पुस्तक परिचय – 17 : परीक्षा-गुरू
आभार दो वर्षों की इस यात्रा में साथ देने के लिए
आज वसंत पंचमी है। आज के ही दिन दो साल पहले हमने इस ब्लॉग की शुरुआत की थी। सोचा नहीं था कि इतनी दूर तक जा पाएंगे। जब-जब राजभाषा हिंदी ब्लॉग की बात करता हूं, अनूप जी की चर्चा आ ही जाती है। हमारे दफ़्तर आए थे। हमारे संगठन में राजभाषा के क्रियान्वन की भी जिम्मेदारी हम पर है। यह देख उन्होंने इस तरह के ब्लॉग को शुरु करने के लिए मुझे प्रेरित किया। तब नया-नया ब्लॉगिंग के फ़िल्ड में आया था। मुझे लगा अनूप शुक्ल कह रहे हैं, तो इसमें सक्रिय सहयोग भी उनका मिलेगा ही। मैं शुरू हो गया। पर कुछ ही दिनों में लगा कि यह तो चने के झाड़ पर चढ़ा दिया गया हूं मैं। ख़ैर जब कारवां चला तो साथी भी मिलते गए और इसी का नतीज़ा है कि आज यह ब्लॉग दो साल पूरा कर तीसरे साल में प्रवेश कर गया है और 770 पोस्ट के साथ ब्लॉग जगत में अपनी एक अलग पहचान बना चुका है। मैं सबसे पहले तो इस ब्लॉग की टीम के सदस्यों का आभार प्रकट करना चाहूंगा, जिनके सहयोग के बिना यह संभव न होता। साथ ही इस ब्लॉग के पाठकों का भी, धन्यवाद करना चाहूंगा जो अपने सार्थक और मूल्यवान विचारों से हमे आगे बढ़ते रहने को प्रेरित करते रहे। मनोज कुमार
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आज के पुस्तक परिचय में हम आपका परिचय कराने जा रहे हैं हिंदी के पहले मौलिक उपन्यास : “परीक्षा-गुरू” से। उन्नीसवी शताब्दी के अस्सी के दशक आते-आते तक नाटकों और निबंधों की ओर विशेष झुकाव रहने के बावज़ूद भी बंगला की देखादेखी नए ढंग के उपन्यासों की ओर भी रचनाकारों का ध्यान गया। लाला श्रीनिवास दास ने अंगरेज़ी ढंग का पहला मौलिक उपन्यास लिखा।
यह एक सामाजिक उपन्यास है जो सोद्देश्य लिखा गया है। इसका लक्ष्य समाज की कुरीतियों को सामने लाकर उनका विरोध करना है और आदर्श समाज की रचना का संदेश देना है। कहानी लंबे-लंबे वार्तालाप प्रसंगों से आगे बढ़ती है। कहानी के प्रमुख पात्र लाला मदन मोहन, लाला ब्रजकिशोर, मुंशी चुन्नीलाल और मास्टर शंभुदयाल सौदागर की दुकान में मिलते हैं। उपन्यास यथाक्रम यानी सिलसिलेवार नहीं लिखा गया है। जैसे-जैसे आप इसे पढ़ते जाएंगे, पात्रों के चरित्र से आपका परिचय होता जाएगा। यह विशिष्ट शैली इसकी रोचकता बनाए रखती है। मुंशी चुन्नीलाल पहले ब्रजकिशोर के यहां नौकरी करते थे। उसे लिखना-पढ़ना नहीं आता था। ब्रजकिशोर की संगति में उन्होंने सीखा। पर चालाकी उनकी नियत में रची-बसी थी। इसलिए हमेशा उल्टी-सीधी चालें चला करते थे। ब्रजकिशोर ने पहले समझाया और जब उनकी आदतों में परिवर्तन नहीं आया, तो अपने यहां से उन्हें चलता किया।
लाला मदनमोहन ने चुन्नीलाल को अपने यहां काम पर रख लिया। चुन्नीलाल ने लाला मदनमोहन के स्वभाव को अच्छी तरह से परख लिया। मदनमोहन को चापलूसी और वाहवाही करने वाले लोग बहुत पसंद थे। शरीर का सुख और कम क़ीमत पर अधिक मुनाफ़ा कमाना उनकी चाहत थी। मुंशी चुन्नीलाल उनकी इन कमज़ोरियों का फ़ायदा उठाकर उन्हें खूब लूटता था।
मदनमोहन के पिता अंगरेज़ी पढ़े-लिखे नहीं थे इसलिए मास्टर शंभुदयाल मदनमोहन को अंगरेज़ी पढ़ाने के लिए रखे गए थे। पर मदनमोहन का मन खेलकूद में रमता था। मदनमोहन ने सिफ़ारिश करके शंभुदयाल को मदरसे में नौकरी लगवा दिया। दोनों का एक साथ काफ़ी समय गुज़रता था।
पंडित पुरुषोत्तमदास का मदनमोहन के यहां आना-जाना लगा रहता था। लोगों को सुख और खुश देख इन्हें जलन होती थी। बिना जाने हर बात में टांग अड़ाना इनकी आदत में शुमार था। और भी कई खुशामद करने वाले लोग लाला मदनमोहन के इर्दगिर्द जमे रहते थे। मदनमोहन सब पर विश्वास कर लेते थे।
मदनमोहन की पत्नी एक पतिव्रता स्त्री थी। अपने पति पर क्रोध करना तो उन्होंने सीखा ही नहीं था। उनकी दृष्टि में मदनमोहन एक देवता थे। वे एक कुशल गृहिणी थीं और थोड़े खर्च में घर का सारा प्रबंध कर लेती थीं। कभी-कभार पति को सलाह दे देती थीं, लेकिन अपने विचार थोप नहीं सकती थीं, कभी विवाद नहीं करती थीं। चुन्नीलाल, शंभूदयाल और अन्य स्वार्थी लोगों की स्वार्थपरता से अच्छी तरह वाकिफ़ थीं लेकिन पति की ताबेदारी करना अपना कर्तव्य समझ कर बाट देख रही थी।
