सोमवार, 13 जून 2011

जलवा लेडीज़ क्लब का …

आज यूँ ही एक  हल्की - फुलकी सी रचना …


बस यूँ ही एक दिन मैं
गयी लेडीज़ क्लब में,
देखा वहाँ जा कर आईं थीं सब
अपने पूरे मेक-अप में,
सबके आते ही वहाँ
एक हलचल सी मच गयी थी
देखने के लिए वहाँ
एक प्रदर्शनी सज गयी थी .
सब मिल रहीं थीं
एक दूसरे से तपाक से
पूछे जा रहे थे हाल
एक दूसरे के खटाक़ से.
थोड़ी देर बाद एक दूसरे की
आलोचना होने लगी
एक दूसरे के मेकअप से
सब चिढ़ने सी लगीं
कद्दू से जूड़े वाली एक बोलीं
देखो मिसेस मेहता का जूड़ा
लगता है जैसे
इसमें भर रखा है कूड़ा .
थोड़ी देर बाद
चर्चा साड़ी पर आ गयी
उस चर्चा से जैसे
एक कयामत छा गयी.
आज के दिन 

मिसेस चौधरी की साड़ी
केंद्र बनी हुई थी
जिसे देख सबके दिल में
एक कसक उठ रही थी .
अपनी साड़ी की चर्चा कर
सब दिल को तसल्ली दे रही थीं
हमारी साड़ी भी अच्छी है
ये समझाने की
कोशिश कर रहीं थीं.
थोड़ी देर बाद
फिर विषय बदल गया
साड़ी के बाद वो
कुत्तों पर आ गया
बोलीं मिसेस अग्रवाल
क्यों मिसेस गुप्ता..
कैसा चल रहा है
आज कल आपका कुत्ता?
बोलीं मिसेस गुप्ता
बहुत मायूस हो कर
ठीक हुआ है अभी
काफ़ी बीमार हो कर
अभी वो ठीक से
चल नही पाता है
इसी लिए डॉक्टर
दिन में दो बार आता है.
इसी तरह ना जाने
क्या क्या टॉपिक्स
चल रहे थे
क्लब की सेक्रेटरी ने देखा
घड़ी में पाँच बज रहे थे
वो बोलीं --
लो हो गया सबके
हस्बैन्ड्स के आने का टाइम
अब मीटिंग बर्खास्त करो
और  रजिस्टर पर करो साइन.
इस तरह सब मीटिंग बर्खास्त कर
घर को चलीं गयीं
और मैं वहाँ बड़ी देर
सोचती रह गयी
ये है लेडीज़  क्लब ?
जहाँ लेडीज़  इकट्ठी हुआ करती हैं
केवल आपस के चर्चे होते हैं
या कुछ समस्याएँ
हल भी हुआ करती हैं.

( इसमें प्रयुक्त सभी नाम काल्पनिक हैं )

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(संगीता स्वरुप --- १९७२)

19 टिप्‍पणियां:

  1. संगीता जी, महिलाएं अभी भी परिवार की पृष्‍ठभूमि में ही रहती हैं और जहाँ भी एकत्र होती हैं पारिवारिक वाताचरण बना लेती हैं। कुछ दिन रूक जाइए आपको यहाँ भी सिगरेट के छल्‍ले और जाम का गिलास मिलेगा। इतना ही नहीं गाली गलौज में भी कोई कमी नहीं होगी। तब तो लगेगा ना कि अब यह बुद्धिजीवी हो गयी हैं?

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  2. वैसे अजित गुप्ता जी ने सही कहा। ये चुगली निन्दा और निट्ठले कल्ब हैं। जहाँ महिलायें समय बर्बाद करती हैं। अच्छी रचना इनका सच दिखा दिया आपने।

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  3. संगीता जी!...आप का हास्यव्यंग्य बहुत बढिया है....लेकिन मै आपसे सहमत नहीं हूं!...क्यों?...क्यों कि समझ लीजिए कि मैने भी ऐसा एक क्लब जॉइन किया है!....मै करीबन एक साल से यहां हाजिरी दे रही हूं!...हर शाम 7-30 बजे से ले कर रात के लगभग 9 बजे तक,हमारे आवास के नजदीकी पार्क में हम मिलते है! सर्दिओं में 8-30 बजे हम घर चले जाते है! ...महिलाएं बन ठन कर तो आती है, लेकिन किसीके कपडें या मेक-अप पर कभी बुरी तरह से छींटा- कशी होती मैने देखी नहीं है!...और आज-कल के चेन-स्नेचर्स की वजह से सोने के गहने पहनकर आना भी सभी ने बंद कर दिया है!..बातें चलती रहती रहती है..अपने बच्चों के बारे में, बहुओं के बारे में, पतिओं के बारे में, देश-विदेश के पर्यटन स्थलों के बारे में, सिरियलों के बारे में, मूवीज के बारे में....कोई विषय अछूता नहीं रहता...हाल ही के प्रसंग ओसामा बिन लादेन की मृत्यु,अन्ना हजारे का अनशन, बाबा रामदेव वगैरे भी चर्चा के विषय बने हुए है!...अपनी हॉबी का प्रदर्शन करते हुए महिलाएं भजन या फिल्मी-गीत भी सुनाती है!


