बुधवार, 29 फ़रवरी 2012


हरिवंशराय बच्चन

10. साथी, सो न, कर कुछ बात

साथी, सो न, कर कुछ बात !

बोलते    उडुगण   परस्पर,
तरु  दलों  में मन्द ‘मरमर’,
बात  करतीं सरि-लहरियां कूल से जल-स्नात!
साथी, सो न, कर कुछ बात !

बात  करते   सो  गया  तू,
स्वप्न  में फिर  खो गया तू,
रह  गया  मैं  और  आधी  बात, आधी रात!
साथी, सो न, कर कुछ बात !

पूर्ण  कर   दे  वह  कहानी,
जो   शुरू  की  थी  सुनानी,
आदि  जिसका हर निशा  में, अन्त चिर अज्ञात!
साथी, सो न, कर कुछ बात !
***

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

कहते हैं तारे गाते हैं


हरिवंशराय बच्चन

9. कहते हैं तारे गाते हैं

कहते  हैं,  तारे  गाते हैं!

सन्नाटा वसुधा पर छाया,
नभ में हमने कान लगाया,
फिर भी अगणित कंठों का यह राग नहीं हम सुन पाते हैं!
कहते  हैं,  तारे  गाते हैं!

स्वर्ग सुना करता यह गाना,
पृथ्वी ने तो बस यह जाना,
अगणित  ओस-कणों में  तारों के नीरव आंसू  आते हैं!
कहते  हैं,  तारे  गाते हैं!

ऊपर देव, तले मानवगण,
नभ में दोनों गयन-रोदन,
राग  सदा  ऊपर को उठता, आंसू  नीचे झर जाते हैं!
कहते  हैं,  तारे  गाते हैं!
***

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

प्रेरक प्रसंग-25 : आश्रम के नियमों का उल्लंघन

प्रेरक प्रसंग-25

प्रेरक प्रसंग – 1 : मानव सेवा, प्रेरक-प्रसंग-2 : सहूलियत का इस्तेमाल, प्रेरक प्रसंग-3 : ग़रीबों को याद कीजिए, प्रेरक प्रसंग-4 : प्रभावकारी अहिंसक शस्त्र, प्रेरक प्रसंग-5 : प्रेम और हमदर्दी, प्रेरक प्रसंग-6 : कष्ट का कोई अनुभव नहीं, प्रेरक प्रसंग-7 : छोटी-छोटी बातों का महत्व, प्रेरक प्रसंग-8 : फूलाहार से स्वागत, प्रेरक प्रसंग-९ : बापू का एक पाप, प्रेरक-प्रसंग-10 : परपीड़ा, प्रेरक प्रसंग-11 : नियम भंग कैसे करूं?, प्रेरक-प्रसंग-12 : स्वाद-इंद्रिय पर विजय, प्रेरक प्रसंग–13 : सौ सुधारकों का करती है काम अकेल..., प्रेरक प्रसंग-14 : जलती रेत पर नंगे पैर, प्रेरक प्रसंग-15 : वक़्त की पाबंदी, प्रेरक प्रसंग-16 : सफ़ाई – ज्ञान का प्रारंभ, प्रेरक प्रसंग-17 : नाम –गांधी, जाति – किसान, धंधा ..., प्रेरक प्रसंग-18 : बच्चों के साथ तैरने का आनंद, प्रेरक प्रसंग-19 : मल परीक्षा – बापू का आश्चर्यजनक..., प्रेरक प्रसंग–20 : चप्पल की मरम्मत, प्रेरक प्रसंग-21 : हर काम भगवान की पूजा, प्रेरक प्रसंग-22 : भूल का अनोखा प्रायश्चित, प्रेरक प्रसंग-23 कुर्ता क्यों नहीं पहनते? प्रेरक प्रसंग-24 : सेवामूर्ति बापू

आश्रम के नियमों का उल्लंघन

प्रस्तुतकर्ता : मनोज कुमार

बापू बा के कमरे में थे। गुजराती में तेज़ आवाज़ में बातें कर रहे थे। आवाज़ की तल्ख़ी बता रही थी कि मामला कुछ गंभीर है। ऐसा लग रहा था कि वे बा के ऊपर कोई आरोप लगा रहे हों। उसी समय मीरा बहन उनसे मिलने वहां पहुंची थीं। उनकी समझ में गुजराती भाषा आती नहीं थी, इसलिए क्या माज़रा है, वो समझ नहीं पाईं।

