शनिवार, 12 नवंबर 2011

पुस्तक परिचय- 6 संसद से सड़क तक

पुस्तक परिचय- 6

संसद से सड़क तक

मनोज कुमार

इस सप्ताह कवि सुदामा प्रसाद पाण्डेय ‘धूमिल’ का जन्म दिन था, तो सोचा कि उनकी ही रचना पढ़ी जाए और उनके प्रथम और एकमात्र काव्य-संग्रह ‘संसद से सड़क तक’ से आपका परिचय कराया जाए। 9 नवम्बर 1936 को जन्मे धूमिल की काव्य-यात्रा की शुरुआत हुई ही थी कि अल्पायु में ही काल ने उन्हें हमसे 10 फरवरी 1975 को छीन लिया। स्वतंत्रता की प्राप्ति के पच्चीस वर्षों बाद 1972 में प्रकाशित इस काव्य-संग्रह में छोटी-बड़ी पच्चीस कविताएं हैं। उसके बाद कुछेक ही कविताएं उनकी पत्रिकाओं में इधर-उधर छपीं, लेकिन इतनी कम रचनाओं के बावज़ूद भी वे अविस्मरणीय छाप हमारे मन-मस्तिष्क पर छोड़ने में सफल हुए।

हिन्दी कविता को नकारात्मकता से निकाल कर धूमिल ने एक नयी भावभूमि पर खड़ा और उसे न सिर्फ़ एक नयी दिशा दी बल्कि उसे सकारात्मक बनाकर एक नया व्याकरण दिया। साधारण से शब्द और मुहावरे उनकी कविता में आकर एक टटकी हवा का आभास देते हैं।

धूमिल का मानना था कि अनावश्यक बिम्बों और प्रतीकों के कारण कविता की स्थिति उस औरत जैसी हास्यास्पद हो जाती है, जिसके आगे एक बच्चा हो, गोद में एक बच्चा हो और एक बच्चा पेट में हो। प्रतीक, बिम्ब जहां सूक्ष्म सांकेतिकता और सहज सम्प्रेषणीयता में सहायक होते हैं वहीं अपनी अधिकता से कविता को ग्राफिक बना देते हैं। आज महत्व शिल्प का नहीं कथ्य का है। सवाल यह नहीं कि आपने किस तरह कहा है, सवाल यह है कि आपने क्या कहा है? धूमिल पच्चीकारी और अनावश्यक बिम्बों और प्रतीकों से कविता को मुक्त करना चाहते थे। स्पष्ट है ऐसी भाषा कविता और पाठक के बीच दीवार बनकर खड़ी होती है, धूमिल कविता को भाषाहीन करके इसी दीवार को तोड़ते नज़र आते हैं।

इस संग्रह की पहली कविता का शीर्षक ही ‘कविता’ है। यह ‘कविता’ उनके नये अंदाज़, कविता के प्रति उनकी गहरी सोच को अभिव्यक्त करती है। इस कविता में कवि संवेदना और अभिव्यंजना के संकटों की पहचान करता है। शब्दों की खोती हुई ताकत के कारण कविता रचने का काम कठिन होता जा रहा है। भाषा और मनोभाव की जिस पवित्र आत्मीयता से कविता रची जाती है, वे संबंध-सूत्र जीवन से लगातार टूट रहे हैं। कवि की दृष्टि में कविता की उत्पत्ति जिस मनः स्थिति में हुई थी और जिस सार्थक उद्देश्य से उसका सरोकार था, वह पूरी तरह उससे कट गई है। 

उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे

कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं

और हत्या अब लोगों की रूचि नहीं

आदत बन चुकी है

आज जिस तरह असलियत को शब्दों की ओट में दिखाया जाता है, उससे स्पष्ट है कि कविता की चिन्ता जनकल्याण न होकर उन चेहरों को छिपाना हो गया है, जिन्हें नंगा किया जाना चाहिए। पोल खोलने के नंगेपन को धूमिल वर्तमान वस्तु-स्थिति में अनिवार्य मानते हैं। वे कविता को उसके मूल सरोकार से जोड़कर देखते हैं, केवल मनोरंजन से नहीं। धूमिल की कविता को गहराई तक समझने के लिए उनके कविता संबंधी दृष्टिकोण को जानना निहायत ज़रूरी है। जैसे –

(१) अब उसे मालूम है कि कविता

घेराव में

किसी बौखलाये हुए आदमी का

संक्षिप्त एकालाप है

(२) भाषा में

आदमी होने की

तमीज है

(३)

शब्दों की अदालत में

अपराधियों के कटघरे मे खड़े एक निर्दोष आदमी का

हलफनामा है

(४)

आखिर मैं क्या करूं

आप ही जवाब दो ?

