ग़रीबी के हज़ार चेहरे हैं , लेकिन पहचाने कौन !
दरभंगा. बिहार का एक महत्वपूर्ण शहर. रेलवे के लिहाज़ से देश के बड़े शहरो के बराबर क्योंकि बहुत राजस्व देता है. एतिहासिक शहर भी है. लेकिन इतिहास को जबतक इतिहासकार, सरकार और समाचार पत्र नहीं मिलता इतिहास मिटटी में दबा रहता है. गुमनाम रहता है. देश में बहुत कम ही ऐसे शहर होंगे जहाँ एक साथ इतने सारे शैक्षणिक संस्थान हो. दरभंगा में ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, मेडिकल कालेज, महिला इंजीनियरिंग कालेज, इंजीनियरिंग कालेज, पोलेटेक्निक, दो दो एमबीए संस्थान के अतिरित्क्त कई और निजी संस्थान हैं. अब तो देश भर से लोग पढ़ने आते हैं. यहाँ का विश्वविद्यालय परिसर देश के किसी भी विश्वविद्यालय परिसर के समकक्ष है.
दरभंगा महाराज ने अपना किला विश्वविद्यालय को दे दिया था. यूरोपियन स्थापत्य कला का नमूना है यह परिसर. कभी घूमने की नज़र से कोई आये तो यह परिसर निराश नहीं करेगा आपको. पूरे परिसर में आम के बगीचे हैं, नारियल के बड़े बड़े वृक्ष हैं. पूरे परिसर में धूप कम ही लगेगी. पूरे परिसर में नहर का जाल सा है, जो बिना रखरखाव के भी पानी से भरा रहता है. इन दिनों मखाने से पटे हैं ये नहर.
दो मंदिर भी हैं इस परिसर में . एक मनोकामना मंदिर. कहते हैं इस मंदिर में मनोकामना रखने पर हनुमान जी मन की बात पूरी कर देते हैं. छोटा सा खूबसूरत मंदिर है. ना जाने कितने आई ए एस अफसर, आई पी एस, बैंक मैनेज़र आदि आदि बने हैं अपनी मेहनत और आस्था के समन्वय से. मंगलवार को अच्छी भीड़ होती हैं यहाँ. लड़कियां भी चुपके चुपके लाल धागा बाँध जाती हैं मंदिर में उगे पीपल से. दूसरा मंदिर श्यामा माई का मंदिर है. भगवती दुर्गा का मंदिर है यह. शारदीय दुर्गा पूजा एवं चैत्री दुर्गापूजा में मेला सा लगता है. छोटा सा स्टेडियम भी है इस परिसर में जहाँ दरभगा महाराज कभी पोलो खेला करते थे. यूरोपियन गेस्ट हाउस में महाराज के विदेशी मित्र रहते थे. आज इसमें विश्वविद्यालय का प्रशासनिक भवन है.
विश्वविद्यालय का मुख्य आकर्षण नरगौना पैलेस है जो कभी महारानी का निवास था. तीस बीघे में फैला यह पैलेस चारो ओर से एक सा दिखता है. चारो ओर एक जैसे प्रवेश द्वार, तालाब और आम के बगीचे थे. ठाणे में जब रेलगाड़ी कि शुरुआत हुई थी, उसके कुछ ही साल के बाद दरभंगा महाराज के इस किले को भी रेल से जोड़ा गया था और पूर्व में कलकत्ता के बाद सबसे पहले रेल दरभंगा ही पहुची थी. लेकिन रेलवे के पहुचने से गरीबी दूर हो जाये यह गारंटी नहीं है. दरभंगा और इसके आसपास का इलाका इस बात का गवाह वर्षों से है.