अगले दिन प्रार्थना सभा में बापू ने जो कहा, वह सबके लिए आश्चर्य का विषय था। अमूमन वे सभा में लोगों के प्रश्न आमंत्रित करते थे, उस दिन ऐसा किए बिना वे बोलने लगे। “नवजीवन में लगातार छप रही मेरी आत्मकथा तो आप सब पढ़ ही रहे होंगे। इसमें आपने कई अध्यायों में देखा होगा कि मैंने हमारी धर्मपत्नी कस्तूरबा बाई की कितनी प्रशंसा की है। मेरे जीवन के सुख-दुख, उतार-चढ़ाव में उन्होंने मेरा क़दम-क़दम पर साथ दिया है। मेरे राह आदर्श भरे रहे हैं, उस पर चलने में वो कभी भी बाधा नहीं बनीं। जब मैंने अपनी इच्छा से ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने का निर्णय लिया तो न सिर्फ़ उन्होंने मेरे इस निर्णय का सम्मान किया, बल्कि मेरे लिए शक्ति का स्रोत बन कर मेरे साथ रहीं। इस सब के पीछे मुझे लगता है कि यह एक अंध पतिभक्ति थी।”

अगली पंक्ति में बा बैठी यह सब सुन रही थीं। उनका चेहरा निर्विकार था। बापू कहे जा रहे थे, “पतिभक्ति की मज़बूरी में लगता है कि उन्होंने हालाकि सांसारिक वस्तुओं का परित्याग तो कर दिया है पर उसको पाने की इच्छा अभी भी उनमें बाक़ी है। इसका परिणाम यह हुआ है कि लोगों से जो भेंट मिलती रही है, उनमे से लगभग एक साल पहले उन्होंने दो सौ रुपए अलग रख लिए थे। इसे मैं आश्रम के नियमों का उल्लंघन मानता हूं। आप सभी जानते हैं कि आश्रम का नियम है कि व्यक्तिगत उपहार भी निजी उपयोग के लिए नहीं रखे जा सकते। इसलिए बा ने जो किया है उसे मैं चोरी की श्रेणी में रखता हूं। बा ने इस बात के मालूम हो जाने के बाद पश्चाताप भी किया था। मैं समझ रहा था कि उनका पश्चाताप सही था, किन्तु कुछ ही दिन पहले एक आगन्तुक ने चार रुपए भेंट में दिए थे। बा ने इस राशि को प्रबंधक को न देकर अपने पास रख ली। इसका मुझे बहुत दुख है। हद तो यह है कि आश्रम के एक वरिष्ठ सदस्य ने उन्हें ऐसा करते देखा, किन्तु शिष्टाचार को निभाते हुए उन्होंने इस विषय को किसी और को बताना उचित नहीं समझा। कल उन्होंने मगनलाल भाई को इस घटना के बारे में जानकारी दी। मगनभाई ने डरते हुए ही सही बा से पैसे मांगा और बा ने शर्मिंदगी के साथ पैसे वापस कर दिए। उन्होंने ऐसी ग़लती फिर से न करने का वचन मुझे दिया है।

“आश्रम में किसी प्रकार की गड़बड़ी या हेरा-फेरी को मैं अपने भीतर की ग़लतियों का प्रतिबिम्ब मानता हूं। आश्रम मेरे लिए मेरी सर्वश्रेष्ठ रचना है। इसके माध्यम से मैं ईश्वर के दर्शन करना चाहता हूं।”

बा चुपचाप बैठी रहीं। किसी कि हिम्मत नहीं हो रही थी कि वे बा की ओर देख सकें। लोगों की आंखों से झर-झर आंसू बह रहे थे। बा अपनी साड़ी की कोर से आंखें पोंछ रही थीं।

***

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

कुरुक्षेत्र ..... चतुर्थ सर्ग .... भाग -8


हृदय प्रेम को चढ़ा , कर्म को
              भुजा समर्पित  करके
मैं आया था कुरुक्षेत्र में
              तोष हृदय में भर के ।
 
समझा था , मिट गया द्वंद्व
             पा कर यह न्याय विभाजन
ज्ञात न था , है कहीं कर्म से
                कठिन स्नेह का बंधन । 
 
दिखा धर्म की भीति, कर्म
                 मुझसे सेवा लेता था ,
करने को बलि पूर्ण स्नेह
                नीरव इंगित देता था ।
 
धर्मराज , संकट में कृत्रिम
                 पटल उघर जाता है ,
मानव का सच्चा स्वरूप
            खुल कर बाहर आता है ।
 
घमासान ज्यों बढ़ा , चमकने
                 धुंधली लगी कहानी
उठी स्नेह - वंदन करने को
                 मेरी दबी जवानी ।
 