    ...यहां महिलांए पांचवी पास से ले कर डॉक्टर, इंजीनियर, नर्स, घरेलू और ऑफिसों में कार्ययत भी है और रिटायर्ड भी है!......इनकी उम्र 35 से ले कर 65 वर्ष तक की है!...यहां पार्टियां भी होती है!...कभी सब अपने अपने घर से ख्नाने की डिशेश बना कर लाती है और कभी हॉट्ल्स में भी हम लोग चले जाते है!...हॉटल का जो बिल आता है उसे सब मेंबर्स में बराबर हिस्सों में बांट कर चुकता किया जाता है!..इस क्लब में
    कुल 15 महिलाएं है लेकिन गेस्ट महिलाएं भी यहां आती जाती रहती है!...मजे की बात यह कि यहां प्रधान महिला कोई नहीं है!...सभी अपने बारे में पूरी जानकारी उपलब्ध कराती रहती है...अगर कोई महिला चार-छह महिने के लिए शहर से या देश से बाहर जा रही होती है तो उसे सी-ऑफ पार्टी भी दी जाती है!..याद आया मै 15 जून को जर्मनी के लिए विदा हो रही हूं!...आज मेरे लिए भी शाम 7-30 पर पार्टी आयोजित है!

    ...महिलाओं के बारे में व्यंग्य चित्र मैने बहुत से देखें है...हाथ में बेलना ले कर मोटी औरत,पतले पति को मारने के लिए दौड रही है....सास बहू में हाथापाई हो रही है और ससुर और बेटा मारे डर के,छिपकर खडे देख रहे है!..!..औरतों की किट्टी पार्टी चल रही है और पिछ्ले दरवाजे कुत्ते रसोई में घुस कर बर्तन साफ कर रहे है!...चुगली और निंदा करना तो मानों महिलाओं के सिवाय किसीके बस की बात है ही नहीं!....इ. तरह के हास्य व्यंग और लेख लिख कर,पुरुषों द्वारा महिलाओं की छ्बी बिगाडी गई है..!...क्या वास्तव में महिलाएं इतनी बेवकूफ या खौफनाक होती है? ...क्या महिलाएं मानने को तैयार है कि वे 'ऐसी ही है?...'

    ...पुरुष वर्ग माफ करें!...मैने 'पुरुषों द्वारा.. इसलिए कहा..क्यों कि सदियों से लेखन और व्यंग्य-चित्र बनाने में पुरुषों का ही अधिपत्य रहा है!...आज भी आप देख सकते है कि पुरुषों के मुकाबले महिला ब्लॉगर्स की संख्या बहुत कम है!

    ...धन्यवाद संगिताजी! कविता वाकई में मनोरंजक है!...अब आप की नई रचना के लिए लंबी
    टिप्पणी ले कर दो महिने बाद हाजिर हो जाउंगी, तब तक के लिए इजाजत!

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  4. अरुणा जी ,
    यदि इस काल्पनिक रचना से आपको ठेस पहुंची है तो क्षमा चाहूंगी ..यह मात्र एक हास्य है ... और सबसे बड़ी बात खुद पर हास्य लिखना सरल नहीं होता .. नारी जो है उसका वर्चस्व पुरुष भी मानते हैं और अपनी कुंठा को ही निकालने के लिए ऐसे दृश्य दिखाते हैं जैसा आपने लिखा ...

    रही बात मेरे लिखे की तो यह रचना मैंने १९७२ में लिखी थी जब नारियाँ ज्यादातर घर से बाहर भी कम ही निकलतीं थीं .. उनकी चर्चा के विषय भी कुछ बहुत ज्यादा नहीं होते थे ..छोटी कॉलोनिज़ के क्लब्स ऐसा ही दृश्य उपस्थित करते थे ... मैं स्वयं शादी के बाद से १९७६ से २००६ तक विभिन्न स्थानों पर जहाँ जहाँ पति की पोस्टिंग हुई लेडीज़ क्लब की सदस्य रही हूँ ... और मैंने पाया है कि धीरे धीरे इस तरह के क्लब्स में नारियों की सोच का दायरा बदला है ...और इन क्लब्स के माध्यम से बहुत सामजिक क्षेत्र में काम किये जाते हैं ..
    मैंने खुद बहुत काम किये हैं और करवाए हैं ..जैसे , आई कैम्प , परिवार नियोजन के लिए शिविर , आदिवासी इलाकों में गरीबों के लिए वस्त्र और भोजन कि व्यवस्था , जब सुनामी का प्रकोप हुआ था तब हमारी संस्था ने अंडमान निकोबार तक अनाज और वस्त्र पहुंचाए थे ..

