बापू
बापू
- रामधारी सिंह दिनकर
संसार पूजता जिन्हें तिलक, रोली, फूलों के हारों से,
मैं उन्हें पूजता आया हूँ बापू ! अब तक अंगारों से।
अंगार, विभूषण यह उनका विद्युत पीकर जो आते हैं,
ऊँघती शिखाओं की लौ में चेतना नयी भर जाते हैं।
उनका किरीट, जो कुहा-भंग करके प्रचण्ड हुंकारों से,
रोशनी छिटकती है जग में जिनके शोणित की धारों से।
झेलते वह्नि के वारों को जो तेजस्वी बन वह्नि प्रखर,
सहते ही नहीं, दिया करते विष का प्रचण्ड विष से उत्तर।
अंगार हार उनका, जिनकी सुन हाँक समय रुक जाता है,
आदेश जिधर का देते हैं, इतिहास उधर झुक जाता है।
आते जो युग युग में मिट्टी का चमत्कार दिखलाने को,
ठोकने पीठ भूमण्डल की नभ-मंडल से टकराने को।
अंगार हार उनका, जिनके आते ही कह उठता अम्बर,
‘हम स्ववश नहीं तबतक जबतक धरती पर जीवित है यह नर’।
अंगार हार उनका कि मृत्यु भी जिनकी आग उगलती है,
सदियों तक जिनकी सही हवा के वक्षस्थल पर जलती है।
पर तू इन सब से परे; देख तुझको अंगार लजाते हैं,
मेरे उद्वेलित-ज्वलित गीत सामने नहीं हो पाते हैं।
दिनकर की बापू पढ़ने का अवसर मिला है। सामयिक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंनमन है इस श्रेष्ठ हस्ती को
जवाब देंहटाएंसचमुच बापू के सामने प्रचंड उग्रता भी दम तोड़ देती थी। बापू पर दिनकरजी कविता बहुत दिनों बाद पढ़ने को मिली। सुखद लगा। आभार और बापू को शत-शत नमन।
जवाब देंहटाएंbhut beautiful
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