फटा बुद्धि -भ्रम , हटा कर्म का
              मिथ्या  जाल नयन से ,
प्रेम अधीर पुकार उठा
             मेरे शरीर से , मन से ।
 
लो , अपना सर्वस्व  पार्थ !
              यह मुझको मार गिराओ
अब है विरह असह्य, मुझे
             तुम स्नेह -धाम  पहुंचाओ ।
 
ब्रह्मचर्य्य के प्रण के दिन जो
                   रुद्ध हुयी थी धारा ,
कुरुक्षेत्र में फूट उसी ने
               बन कर प्रेम पुकारा ।
 
बही न कोमल वायु , कुंज
            मन का था कभी न डोला
पत्तों की झुरमुट में छिप कर
                 बिहग न कोई बोला ।
 
चढ़ा किसी दिन फूल , किसी का
                 मान न मैं कर पाया
एक बार भी अपने को था
               दान न मैं कर पाया ।
 
वह अतृप्ति थी छिपी हृदय के
               किसी निभृत कोने में ,
जा बैठा था आँख बचा
                जीवन चुपके दोने में ।
 
वही भाव आदर्श - वेदि पर
                चढ़ा फुल्ल हो रण में ,
बोल रहा है वही मधुर
             पीड़ा बन कर व्रण - व्रण में ।
 
मैं था सदा सचेत , नियंत्रण -
                  बंध प्राण पर बांधे ,
कोमलता की ओर शरासन
                तान निशाना साधे ।
 
पर , न जानता था , भीतर
                कोई माया चलती है ,
भाव - गर्त के गहन वितल में
               शिखा छन्न जलती है ।
 
वीर सुयोधन का सेनापति
                बन लड़ने आया था ;
कुरुक्षेत्र में नहीं , स्नेह पर
                  मैं मरने आया था ।
 
कह न सका वह कभी , भीष्म !
                 तुम कहाँ बहे जाते हो ?
न्याय - दण्ड- धर हो कर भी
                  अन्याय सहे जाते हो ।
 
क्रमश:
 
प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग -२
द्वितीय  सर्ग  ---  भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३
तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १ /भाग -२
चतुर्थ सर्ग ---- भाग -१    / भाग -२  / भाग - ३ /भाग -४ /भाग - ५ / भाग –6 /भाग -7

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

संत कबीर

इस शुक्रवार से राजभाषा ब्लॉग पर कबीर दास की शृंखला प्रारम्भ करने का प्रयास किया जा रहा है ..... आज की कड़ी में उनका जीवन परिचय ----
हिंदी साहित्य में कबीर का व्यक्तित्व अनुपम है। गोस्वामी तुलसीदास को छोड़ कर इतना महिमामण्डित व्यक्तित्व `कबीर' के सिवा अन्य किसी का नहीं है।
जीवन परिचय

कबीर के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे जगद्गुरु रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी। उसे नीरु नाम का जुलाहा अपने घर ले आया। उसीने उसका पालन-पोषण किया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया।
कतिपय कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ। एक प्राचीन ग्रंथ के अनुसार किसी योगी के औरस तथा प्रतीति नामक देवाङ्गना के गर्भ से भक्तराज प्रल्हाद ही संवत १४५५ ज्येष्ठ शुक्ल १५ को कबीर के रूप में प्रकट हुए थे।
कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिंदु धर्म की बातें मालूम हुईं। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगास्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में- हम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये। अन्य जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने हिंदु-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदु-भक्तों तथा मुसलमान फकीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयंगम कर लिया।

जनश्रुति के अनुसार उन्हें एक पुत्र कमल तथा पुत्री कमाली थी। इतने लोगों की परवरिश करने के लिये उन्हें अपने करघे पर काफी काम करना पड़ता था। साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे- मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।
कृतियाँ
संत कबीर ने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे।
कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है। एच.एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ हैं। विशप जी.एच. वेस्टकॉट ने कबीर के ८४ ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड ने `हिंदुत्व' में ७१ पुस्तकें गिनायी हैं। कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं-
रमैनी
सबद
सारवी
यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, व्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है।
कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते हैं। यही तो मनुष्य के सर्वाधिक निकट रहते हैं। वे कभी कहते हैं- हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया तो कभी कहते हैं, हरि जननी मैं बालक तोरा उस समय हिंदु जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे।
कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।
वृद्धावस्था में यश और कीर्त्ति की मार ने उन्हें बहुत कष्ट दिया। उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ कीं। इसी क्रम में वे कालिंजर जिले के पिथौराबाद शहर में पहुँचे। वहाँ रामकृष्ण का छोटा सा मन्दिर था। वहाँ के संत भगवान गोस्वामी जिज्ञासु साधक थे किंतु उनके तर्कों का अभी तक पूरी तरह समाधान नहीं हुआ था। संत कबीर से उनका विचार-विनिमय हुआ। कबीर की एक साखी ने उन के मन पर गहरा असर किया-
बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान।
करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।।

