वातावरण उन्हें रास नहीं आया। उन्होंने उस स्कूल को छोड़ दिया और नगर पालिका के स्कूल से शिक्षा ग्रहण की। मैट्रिक पास कर लेने के बाद आगे की शिक्षा के लिए उन्हें इलाहाबाद भेजा गया। वहां उन्होंने क्रिश्चियन कॉलेज में दाखिला लिया। पर वहां उन्हें घर की याद सताने लगी और बिलासपुर वापस लौट आए। यहीं पर बी.ए. तक की पढ़ाई पूरी की। प्राइवेट से नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. किया।
कार्यक्षेत्र : पिता राजकिशोर वर्मा वकील थे। हलाकि यह एक सम्पन्न परिवार था, फिर भी श्रीकांत वर्मा को काफ़ी कठिन दिन देखने पड़े। 1952 तक बेकारी झेलते रहे। घर की आर्थिक स्थिति ख़राब थी। स्कूल शिक्षक की नौकरी शुरु की। परिवार में सबसे बड़े थे इसलिए परिवार की जिम्मेदारी भी उन पर आ पड़ी। 1954 में उनकी भेंट मुक्तिबोध से हुई। उनकी प्रेरणा से बिलासपुर में नवलेखन की पत्रिका ‘नयी दिशा’ का संपादन करना शुरु किया। 1956 से नरेश मेहता के साथ प्रख्यात साहित्यिक पत्रिका ‘कृति’ पत्रिका का दिल्ली से संपादन एवं प्रकाशन करते थे। 1956 से लेकर 1963 तक का समय उनके लिए संघर्ष का काल था। 1964 में रायपुर की सांसद मिनी माता ने उन्हें दिल्ली के अपने सरकारी आवास में रहने के लिए बुला लिया, जहां वे अगले ग्यारह साल तक रहे। दिल्ली में वे पत्रकारिता से जुड़े। 1965 से 1977 तक ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के प्रकाशन समूह से निकलने वाली पत्रिका ‘दिनमान’ में उन्होंने विशेष संवददाता की हैसियत से काम किया। बाद में वे कॉंग्रेस की राजनीति में सक्रिय हो गए और उन्हें ‘दिनमान’ से अलग होना पड़ा। 1969 में वे तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के काफ़ी क़रीब आये। वे कॉंग्रेस के महासचिव थे। 1976 में वह मध्यप्रदेश से राज्य सभा में निर्वाचित हुए। 1980 में कॉंग्रेस प्रचार समीति के अध्यक्ष थे। 1985 में राजीव गांधी के काल में उन्हें महासचिव के पद से हटा दिया गया।
मृत्यु : जीवन के अंतिम क्षणों में उन्हें बीमारियों ने भी घेर रखा था। अमेरिका में वे कैंसर के इलाज कराने के लिए गए। 26 मई 1986 को न्यूयार्क में उनका निधन हो गया।
पुरस्कार : उन्हे कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया जिसमें ‘मगध’ काव्य संग्रह पर साहित्य अकादमी तथा मध्य प्रदेश का शिखर समान भी शामिल है।
:: प्रमुख रचनाएं ::
:: काव्य रचनाएँ :: भटका मेघ (1957), मायादर्पण (1967), दिनारंभ (1967), जलसाघर (1973), मगध (1983), और गरुड़ किसने देखा (1986)।
:: उपन्यास :: दूसरी बार (1968)।
:: कहानी-संग्रह :: झाड़ी (1964), संवाद (1969), घर (1981), दूसरे के पैर (1984), अरथी (1988), ठंड (1989), वास (1993), और साथ (1994)।
:: यात्रा वृत्तांत :: अपोलो का रथ (1973)।
:: संकलन :: प्रसंग
:: आलोचना :: जिरह (1975)।
:: साक्षात्कार :: बीसवीं शताब्दी के अंधेरे में (1982)।
:: अनुवाद :: ‘फैसले का दिन’ रूसी कवि आंद्रे बेंज्नेसेंस्की की कविता का अनुवाद है।
:: साहित्यिक योगदान ::
