सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

भारतीय काव्यशास्त्र पर चर्चा

भारतीय काव्यशास्त्र पर चर्चा

-परशुराम राय

नियतिकृतनियमरहितांहलादैकमयीमनन्यपरतन्याम्।

नवरसरुचिरां निर्मितिमादधती भारती कवेर्जयति।।

काव्यप्रकाशकार आचार्य मम्मट ने इसी कारिका से अपने ग्रंथकाव्यप्रकाश का मंगलाचरण किया है। काव्यशास्त्रके तत्वों को पाठकों तक पहुँचाने के लिए इसी कारिका से कवियों की वाणी, जो प्रकृति की सृष्टि के नियमों से रहित है, केवल आह्लादकारक है,किसी पर आश्रित नहीं है और नवरस से युक्त होकर काव्य सृजन को मनोरम बनाती है, का स्मरण करता हूँ।

मित्रों के बीच साहित्यिक गपशप के दौरान प्रायः काव्यशास्त्र पर चर्चा होती रही। इस ब्लाग के शुरू होने के बाद मनोज कुमार जी ने कई बार कहा कि इस पर भी कुछ लिखा जाए। किन्तु आलस्य और हिन्दी में सन्दर्भ ग्रंथों का अभाव बहुत बड़ी बाधाएँ हैं। साथ ही समय का अभाव और रुचि का खो जाना आग में घी जैसे काम करने लगे। परन्तु मनोज कुमार जी की विषय के प्रति जिज्ञासा और उनका प्रोत्साहन इस विषय पर कुछ लिखने के लिए प्रेरित करते हैं। अतएव सोचा कि कम से कम भारतीय काव्य शास्त्र के ऐतिहासिक पटल, काव्य के विभिन्न अंग- रस, छंद, अलंकार,रीति, गुण, दोष आदि की परिचयात्मक भूमिका ब्लाग के पाठकों के लिए दी जाए। वैसे भीअब मूल ग्रंथ धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं। क्योंकि छात्र प्रश्नोत्तरियों से ही काम चला ले रहे हैं। मूल ग्रथों का अध्ययन करने की न उनमें सामर्थ्य है, न साहस और न ही रुचि। अतएव इनका प्रकाशन धीरे-धीरे बन्द हो रहा है।

इस शृंखला को शुरू करने के पहले हिन्दी में जिन ग्रंथों की आवश्यकता महसूस हुई, उनका प्रकाशन बन्द हो चुका है। इसके बाद मन में आया कि क्यों न उपलब्ध संस्कृत काव्यशास्त्रों को ही आधार बनाकर अपनी बात कही जाए। वैसे भी भारतीय या पौर्वात्य काव्यशास्त्र का पूर्ण विकास संस्कृत में ही मिलता है। वर्तमान काल में समीक्षा की धारा पाश्चात्य पद्धति पर चल पड़ी है।

पता नहीं इस विषय का चुनावब्लाग के पाठकों को पसन्द आएगा या नहीं। पर, आशा है यह कुछ लोगों में जिज्ञासा उत्पन्न करने में सहायक होगा और जो जिज्ञासु हैं उनमें थोड़ा-बहुत आश्चर्य उत्पन्न करेगा।

आगे बढ़ने के पहले आचार्यों की सर्वसम्मत दृष्टि में काव्यशास्त्र की परिभाषा करना अच्छा रहेगा। साथ ही यह जानना कि इस शास्त्र को किस-किस नाम से जानते हैं।

काव्य के तत्वों की व्याख्या या काव्य के विज्ञान को स्पष्ट करने वाले शास्त्र को काव्यशास्त्र कहते हैं। या जिस शास्त्र से काव्य के सौंदर्य को समझा जा सके उसे काव्यशास्त्र कहते हैं, या काव्य के विभिन्न अंगों और आयामों को सम्यक रूप से प्रतिपादित करने वाले या इनकी विवेचना करने वाले शास्त्र को काव्यशास्त्र कहते हैं।