वन से भाग कर बहेलिये के द्वारा खोये हुए गड्ढे में गिरा हुआ हाथी अपनी व्यथा किस से कहे ? सारांश यह कि धर्म की जिज्ञासा सें प्रेरित हो कर भगवान गोसाई अपना घर छोड़ कर बाहर तो निकल आये और हरिव्यासी सम्प्रदाय के गड्ढे में गिर कर अकेले निर्वासित हो कर असंबाद्य्य स्थिति में पड़ चुके हैं। मूर्त्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्होंने एक साखी हाजिर कर दी-
पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौंपहार।
था ते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।।

११९ वर्ष की अवस्था में उन्होंने मगहर में देह त्याग किया।


क्रमश:

रविवार, 19 फ़रवरी 2012

प्रेरक प्रसंग-24 : सेवामूर्ति बापू

प्रेरक प्रसंग-24

प्रेरक प्रसंग – 1 : मानव सेवा, प्रेरक-प्रसंग-2 : सहूलियत का इस्तेमाल, प्रेरक प्रसंग-3 : ग़रीबों को याद कीजिए, प्रेरक प्रसंग-4 : प्रभावकारी अहिंसक शस्त्र, प्रेरक प्रसंग-5 : प्रेम और हमदर्दी, प्रेरक प्रसंग-6 : कष्ट का कोई अनुभव नहीं, प्रेरक प्रसंग-7 : छोटी-छोटी बातों का महत्व, प्रेरक प्रसंग-8 : फूलाहार से स्वागत, प्रेरक प्रसंग-९ : बापू का एक पाप, प्रेरक-प्रसंग-10 : परपीड़ा, प्रेरक प्रसंग-11 : नियम भंग कैसे करूं?, प्रेरक-प्रसंग-12 : स्वाद-इंद्रिय पर विजय, प्रेरक प्रसंग–13 : सौ सुधारकों का करती है काम अकेल..., प्रेरक प्रसंग-14 : जलती रेत पर नंगे पैर, प्रेरक प्रसंग-15 : वक़्त की पाबंदी, प्रेरक प्रसंग-16 : सफ़ाई – ज्ञान का प्रारंभ, प्रेरक प्रसंग-17 : नाम –गांधी, जाति – किसान, धंधा ..., प्रेरक प्रसंग-18 : बच्चों के साथ तैरने का आनंद, प्रेरक प्रसंग-19 : मल परीक्षा – बापू का आश्चर्यजनक..., प्रेरक प्रसंग–20 : चप्पल की मरम्मत, प्रेरक प्रसंग-21 : हर काम भगवान की पूजा, प्रेरक प्रसंग-22 : भूल का अनोखा प्रायश्चित, प्रेरक प्रसंग-23 कुर्ता क्यों नहीं पहनते?

सेवामूर्ति बापू

प्रस्तुत कर्ता : मनोज कुमार

प्रसंग चंपारण का है। सन 1917 की बात है। किसानों का सत्याग्रह चल रहा था। गांधी जी के सत्याग्रह में सब भाग ले सकते थे। चंपारण में जो सत्याग्रह चल रहा था, उसमें कुष्ठरोग से पीड़ित एक खेतिहर मज़दूर भी शामिल था। वह पैरों में फटे कपड़े का चिथड़ा लपेट कर चलता था। उसके घाव से मवाद बहते रहते थे और पैर खूब सूजे हुए थे। उसे असहनीय दर्द होता था। लेकिन बापू का आह्वान और उसकी आत्मशक्ति ने उस महारोगी को सत्याग्रही बनने के लिए प्रेरित किया था।

एक दिन सत्याग्रही दिन-भर की यात्रा के बाद शाम के वक़्त आश्रम की तरफ़ लौट रहे थे। उस महारोगी के पैरों मे लिपटे चिथड़े रास्ते में गिर पड़े। उससे चला नहीं जा रहा था। उसके पैर के घावों से रिस-रिस कर ख़ून बहने लगे। जब इस तरह की यात्रा या मार्च होती थी तो गांधी जी सबसे आगे चलते थे। उस दिन भी वे आगे-आगे चल रहे थे। अन्य सत्याग्रही उनकी चाल से अपने क़दम मिलाते हुए चल रहे थे। सारे सत्याग्रही आगे बढ़ गए। गांधी जी बहुत तेज़ी से चलते थे। वह महारोगी पीछे छूट गया। उसका किसी को ध्यान ही न रहा।

