मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

इतिहास-मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-5 समापन)

इतिहास

मध्यकालीन भारत

धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-5 समापन)

मनोज कुमार

मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-१)

मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२)
मध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-3)
मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-४)

मध्यकालीन भारत के इन उपदेशकों की शिक्षा के प्रभाव का हम आकलन करें तो पाते हैं कि, ऐसे आंदोलन पूर्वकाल में भी हुए थे पर मध्य काल में हुए भक्ति आंदोलन द्वारा हिन्दू धर्म एवं समाज सुधार पर विशेष बल दिया गया। खासकर जातिप्रथा के विरुद्ध तो एक ज़ोरदार आवाज़ उठी। साथ ही इस आंदोलन के द्वारा हिन्दू मुस्लिम एकता की वकालत भी की गई। इस काल में भक्ति आंदोलन का वैष्णव पंथ काफी लोकप्रिय हुआ। हालाकि इस काल के उपदेशक अलग-अलग सीख दे रहे थे, फिर भी उन सब में कई बातें सामान्य थीं, जैसे इष्ट देव का होना, मोक्ष की प्राप्ति, जाति प्रथा का विरोध, निचले तबके के लोगों एवं स्त्रियों के उत्थान के प्रति सजगता।

अत: हम यह कह सकते हैं कि उन दिनों एक क्रान्तिकारी विचारधारा प्रवाहित हो रही थी जिसमें न सिर्फ़ कमज़ोर तबके के लोगों को समाहित किया गया बल्कि उसमें स्त्रियाँ भी शामिल थीं। उत्तर भारत में परिवर्तन की बयार चतुर्दिक् बह रही थी। पंजाब में गुरु नानक देवजी, रास्थान में भक्त मीराबाई, महाराष्ट्र में संत तुकाराम, बंगाल में चैतन्य महाप्रभू, उत्तर प्रदेश और बिहार में संत रामानंद उल्लेखनीय हैं। इसके परिणामस्वरूप हिन्दू समाज में एक नई जागरूकता का आविर्भाव हुआ। किन्तु भौगोलिक रूप से (दुर्भाग्यवश) यह आंदोलन अखिल भारतीय रूप न ले सका। ऐसा प्रतीत होता है कि भक्त संतों के प्रयास क्षेत्रीयता में ही सिमटकर / संगठित होकर रह गए।

इस काल में न तो कोई खारवेल था और न ही कोई चंद्रगुप्त, न तो कोई अशोक था और न ही कोई कनिष्क, जो इस काल के भक्त संतों और उनके आंदोलन को संरक्षण प्रदान करता। आम तौर पर सुल्तान अपनी हिन्दू प्रजा के धार्मिक क्रिया-कलापों में दख़लअंदाजी न देने की तटस्थ नीति अपनाते थे।

एक तो सामाजिक एकता का अभाव था, समाज जाति एवं वर्ग में विभाजित था, जिसका प्रभाव सम्प्रदायों पर भी पड़ता रहा। दूसरे किसी भी भक्त संत को शासक वर्ग का संरक्षण नहीं मिला। इस काल में न तो कोई खारवेल था और न ही कोई चंद्रगुप्त, न तो कोई अशोक था और न ही कोई कनिष्क, जो इस काल के भक्त संतों और उनके आंदोलन को संरक्षण प्रदान करता। आम तौर पर सुल्तान अपनी हिन्दू प्रजा के धार्मिक क्रिया-कलापों में दख़लअंदाजी न देने की तटस्थ नीति अपनाते थे।

इसके अलावा, संत रामानुज के बाद ब्रह्मणों ने इस आंदोलन को नेतृत्व प्रदान नहीं किया। समाज के निम्न वर्ग के लोग न तो अच्छी तरह से संगठित थे न ही उनके पास पर्याप्त संसाधन था, सिवाय सिखों के पंथ के, कि वे अपने पंथ को एक संगठनात्मक ढ़ाँचा प्रदान कर पाते। एक बार ये संत जब दृश्य से हट गए तो उनका प्रभाव क्षीण होता गया।

एक अन्य कारण यह था कि इनमें से कई संतों ने हिन्दू धर्म के समानान्तर पंथ चलाने का प्रयास लक्षित नहीं किया। उन्होंने ब्रह्मणवादी कुछ मूल-भूत धारणाओं पर प्रहार ज़रूर किया पर पूरे के पूरे ढ़ांचे को बदलने की इच्छा ज़ाहिर नहीं की। जिन कुप्रथाओं को बदलने का प्रयास वे कर रहे थे वे हमारी संस्कृति में काफी गहरी जड़ें जमा चुकी थीं, जिन्हें उखाड़ना आसान नहीं था। अत: रूढ़िवादी समाज में एक बड़ी सफलता प्राप्त करना आसान नहीं था। मध्यकालीन यूरोप के सुधारकों की तरह ये सुधारक कुप्रथाओं के विरुद्ध जनता के बीच अपनी आवाज़ बुलन्द करने के लिए शस्त्र लेकर उठ खड़े नहीं हुए थे।

जिन कुप्रथाओं को बदलने का प्रयास वे कर रहे थे वे हमारी संस्कृति में काफी गहरी जड़ें जमा चुकी थीं, जिन्हें उखाड़ना आसान नहीं था। अत: रूढ़िवादी समाज में एक बड़ी सफलता प्राप्त करना आसान नहीं था।

