साहित्यकार-४ ::कवि सम्राट सुमित्रानंदन पंत– प्रकृति के सुकुमार कवि |
जन्म :: 20 मई, 1900 को जन्म मृत्यु :: 28 दिसम्बर 1977 को स्थान :: उत्तर प्रदेश के जिला अल्मोड़ा के कौसानी ग्राम। शिक्षा :: प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा अल्मोड़ा में हुई। १९१८ में काशी आ गए और क्वींस कॉलेज में पढ़ने लगे। वहाँ से मैट्रिक उत्तीर्ण करने के बाद वे इलाहाबाद चले गए। १९२१ में महात्मा गांधी के आह्मवान पर उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया और घर पर ही हिन्दी, संस्कृत, बँगला और अंग्रेजी का अध्ययन करने लगे। वृत्ति :: उन्होंने इलाहाबाद आकाशवाणी के शुरुआती दिनों में सलाहकार के रूप में भी कार्य किया। १९३८ में उन्होंने ‘रूपाभ’ नामक प्रगतिशील मासिक पत्र निकाला। १९५५ से १९६२ तक आकाशवाणी से जुडे रहे व मुख्य-निर्माता के पद पर कार्य किया। कृतियां :: काव्य के अलावा आपनें आलोचना, कहानी, आत्मकथा आदि गद्य विधाओं में भी रचनायें कीं। कविता-संग्रह : उच्छवास(१९२०), पल्लव(१९२६), वीणा(१९२७), ग्रंथी (१९२९), गुंजन (१९३२), युगांत, युगांतर, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, स्वर्णधूलि, उत्तरा, कला और बूढा चाँद, चिदंबरा, लोकायतन तथा सत्यकाम, मुक्तियज्ञ, तारापथ, मानसी, रजतशिखर, शिल्पी, सौवर्ण, अतिमा, पतझड़, अवगुंठित, ज्योत्सना, मेघनाद वध। |
पंत जी हिन्दी के छायावादी युग चार के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास में प्रकृति के एक मात्र माने जाने वाले सुकुमार कवि श्री सुमित्रानंदन पंत जी का जन्म 20 मई, 1900 को उत्तर प्रदेश के जिला अल्मोड़ा के कौसानी ग्राम की हरी भरी वादियों में हुआ था। जन्म के कुछ घंटे बाद ही वे मातृस्नेह से वंचित हो गए थे। शिशु को उसकी दादी ने पाला पोसा। उनके बचपन का नाम था गुसाई दत्त। उनके पिता गंगा दत्त चाय बागान के मैनेजर थे। दस साल की उम्र में उन्होंने अपना नाम बदल कर सुमित्रा नंदन पंत रख लिया। हाई स्कूल की परीक्षा पास कर 1919 की जुलाई में बीस साल की उम्र में प्रयाग आ गये। एक साल तक कॉलेज में पढ़ाई की फिर गांधीजी से प्रभावित हो, पढ़ाई छोड़ असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। बचपन से ही काव्य प्रतिभा के धनी पंतजी ने 16 वर्ष की उम्र में अपनी पहली कविता रची “गिरजे का घंटा”। तब से वे निरंतर काव्य साधना में तल्लीन रहे। अपनी काव्य यात्रा में पन्त जी सदैव सौन्दर्य को खोजते नजर आते हें। शब्द, शिल्प, भाव और भाषा के द्वारा कवि प्रकृति और प्रेम के उपादानों से एक अत्यंत सूक्ष्य और हृदयकारी सौन्दर्य की सृष्टि करता है। किंतु उनके शब्द केवल प्रकृति-वर्णन के अंग न होकर एक दूसरे अर्थ की गहरी व्यंजना से संयोजित हैं। उनकी रचनाओं में छायावाद एवं रहस्यवाद का समावेश भी है। साथ ही शेली, कीट्स, टेनिसन आदि अंग्रेजी कवियों का प्रभाव भी है। पंत काव्य में प्रकृति के अनेक मनोरम रूपों का मधुर और सरस चित्रण का अनूठा उदाहरण “आँसू की बालिका”, “पर्वत प्रदेश में पावस” आदि कविताओं में होता है जिनमें कवि की जन्मभूमि के प्राकृतिक