सब आश्रम पहुंचे। शाम की प्रार्थना का वक़्त हो चला था। बापू के चारो ओर सारे सत्याग्रही बैठ गए। बापू को वह महारोगी न दिखा। उन्होंने उसके बारे में पूछताछ की। किसी ने बताया, “वह तेज़ी से चल नहीं सकता था। थक जाने के कारण एक पेड़ के नीचे बैठ गया था।”

बापू ने एक शब्द भी नहीं कहा। चुपचाप उसी क्षण उठे, हाथ में एक लालटेन उठाया और उस महारोगी को खोजने निकल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद उन्हें राम नाम लेता एक सज्जन एक पेड़ के नीचे बैठा दिखा। नज़दीक पहुंचने पर पाया कि यह तो वही महारोगी है। उसकी दशा दयनीय थी। वह थका-हारा और परेशान दिख रहा था। लाटेन की रोशनी में जब उसने सामने बापू को देखा तो उसके चेहरे पर प्रसन्नता की लकीर खिंच गई। भरे गले से उसने पुकारा, “बापू!”

गांधी जी ने उससे कहा, “अरे, तुमसे चला नहीं जा रहा था, तो तुम्हें मुझसे कहना चाहिए था ना।” लालटेन की रोशनी में उसके पैरों पर बापू की नज़र गई। पैर ख़ून से सना था। साथ के दूसरे सत्याग्रही उस कुष्ठ-रोगी की ऐसी अवस्था देख कर पीछे हट गए। गांधी जी ने अपनी चादर फाड़कर उसके पैरों को लपेट दिया। उसको सहारा देकर धीरे-धीरे आश्रम में अपने कमरे में ले गए। उन्होंने उसके पैरों को ठीक से धोया। मलहम लगाया। पट्टी की। प्रेम से उसे अपने पास बिठाया। वहीं पर भजन शुरू हुआ। प्रार्थना भी हुई। वह कुष्ठ-रोगी प्रेम-और भक्ति की सरिता में गोते लगाता हुआ तालियां बजा रहा था। उसकी आंखें भक्ति और सेवामूर्ति बापू के स्नेह से भरी हुई थीं।

***

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

कुरुक्षेत्र …. चतुर्थ सर्ग ...( भाग - 7 )रामधारी सिंह दिनकर

 Draupadi Cheer Haran
किन्तु बुद्धि नित खड़ी ताक में
                रहती घात  लगाए
कब जीवन का ज्वार शिथिल हो
                  कब वह उसे दबाये ।
 
और सत्य ही , जभी रुधिर का
                वेग तनिक कम होता
सुस्ताने को कहीं ठहर
                जाता जीवन का सोता ।
 
बुद्धि फेंकती तुरत जाल निज
                 मानव फंस जाता है
नयी नयी उलझने लिए
             जीवन सम्मुख  आता है ।
 
क्षमा या कि प्रतिकार , जगत में
              क्या कर्त्तव्य मनुज का ?
मरण या कि उच्छेद  ? उचित
              उपचार कौन है रूज का ?
 
बल - विवेक में कौन श्रेष्ठ है ,
               असि वरेण्य या अनुनय ?
पूजनीय  रुधिराक्त विजय
             या करुणा - धौत  पराजय ?
 
दो में कौन पुनीत शिखा है ?
               आत्मा की या मन की ?
शमित - तेज वय की मति शिव
               या गति उच्छल यौवन की ?
 
जीवन की है श्रांति घोर ,हम
                जिसको वय कहते हैं ,
थके सिंह  आदर्श ढूंढते ,
             व्यंग -  वाण सहते हैं ।
 
वय हो बुद्धि - अधीन चक्र पर
               विवश घूमता जाता
भ्रम को रोक समय को उत्तर ,
                 तुरत नहीं दे पाता ।
 
तब तक तेज लूट पौरुष का
                   काल चला जाता है ।
वय  - जड़  मानव ग्लानि - मग्न हो
               रोता - पछताता  है ।
 
वय का फल भोगता रहा मैं
              रुका सुयोधन  - घर में
रही वीरता पड़ी  तड़पती
                बंद अस्थि- पंजर में ।
 