तितली के पंखों में

पटाखा बांधकर भाषा के हलके में

कौन-सा गुल खिला दूं

जब ढेर सारे दोस्तों का गुस्सा

हाशिए पर चुटकुला बन रहा है

क्या मैं व्याकरण की नाक पर रूमाल बांधकर

निष्ठा का तुक बिष्ठा से मिला दूं ?

यह काव्य-संग्रह अपने देश और समाज में आदमी की विसंगतिपूर्ण हालत को समझने-पहचानने की उनकी कोशिश है। यह कोशिश न सिर्फ़ उन्हें बल्कि पाठकों को भी एक दहशत, खीझ, छटपटाहट और गुस्से से भर देती है। हालात को देखकर वे सवाल उठाते हैं –

क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है

जिन्हें एक पहिया ढोता है

या इसका कोई खास मतलब होता है ?

(बीस साल बाद)

मगर जल्दी ही इसका जवाब ‘अकाल-दर्शन’ में मिल जाता है,

उस मुहाविरे को समझ गया हूं

जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है

जिससे न भूख मिट रही है न मौसम

बदल रहा है

इस कविता में अकाल के उन कारकों पर कवि विचार करता है जिसके कारण अकाल का खात्मा आज तक नहीं किया जा सका। अकाल उस व्यवस्था की देन है, जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रही है, जिससे भूख और मौसम में कोई परिवर्तन लाना संभव नहीं। केवल कोरे नारों के बल पर कुछ नहीं हो सकता। जब तक देश की जनता व्यवस्था की गतिविधियों से तटस्थ रहेगी, वहां अकाल निरन्तर बना रहेगा। उसको हटाने के लिए लोगों की समझ और एकजुट सक्रियता ज़रूरी है।

वे इस कदर पस्त हैं :

कि तटस्थ हैं।

और मैं सोचने लगता हूं कि इस देश में

एकता युद्ध की और दया

अकाल की पूंजी है।

क्रान्ति –

यहां के असंग लोगों के लिए

किसी अबोध बच्चे के –

हाथों की जूजी है।

धूमिल ने इस समाज में व्याप्त असमानता को देखा और महसूस किया। उन्होंने देखा कि श्रमजीवी जनता और मुर्दाफ़रोश पूंजीपतियों के बीच काफ़ी असामनता है। मज़दूरों के साथ धनी लोग पशुवत व्यवहार करते हैं। उन्होंने महसूस किया कि विश्व के सारे आलीशान प्रतीक मज़दूरों के ख़ून और आंसू से बने हैं। उन्होंने इस असमानता के सामाजिक कारणों पर विचार किया और फिर उनका जनवादी संघर्ष विद्रोह की आंच बनकर “पटकथा” में इस स्वीकारोक्ति के रूप में आता है,

यद्यपि यह सही है कि मैं

कोई ठंडा आदमी नहीं हूं

मुझमें भी आग है

मगर वह भभककर बाहर नहीं आती

क्योंकि उसके चारों तरफ़ चक्कर काटता हुआ

एक पूंजीवादी दिमाग है।

धीरे-धीरे उनकी कड़वाहट घुलने लगती है, क्योंकि उनके सामने यह जाहिर हो चुका है –

अपने यहां जनतंत्र

एक ऐसा तमाशा है

जिसकी जान मदारी की भाषा है। (पटकथा)

फिर वे हमें असलियत का एक तीखा दहशत भरा अहसास कराते हैं, -

एक चमकदार गोल शब्द

‘-जनतंत्र’

जिसकी रोज़ सैकड़ों बार हत्या होती है

और हर बार

वह भेड़ियों की ज़ुबान पर ज़िन्दा है। (शहर में सूर्यास्त)

