आदरणीय सुधी जनों को अनामिका का नमन ! पिछले पांच अंकों में आपने कथासरित्सागर से शिव-पार्वती जी की कथा, वररुचि की कथापाटलिपुत्र (पटना)नगर की कथा, उपकोषा की बुद्धिमत्ता और योगनंद की कथा पढ़ी.
पिछले अंक में अपनी पत्नी उपकोषा के चरित्र की कथा सुना कर वररुचि ने काणभूति को अपने जीवन की शेष कहानी बताई, जो इस प्रकार थी - व्याकरण शास्त्र में प्रवीण होने के बाद वररुचि ने अपने गुरु उपाध्याय वर्ष से प्रार्थना की कि वे गुरु दक्षिणा के लिए निर्देश करें. उपाध्याय वर्ष ने कहा - मुझे एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ ला कर दो. एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ केवल राजा नन्द ही दे सकते थे, लेकिन वररुचि के पहुचने के उपरान्त ही राजा नन्द की मृत्यु हो चुकी थी. इन्द्रदत्त योगसिद्धि से परकाय प्रवेश की विद्या जानता था. उसने कहा - मैं इस मृत राजा के देह में प्रवेश करूँगा, वररुचि याचक बनेगा, मैं इसे एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ प्रदान करूँगा, तब तक व्याड़ी मेरे निष्प्राण देह की गुप्त रूप से रक्षा करेगा. इस प्रकार योगनंद (नन्द की देह में प्रविष्ट इन्द्रदत्त के जीव) ने मंत्री शकटार को आदेश दिया और याचक वररुचि को एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ तत्काल दे दी. अपार लक्ष्मी ने पूर्वनंद के देह में रहते इन्द्रदत्त को बावला बना दिया था..... अब आगे...
विलासी योगनन्द का अन्तःपुर असंख्य सुन्दरियों से भरा हुआ था और इधर स्त्रियों के वेश में कामुक पुरुष भी वहां जा घुसे थे. यह बात मैंने राजा को बता दी थी. तब से वह मेरे बारे में और शंकित रहने लगा था.
एक बार एक चित्रकार ने महारानी का बड़ा सुंदर चित्र बनाया. राजा ने प्रसन्न हो कर वह चित्र अपने शयनागार में दीवार पर लगवा लिया. मैं राजा के शयनगृह में बेखटके चला जाता था. मैंने वह चित्र देखा तो महारानी के सम्पूर्ण लक्षणों को विचार करके उनके मेखला स्थान (करघनी बाँधने की जगह ) पर तिल होना चाहिए - यह निश्चय करके चित्र में उचित स्थान पर तिल बना दिया और बाहर निकल आया.
राजा ने चित्र में तिल बना देखा तो रक्षकों से पूछा की यह तिल किसने बनाया. रक्षकों ने बताया कि मंत्री वररुचि तिल बना कर गए हैं.
अब योगनंद के मन में मेरे बारे में मिथ्या शंका घर कर गयी. उसने सोचा कि मैं रानी के गुप्त स्थान में बने तिल को कैसे जानता हूँ. अवश्य ही मेरा रानी से अनुचित सम्बन्ध है, तभी अन्तः पुर में स्त्री वेश में रहने वाले पुरुषों की बात भी मुझे विदित है.
यह समझ कर योगनंद ने एक बार शकटार को एकांत में बुलाया और कहा - इस मंत्री वररुचि ने मेरे अन्तःपुर में बड़ा दुराचार किया है, इसे समाप्त कर दो.
शकटार ने कहा - जैसी महाराज की आज्ञा !
पर शकटार ने सोचा कि वररुचि बुद्धिमान है और ब्राह्मण है, इसकी हत्या कराना उचित न होगा. इसलिए उसने मुझे राजा के आदेश के विषय में बता दिया और मुझसे कहा - तुम कुछ दिन छिप कर रहो, मैं राजा से झूठ कह देता हूँ कि वररुचि मार डाला गया है.
मैंने कहा - शकटार तुम बहुत समझदार हो. वैसे तुम मुझे मार भी नहीं सकते थे. क्यूंकि एक राक्षस मेरे मित्र है, वह मुझे बचा लेता.
शकटार ने पूछा - राक्षस तुम्हारा मित्र कैसे हो गया ? यदि सच में वह तुम्हारा मित्र है, तो मुझे दिखाओ.
मैंने राक्षस का स्मरण किया और राक्षस वाहन आ उपस्थित हुआ. शकटार ने मेरा लोहा मान लिया. मैंने उस से कहा - पूर्वनंद के देह में स्थित जीव इन्द्रदत्त ब्राह्मण का है, वह मेरा सहाध्यायी और मित्र है. तुम न उसे मारना न मुझे.