सौन्दर्य का वैभव विद्यमान है। प्रेम और आत्म-उद्बोधन के सम्मिलन से प्रकृति-चित्रों का ऐसा अद्भुत आकर्षण अन्य कहीं नहीं मिलता। “धँस गए धरा में समय शाल उठ रहा धु्आँ, जल गया ताल यों जलद यान में विचर-विचर था इन्द्र खेलता इन्द्रजाल ” और “इस तरह मेरे चितेरे हृदय की बाह्य प्रकृति बनी चमत्कृत चित्र थी सरल शैशव की सुखद सुधि सी वही बलिका मेरी मनोरम मित्र थी ” (पर्वत प्रदेश में पावस) अल्मोड़ा की प्रकृतिक सुषमा ने उन्हें बचपन से ही अपनी ओर आकृष्ट किया। ऐसा प्रतीत होता है जैसे मां की ममता से रहित उनके जीवन में मानो प्रकृति ही उनकी मां हो। उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा के पर्वतीय अंचल की गोद में पले बढ़े पंत जी स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि उस मनोरम वातावरण का इनके व्यक्तित्व पर गंभीर प्रभाव पड़ा
कौसानी की उस घाटी का वर्णन पंत जी ने इन पंक्तियों में किया है “उस फैली हरियाली में कौन अकेली खेल रही माँ वह अपने वय वाली में ” “हिम प्रदेश” एवं “हिमाद्री” आदि रचनाओं में भी कौसानी के प्राकृतिक सौंदर्य के अनेक रूपों का चित्रण मिलता है। कविवर पंत यह स्वीकार करते हैं कि जब उनका काव्य कण्ठ भी नहीं फूटा था तभी से अल्मोड़ा की प्रकृति उस मातृहीन बालक को कवि-जीवन के लिए तैयार करने लगी थी। पेड़, पहाड़, फुल, भौंरे, गुंजन, पर्वत-प्रदेश, बरु की चोटियां, इन्द्रधनुष आदि ने उनकी रचना यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया। अपनी इन अनुभूतियों को कवि “हिमाद्री” शीर्षक रचना में प्रस्तुत करता हैः “मुझ अंचलवासी को तुमने शैशव में आशा दी पावन नभ में नयनों को खो, तब से स्वपनों का अभिलाषी जीवन कब से शब्दों के शिखरों में तुम्हें चाहता करता चित्रित” “सोच रहा, किसके गौरव से मेरा यह अन्तर्जग निर्मित लगता तब , हे प्रिय हिमाद्री तुम मेरे शिक्षक रहे अपरिचित ” मां की कमी उन्हें काफी सालती रही और प्रकृति माँ की गोद का सहारा मिला तो मानों वे उसके लाड़ से अपने आप को पूरी तरह सरोबार कर लेना चाहते थेः “मातृहीन, मन में एकाकी, सजल बाल्य था स्थिति से अवगत, स्नेहांचल से रहित, आत्म स्थित, धात्री पोषित, नम्र, भाव-रत प्रकृति गोद में छिप, क्रीड़ा प्रिय, तृण तरू की बातें सुनता मन, विहगों के पंखों पर करता, पार नीलिमा के छाया वन रंगो के छींटों से नव दल गिरि क्षितिजों को रखते चित्रित, नव मधु की फूलों कल वे ही मुझे गोद भरती सुख विस्मृत कोयल आ गाती , मेरा मन जाने कब उड़ जता वन में, षड्ऋतुओं की सुषमा अपलक तिरती रहती उर दर्पण में” कवि पंत की रचनाओं को देख कर ऐसा लगता था जैसे वे स्वयं प्रकृति स्वरूप थे। उनकी विभिन्न रचनाओं में ऐसा लगता है जैसे कवि प्रकृति से बात कर रहा हो, अनुनय कर रहा हो, प्रश्न कर रहा हो। मानों प्रकृति कविमय हो गई है और कवि प्रकृतिमय हो गया है। पंतजी ने जीवन में कहीं भी दुराव, छिपाव नहीं था। उनका स्वाभाव सरल और मन निश्छल था। मन में प्रकृति के प्रति असीम आकर्षण था। प्रकृति से परे सोचना उनके लिए असंभव सा थाः- “छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया, बाले तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन ” ऐसा प्रतीत होता है कि उनके लिए रमणी के सौंदर्य की अपेक्षा प्रकृति के सौंदर्य में अधिक आकर्षण था। कवि अपनी दुर्बलताओं को खोल कर सामने रखता है तथा अपने प्रेम की पावनता को दृढ़ता के साथ प्रमाणित करता है। पुराने कवि अपने निजि प्रणय संबंध को सीधे ढ़ंग से व्यक्त करने में असमर्थ थे। सामाजिक नैतिकता के बंधन को अस्वीकार करते हुए पंत ने उच्छ्वास और आंसू की बालिका के प्रति सीधे शब्दों में अपना प्रणय प्रकट किया है – बालिका मेरी मनोरम मित्र थी। कवि अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए ईश्वर से “याचना” भी करता है तो प्राकृतिक उपादानों के माध्यम सेः “बना मधुर मेरा जीवन नव-नव सुमनों से चुन-चुन कर धूलि, सुरभि, मधुरस हिमकण, मेरे उर की मृदु कलिका में भर दे, कर दे, विकसित मन ” “बादल” और “छाया” कविताओं में अद्भूत एवं विलक्षण कल्पना के दर्शन होते हैं जिससे हृदय चमत्कृत हो उठता है। उनकी प्रकृति संवेदना एवं कल्पना का अपूर्व मिश्रण देखने को मिलता है। “बुद्बुद-द्युति तारक दल तरलित तम के यमुना जल में श्याम हम विशाल जम्बाल जाल से बहते हैं, अमूल, अविराम। ” (बादल) उनकी कविताएँ संबोधनात्मक हैं। कवि प्रकृति के उपादानों को संबोधित कर उनसे बात-चीत करता रहता है। इसमें एक आत्मीयता झलकती है। संबोधनों से कवि सौंदर्य सृष्टि करता है जिससे उनकी रचनाओं का कलात्मक धरातल काफी विशाल हो जाता है। कुछ उदाहरण देखें “कहाँ कहाँ हे बसल विहंगिनि ” “ऐ अवाक् निर्ज की भारति”, “अहे निष्टुर परिवर्तन ” “कौन तुम अतुल, अरूप, अनाम ” आदि। उनकी कविताओं में प्राकृतिक उपमानों का सर्वथा एक नया रूप देखने को मिलता है। जैसे “पौ फटते, सीपियाँ नील से गलित मोतियां कान्ति निखरती” या “गंध गुँथी रेशमी वायु” या “संध्या पालनों में झुला सुनहले युग प्रभात” इसी तरह उन्होंने छाया को, “परहित वसना”, “भू-पतिता” “व्रज वनिता” “नियति वंचिता” “आश्रय रहिता” “पद दलिता” “द्रुपद सुता-सी ” कहा है। इस तरह उन्होंने भाषा को एक नया अर्थ-संस्कार दिया। कवि पंत की संवेदनशील भावनाओं को प्रकृति का स्पर्श उनके हृदय में मंथन कर उन्हें जीवन के सत्य की खोज करने के लिए प्रेरित करता है। प्रकृति के परिवर्तनशील स्वाभाव में कवि अपनी “परिवर्तन” कविता में शास्वत जीवन की खोज करता जान पड़ता है – “स्वर्ग की सुषमा जब साभार धरा पर करती थी अभिसार प्रसूनों का शाश्वत श्रृंगार गूँज उठते थे बारम्बार सृष्टि के प्रथमोद्गार हाय सब मिथ्या बात आता तो सौरभ का मधुमास शिशिर में भरता सूनी साँस।” तथा “नित्य का यह अनित्य में नर्तन विवर्तन जग, जग व्यावर्तन अचिर में चिर का अन्वेषण, विश्व का तत्वपूर्ण दर्शन । ” और जब हृदय-मंथन अपहनी पराकाष्ठा पर पहुँचता है तो उसे परिवर्तनशीलता में शाश्वत चिर सुन्दरतम सत्य का दर्शन होता हैः- “गाता खग प्रातः उठकर- सुन्दर सुखमय जन जीवन गाता साखग सन्ध्या-तट-पर मंगल, मधुमय जग जीवन ! ” कवि प्रकृति के अपने कल्पनामय संसार में ही अपनी सारी इच्छाओं को संतुष्ट कर लेता हैः- “वह ज्योत्सना से हर्षित