काव्यशास्त्र के लिये कई नाममिलते हैं, यथा- काव्यालंकार,अलंकार शास्त्र, सौन्दर्यशास्त्र,काव्यसौन्दर्यशास्त्र, साहित्यशास्त्र और क्रियाकल्प। प्रत्येक नाम के पीछे आचार्यों ने अपनी-अपनी युक्तियाँ दी हैं। इन युक्तियों पर चर्चा करना यहाँ आवश्यक प्रतीत नहीं होता, अतएव इस विषय को यहीं छोड़ना ठीक रहेगा। भारतीय काव्यशास्त्र की लगभग दो हजार वर्षों की एक लम्बी ऐतिहासिक यात्रा है। इसमें कई वादों (Isms)की आधारशिलाएँ देखने को मिलती हैं। ऐतिहासिक चर्चा के दौरान इस पर आगे प्रकाश डाला जाएगा।

हमारे यहाँ भारतीय परम्परा या सोच है कि सभी विद्याओं, कलाओं और शास्त्रों का उद्गम वेदों से हुआ है और काव्यशास्त्र के साथ भी ऐसा ही है। वैसे छः वेदांग माने गए हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण,निरुक्त, छन्द और ज्योतिष। इसमें साहित्य या साहित्यशास्त्र का नाम नहीं है। लेकिन यह सत्य है कि साहित्यशास्त्र जिन काव्यांगों की विवेचना करता है, यथा गुण, रीति,अलंकार आदि ये सभी वेदों में उपलब्ध हैं।

लेकिन निरुक्तकार महर्षि यास्क ने निरुक्त के तीसरे अध्याय के तीसरेपाद में अपने पूर्ववर्ती आचार्य गार्ग्यके मत का उल्लेख करते हुए उपमा अलंकार की निम्नलिखित परिभाषाकी हैः

1. ‘‘यद् अतत् तत्सदृशं तदासां कर्म इति गार्ग्यः

2. “ज्यायसा वा गुणेन प्रख्याततमेन वा,

कनीयांसं वा अप्रख्यातं वा उपमिमीते’’

3. ‘‘अथापि कनीयसा ज्यायांसम्’’

अर्थात्

1. जो ऊपर से भिन्न दिखने पर (भी) उसके सदृश हो वह इनका (उपमा का) कर्म (विषय) होताहै, ऐसा गार्ग्य का मत है।

2. अधिक गुण वाले अथवाप्रख्याततम (उपमान) के साथकम गुणवाले अथवा अप्रख्यात(उपमेय) का सादृश्य उपमा मेंदिखाया जाता है।

3. न्यून गुणवाले (उपमान) केसाथ अधिक गुणवाले (उपमेय) की समानता की भी उपमा होती है।

अर्वाचीन काव्यशास्त्री भी उपमा की उक्त परिभाषा स्वीकार करते हैं,लेकिन तीसरी स्थिति को दोष की दृष्टि से देखते हैं और इसे हीनोपमामानते है, जबकि निरुक्तकार इसे भीनिर्दोष उपमा ही मानते हैं। इसके उदाहरण में उन्होंने ऋग्वेद का निम्नलिखित मंत्र दिया हैः

तनुत्यजेव तस्करा वनर्गूरशनाभिर्दशभिरभ्यधीताम्

इयन्ते अग्ने नव्यसी मनीषा युक्ष्वा रथं शुचयद्भिरङ्गः।।

यहाँ पर इन्द्रियों के संयम के लिएतस्करों की दृढ़ता को उपमानबताया है। अतएव निरुक्तकार इस हीनोपमा को दोषपरक नहीं मानते।

यही नहीं निरुक्त की भाँति ही व्याकरण-शास्त्र में भी उपमा अलंकार एवं उसके भेदों का निरूपण किया गया है। अष्टाध्यायी में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है-

तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यांतृतीयान्यतरस्याम्’ (अष्टा.2-3-72)

उपमानानि सामान्य वचनैः’ (अष्टा.2-1-55)