बिहार को पूरब से जोड़ने के रास्ते में समस्तीपुर भी एक महत्वपूर्ण जक्शन है. पहले समस्तीपुर और दरभंगा के बीच केवल पैसेंज़र गाड़िया चलती थी. लेकिन अब तीन तरह कि रेलगाड़ियाँ चलती हैं. एक पैसेंज़र. समस्तीपुर और दरभंगा के बीच इसका किराया केवल ६ रुपया है. एक है फास्ट पैसेंज़र जिसका किराया ३६ रुपया है. और एक है सुपरफास्ट. आम तौर पर दरभंगा से दिल्ली, मुंबई, बैंगलोर, पूरी आदि को जाने वाली गाड़ियाँ सुपर फास्ट श्रेणी की गाड़ियाँ है. इसका किराया १२८ रूपये है.
मैं दिल्ली से अपने गाव जा रहा था. गाड़ी सुबह नौ बजे समस्तीपुर पहुच चुकी थी. यहाँ से गाड़ी को अंतिम स्थान दरभंगा पहुचना था. गाड़ी खुलने को थी कि एक पति पत्नी मेरी सीट पर आकर बैठ गए. वे ठीक से बैठे ही थे कि टी टी ई साहब पहुच गए. शायद उन्होंने इन्हें गाड़ी में चढ़ते देखा था. टिकट मांगने पर पत्नी ने टिकट निकाल कर दे दिया. टी टी ई साहब की बांछे खिल गई. उन्होंने जोड़ लिया कि १२८ रुपया किराया में से ६ रुपया किराया घटाकर बनता है १२२ रुपया इसमें २५० रुपया जुर्माना जोड़ने से बनता है ३७२ रुपया और दो लोगों का सात सौ चौवालिस रुपया. बेचारी पत्नी तो सुनकर रोने ही लगी.
वे समस्तीपुर के पास मुसरीघरारी के रहने वाले थे. पति को कोई मानसिक बीमारी हो गई थी. पत्नी ने बताया कि चिंता से. इतिहास से एम ए होने के वावजूद उन्हें कोई उचित रोज़गार नहीं मिल सका . अपना देश गाँव छोड़ कर बाहर जा नहीं पाया. आज पत्नी अपने गाँव में ही घर के बाहर परचून की दुकान चला कर दो बेटियों को पाल रही है. टी टी ई से जुर्माने का नाम सुनकर वो दवाई के सारी कागज़ दिखाने लगी, अपना खाली स्टील का डब्बा भी दिखाने लगी जिसमे तीन चार सुखी रोटियां और घर के बने आचार थे. पति कुछ कह नहीं पा रहा था क्योंकि दवाई के असर से वो हमेशा नींद में ही रहता था. रोते रोते पत्नी कह रही थी कि उसे पता नहीं था कि जिस गाड़ी में वो चढ़ी है वह सुपरफास्ट है. किसी टी टी ई ने ही बता दिया कि यह गाड़ी दरभंगा जाएगी. उस महिला के पास पूरे अस्सी रूपये थे. पचास रुपया डाक्टर के लिए और बाकी वापसी किराया के लिए. किन्तु टी टी ई महोदय का ह्रदय बिल्कुल भी पसीज नहीं रहा था. शायद वो अपना काम कर रहे थे. हम दो यात्रियों के अनुरोध पर टी टी ई एक व्यक्ति का जुर्माना लेकर छोड़ने को तैयार हो गए और उस महिला के 3७२ रूपये हमने दिए.
टी टी ई के जाने के बाद जब महिला से बात हुई तो पता चला कि वो उच्च जाति की है इस लिए उसे गरीबी रेखा के नीचे वाला कोई लाभ नहीं पहुचता. खेती बाड़ी कुछ है नहीं. जो है उसमे भी करने के लिए उनमे सामर्थ्य नहीं है. बटाई नहीं दे सकती क्योंकि कमजोर समझ कर निचली जाति के लोग उसका खेत छीन लेंगे. किसी तरह परचून की दुकान से अपने बीमार पति और दो बेटियों का पालन पोषण कर रही है. हाँ ! बेटियों को पढ़ा रही है वह. उच्च जाति, स्टील के डिब्बे में सूखी रोटी, बीमार पति और फटती हुई महँगी साडी, गरीबी का एक चेहरा है, जिसकी गिनती शायद सरकार के आकड़ो में नहीं होती.
दरभंगा और पूरे इलाके में गरीबी का यह चेहरा बहुत आम है, सरकार है कि पहचानती ही नहीं है.