मेरा, कलित कल्पनामय संसार तारों के विस्मय से विकसित विपुल भावनाओं का हार सरिता के चिकने उपलों-सी मेरी इच्छाएँ रंगीन, वह अजानता की सुन्दरता, वृद्ध विश्व का रूप नवीन ” पंतजी ने सांसारिक वैभव से रहित जीवन जिया। सूनेपन का एक मीठा दर्द झलकता है। उनकी रचनाओं में प्रकृति के उपादान बरबस ही उन्हें उनकी प्रेयसी की याद दिला देते हैं। गहन व्यथा से रँगे साँझ के बादल मौन वेदना रंजित फूलों के दल ! मधु समीर भी श्वास-गंध से चंचल साँसें भर तुम्हें खोजती विह्वल आँसू में नहाया सा ओसों का वन लगता मेरी ही जीवन का दर्पण आध्यात्म ने भी उनको आकर्षित किया। अरविंद दर्शन में कवि वर्तमान मानव-जीवन के विषम संकट को व्यक्त करते हुए एक नये आदर्श भविष्य का चित्रण करता है। उनकी कई रचनाओं में अनुभूति के स्थान पर विचार को अधिक महत्व मिला है – “तुम वहन कर सको जन मन में मेर विचार. वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार ।” कवि सम्राट पंत जी ने स्वयं माना कि छायावाद वाणी की नीरवता है, निस्तब्धता का उच्छ्वास है, प्रतिभा का वीलास है, और अनंत का विलास है। अपनी संकुचित परिभाषा के कारण कुछ लोग पंत की रचनाओं में भी केवल पल्लव और पल्लव में भी कुछेक कविताओं को ही छायावाद के अंतर्गत स्वीकार करते हैं। मौन निमंत्रण में अज्ञात की जिज्ञासा होने के कारण रहस्यवाद है, अभिव्यक्ति की सूक्ष्मता के कारण छायावाद है और कल्पनालोक में स्वच्छंद विचरण करने के कारण स्वच्छंदतावाद भी है। पंत का रहस्य भावना ‘अज्ञात’ की लालसा के रूप में व्यक्त हुई है। पंत सीमित ज्ञान की सीमा को तोड़कर प्रकृति और जगत के प्रति जिज्ञासु की तरह देखते हैं। पंत का बालक मन हर चीज से सवाल पूछता है। प्रथम रशमि का आना रंगिणि तूने कैसे पहचाना उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था, गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, उंची नाजुक कवि का प्रतीक समा शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था। आकर्षक और कोमल व्यक्तित्व के धनी कविवर सुमित्रा नंद पंत जिस तरह से अपने जीवन काल में सभी के लिए प्रिय थे उसी तरह से आज भी आकर्षण का केंद्र हैं। प्रकृति का परिवर्तित रूप सदा पंतजी में नित नीवन कौतूहल पैदा करता रहा। उन्होंने सबकुछ प्रकृति में और सब में प्रकृति का दर्शन किया। यही कारण है कि वे प्रकृति के सुकुमार चितेरे थे और अंत में शास्वत सत्य की जिज्ञासा उन्हें अरविंद दर्शन, स्वामी रामकृष्ण आदि के विचारों की ओर खींच ले गई। इस प्रकार उन्होंने काव्य सृजन से वे चारों पुरूषार्थ उपलब्ध किए जो काव्य का फल हैं। |
मेरी पसंदमैं नहीं चाहता चिर-सुख, मैं नहीं चाहता चिर दुख; सुख-दुख की खेल मिचौनी खोले जीवन अपना मुख।
आलिंगन विरह-मिलन का; चिर हास-अश्रुमय आनन रे इस मानव-जीवन का! |
सोमवार, 4 अक्तूबर 2010
साहित्यकार-४ :: कवि सम्राट सुमित्रानंदन पंत – प्रकृति के सुकुमार कवि
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वैचारिक ताजगी लिए हुए रचना विलक्षण है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंआयी हो तुम कौन परी...