उपमितं व्याप्प्रादिभिःसामान्यप्रयोगे’ (अष्टा.2-1-56)

अपने ग्रंथ काव्यमीमांसा मेंराजशेखर ने पौराणिक शैली में एक कथा के माध्यम सेकाव्यशास्त्र के उद्गम का विवरण देते हुए एक कथानक का उल्लेख किया है।

कथानक के अनुसार भगवानश्रीकण्ठ ने परमेष्ठी, वैकुण्ठ, स्वयम्भू आदि चौंसठ शिष्यों को इस विद्या (काव्यशास्त्र) का उपदेश दिया । उनमें से प्रथम शिष्य भगवान स्वयम्भू ने अपनी इच्छा से उत्पन्न शिष्यों को इस विद्या का उपदेश दिया। इनमें एक सरस्वती पुत्र काव्यपुरुष थे। भगवानस्वयम्भू ने दिव्यदृष्टियुक्त भविष्यज्ञाता काव्यपुरुष को तीनों लोकों की प्रजा की हितकामना से काव्यविद्या (काव्यशास्त्र) का प्रचार करने के लिए नियुक्त किया। काव्यपुरुष ने सर्वप्रथम सहस्त्राक्ष आदि काव्यविद्या के दिव्य स्नातकों को अठारह भागों में विभक्त काव्यशास्त्र का उपदेश दिया। उनमें से प्रत्येक ने इस विद्या के एक-एक भाग का विशिष्ट ज्ञान अर्जित कर अपने-अपने विषय के अलग-अलग ग्रंथों की रचना की। इनके विवरण नीचे दिए जा रहे हैं:

नाम ग्रंथ/विषय

1. सहस्त्राक्ष(इन्द्र) कवि-रहस्य

2. उक्तिगर्भ उक्ति विषयक ग्रंथ

3. सुवर्णनाभ रीति विषयक ग्रंथ

4. प्रचेता अनुप्रास विषयक ग्रंथ

5. यम यमक सम्बन्धी

6. चित्राङ्गद चित्रकाव्य विषयक

7. शेष शब्दश्लेष पर

8.पुल्स्त्य वास्तव (स्वभावोक्ति) पर

9. औपकायन उपमा अलंकार पर

10. पाराशर अतिशयोक्ति पर

11. उतथ्य अर्थश्लेष पर

12. कुबेर उभयालंकार (शब्द और अर्थ) पर

13. कामदेव विनोद सम्बन्धी

14. भरत नाट्यशास्त्र

15. नन्दिकेश्वर रस पर

16. धिषण(वृहस्पति) काव्यदोषों पर

17. उपमन्यु काव्य के गुणों पर

18. कुचमार उपनिषद सम्बन्धी विषयों पर

इस तरह भिन्न-भिन्न विषयों पर ग्रंथों की रचना से काव्यविद्या अनेक भागों में विभक्त होकर छिन्न-भिन्न हो गयी। अतएव काव्यविद्या के सभी आवश्यक विषयों को संक्षेप में मेरे द्वारा अठारह अधिकरण (अध्याय/परिच्छेद) से युक्त इस काव्यमीमांसा नामक ग्रंथ की रचना की गयी।

इस आख्यायिका का उल्लेख काव्यमीमांसा के अतिरिक्त किसी अन्य ग्रंथ में नहीं मिलता। इसलिये यह आख्यायिका कितनी प्रामाणिक है, कहना कठिन है। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि उक्त ग्रंथकारों के एक भी ग्रंथ नहीं मिलते हैं। हो सकता है कि काव्यमीमांसाकार ने अपनी बात कहने के लिए प्रतीकों का सहारा लिया हो। वैसे भी, सभी शास्त्रों,विद्याओं का उत्स यदि हम परम बोधि को मानते हैं, तो राजशेखर द्वारा प्रतीकों के माध्यम से इस विद्या के अवतरण को उसी परम सत्ता से मानना अनावश्यक नहीं प्रतीत होता। इसे एक विचारधारा माना जा सकता है, भले ही ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक न हो।

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