वे बताते हैं कि ऐसे जनतंत्र में देशभक्ति एक धोखा है –

रोटी के टुकड़े पर

किसी भी भाषा में देश का नाम लिख कर

खिला देने से

कोई देशभक्त नहीं होता है। (भाषा की रात)

सत्तर के दशक में जो भाषा आन्दोलन हुआ था वही भाषा की रात कविता का सन्दर्भ है। कवि का आग्रह है कि भाषा सांस्कृतिक जागरण का प्रतीक है। उसे राजनैतिक आन्दोलन के रूप में न बदला जाए वरना यह बहुत ही घातक हो सकता है। कवि ने इस कविता में आगाह करने का प्रयास किया है कि भाषा के आन्दोलन से हानि जनता की होती है, व्यवस्था की नहीं।

हाय ! जो असली कसाई है

उसकी निगाह में

तुम्हारा यह तमिल-दुख

मेरी इस भोजपुरी-पीड़ा का

भाई है

भाषा उस तिकड़मी दरिन्दे का कौर है

जो सड़क पर और है

संसद में और है

इसी कारण कवि की गुस्से से भरी खीझ हमारे सामने आती है –

इस देश की मिट्टी में

अपने जांगर का सिख तलाशना

अंधी लड़की की आंखों में

उससे सहवास का सुख तलाशना है। (पतझड़)

आज़ादी के दो दशकों के बाद के अपने देश और समाज और उसमें अपने आपको पहचानने की उनकी यात्रा-कथा का निष्कर्ष पटकथा की इन पंक्तियों में समाहित है –

मुझे लगा है कि कहीं

कोई खास फ़र्क नहीं है

ज़िन्द्गी उसी पुराने ढर्रे पर चल रही है

जिसके पीछे कोई तर्क नहीं है

- हर तरफ़

शब्द-भेदी सन्नाटा है

- घृणा में

डूबा हुआ सारा का सारा देश

पहले की ही तरह आज भी

मेरा कारागार है।

देश-समाज की हलचल, कशमकश और्र यातना का कवि द्वारा किया गया साक्षात्कार हममें एक डरावना अहसास भरता है –

किस तरह मकानों की आड़ में

छिपे हुए मकान

दरवाज़ों में चाकू छिपाकर

आदमी का इंतज़ार कर रहे हैं। (मकान)

धूमिल बड़ी सख़्ती से पाठक को सच्चाई के सामने धकेल देते हैं, ताकि उसे हमारे अन्दर भी असंतोष और परिवर्तन की चाह जन्मे –

सच्चाई

हमें अक्सर अपराध की सीमा

पर छोड़ जाती है। (सच्ची बात)

वे अपने ढंग से हमें अपने ज़माने के बारे में खबरदार करते हैं और आने वाली या मौज़ूद लड़ाई के लिए तैयार भी करते हैं –

तुम वापस चले जाओ

हत्यारी संभावनाओं के नीचे

सहनशीलता का नाम

आज की हथियारों की सूची में नहीं है

रात ख़त्म हो चुकी है

और वह सुरक्षित नहीं है

जिसका नाम हत्यारों की सूची में नहीं है। (हत्यारी संभावनाओं के नीचे)

ज़िन्दगी के अन्तर्विरोधों और विसंगतियों को तल्खी के साथ उजागर करते हुए वे न सिर्फ़ हमारे भीतर बेचैनी, कड़वाहट और गुस्सा भरते हैं बल्कि बदलने की बात भी कहते हैं –

बदलो

अपने-आपको बदलो

यह दुनिया बदल रही है

और यह रात है, सिर्फ़ रात

इसका स्वागत करो

यह तुम्हें

शब्दों के नए परिचय की ओर लेकर

चल रही है। (प्रौढ़ शिक्षा)

उन्हें विश्वास है कि यदि देश की प्रजातंत्रात्मक व्यवस्था में कोई परिवर्तन आएगा तो वह गांव से ही आएगा। शहर के लोग सुविधा और सहूलियतभोगी हो गए हैं। उनसे कोई अपेक्षा करना बेमानी है। वे शहर को गांव की ओर झुकाने की बात “शहर का व्याकरण” में करते हैं। शहर के लोग तो व्यवस्थ के लिए पालतू हो गए हैं। पालतू बनाने के लिए ही शहर ने अपना व्याकरण बनाया है।