गरीबी का चेहरा- ये सरकार इसे पहचान ले तो सूरत ही बदल जाये.
जवाब देंहटाएंउच्च जाति में गरीब होना सबसे ज्यादा दुखदायी है जबकि दलित धनि भी हो तो सरकारी खजाने उसके लिए हमेशा खुले रहते है|
जवाब देंहटाएंगरीबी का असली चेहरा वर्ग भेद में छुप गया है
Gyan Darpan
Matrimonial Site
उच्च जाति में, विशेषकर ब्राह्मण कुल में जन्म लेना स्वतन्त्र भारत के इतिहास में अभिशाप के रूप में दर्ज है,साथ में यदि गरीबी भी हो तो क्या कहना. सरकारी उपेक्षा, सदियों पूर्व किये गए व्यवहारों (?) का बदला और आरक्षित वर्ग के अधिकारियों की गालियों का तड़का पूरे मामले को असुरों के लिए बहुत जायकेदार बना देता है. हे ईश्वर ! अगले जनम मोहे वो ही बनइयो जिसकी जाति का नाम लेने पर मुकदमा चल सकता है.
जवाब देंहटाएंरौंगटे खडे करने वाली सच्चाई से ही तो सरकार आँख चुराती है अरुण जी।
जवाब देंहटाएंयही तो विडम्बना है देश की ..सरकार को कुछ भी नहीं दिखता ..
जवाब देंहटाएंजो असली भारत है उसकी गिनती सरकार नहीं करती .
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक तरीके से दरभंगा शहर का वर्णन किया...
जवाब देंहटाएंअक्सर उच्च जाति के लोग,ऐसी परिस्थितियों के शिकार हो जाते हैं....आरक्षण का कोई लाभ उन्हें मिलता नहीं...ना ही अन्य कोई सुविधाएं मिलती हैं...कई ऐसे विवश चेहरे नज़रों के सामने घूम गए..
दरभंगा के बारे में पहली बार पढा ... बढिया लगा, मेरे लिए सही मायने में ये खोजपूर्ण पोस्ट लगी..
जवाब देंहटाएंसाधुवाद.
darbhanga ki hi hoon......halaton ki jankari milti rahti hai lekin afsos hai .......sarkar ko jagane men asmarth hoon,darbhanga maharaj ke musium men hathidant ki chatayee thi.....aur kitni amuly cheezen....jane unka kya hashr hua....
जवाब देंहटाएंमैं भी बिहार की रहने वाली हूँ और दरभंगा के पास ही हमारा गांव भी है
जवाब देंहटाएंआपके विचारों से पूरी तरह से सहमत हूँ
दरभंगा एक दर्शनीय स्थल है, यह जानकारी और उस शहर की विशेषता से परिचय कराने के लिए शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा और दिल दहला देनेवाला संस्मरण है। बहुत आभार अरुण जी।
जवाब देंहटाएंयह लेख एक ऊटपटांग लेख बन गया है…अचानक आपने आवश्यक और गम्भीर बात कहकर दरभंगा शहर की बात छोड़ दी…अब यहीं देखिए। आप उस गरीबी का चेहरा दिखाना चाहते हैं और साथ ही नयनाभिराम दृश्य भी। दो अलग-अलग लेखों में होना चाहिए था यह…मैंने भी सुना है दरभंगा-मधुबनी में गरीबी बहुत है…सरकार का नाम अब खलनायक सा लगता है…
जवाब देंहटाएंकैसी विडम्बना है...
जवाब देंहटाएंसरकार शब्द जब सरोकार बनेगा... सामान्य जनों के दुःख से उसे सरोकार होगा तभी स्थिति बदलेगी!
आपका पोस्ट अच्छा लगा । .मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंउपयोगी,अर्थपूर्ण व सार्थक लेख,आभार !
जवाब देंहटाएंलोकतंत्र के चौथे खम्बे पर अपने विचारों से अवगत कराएँ ।
औचित्यहीन होती मीडिया और दिशाहीन होती पत्रकारिता