भारत सरकार के अधीनस्थ कार्यालयों में `ग` क्षेत्र के लिए 55 प्रतिशत हिंदी में पत्राचार करने का लक्ष्य है। ‘ग’ क्षेत्र यानी हिंदीतर भाषी क्षेत्र। ‘क’ और ‘ख’ क्षेत्र के लिए यह लक्ष्य और भी ज़्यादा है। 1949 में केन्द्रीय सरकार द्वारा यह तय किया गया था कि सरकारी काम काज में हिंदी का उपयोग किया जाएगा।
कितने आश्चर्य की बात है कि विश्व में एकमात्र हिन्दी ही ऐसी भाषा है जिसमें शब्द जैसा लिखा जाता है, उसे, ठीक वैसा ही पढ़ा जाता है। भारत में यद्यपि प्रान्तीय भाषाओं का प्रचलन काफी अधिक है परन्तु पूरे देश में एकमात्र हिन्दी ही ऐसी भाषा है जिसे सभी प्रान्तों के लोग अच्छी तरह समझ और बोल पाते हैं। वैसे तो भारतीय साहित्य की प्रांजलता, विविधता में एकता और सरसता, भारतवर्ष जैसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में प्रचलित विभिन्न भाषाओं के अमूल्य योगदान में निहित है, फिर भी जन सामान्य द्वारा बोली, पढ़ी और लिखी जाने वाली भाषा हिन्दी को ही केन्द्रीय सरकार ने राजकाज की भाषा का दर्ज़ा प्रदान कर उसे एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया है। राजभाषा के रूप में हिन्दी को अपनाने के पीछे सबसे बड़ा कारण हिन्दी का सरल, सुबोध और प्रचलित होना था। केन्द्र सरकार के स्तर पर राजभाषा हिन्दी को सरकारी कामकाज में प्रचलित करने के लिए अब तक अनेक प्रयास किए जा चुके हैं। क्या ये प्रयास नाकाफ़ी हैं?
कैसी विडंबना है कि विदेशों में हिन्दी को विश्वभाषा का सम्मान प्राप्त है और भारत में उसे राजभाषा का सम्मान दिलाने के लिए कठोर नीतियां अपनानी पड़ती है। पश्चिमी देशों के लोग हिन्दी को अपनाकर भारत की अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर को जानना और समझना चाह रहे हैं और हम हैं कि विदेशी चकाचौंध के मोह से मुक्त नहीं हो पा रहे।
मेंडरिन के बाद दुनिया भर में हिंदी सबसे ज़्यादा लोगों द्वारा बोली जाती है। इनमें भारतीय मूल के लोगों के अलावा विदेशी भी हैं। हिंदी बोलने वाले विदेशियों की संख्या 24 लाख से भी ज़्यादा है। हिंदी अब विश्वस्तरीय हो चुकी है। पश्चिम के लोगों में हिंदी पढ़ने और लिखने में दिलचस्पी काफी बढ़ी है।
जहां एक ओर कई लोग पश्चिमी संस्कृति के प्रभाववश अंग्रेजी का गुणगान करते रहते हैं वहीं सारे संसार में कई ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने भारत के न होते हुए भी हिन्दी प्रचार प्रसार में अहम योगदान दिया है। अपने जीवन के किसी मोड़ पर उनका हिन्दी से परिचय हुआ और वे रंग गए हिंदी के रंग में और कर गए कुछ खास हिंदी भाषा के लिए। बेल्जियम के वेस्टफ्लैडर्स प्रांत में 1909 में जन्मे बुल्के को उनके परिवार वाले तो इंजीनियर बनाना चाहते थे लेकिन रोम के ग्रिगोरियन विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र से स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल करते वक्त उनका परिचय भारतीय दर्शन से भी हुआ। बस वे 1935 में भारत चले आए और तुलसी साहित्य पढ़ने के लिए हिंदी सीखने लगे और हिंदी सीखने के क्रम में संस्कृत भी सीख लिए। 1945 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत की डिग्री भी प्राप्त किया। बाद में रामकथा पर शोधकार्य पूरा किया और रामकथा – उत्पत्ति और विकास नमक ग्रंथ भी लिखा। रांची के सेंट जेवियर्स महाविद्यालय में हिंदी पढ़ाते रहें। भारत का हर हिंदी भाषा से प्रेम रखनेवाला उनकी अंग्रेजी हिंदी शब्दकोश से ज़रूर परिचित होगा। बाइबिल का नीलपक्षी नाम से हिंदी में अनुवाद किया।