फिर मेरे कहने से राक्षस अंतर्धान हो गया. शकटार ने मुझसे पूछा - यह राक्षस कब से और कैसे तुम्हारा मित्र है ?
शकटार के अनुरोध पर मैंने उसे राक्षस के साथ अपनी मित्रता की कथा सुनाई, जो इस प्रकार थी -
पाटलिपुत्र नगर में जो भी नगराधिप बनता, उसे रात्री में गश्त देते समय कोई मार डालता. तब योगनंद ने नगराधिप का काम मुझे सौंप दिया. मैं रात को भ्रमण के लिए निकला और एक शून्य स्थान में राक्षस ने मुझे पकड़ लिया और पूछा - बताओ इस नगर में सबसे स्त्री कौन है ?
मैंने हंस कर उत्तर दिया - अरे मूर्ख, जिसका जी जिस पर आ जाए, उसके लिए वही स्त्री सबसे सुंदर है.
यह सुन कर राक्षस प्रसन्न हो गया और बोला - अब मैं तुम्हारी हत्या नहीं करूँगा . मैं तुम पर प्रसन्न हूँ. आज से हम तुम मित्र हुए. तुम मुझे जब भी स्मरण करोगे, मैं उपस्थित हो जाऊंगा.
वररुचि ने काणभूति को अपने जीवन की आगे की कथा सुनाते हुए कहा - बहुत समय तक शकटार ने मुझे छिपा कर रखा. एक बार राजा योगनंद विपत्ति में पद गया. उसका लड़का था राजकुमार हिरण्यगुप्त. वह पागल हो गया. शकटार ने भी अवसर देख कर कहा - यदि वररुचि होता, तो वही बता सकता था कि राजकुमार के पागलपन का कारण क्या है.
योगनंद को भी उसी समय मेरी बड़ी याद आई. अवसर पा कर शकटार ने मेरे जीवित होने का रहस्य खोला. योगनंद ने मुझे देखने की इच्छा प्रकट की. मैं उसके सामने प्रकट हुआ. योगनंद ने राजकुमार के पागल होने का कारण पूछा . मैंने कहा - इसने मित्रद्रोह किया है. मित्र के शाप से यह पागल हुआ है.
मेरे इतना कहते ही राजकुमार ने भी मित्रद्रोह की बात स्वीकार कर ली और इसके साथ ही उसका पागलपन चला गया. राजा ने पूछा - तुमने इसका रहस्य कैसे जान लिया.
मैंने कहा - वैसे ही जैसे मैंने तुम्हारी रानी के मेखला स्थान में तिल होने का रहस्य जान लिया था. प्रतिभावान व्यक्ति अपनी प्रज्ञा से अतीत, अनागत और अदृश्य को भी देख लेता है.
राजा ने यह सुन कर मेरा बड़ा सम्मान किया और फिर से मंत्री पद पर कार्य करने का अनुरोध किया. मैं उसके दान-सम्मान की उपेक्षा कर के चल दिया.
वररुचि की कथा का शेष वृतांत अगले अंक में प्रकाशित किया जाएगा तब तक के लिए आज्ञा और नमस्कार !
आपकी प्रस्तुति में नवीनता एवं मौलिकता होने के कारण इसे पढ़ कर अपने ज्ञान के भंडार में श्रीवृद्धि करना अच्छा लगता है । कम से कम मानसिक खुराक तो मिल जाती है। आपके अगले पोस्ट का इंतजार रहेगा । धन्य़वाद ।
जवाब देंहटाएंअच्छी कथा ..आभार
जवाब देंहटाएंमानव स्वभाव के अनेक रहस्यों को खोलती इन कथाओं से हम कुछ शिक्षायें भी ग्रहण कर सकते हैं .
जवाब देंहटाएंआपका आभार !
यहाँ पर करधनी पर तिल ( किन्तु कालिदास ने रजा भोज की रानी के जांघ पर तिल का निशान बनाया था ) का संयोंग है या आगे कहानी में कोई मोड़ है.
जवाब देंहटाएंअच्छी कथा ..आभार
जवाब देंहटाएंसीख देती हुई रोचक कथा ....
जवाब देंहटाएंसुन्दर ,सरल कथा बहुत बढ़िया लगी |
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंBahut,bahut rochak katha!
जवाब देंहटाएंबड़ी रोचक कथाएं हैं कथासरित्सागर में। यह अंक भी विशेष रुचिकर लगा।
जवाब देंहटाएंरोचक कथा है वररुचि की ! आनंद आ रहा है ! आप कथा सुनाने का क्रम जारी रखिये ! हम सुनते रहेंगे ऐसे ही यह हमारा वादा है आपसे !
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक कथा. आभार
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंकहानी दर कहानी। बढिया है।
जवाब देंहटाएं