शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

काव्य शास्त्र-10 :: आचार्य रुद्रट

आचार्य रुद्रट :: -आचार्य परशुराम राय

काव्यशास्त्र के इतिहास में आचार्य वामन के बाद प्रसिद्ध आचार्य रुद्रट का नाम आता है। इनका एक नाम शतानन्द भी है। इस संदर्भ में आचार्य रुद्रट के एक टीकाकार ने इन्हीं का एक श्लोक उद्धृत किया हैः-

शतानन्दपराख्येन भट्टवामुकसूनुना।

साधितं रुद्रटेनेदं समाजा धीनतां हितम्।।

इसके अनुसार इनके पिता का नाम वामुकभट्ट था। इनका रुद्रट नाम जैसा शतानन्द प्रसिद्ध नहीं हुआ। आचार्य रुद्रट के मत का उल्लेख धनिक, मम्मट, राजशेखर आदि कई आचार्यों ने किया है। आचार्य, राजशेखर इनके सबसे पहले के पूर्ववर्ती आचार्य है और इनका काल लगभग 920 ई. के आस-पास माना जाता है। इस प्रकार आचार्य रुद्रट का काल नौवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के आस-पास मानना चाहिए।

काव्यशास्त्र के अधिकांश आचार्य कश्मीरी हैं और इनमें से अधिकांश आचार्यों ने अपने ग्रंथों को ‘काव्यलङ्कार’ नाम से ही अभिहित किया है। आचार्य रुद्रट ने भी अपने काव्यशास्त्र के ग्रंथ का नाम भी यही रखा है। इस ग्रंथ में कुल 714 आर्याएँ (एक छंद विशेष) हैं और यह 16 अध्यायों में विभक्त हैं।

आचार्य रुद्रट नौ रसों के स्थान पर दस रस मानते हैं। दसवें रस को ‘प्रेयरस’ के नाम से इन्होंने अभिहित किया है। इसके अतिरिक्त अलंकारों का विभाजन करने के लिए उन्होंने चार तत्व निर्धारित किए हैं-औपम्य, अतिशय और श्लेष। इन्होंने मत, साम्य, पिहित और भाव नाम के चार नये अलंकार प्रतिपादित किए हैं। कुछ प्राचीन आचार्यों द्वारा प्रतिपादित अंलकारों को इनके द्वारा नए नाम दिए गये हैं, यथा आचार्य भामह के ‘व्याजस्तुति अलंकार’ को व्याजश्लेष, ‘स्वभावोक्ति’ को ‘जाति’ और ‘उदात्त’ को ‘अवसर अलंकार’ आदि ।

आचार्य रुद्रट के ग्रंथ ‘काव्यालंकार’ के तीन टीकाकारों का उल्लेख मिलता है- आचार्य वल्लभदेव, आचार्य नमिसाधु और आचार्य आशाधर। अन्तिम दो टीकाकार जैन यति थे। आचार्य वल्लभ देव की टीका‘रुद्रटालंकार’ अभी तक उपलब्ध नहीं हो पायी है।

आचार्य रुद्रभट्ट

आचार्य रुद्रभट्ट का ग्रंथ ‘शृंगारतिलक’ के नाम से जाना जाता है। हालाँकि प्राचीन और अर्वाटीन अधिकांश विद्वान आचार्य रुद्रट और आचार्य रुद्रभट्ट को एक ही व्यक्ति मानते हैं। जबकि कुछ विद्वान दोनों को भिन्न मानते हैं और ऐसे विद्वानों के निम्नलिखित तर्क हैः-

1. आचार्य रुद्रट के ग्रंथ का नाम काव्यालंकार है, जबकि आचार्य रुद्रभट्ट के ग्रंथ का नाम ‘शृंगारतिलक’ है।

2. ‘काव्यालंकार’ में 16 अध्याय हैं, किन्तु ‘शृंगारतिलक’ में तीन परिच्छेद हैं।

3. आचार्य रुद्रट काव्यत्व अलंकारों में मानते हैं, जबकि आचार्य रुद्रभट्ट काव्य का प्रधान तत्व रस मानते हैं।

4. ‘काव्यलंकार’ में दस रसों (दसवाँ प्रेम रस) का उल्लेख है तथा ‘शृगारतिलक’ में नौ रसों का उल्लेख है।

5. ‘काव्यालंकार’ में पाँच वृत्तियों (शैलियों) का उल्लेख किया गया है – मधुरा, परुषा, प्रौढ़ा, ललिता और भद्रा। किन्तु रुद्रभट्ट केवल चार वृत्तियाँ मानते है- कौशिकी, भारती, सात्वती और आरभटी।

6. नायक-नायिका भेद करते समय आचार्य रुद्रट ने वेश्यानायिका का वर्णन मात्र दो श्लोकों में किया है, किन्तु रुद्रभट्ट ने इसका विस्तार से वर्णन किया है।

प्राचीन सूक्तिसंग्रहों में दोनों आचार्यों के पद्य एक-दूसरे के नामों से उल्लिखित हैं। शायद इसी आधार पर इन दोनों आचार्यों को विद्वान एक ही व्यक्ति मानते हैं।

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