मुक्तिबोध के बाद की पीढ़ी की कविता का मिजाज़ श्रीकांत वर्मा की काव्यकृतियों से पहचाना जा सकता है। बेचैनी, तनाव, नाराज़गी, विरोध आदि उनकी कविता का प्रमुख गुण है। आरंभ में तो उन्होंने रोमांटिक आवेग वाली कविताएं लिखीं लेकिन बाद में राजनीतिक, सामाजिक विसंगतियों का अपनी कविताओं में जम कर खुलासा किया है। सातवें दशक के राजनीतिक और सामाजिक यथार्थ ने कविता की दिशा को पलट दिया। नयी कविता के अभिजात्य का मिथ दूर हो गया था। इसलिए समय और समाज के यथार्थ को व्यक्त करने के लिए श्रीकांत जी को नयी काव्यभूमि की खोज करनी पड़ी।
विलासपुर एक कस्बा है और यही कस्बाई देशजता उनके जीवन और लेखन में मौज़ूद रही। इसको तोड़ने की भी उन्होंने कोशिश की पर कस्बाई संवेदन उनके व्यक्तित्व में अपनी जड़ें गहरी जमा चुकी थी। उनके चाचा नंदकिशोर वर्मा विलासपुर की एक जमींदारी केंदा के दीवान थे। केंदा के घने जंगलों के परिवेश ने उनके बाल मन पर अमिट छाप छोड़ी। इस प्रभाव से उनके लेखन में पहाड़, नदी, जंगल, तालाब की स्मृतियां हमेशा आती रही।
वे काफ़ी संवेदनशील भी थे। एक खास तरह का अकेलापन उनके जीवन का एक हिस्सा था। इस अकेलेपन से रिसता हुआ अवसाद उनके व्यक्तित्व में भरा हुआ था। अंतिम दौर की अपनी कविताओं के द्वारा वे काव्य के उन प्रतिमानों को भी तोड़ते रहे जिन्हें वे स्वयं अपनी कविताओं से बनाते थे। ‘मगध’ और ‘गरुड़ किसने देखा’ एक ऐसे कवि की की करुणा की पुकार है जो युग संधि पर खड़ा अपने समय के मनुष्य, समाज, राजनीति, इतिहास और काल के प्रति बेहद निर्मम होकर उसके संकट को परिभाषित करना चाहता है।
पत्रकारिता और राजनीति के कारण उन्होंने देश-विदेश की यात्रा की और कई महान लेखकों-बुद्धिजीवियों के सम्पर्क में आए। उनकी वैचारिक मुठभेड़ प्रगतिवादियों, प्रगतिवाद विरोधियों और अधुनिकतावादियों से होती रहती थी। शुरु में मुक्तिबोध के प्रभाव से उनका मार्क्सवाद को ओर झुकाव था लेकिन हंगरी की घटनाओं के कारण मार्क्सवाद से उनका मोहभंग हुआ। वे प्रगतिविरोधी नहीं थे। उनपर डॉ. राममनोहर लोहिया के समाजवादी चिन्तन का गहरा प्रभाव पड़ा। उनका मानना था कि साहित्य एक सीमा तक ही समाज को प्रभावित कर पाता है। उसे बदलने का माध्यम राजनीति ही हो सकती है। वे नेहरू जी के आधुनिक समाज बनाने के विचारों से सहमत थे। वे विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास का समर्थन करते थे।
मूलतः कवि होते हुए भी श्रीकांत वर्मा ने कविता के साथ-साथ कहानियां भी लिखीं। उनकी कहानियां उनकी कविता की पूरक हैं। वर्मा जी खुद स्वीकार करते हुए कहते हैं,
“कविता लिखते हुए मेरे हाथ सचमुच कांप रहे थे। तब मैंने कहानियां भी लिखनी आरंभ की – यह सोचकर कि रचना से रचना की कम्पन कुछ कम होगी। और यह सच है कि मैंने कथा-साहित्य के बतौर जो कुछ लिखा उससे मेरी आत्महीनता कुछ कम हुई; क्योंकि जैसे-जैसे मैं लिखता गया, संसार में पैठता गया। संसार में पैठना ही मुक्ति है। प्रवेश गिरफ़्तारी नहीं, आज़ादी है। ग़ुलामी है गमन, बहिर्गमन। कविताओं ने मुझे जो दुनिया दी थी, मेरी कहानी उसी का विस्तार है, उसी का एक और रूप जिसे मैं कविताओं के माध्यम से पहचान नहीं पा रहा था।”
कहानियों के पात्र उसी यथार्थ से जूझते हैं जिस यथार्थ को श्रीकांत वर्मा कविता में व्यक्त कर रहे थे। नयी कहानी आन्दोलन से अलग हटकर उन्होंने सामाजिक यथार्थ के भीतर जूझ रहे अभिशप्त चेहरों को उजागर किया है। वे नयी कहानी के ढ़ांचे को तोडकर कहानी विधा को बदलते नये यथार्थ से जोड़ने का प्रयत्न करते हैं। उनकी कहानियां नयी कहानी के दौर में प्रेम भरे खेल के मैदान से बाहर जाकर ठंड, झाड़ी, अरथी, शवयात्रा और घर जैसे सामाजिक यथार्थ की अविस्मरणीय दुनिया रचती हैं।