सचमुच मजबूरी है

मगर ज़िन्दा रहने के लिए

पालतू होना ज़रूरी है।

वे आदमी को सिर्फ़ आदमी के रूप में देखते हैं। किन्तु व्यवस्था ने आदमी को सिर्फ़ आदमी नहीं रहने दिया है, वह तो पेशे, जाति और धर्म आदि के रूप में अपनी पहचान बनाने को बाध्य है। ऐसा केवल इसलिए किया गया है कि कुछ लोगों के स्वार्थ-साधना हेतु इंसान और इंसान के बीच यह फासला ज़रूरी है। ज़िन्दा रहने के लिए यह तर्क कितना ग़लत है, मोचीराम का तर्क के रूप में कवि एक व्यंग्यात्मक संदेश देता देता है कि जीवन जीने के लिए सही ढंग से अर्थोपाजन करके ही आदमी को अमानवीय होने से बचाया जा सकता है। –

और बाबूजी!

असल बात तो यह है कि

ज़िन्दा रहने के पीछे

अगर सही तर्क नहीं है

तो रामनामी बेचकर या रण्डियों की

दलाली करके रोज़ी कमाने में

कोई फर्क नहीं है। (मोचीराम)

वे परिवर्तन के लिए कहते हैं कि एक “मुनासिब कार्रवाई” हो जिससे मनुष्य की मनुष्यता को बचाया जा सके। व्यवस्था की विसंगति और विडंबना को दूर करने के लिए कविता का विरोध में खड़ा होना अनिवार्य है। जनमानस के सरोकार से यदि न जुड़ पाए तो वे इसे कविता की असफलता मानते हैं और एक मुनासिब कार्रवाई के अपेक्षा रखते हैं।

इससे पहले कि “वह” तुम्हें

सिलसिले से काटकर अलग कर दे

कविता पर

बहस शुरु करो

और शहर को अपनी ओर झुका लो। (मुनासिब कार्रवाई)

वे एक ऐसे कवि हैं जो उत्तरदायी ढंग से समस्याओं को उठाते हैं। उनकी दायित्व भावना इस बात का संकेत है कि वे एक तरफ़ तो वे भयावह स्थिति को दर्शाते हैं, दूसरी तरफ़ उनका प्रयास है कि बदलाव आए -

उस औरत की बगल में लेटकर

मैंने महसूस किया है कि घर

छोटी-छोटी सुविधाओं की लानत से

बना है

जिसके अन्दर जूता पहनकर टहलना मना है। (उस औरत की बगल में लेट कर)

संग्रह की धूमिल की कविताएं अपनी अंतर्वस्तु और शिल्पगत बनावट-बुनावट की ताज़गी और सादगी के कारण हिंदी पाठकों और आलोचकों का ध्यान एकदम से अपनी ओर आकृष्ट करती है। संग्रह की कविताओं में आक्रोश है और उस आक्रोश के मूल में सभी शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध मानवीय मुक्ति का पक्ष सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। भाषा और शैली की दृष्टि से धूमिल ने अपनी एक नयी पहचान बनायी है। हिंदी काव्य की परम्परागत रूपक योजना, मिथक रचना-प्रतीक-विधान का परित्याग कर इन्होंने भाषा एवं शैली – दोनों ही दृष्टियों से सपाट बयानी को अपनी कविता के लिए श्रेयष्कर समझा है। सामान्य बोल चाल की चालू भाषा और बिना लाग-लपेट के कहने का कौशल धूमिल की कव्य-शैली का प्रमुख आकर्षण है। धूमिल ने एक सार्थक विद्रोह भाव ही नहीं, एक नया काव्य-शिल्प भी दिया। भाव, भाषा और शिल्प – सभी दृष्टियों से धूमिल ने इस संग्रह में हिंदी कविता की एक नयी परंपरा का सूत्रपात किया है।

पुस्‍तक का नाम संसद से सड़क तक (काव्य-संग्रह)

रचनाकार : धूमिल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली

पहला संस्‍करण : 1972 (पुस्तकालय संस्करण)

छठा संस्करण : 1990

मूल्‍य : 50 रु.  (पेपरबैक्स में)

15 टिप्‍पणियां:

  1. आज महत्व शिल्प का नहीं कथ्य का है। सवाल यह नहीं कि आपने किस तरह कहा है, सवाल यह है कि आपने क्या कहा है?