    आपने अपने लेडीज़ क्लब की बात की है तो वो तो मात्र स्वयं कि खुशी के लिए हैं ..मौज मस्ती के लिए , चर्चाएँ आप कर लें पर क्या कभी कुछ समाधान भी खोजा है ...?

    मेरा मानना है जो है वो कहीं कुछ छुपता नहीं है ... इसे मात्र एक हास्य रचना समझ कर पढ़े .

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  5. अरुणा जी ,
    खास बात छूट गयी ... आपकी यात्रा मंगलमय हो ..बहुत बहुत शुभकामनायें

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  6. बहुत ही मज़ेदार हास्य व्यंग्य्………आनन्द आ गया।

    आपकी रचना यहां भ्रमण पर है आप भी घूमते हुए आइये स्‍वागत है
    http://tetalaa.blogspot.com/

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  7. ...धन्यवाद संगीता जी!...आप के बारे में जान कर मुझे बहुत खुशी हुई!... महिलाएं असल में ऐसी ही होती है!...अपनी तरफ से कम या ज्यादा योगदान दे कर सामाजिक कार्यों में लिप्त रहती है!..मुझे शिकायत उन पुरुष लेखक और चित्रकारों से है, जिन्हों मे अपनी कलम या कला का उपयोग महिलाओं को निम्न-स्तरीय दिखाने में किया है!..आप की प्रस्तुत रचना सही में मनोरंजक है, तभी तो मुझे टिप्पणी देने में मजा आया!...

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  8. महिलाओं का एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी इससे ऊपर नहीं ... अब तो पुरूषों का भी यही हाल है ! पहले होता था पुरुषार्थ अब तो हैं बड़े बाल , खड़े बाल और साथ में बिल्ली सी चालवली देखनेवाली पत्नी - हाहाहा
    just imagine

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  9. आजकल की कतिपय फैशनपरस्त महिलाओं की संकुचित सोच पर करारा प्रहार किया है ! लेकिन अब महिलायें भी सामाजिक सरोकारों के प्रति गंभीर हो रही हैं और उनकी किटी पार्टीज़ में चर्चा के विषयों में भी खासा बदलाव आया है ! फिर भी मनोरंजन से भरपूर एक रोचक रचना ! पढ़ कर आनंद आया !

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  10. रश्मी दी की बातों से मै भी सहमत हूँ ....आज भी अधिकतर क्लब मेम यही महौल है ,अन्तर सिर्फ़ इतना हो गया है कि अब महिलायें यह दिखाती हैं कि वो तो ऐसा नहीं करती है ...वैसे लेख पढ़ कर आनन्द आया ...सादर !

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  11. बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों में व्‍यक्‍त किया है आपने ...एक सच यह भी है ..बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  12. ११ महिलाओ के बाद एक पुरुष कि प्रथम टिपण्णी . हम तो पढ़कर चुपके से खिसक लेंगे . ज्यादा चूं -चां नहीं करता . हँसता हुआ जा रहा हूँ .

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  13. सार्थक रचना पर दीदी आप एसी जगह कहाँ फंस गई थी आगे से जरा ध्यान रखना :)

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  14. खूबसूरत कविता ... बढ़िया व्यंग्य... एक लेडीज़ क्लब मेरे गाँव में होता है जहाँ काम करने वाली औरतें सब कुछ भूल कर बारहमासा, बटगब्नी गाती हैं... एक अलग दुनिया है उन औरतो का... कभी करीब से देखिये उन्हें...

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  15. ही ही ही ..दी ! बचपन में मम्मी की किट्टी में एक दो बार गई थी तो तब वहां तम्बोला ही हुआ करता था या शायद एक वही हमें समझ आया करता था.शादी के बाद एक पड़ोसन जबरदस्ती एक बार एक किट्टी में ले गई और आपकी कविता जैसा ही कुछ नजारा था वहां :) अब क्या बताऊँ आपको कि कैसे वो ३ घंटे वहां काटे मैंने :) शायद स्वादिष्ट भोजन के इंतज़ार में :)

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  16. हा-हा-हा..
    सही दृश्य खींचा है।

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  17. बहुत से लेडीज़ क्लब की हालत इससे बेहतर नहीं है ...जहाँ कुछ सार्थक चिंतन नहीं या हल ढूँढने की कोशिश नहीं हो , वहां इकट्ठा होने से क्या फायदा ...

    शानदार हास्य व्यंग्य !

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