और जब,
तीव्र हर्ष-निनाद उठ कर पाण्डवों के शिविर से
घूमता फिरता गहन कुरुक्षेत्र की मृतभूमि में,
लड़खड़ाता-सा हवा पर एक स्वर निस्सार-सा,
लौट आता था भटक कर पाण्डवों के पास ही,
जीवितों के कान पर मरता हुआ,
और उन पर व्यंग्य-सा करता हुआ-
'देख लो, बाहर महा सुनसान है
सालता जिनका हृदय मैं, लोग वे सब जा चुके।'
-
- हर्ष के स्वर में छिपा जो व्यंग्य है,
- कौन सुन समझे उसे? सब लोग तो
- अर्द्ध-मृत-से हो रहे आनन्द से;
- जय-सुरा की सनसनी से चेतना निस्पन्द है।
एक ऐसा भी पुरुष है, जो विकल
बोलता कुछ भी नहीं, पर, रो रहा
मग्न चिन्तालीन अपने-आप में।
-
- "सत्य ही तो, जा चुके सब लोग हैं
- दूर ईष्या-द्वेष, हाहाकार से!
- मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे;
- हर्ष का स्वर जीवितों का व्यंग्य है।"
"ओ युधिष्ठिर, सिन्धु के हम पार हैं;
तुम चिढाने के लिए जो कुछ कहो,
किन्तु, कोई बात हम सुनते नहीं।
-
- "हम वहाँ पर हैं, महाभारत जहाँ
- दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा,
- जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर,
- अर्थ जिसका अब न कोई याद है।
यह पराजय या कि जय किसकी हुई?
व्यंग्य, पश्चाताप, अन्तर्दाह का
अब विजय-उपहार भोगो चैन से।"
-
- हर्ष का स्वर घूमता निस्सार-सा
- लड़खड़ाता मर रहा कुरुक्षेत्र में,
- औ' युधिष्ठिर सुन रहे अव्यक्त-सा
- एक रव मन का कि व्यापक शून्य का।
हो गयी है लाल नीचे कोस-भर,
और ऊपर रक्त की खर धार में
तैरते हैं अंग रथ, गज, बाजि के।
-
- 'किन्तु, इस विध्वंस के उपरान्त भी
- शेष क्या है? व्यंग ही तो भाग्य का?
- चाहता था प्राप्त मैं करना जिसे
- तत्व वह करगत हुआ या उड़ गया?
चाहता था, शत्रुओं के साथ ही
उड़ गये वे तत्त्व, मेरे हाथ में
व्यंग्य, पश्चाताप केवल छोड़कर।
-
- 'यह महाभारत वृथा, निष्फल हुआ,
- उफ! ज्वलित कितना गरलमय व्यंग है?
- पाँच ही असहिष्णु नर के द्वेष से
- हो गया संहार पूरे देश का!
और हम भोगें अहम्मय राज्य यह,
पुत्र-पति-हीना इसी से तो हुईं
कोटि माताएँ, करोड़ों नारियाँ!
-
- 'रक्त से छाने हुए इस राज्य को
- वज्र हो कैसे सकूँगा भोग मैं?
- आदमी के खून में यह है सना,
- और इसमें है लहू अभिमन्यु का.
दब गये कौन्तेय दुर्वह भार में.
दब गयी वह बुद्धि जो अब तक रही
खोजती कुछ तत्त्व रण के भस्म में।
-
- भर गया ऐसा हृदय दुख-दर्द-से,
- फेन या बुदबुद नहीं उसमें उठा!
- खींचकर उच्छ्वास बोले सिर्फ वे
- 'पार्थ, मैं जाता पितामह पास हूँ।'
लड़खड़ता मर रहा था वायु में।
क्रमश:
अगला भाग / पिछला भाग
bahut badhia prayas ...
जवाब देंहटाएंabhar ...
जानकी वल्लभ शास्त्री जी की एवं डॉ राम धारी सिंह 'दिनकर' जी की कविताओं के माध्यम से गहन संदेश दिया गया है।
जवाब देंहटाएं'यह महाभारत वृथा, निष्फल हुआ,
जवाब देंहटाएंउफ! ज्वलित कितना गरलमय व्यंग है?
व्यंग्य है, पर सच भी यही है।
आभार।
जवाब देंहटाएं…
जवाब देंहटाएंआभार इस प्रस्तुति के लिए कभी धाराप्रवाह पढ़ा था कुरुक्षेत्र को रात रात दिन रात बस यूं ही काव्य रस के आस्वाद के लिए प्रवाह के लिए .
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar kavita
जवाब देंहटाएंpost karane ke liye aabhar
पढकर रोमांचित हो जाती हूँ।
जवाब देंहटाएंआप यह बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. कम से कम मेरे जैसों के लिए जिन्हें इस तरह की रचनाएँ पढ़ने के लिए यहाँ नहीं मिलतीं.
जवाब देंहटाएंआभार.
इस रचना को प्रस्तुत करने के लिए आभार आपका ..
जवाब देंहटाएंरचना को प्रस्तुत करने के लिए आभार आपका ..
जवाब देंहटाएंयादें ताजा हो गईं.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर इस रचना को हम तक पहुंचाने के लिए
sach me ise padhkar arjun aur ashok ki maneh sthiti ki bhaan hota hai. aur yuddh ke baad ye glani ka ehsaas jaagna kitna dardnaak hai .
जवाब देंहटाएंdhanywad is rachna ko ham tak pahunchane k liye.
आभार इस प्रस्तुति के लिए!
जवाब देंहटाएंraj bhasha hindi blogger ek bhut hi yganwardhak .blogger hai .
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