अपने एक मात्र उपन्यास ‘दूसरी बार’ के द्वारा वे साबित करना चाहते हैं कि आज प्रेम मानवीय दुनिया से बहिष्कृत हो गया है।
श्रीकांत वर्मा ने गद्य की विभिन्न विधाओं आलोचना, डायरी, यात्रा वृत्तांत और साक्षात्कार आदि में अपनी रचनात्मकता का परिचय दिया है। उन्होंने विदेशी साहित्य का भी अनुवाद किया।
श्रीकांत वर्मा की ख्याति एक ऐसे लेखक के रूप में है जिसने अपने युग के उत्थान-पतन, नैराश्य, द्वन्द्व, अवसाद तथा अन्धकार को एक जबर्दस्त आवेग के साथ पेश किया है। उनका लेखन एक अनवरत चलने वाली बहस और जिरह है, कभी दूसरों से, कभी खुद से।
साहित्यकारों के जीवन से जिस तरह आप परिचय करते हैं वह अच्छा लगता है.. बढ़िया आलेख है... संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित परिचय... बहुत बढ़िया... साहित्यकार जब राजनीतिज्ञ हो जाता है उसके भीतर का साहित्यकार और सरोकार भी कुंठित हो जाता है... कहूँगा कि वर्मा जी के अंतिम दिनों की कविता में सत्तर के दशक का श्रीकांत वर्मा नहीं है... गायब है...
जवाब देंहटाएंश्रीकांत वर्मा जी की रचनाओं से परिचय के लिए साधुवाद . कुछ कहानी संग्रह "अरथी (1988), ठंड (1989), वास (1993), और साथ (1994)" ये उनके मरणोपरांत प्रकशित हुए आपने स्पष्ट नहीं किया. इन्हें प्रकाशित करने का श्री किसे जाता है यदि बता सके तो अच्छा होगा
जवाब देंहटाएंश्रीकांत वर्मा जी का परिचय अच्छा लगा ..उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धांजली
जवाब देंहटाएंगिरधारी जी,
जवाब देंहटाएंमुझे जहां तक ज्ञात है ...
श्रीमती वीणा वर्मा, उनकी पत्नी ने।
श्रीकांत वर्मा जी का जिस अंदाज में परिचय कराया आपने बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंउनकी पुण्यतिथि पर श्रधांजलि.
श्रीकांत वर्मा जी की पुन्य तिथि पर उनका विस्तृत विवरण प्रस्तुत कर आपने जानकारे बढ़ा दी.
जवाब देंहटाएंइतने विस्तार में पहली बार इनके विषय में जानने का अवसर मिला...
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आपकी...
किसी कविता का उद्धरण न होने की कमी खल रही है।
जवाब देंहटाएंश्रीकान्त वर्मा के जीवन का रेखा-चित्र अच्छा लगा। उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धा-सुमन अर्पित हैं।
जवाब देंहटाएंगिरिधारी खंकरियाल जी,नमस्कार।
जवाब देंहटाएंआदरणीय मनोज कुमार जी ने मेरे पूर्व ही आपके द्वारा उठाए गए प्रश्न का निराकरण प्रस्तुत कर दिया है किंतु कुछ जोड़कर आपको बताना चाहूंगा कि इनके निधन के बाद इनकी पुण्य स्मृति में इनकी पत्नी श्रीमती वीणा वर्मा ने युवा लेखन की सृजनशीलता को रेखांकित करने के लिए 'श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार' तथा 'श्रीकांत वर्मा स्मृति संस्था' की स्थापना की। कहानी संग्रह-अरथी(1988),ठंढ(1989),वास(1993)तथा साथ(1994) के प्रकाशन का श्रेय उनकी पत्नी श्रीमती वीणा वर्मा को जाता है।
मनोज कुमार जी,नमस्कार
आपका श्रम सिद्ध करता है कि आप हिंदी साहित्य की सच्ची सेवा कर रहे हैं। साहित्य जगत के ऐसे हस्ताक्षरों से परिचित कराने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।