न तो कौरवों का हित साधा
               और न पांडव का ही ,
द्वंद्व - बीच उलझा कर रक्खा
               वय ने मुझे सदा ही ।
 
धर्म , स्नेह , दोनों प्यारे थे
                बड़ा कठिन निर्णय था ,
अत: एक को देह , दूसरे-
               को दे दिया  हृदय था ।
 
किन्तु , फटी जब घटा , ज्योति
                     जीवन की पड़ी दिखाई
सहसा  सैकत - बीच स्नेह की
                   धार उमड़ कर छाई ।
 
धर्म पराजित हुआ , स्नेह का
                 डंका बजा  विजय  का ,
मिली देह भी उसे , दान था
                   जिसको मिला हृदय था ।
 
भीष्म न गिरा  पार्थ के शर से ,
                     गिरा भीष्म का वय था ,
वय का तिमिर भेद वह मेरा ,
                      यौवन हुआ उदय था ।
 
 
क्रमश:

पुस्तक परिचय-20 : अक्षरों के साये

पुस्तक परिचय-20

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1. व्योमकेश दरवेश, 2. मित्रो मरजानी, 3. धरती धन न अपना, 4. सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, 5. अकथ कहानी प्रेम की, 6. संसद से सड़क तक, 7. मुक्तिबोध की कविताएं, 8. जूठन, 9. सूफ़ीमत और सूफ़ी-काव्य, 10. एक कहानी यह भी, 11. आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श, 12. स्मृतियों में रूस13. अन्या से अनन्या 14. सोनामाटी 15. मैला आंचल 16. मछली मरी हुई 17. परीक्षा-गुरू 18. गुडिया भीतर गुड़िया 19. स्मृतियों में रूस

अक्षरों के साये

 

clip_image001इस सप्ताह हम आपका परिचय कराने जा रहे हैं अमृता प्रीतम जी की आत्मकथा “अक्षरों के साये” से। इसके प्रकाशन के बीस वर्ष पूर्व उन्होंने “रसीदी टिकट” (1977 ) लिखा था। यह आत्मकथा अध्यात्म से जुड़े धरातल पर उनके समग्र जीवन का विवरण प्रस्तुत करती है। उनके चिंतन का कमाल हमारे सामने एक नितांत नवीन दुनिया के भीतर झांककर देखने की उनकी अदम्य इच्छा के रूप में आता है।

110429174542e723L280हिंदी तथा पंजाबी लेखन में स्पष्टवादिता और विभाजन के दर्द को एक नए मुकाम पर ले जाने वाली अमृता प्रीतम ने अपने साहस के बल पर समकालीन महिला साहित्यकारों के बीच अलग जगह बनाई। अमृता जी ने ऐसे समय में लेखनी में स्पष्टवादिता दिखाई, जब महिलाओं के लिए समाज के हर क्षेत्र में खुलापन एक तरह से वर्जित था। एक बार जब दूरदर्शन वालों ने उनके साहिर और इमरोज़ से रिश्ते के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा,

“दुनिया में रिश्ता एक ही होता है – तड़प का, विरह की हिचकी का, और शहनाई का, जो विरह की हिचकी में भी सुनाई देती है यही रिश्ता साहिर से भी था, इमरोज़ से भी है…”-

अमृता जी का साहस और बेबाकी ने उन्‍हें अन्‍य महिला लेखिकाओं से अलग पहचान दिलाई। जिस जमाने में महिलाओं में बेबाकी कम थी, उस समय उन्‍होंने स्‍पष्‍टवादिता दिखाई। यह किसी आश्‍चर्य से कम नहीं था।

1963 की बात है। विज्ञान भवन में एक सेमिनार था। उसमें लेखिका ममता कालिया ने उनसे पूछा कि आपकी कहानियों में ये इंदरजीत कौन है? इसपर अमृता जी ने एक दुबले पतले लड़के को उनके आगे खड़ा करते हुए कहा, “इंदरजीत ये है। मेरा इमरोज़।” उनके इस खुले तौर पर इमरोज को मेरा बताने पर वो चकित रह गई। क्‍योंकि उस समय इतना खुलापन नहीं था। इसी तरह से उनका बेबाकी से स्वीकार करना कि यह साहिर की मुहब्बत थी, जब लिखा …