ब्रजकिशोर ही एक था जिसपर मदनमोहन की पत्नी को भरोसा था। वह कभी ब्रजकिशोर से आमने-सामने तो नहीं मिलीं लेकिन उसे धर्म भाई मानती थीं। ब्रजकिशोर ग़रीब मां बाप का बेटा था। उसे संसारी सुख भोगने की तृष्णा नहीं थी। जिससे उसका संसार चल सके, बस उतनी ही दौलत की उसे ज़रूरत थी। किसी की दया का बोझ वे अपने सिर पर उठा नहीं सकते थे। मदनमोहन के पिता ने ब्रजकिशोर की पढ़ाई लिखाई का खर्च उठाया था। इस उपकार के बंधन में वे मदनमोहन का साथ देते रहते थे। पर अपनी अमीरी ठाट-बाट में मदनमोहन अच्छे बुरे में फ़र्क़ न कर सका। लोगों ने ब्रजकिशोर के खिलाफ़ उसके कान भर दिए और वह वह उसे कपटी, चुगलखोर, द्वेषी आदि समझने लगा। धीरे-धीरे ब्रजमिशोर ने उनसे किनारा कर लिया।
समय की मार मदनमोहन बुरी तरह से मुसीबतों में फंसते चले गए। क़र्ज़ और अन्य तरह की परेशानियों ने उन्हें कोर्ट कचहरी के चक्कर भी लगाने पर मज़बूर कर दिया। अंत में एक बार फिर से ब्रजकिशोर उनकी मदद को सामने आता है और अंत में सारी मुसीबतों से लाला मदनमोहन को छुटकारा मिलती है।
भारतेन्दु युग के के लेखकों में लाला श्रीनिवास दास का महत्वपूर्ण स्थान है। उनका लिखा “परीक्षा-गुरू” एक शिक्षाप्रद उपन्यास है। यह वह समय था जब खड़ी बोली को स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा था। इस उपन्यास में खड़ी बोली के साथ-साथ उन्होंने बोलचाल के शब्द और मुहावरों का अच्छा प्रयोग किया है।
इस पुस्तक में दिल्ली के एक रईस का चित्र उतारा गया है और उसको स्वाभाविक दिखाने के लिए संस्कृत या फ़ारसी अरबी के कठिन-कठिन बनावटी भाषा के बदले दिल्ली के रहने वालों की साधारण बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया गया है। चूंकि यह खड़ी बोली में लिखी जाने वाली हिंदी की आरंभिक अवस्था थी, इसलिए अशुद्धियों का होना अनिवार्य था। उसकी ओर ध्यान दिलाने का हमारा उद्देश्य नहीं है। हमारा यह भी उद्देश्य नहीं है कि इस उपन्यास की हम आलोचनात्मक समीक्षा करें। हम तो बस इस उपन्यास से आपका परिचय भर कराना चाहते थे ताकि आप इस ऐतिहासिक महत्व के उपन्यास को पढ़ें। उस युग के हिसाब से समाज के लिए यह एक बहुत बड़ी देन थी। खड़ी बोली में लिखे गए रोचक कथा के माध्यम से उपन्यास ने सामान्य जनता में हिंदी की लोकप्रियता बढ़ाई।
पुस्तक का नाम | परीक्षा-गुरू |
लेखक | लाला श्रीनिवास दास |
प्रकाशक | लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद |
संस्करण | 2008 |
मूल्य | |
पेज | 213 |
इस ब्लॉग के २ वर्ष पूरा होने की हार्दिक बधाई.ग़ज़ब की ऊर्जा है आपके पास.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कुंवर साहब! आप जैसे मित्रों की मित्रता से ही ऊर्जा मिलती है।
हटाएंउम्दा प्रस्तुति…………बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनायें। ब्लॉग के २ वर्ष पूरा होने की हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंइस पुस्तक परिचय के साथ ही दूसरी वर्ष-गाँठ एवं वसंतोत्सव की शुभकामनाएं!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर,सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंऋतुराज वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
ब्लॉग के दो वर्ष पूरे होने पर बधाई ... सार्थक पुस्तक परिचय ... बसंत पंचमी की शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंदूसरी वर्ष-गाँठ एवं वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं!!
जवाब देंहटाएंब्लॉग के दो वर्ष पूरा होने पर हार्दिक बधाइयां!!!
जवाब देंहटाएंपरीक्षा-गुरु हिंदी का पहला उपन्यास स्वीकार किया जाता है। इसके बारे में जानकारी और उपन्यास का संक्षिप्त सार देकर आपने बहुत अच्छा कार्य किया है। धन्यवाद!!!
परीक्षा-गुरु का परिचय अच्छा लगा, बहुत बहुत बधाई !
जवाब देंहटाएंaabhar is prakar ki pustak se parichay karane k liye.
जवाब देंहटाएंआपके इस उत्तर से मुझे काफी लाभ मिला । धन्यवाद सर
जवाब देंहटाएंअपनी टिप्पणी लिखें... mujhe aapaki is samiksha se bahut sahayata mili isliye bahut bahut dhanyavad.
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