वसन्त का आगमन हो चुका है. १४फ़रवरी भी निकट ही है. ऐसे में वातावरण में एक संगीत सा रच बस गया है. ऐसे में मुझे श्यामनारायण मिश्र जी की एक छोटी कविता याद आ रही है. उसे ही आज पेश करता हूं.
मन-मस्तिष्क सितार हो गए
तुमने नेह-नज़र से देखा
सब अभाव अभिसार हो गए.
मनु के एकाकी जीवन में
श्रद्धा के अवतार हो गए.
हर मौसम वसंत का मौसम
रात चांदनी रात हो गई.
कांटों के जंगल में जैसे
फूलों की बरसात हो गई.
जब से छेड़ दिया है तुमने
मन-मस्तिष्क सितार हो गए.
तुमने नेह-नज़र से देखा
सब अभाव अभिसार हो गए.
मनु के एकाकी जीवन में
श्रद्धा के अवतार हो गए.
बहुत भाव पूर्ण अभिव्यक्ति ....कविता को पढ़कर हम भी निहाल हो गए
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..... बसंत का रंग जमना ही चाहिए ....शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंप्रणाम
आपको एक मेल भेजा है कृपया चैक कर लें
जवाब देंहटाएंबहुत ही ख़ूबसूरत कविता है..
जवाब देंहटाएंसुन्दर...अति सुन्दर..
जवाब देंहटाएंवाह...वाह...वाह...
जवाब देंहटाएंमनमोहक प्रवाहमयी अतिसुन्दर गीत.....
bahut sundar prastuti...abhaar
जवाब देंहटाएंकहा आगंतुक ने सस्नेह! मनु और श्रद्धा के माध्यम से एक अद्भुत शृंगार दर्शन हुए मिश्र जी की कविता के माध्यम से..
जवाब देंहटाएंगज़ब की मनभावन श्रृंगार रस की उत्तम अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंवसन्त ऋतु के संदर्भ में स्व.मिश्रजी की कविता बड़ी ही मोहक है। प्रस्तुति के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा रचना!
जवाब देंहटाएंबसन्तपञ्चमी की शुभकामनाएँ!
तुमने नेह नजर से देखा
जवाब देंहटाएंसब अभाव अभिसार हो गए,
मनु के एकाकी जीवन में
श्रद्धा के अवतार हो गए।
जयशंकर प्रसाद की कामायनी याद आ गयी। मनु और श्रद्धा का मिलन..........।बहुत सुंदर प्रस्तुति।
बहुत सुन्दर
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