फिर तुम्हें याद किया, हमने आग को चूम लिया

इश्क ज़हर का प्याला सही, मैंने एक घूंट फिर से मांग लिया

और इमरोज़ की सूरत में – अहसास की इन्तहा देखिए, एक दीवनगी का आलम ही था,

कलम ने आज गीतों का काफ़िया तोड़ दिया

मेरा इश्क यह किस मुकाम पर आया है।

उठो! अपनी गागर से-पानी की कटोरी दे दो

मैं राहों के हादसे, उस पानी से धो लूंगी-

अमृता जी की रचनाएं बनावटी नहीं होती थी। यह उनकी लेखिनी को खास बनाता है। अमृता जी जो भी लिखती थी, उसमें आम भाषा की सरलता झलकती थी। यही उनकी रचनाओं को लोकप्रिय बनाता था।

विभाजन के बाद अमृता लाहौर से भारत आई थी। लेकिन उन्‍हें दोनों देशों में अपनी रचनाओं के लिए ख्‍याति मिली।

1956 में उन्‍हें साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार पाने वाली वो पहली महिला थी।

1969 में पदमश्री और पद्म विभूषण से नवाजा गया। 1982 में उन्‍हें कागज ते कैनवास के लिए साहित्‍य का सर्वोच्‍च पुरस्‍कार, ज्ञानपीठ मिला।

1986 से 1992 तक वो राज्‍यसभा की सदस्‍य रहीं। 2003 में उन्‍हें पाकिस्‍तान की पंजाबी अकादमी ने भी पुरस्‍कृत किया। इस पर उन्‍होंने कहा था , बड़े दिनों बाद मेरे मायके को मेरी याद आई।

हालाकि अमृता जी का उपन्‍यास पिंजर भी विभाजन के दर्द को अलग तरह से दिखाता है, पर उन्‍हें सबसे ज्‍यादा उनकी कविता “अज अक्‍खां बारिस शाह नू” के लिए जाना जाता है। इसमें उन्‍होंने विभाजन के दर्द को मार्मिक तौर पर पेश किया है।

ज़मीन पर लहू बहने लगा-

इतना- कि कब्रें चूने लगीं

और मुहब्बत की शहज़ादियां

मज़ारों में रोने लगीं

सभी कैदों में नज़र आते हैं

हुस्न और इश्क को चुराने वाले

और वारिस कहां से लाएं

हीर की दास्तान गाने वाले

तुम्हीं से कहती हूं-वारिस!

उठो! कब्र में से बोलो

और इश्क की कहानी का

कोई नया वरक खोलो

उनकी आत्‍मकथा “रसीदी टिकट” उनकी कालजई रचनाओं में से एक है। “रसीदी टिकट” में दिए जीवन के ब्योरे में यथार्थ की अनुगुंज अधिक सुनाई पड़ती है और सबकुछ अपनी मुट्ठी में बंद करने की ऊर्जा भी सक्रिय दिखती है। लेकिन उनकी इस पुस्तक “अक्षरों के साये” तक आते-आते उनकी परिपक्वता चरमोत्कर्ष पर है। सबसे नायाब चीज़ उन्हें प्रेम का मोती मिला, उसकी चमक आध्यात्मिक चमक के रूप में आलोकित करने का प्रयास किया है। कहती हैं,

“मुहब्बत का अग्नि-कण कवि को मिलता है, पर यह अग्नि-कण जब कविता बन जाता है, अपनी किस्मत का प्याला, उसे भी अपने होठों से पीना होता है.

उन्होंने इस अत्मकथा में मानवता की स्थापना पर अपनी बेबाक टिप्पणी लिखी है। साम्प्रदायिकता को भी दरकिनार कर दिया है, और एक मुक्कमल लेखिका के रूप में हमारे सामने प्रकट होती हैं।

कोई अपने हाथ में पत्थर उठाता है

तो पहला ज़ख्म इंसान को नहीं,

इंसानियत को लगता है।

और सड़क पर जो पहली लाश गिरती है,

वह किसी इंसान की नहीं होती, इंसानियत की होती है

उनका मानना है मज़हब के नाम पर जितना कत्लो-खून हुआ वह हमारे देश की स्वंतंत्रता का बहुत बड़ा उलाहना है …

जैसे इश्क की ज़बान पर एक छाला उभर आया हो

जैसे सभ्यता की कलाई से एक चूड़ी टूट गई हो

इसी तरह इस पुस्तक में कलम के कर्म के बारे मे बताते हुए कहती हैं कि इसके अनेक रूप होता है:

वह बचकाने शौक में से निकले तो जोहड़ का पानी हो जाता है;

अगर सिर्फ़ पैसे की कामना में से निकले तो नकली माल हो जाता है;

अगर सिर्फ़ शोहरत की लालसा में से निकले तो कला का कलंक हो जाता है;