    धूमिल जैसे रचनाकारों ने ही आज की कविता का मार्ग प्रशस्त किया है ..उनकी इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ ..कविताओं के अंश पढ़ कर उनके हृदय के आक्रोश को महसूस किया जा सकता है ...
    बहुत अच्छे से इस पुस्तक से परिचय कराया ..आभार

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  2. धूमिल पर बोलने की हैसियत नहीं अपनी…

    'क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है

    जिन्हें एक पहिया ढोता है

    या इसका कोई खास मतलब होता है ?'

    या फिर

    'और हत्या अब लोगों की रूचि नहीं –

    आदत बन चुकी है'


    में उपमा, इंगित अर्थ, भाव सब दिमाग को हिला-डुला देते हैं…आप इसे स्कैन कर के यहाँ ला देते तो अच्छा होता हालाँकि पटकथा सहित कई कविताएँ फुरसतिया के यहाँ या आपके यहाँ पढ़ने को मिली हैं।

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  3. और हाँ, यह लेख संग्रहणीय बन पड़ा है। बहुत धन्यवाद इसके लिए।

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  4. तितली के पंखों में

    पटाखा बांधकर भाषा के हलके में

    कौन-सा गुल खिला दूं

    जब ढेर सारे दोस्तों का गुस्सा

    हाशिए पर चुटकुला बन रहा है

    क्या मैं व्याकरण की नाक पर रूमाल बांधकर

    निष्ठा का तुक बिष्ठा से मिला दूं ?

    सुंदर समीक्षा । सीधे सादे शब्द गहरे अर्थों को लिये हुए ।

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  5. २०-२५ कविताओं का एक संग्रह या कहें एकमात्र संग्रह उस आम आदमी के प्रतिनिधि का वक्तव्य है जिसका नाम धूमिल है (मैं 'था'शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा)... उनकी नसों में रक्त नहीं व्यवस्था और दुस्र्दाशा से उपजा तेज़ाब बहता था... सैमुएल टेलर कोलरिज ने भी उँगलियों पर गिनती किये जाने भर काव्य रचा और उससे कहीं अधिक काव्य रचनाएँ अधूरी छोड़ गया... धूमिल और कोलरिज की यह समानता प्रमाणित करती है कि इन कवियों ने कविता लिखी नहीं परमात्मा ने उनसे लिखवाईं!!
    सुदामा पांडे धूमिल और उनके कविता संसार से परिचय करवाने का शुक्रिया मनोज बाबू!!

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  6. एक संक्रमण-काल हमेशा चलता रहता है। इसलिए,ऐसी कविताएं सार्वकालिक महत्व की होती हैं।

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  7. आलेख कवि धूमिल को समझने में काफी सहायक है।

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  8. pustak sameeksha ...ye ek achhee shrinkhla shuru ki hai aapne. saadhuvaad.

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  9. एक संवेदनशील मन कि व्यथा का जिस तरह चित्रण किया है धूमिल जी ने और आपने जिस तरह समीक्षा की है उसके लिए शब्द नही हैं …………उस आक्रोश को शब्दो मे उतारना आसान नही हो पाता……………बेहतरीन समीक्षा।

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  10. धूमिल की कविता में ओज है और देश की सामाजिक,राजनीतिक स्थिति से उपजी एक गहरी पीड़ा है...कुछ कवि बहुत कम लिख कर भी अमर होते हैं...क्योंकि उनकी कविता में आग होती है...जिसमें वे अपने आस-पास नजर आ रहे सारे अनर्थ को जला देना चाहता है। धूमिल में वही आग है...!!!

    बहुत पढ़ते हो मनोज जी!!! एक अच्छी आदत...आपको सादर प्रणाम!

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