, करण समस्तीपुरी की लेखनी से, “मनोज” पर, पढिए!
सुमित्रानंदन पन्त जी के बारे में बताते हुए उनकी रचनाओं का जो विश्लेषण किया है वो अद्भुत है ...सुन्दर कविताओं से सजी बहुत अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहिन्दी के वर्ड्सवर्थ पन्त जी पर बहुत गहन आलेख.. बहुत उपयोगी...
जवाब देंहटाएंपंत जी के जीवन के महत्त्वपूर्ण पहलुओं से अवगत कराने के लिये आभार्………………और कविता भी उतनी ही ह्रदयस्पर्शी।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंकौसानी में पंत जी का घर मानो हिमालय के समानान्तर बसा है। एक ओर बर्फीली चोटियों का विहंगम दृश्य और इधर बीच में घाटी का अथाह विस्तार। यह दृश्य इतना मनोहारी है कि गांधीजी ने कौसानी को भारत का स्विटजरलैंड कहा था। ऐसी सुरम्य वादियों के कवि को प्रकृति-प्रेमी होना ही था।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया पन्त जी की जानकारी देकर धन्य कर दिया.
जवाब देंहटाएंयह साँझ-उषा का आँगन,
जवाब देंहटाएंआलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का!
Behad sundar...tazagi bhara!
पन्त जी के बारे पुनर्स्मरण करवा कर आपने बहुत अच्छा किया . ये कवि और लेखक जब पहले पढ़े थे तो विषय समझ कर लेकिन अब इनकी एक एक कविता गहराई का अहसास देती है.
जवाब देंहटाएंभूला बचपन लौटा दिया आपने...स्कूल में पढी इस कविता से बचपन बँधा है..पंत जी पर यह प्र्स्तुति संग्रहणीय है!!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंयोगदान!, सत्येन्द्र झा की लघुकथा, “मनोज” पर, पढिए!
पन्त जी की रचनाओं में छायावाद की सर्वाधिक विशेषताएं मिलतीं हैं ---मूर्त के लिये अमूर्त उपमान (उच्चाकांक्षाओं से तरुवर), चित्रात्मकता (सैकत-शैया पर दुग्ध--धवल ,तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल लेटी है श्रान्त,क्लान्त, निश्चल), ध्वन्यात्मकता (सन्ध्या का झुटपुट....) आदि..। भाषा की कोमलता तो सर्वत्र दिखाई देती ही है ।पन्त जी की सुकुमारता को भारती जी ने-- गुलीवर की तीसरी यात्रा -में बखूबी दर्शाया है । यह आलेख पढ कर अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंपंत को सुकुमार कवि किसने कहा
जवाब देंहटाएंShukl ji ne
जवाब देंहटाएंबहुत ही सरल और सुंदर ढंग से आपने यह सामग्री पेश की है। आपकी लेखनी का जादू छूने वाला है। मेरा यह लेख भी पढ़ें सुमित्रानंदन पंत जीवन परिचय.
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