खेवली
वहाँ न जंगल है न जनतंत्र
भाषा और गूँगेपन के बीच कोई
दूरी नहीं है।
एक ठंडी और गाँठदार अंगुली माथा टटोलती है।
सोच में डूबे हुए चेहरों और
वहां दरकी हुई ज़मीन में
कोई फ़र्क नहीं हैं।
वहाँ कोई सपना नहीं है। न भेड़िये का डर।
बच्चों को सुलाकर औरतें खेत पर चली गई हैं।
खाये जाने लायक कुछ भी शेष नहीं है।
वहाँ सब कुछ सदाचार की तरह सपाट
और ईमानदारी की तरह असफल है।
हाय! इसके बाद
करम जले भाइयों के लिए जीने का कौन-सा उपाय
शेष रह जाता है, यदि भूख पहले प्रदर्शन हो और बाद में
दर्शन बन जाय।
और अब तो ऐसा वक्त आ गया है कि सच को भी सबूत के बिना
बचा पाना मुश्किल है।
'वहाँ सब कुछ सदाचार की तरह सपाट
जवाब देंहटाएंऔर ईमानदारी की तरह असफल है।....'
कितना कह देते हैं धूमिल !
यथार्थ को कहती सशक्त रचना पढवाने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंखेवली मतलब?
जवाब देंहटाएंवहाँ कोई सपना नहीं है। न भेड़िये का डर।
जवाब देंहटाएंबच्चों को सुलाकर औरतें खेत पर चली गई हैं।
खाये जाने लायक कुछ भी शेष नहीं है।
वहाँ सब कुछ सदाचार की तरह सपाट
और ईमानदारी की तरह असफल है।
आभार इस अद्भुत रचना को पढवाने के लिए ...
@ चंदन जी,
जवाब देंहटाएंकवि के गांव का नाम है।
वहाँ न जंगल है न जनतंत्र
जवाब देंहटाएंभाषा और गूँगेपन के बीच कोई
दूरी नहीं है।
एक ठंडी और गाँठदार अंगुली माथा टटोलती है।
सोच में डूबे हुए चेहरों और
वहां दरकी हुई ज़मीन में
कोई फ़र्क नहीं हैं।
बेहतरीन प्रस्तुति !
सशक्त अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंआभार इस प्रस्तुति के लिए!
जवाब देंहटाएंऔर अब तो ऐसा वक्त आ गया है कि सच को भी सबूत के बिना
जवाब देंहटाएंबचा पाना मुश्किल है……………सशक्त अभिव्यक्ति.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंबधाई महोदय ||
dcgpthravikar.blogspot.com
और अब तो ऐसा वक्त आ गया है कि सच को भी सबूत के बिना
जवाब देंहटाएंबचा पाना मुश्किल है।sahi n satik prastuti.