मैथिली देश की प्राचीन और मधुरतम भाषाओँ में से एक है. यह बिहार के उत्तरी हिस्से में बोली जाती है और लगभग ३ करोड़ लोगों की यह मातृभाषा है. मैथिली बोली नहीं है भाषा है इसलिए भी कि इसका एक प्राचीन और प्रचुर साहित्य है, अपनी लिपि है अपना व्याकरण है. कुछ वर्ष पहले इसे संविधान की आठवी अनुसूची में भी शामिल कर लिया गया है. चूँकि मिथिला प्रदेश की आर्थिक हालत आज़ादी के बाद से लगातार ख़राब होती गई इस भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर वो पहचान नहीं मिली जिसकी यह हक़दार थी. मैथिली भाषी सरकार और सरकार से बाहर बड़े बड़े पदों पर विभूषित रहे किन्तु उन्होंने अपनी भाषा के प्रति वह मोह नहीं दिखाया जो मातृभाषा के प्रति होनी चाहिए. इस परिदृश्य में मैथिली पत्रिका प्रकाशित करना कितना दुरूह हो सकता है इसका अंदाज़ सहजता से लगाया जा सकता है. फिर भी कुछ लोग आन्दोलनरत रहते हैं. और ऐसे ही एक आन्दोलन सरीखे प्रयास से एक पत्रिका "आंकुर" पिछले सात वर्षो से अनियतकालीन रूप से प्रकाशित हो रही है और इसके संपादक है श्री हेमचंद झा और रविन्द्र झा जी.
कोई तीन वर्ष पूर्व जब यह पत्रिका मेरे आँखों से गुजरी तो इसकी हालत ठीक मातृभाषा सी थी. कलेवर और मुद्रण की दृष्टि से बेहद कमजोर, गरीब और दरिद्र. बाढ़ से पीड़ित मिथिला की भांति. मेरे भीतर भी अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम उमड़ा और मैंने आंकुर के रूप सज्जा और मुद्रा की जिम्मेदारी ले ली. अब यह पत्रिका किसी साहित्यिक पत्रिका का मुकाबला कर सकती है. विषय वस्तु और साहित्य में आंकुर में मैथिली के बड़े और नए सभी साहित्यकारों को स्थान मिल ही रहा है साथ ही अब इस पत्रिका का कलेवर भी देखने लायक हो गया है.
कल यानि सोमवार को सुबह सुबह मेरे मुद्रक का फ़ोन आया कि आंकुर पत्रिका छप कर तैयार है. चूँकि आज मैं बाइक लेकर घर से निकला था और अपने कार्यालय के देर भी हो रहा था, मैंने अपने मुद्रक से अक्षरधाम तक आने का अनुरोध किया और केवल सौ प्रतिया लाने के लिए कहा. अपनी बाइक के पीछे आंकुर को लेकर रिंगरोड तक पंहुचा ही था कि एक ऑटो पर लदे सामन के किसी सिरे से पत्रिका फंस गई और रिंग रोड पर मिलेनियम पार्क के सामने सड़क पर बिखर गई. जब तक मैं समझ पता और बाइक किनारे लगता आंकुर के ऊपर से कार, बस के पहिये गुजर चुके थे. मैं हाथ लहरा लहरा कर गाडी वालो से रुकने का अनुरोध कर रहा था, किनारे से जाने का अनुरोध कर रहा था लेकिन किसे फुर्सत थी कि आधे सेकेण्ड के लिए गाड़ी धीरे कर ले या किनारे कर ले. आंकुर की कई प्रतिया चिंदी चिंदी हो हवा में बिखर गई थी. मैं बची हुई प्रतियों को समेट रहा था कि लगा एक काले रंग की वैगन आर धीरे होकर कुछ आगे जाकर रुकी. उस कार से दो युवा उतरे. उन्होंने थोड़ी देर के लिए अपनी कार आंकुर की प्रतियों के साथ लगा दी और उन बिखरे और बची हुई प्रतियों को समेटने में मेरी मदद की.
बीच सड़क पर दो दोस्तों को अपने साथ पा कर लगा कि दुनिया में संवेदनशील लोगों की कमी नहीं है. आंकुर की एक एक प्रति उन्हें देते हुए बहुत अच्छा लगा. आंकुर के साथ हुए हादसे और बीच सड़क पर तेज़ आती गाड़ियों के बीच आंकुर की प्रतियाँ चुनने में मैं इतना सदमे में था कि उनका नाम पूछना ही भूल गया लेकिन ऑटो एक्सपो के कारण आगे लगी जाम में वे दो मित्र फिर मिल गए और इस बार मैं अवसर नहीं चूकना चाहता था. वे थे विष्णु और अनिल. उनके लिए धन्यवाद बड़ा कम सा लग रहा है. फिर भी धन्यवाद विष्णु, धन्यवाद अनिल !
प्रस्तुत है आंकुर पत्रिका से मिथिला के प्रतिष्ठित कवि श्री सारस्वत जी की एक कविता :
इस अच्छी प्रस्तुति पर ढेर सारी बधाई ||
जवाब देंहटाएंबहुत संवेदनशील प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंbhaijee.....apnek ee lekhmala sa~ mon dravit bhai
जवाब देंहटाएंgel.....
nav-udarvad ke pawan-pravah me naih jain katek mithila ratna kahan sa kahan pahunch gelah udaharanswaroop......sanjay jha, ceo, motorala co., vishwa ke sarv-shresth paid-up ceo thikah.
paranch, samoohik jivan ke mool-darshan je lok-aachar-byvhar sa~ pusht evam parimarjit hoeet aich.....takar sarbhata abhav bha chukal aich.....aa-or takre parinam je kam-sa-kam 5 carore lokal bhasha, sahitya evam lipik rahiton
"maithili" daridra banal aich....
ahank koti-koti sadhuvad aur subhkamna "aankur"
san-hak anmol patrika me apan amulya yogdan da
rahal chiaik.........
pranam.
Bahut achha alekh.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ....."आंकुर" के प्रकाशन से बहुत ही खुशी मिली है ,मातृभाषा से लगाव तो होता ही है .आभार
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावुक कर देने वाला प्रसंग। सच में ऐसे लोग मिल ही जाते हैं।
जवाब देंहटाएंमन भर आया.. मैंने जब पहली बार अपने एक मित्र को मैथिली भाषा में पत्र लिखते देखा था तो मुझे यह लिपि बांग्ला जैसी लगी थी.. संयोग से या दुर्योग से दुबारा किसी को इस लिपि में लिखते न देखा.. इस आलेख में यदि मैथिली लिपि से भी हमारा परिचय हो पाता तो हमें पता चलता!
जवाब देंहटाएंसैथिली भाषा के कवि सारस्वत जी की अंकुर पत्रिका में प्रकाशित कविता अच्छी लगी । इसी बहाने सारस्वत जी के बारे में जान पाया । धन्यवाद । .
जवाब देंहटाएंमैंने पत्रिका का नया-पुराना दोनों रूप देखा है। सचमुच चीज़ें बेहतर हुई हैं। मैथिली को चौतरफा सहयोग की ज़रूरत है। जो कोई भी इसमें योगदान दे पा रहे हैं,धन्यवाद के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंbhawbhini......bhawuk ho gayee main to......
जवाब देंहटाएंbhavuk prastuti.
जवाब देंहटाएंbahut sunder,samvedanshilta aaj bhi jivit hai,hridaysparshi prasang
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