हिन्दू धर्म में प्रचलित मान्यता रही है कि जो भी हो रहा है वह ईश्‍वर की मर्ज़ी से हो रहा है। नियतत्ववाद और यतित्ववाद के कारण भी इस आंदोलन का व्यापक प्रसार नहीं हो पाया। सांसारिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य के अभाव में यह आंदोलन आंशिक रूप से ही सफल हुआ एवं समाज में अधिक दिनों तक व्यापक रूप से बना नहीं रह सका। फिर भी यह पृथक् एवं छोटी इकाई के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराता रहा। ये सभी कारक सम्मिलित रूप से इस आंदोलन के अखिल भारतीय रूप न ले पाने की व्याख्या करते हैं और अंत में यह कहना होगा कि इस आंदोलन के नेताओं के बीच शायद ही कोई तालमेल था।

मध्यकालीन भारत में जब मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने धार्मिक सहनशीलता की नीति का प्रयोग किया तो इस्लामी रूढ़िवादिता के कारण असफल रहा किन्तु उसके दो शताब्दियों के बाद इसी तरह के प्रयोग में अकबर को असाधारण सफलता मिली। बीच की ये दो शताब्दियां धार्मिक आंदोलन का काल थीं। इन संतों ने सहनशीलता व उदारता का एक वातावरण तैयार कर दिया था।

किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि य‍ह आंदोलन बेअसर रहा। यह सही है कि जाति प्रथा की समाप्ति नहीं हुई, फिर भी इसने जाति प्रथा के सिद्धांत को चुनौती तो अवश्य ही दी। अन्तरजातीय भोजन एवं अन्तरजातीय विवाह की दृढ़ता में निश्चित रूप से कमी आई। तत्कालीन परिस्थितियों पर ध्यान दें तो हम पाते हैं कि उन्होंने सार्थक प्रयास किये और उनकी छोटी सफलता भी काफी बड़ी एवं प्रशंसनीय है। सीमाओं के बावज़ूद इस आंदोलन की उपलब्धियाँ विलक्षण थीं। उन संतों के उपदेश समाज में शांतिपूर्वैक वातावरण का आधार तैयार क‍र रहे थे। पूजा एवं धर्म का सरलीकरण हो रहा था। जाति व्यवस्था की रूढ़िवादिता में शिथिलता आ रही थी।

इन संतों ने क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में महत्वपूर्ण येगदान दिया। इन लोगों ने अपने उपदेश आम लोगों की बोलचाल की भाषा में दिये। गुरु नानक देवजी ने पंजाबी में, चैतन्य महाप्रभू ने बांग्ला में, मीराबाई ने राजस्थानी में, संत तुकाराम ने मराठी में, विद्यापति ने मैथिली में, चंडीदास ने बांग्ला में, एकनाथ स्वामी ने मराठी में, शंकर देव ने असम की ब्रह्मपुत्र घाटी में असमी भाषा में, अपने-अपने उपदेश दिए एवं इन भाषाओं को लोकप्रिययता दिलाई। बिहार एवं उत्तर प्रदेश के संतों ने ब्रजभाषा एवं अवधी का प्रयोग किया। इन संतों के प्रयासों से इन भाषाओं को एक अलग पहचान मिली।

इन लोगों के प्रयासों के कारण हिन्दू-मुसलमानों के बीच एक बेहतर सौहार्द्रपूर्ण वातावरण का निर्माण हुआ। मध्यकालीन भारत में जब मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने धार्मिक सहनशीलता की नीति का प्रयोग किया तो इस्लामी रूढ़िवादिता के कारण असफल रहा किन्तु उसके दो शताब्दियों के बाद इसी तरह के प्रयोग में अकबर को असाधारण सफलता मिली। बीच की ये दो शताब्दियां धार्मिक आंदोलन का काल थीं। इन संतों ने सहनशीलता व उदारता का एक वातावरण तैयार कर दिया था जिसकी पृष्ठभूमि में मुग़ल पूरे देश पर राज कर सके जिसमें दोनों वर्गों के बीच एक बेहतर आपसी समझ-बूझ का माहौल था।

9 टिप्‍पणियां:

  1. स्मस्त ऋंखला एक ऐतिहासिक दस्तावेज है... संग्रहणीय!!

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  2. एक अच्छी ज्ञानवर्धक शृंखला का अंत हुआ। बहुत सारी जानकारी मिली। आपका आभार! ऐसे ही हमारा ज्ञानवर्धन करते रहें, यही गुज़ारिश है।

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  3. एक ग्यान्वर्धक श्रन्खला की समाप्ति के साथ नये आयोजन का इन्तजार शुरु हो गया...

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  4. हर बार की तरह यह भाग भी बहुत अच्छा रहा । और लम्बा चलता तो हमें थोड़ी बहुत जानकारी और मिल जाती ।

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  5. प्रायः हर युग में,विपरीत धाराएं रही हैं। अराजकता कभी हावी हो भी जाए तो क्या,उम्मीद बरकरार रहनी चाहिए। इसी से वह शक्ति पैदा होती है जिससे अंततः न्याय की जीत होती है।

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  6. मध्यकालीन इतिहास में मार-काट और सत्तालोलुपता का वर्णन इतने विस्तार से हुआ है कि धार्मिक सहनशीलता की ओर पर्याप्त ध्यानाकर्षण नहीं हो पाता। आपने इसके ठीक उलट प्रयास किया। आज इसी की ज़रूरत है।

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