रूपर्ट स्नेलल लंदन विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्राचार्य हैं। हित चौरासी नामक ग्रंथ पर उन्होंने शोध किया है और हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा का अंग्रजी में अनुवाद किया है। वे ब्रजभाषा में कविताएं लिखते हैं तथा अच्छी हिंदी बोलते हैं। विदेशी छात्रों की सुविधा के लिए टीच योरसेल्फ हिंदी और बिगिनर्स हिंदी स्क्रिप्ट भी लिखी है।
चेकोस्लोवाकिया में 1928 में जन्मे ओदोलेन स्मेकल हिंदी में एम.ए. हैं और पीएचडी भी किया है। हिंदी में कविताएं लिखते हैं तथा प्राग विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य की कई रचनाओं का चेक भाषा में अनुवाद किया है। इसके अलावा उन्होंने हिंदी वार्तालाप, हिंदी पाठमालाए हिंदी भाषा, हिंदी क्रियाएं जैसी पुस्कें भी लिखी है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय के सहयोग से चेक हिंदी शब्दकोश भी तैयार किया है।
पोलैंड निवासी मारिया ब्रिस्की ने हिंदी को समझने के लिए काशी हिंदू विश्वविद्यालय से संस्कृत की पढ़ाई की। उन्होंने भारतीय रचनाकारों की कविताओं का पोलिश भाषा में अनुवाद किया। हिंदी भाषी नाटकों के द्वारा उन्होंने हिंदी का विस्तार किया।
जर्मनी के लोठार लुत्से भारत में जर्मनी के सांस्कृतिक केंद्र मैक्समूलर केंद्र के निदेशक रहे। उन्होंने हिंदी सीखी और हदी में बातचीत करते थे। विष्णुखरे और अशोक वाजपेयी की कविताओं का अनुवाद भी किया।
रूस के पीए वारान्निकोवा ने रामायण का रूसी भाषा में अनुवाद किया है। मास्को विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं और भारतीय समाचार पत्रों के लिए आलेख लिखते हैं।
जापान के मिवाको कोईजुका ने हिंदी के सिनेमा के द्वारा जापान में हिंदी शिक्षण में नई क्रांति ला दी। हिंदी के धारावाहिक रामायण को हिंदी पाठ्यक्रम के सामग्री में शामिल किया।
सही मायनों में ये विदेशी हिंदी के सच्चे हिमायती रहे हैं। उनके लिए हिंदी उतनी ही अपनी है जितनी हमारे लिए। विश्व बाजार में भारत की बढ़ती आर्थिक हैसियत ने विश्व को इस आर्थिक हैसियत का लाभ उठाने के लिए हिंदी की ओर आकर्षित किया है। भारत के रीति-रिवाज, धर्म संस्कृति और प्राचीन भारत दर्शन विदेशियों को हिंदी सीखने के लिए प्रेरित कर रहा है। इसके अलावा भारतीय साहित्य और साहित्यकारों, कवियों की अंतरराष्ट्रीय ख्याति भी विदेशियों में हिंदी के प्रति ललक पैदा करती है।
इन विदेशी विभूतियों का हिन्दी प्रेम प्रेरणादायक है. वैसे लिखे हुए को जैसे का तैसा पढ़ने की क्षमता तो देवनागरी लिपि की खूबी हुई न की हिन्दी भाषा की.
जवाब देंहटाएंजानकारी देता आलेख अच्च्छा लगा.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख है!
जवाब देंहटाएंआपकी बातें समर्थन के योग्य हैं!
--
अंतरजाल पर विचरते
कुछ भारतवासियों की
गतिविधियों को देखकर
मुझे तो कभी-कभी
ऐसा लगता है -
वे अँगरेज़ी को पूरी तरह से
भले ही न सीख पाएँ,
पर हिंदी-लेखन की लिपि को तो
देवनागरी को स्थान पर रोमन
बनाकर ही छोड़ेंगे!
--
कह रहीं बालियाँ गेहूँ की - "मेरे लिए,
नवसुर में कोयल गाता है - मीठा-मीठा-मीठा!"
--
संपादक : सरस पायस
अच्छी जानकारी!
जवाब देंहटाएंhttp://www.lib.washington.edu/subject/SouthAsia/guides/hindilit.html
जवाब देंहटाएंhttp://onlinebooks.library.upenn.edu/webbin/book/browse?type=lcsubc&key=Sanskrit%20literature%20--%20Translations%20into%20English&c=x
हटाएं