अगर बीमार मन में से निकले तो ज़हरीली आबोहवा हो जाता है;

अगर किसी सरकार की ख़ुशामद में से निकले तो जाली सिक्का हो जाता है।

वो एक मात्र कवयित्री हैं जो तुलिका से कविता को चित्रित करती हैं और उसके रंगों का चयन देख कर दांतों तले उंगली चली जाती है। बानगी देखिए ज़रा, लग रहा है मानों सारे अक्षर चांद पर से गिर रहे हैं।

मेरी खामोशी की गली से

अक्षरों के साए गुजरते रहे

चांद की मटकी से जब-

कतरे से कुछ गिरते रहे

रात की दहलीज़ पर-

तारे दुआ करते रहे

अज्ञेय रचित “शेखर एक जीवनी” उपन्यास की पंक्ति है “दर्द से भी बड़ा विश्‍वास है।” …. यही विश्‍वास अमृता प्रीतम के लेखन में दिखता है और यही बल उन्हें इस मुकाम पर पहुंचाता है।

कभी तो कोई इन दीवारों से पूछे-

कि कैसे इबादत गुनाह बन गई थी

***

 

पुस्तक का नाम

अक्षरों के साए

लेखिका

अमृता प्रीतम

प्रकाशक

राजपाएंड संस, कश्मीरी गेट, नई दिल्ली-110006

संस्करण

संस्करण : 2008

मूल्य

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पेज

145

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

गुणाढ्य (माल्यवान) की कथा की अंतिम कड़ी

हर वृहस्पतिवार की तरह आज  आप सभी पाठकों को सादर प्रणाम करते हुए अनामिका फिर हाज़िर है इस ब्रहस्पतिवार अपनी कथासरित्सागर का पिटारा लेकर...

साथियों अब तक हम कथासरित्सागर के नौ अंक पूर्ण पढ़ चुके हैं जिनमे हमने शिव-पार्वती जी की कथा, वररुचि की कथा पाटलिपुत्र (पटना)नगर की कथा,उपकोषा की बुद्धिमत्ता, योगनंद की कथा पढ़ी..और अब गुणाढ्य (माल्यवान) की कथा की अंतिम कड़ी पर हैं..

गुणाढ्य की कथा के पिछले भाग में हमने मनन किया कि शिव के गण और पुष्पदंत (वररुचि) के मित्र माल्यवान अपने इस जन्म की कथा  काणभूति सुनाते हुए बता रहे हैं कि वह एक ब्राह्मण पुत्री श्रुतार्था के पुत्र गुणाढ्य हैं जो अब राजा सातवाहन के मंत्री हैं. राजा सातवाहन शीघ्र अति शीघ्र व्याकरण पंडित बनना चाहता है. गुणाढ्य और उनके साथी मंत्री शर्ववर्मा में राजा को शीघ्रता से व्याकरण पारंगत करने की शर्त लगती है जिसमे गुणाढ्य शर्त हार जाते हैं और अपने वचन के अनुसार तीनों भाषाएं (संस्कृत, प्राकृत और देशी भाषा ) त्याग  विंध्यवासिनी के दर्शन के लिए चले जाते हैं.

विंध्यवासिनी में गुणाढ्य काणभूति से मिलते हैं और बताते हैं कि यहाँ उन्होंने पिशाच भाषा सीखी है. गुणाढ्य काणभूति से आग्रह करते हैं कि अब वो वररुचि से सुनी ब्रहत्कथा उसे सुनाये जिसे गुणाढ्य पैशाची भाषा में लिखेंगे और उनकी भी शाप मुक्ति हो पायेगी.

गुणाढ्य ने ब्रहत्कथा को सात वर्षों में सात लाख छंदों में अपने रक्त से पैशाची (प्राकृत) में लिखा.  उस महाकथा को काणभूति ने सुना, देखा और वह भी शाप मुक्त हो गया.

अब आगे....

गुणाढ्य ने सोचा  - देवी पार्वती ने मेरी शापमुक्ति का उपाय बताते हुए कहा था कि मुझे इस कथा का प्रचार करना होगा तो मैं इसके प्रचार के लिए क्या करूँ, इसे किसको अर्पित करूँ ?

गुणदेव और नंदी देव जो गुणाढ्य के शिष्य थे उन्होंने सुझाव दिया कि  - इस महान काव्य को अर्पित करने के लिए राजा सातवाहन से बढ़ कर और दूसरा उचित पात्र कौन हो सकता है. जैसे वायु एक झोंके  में फूल की सुगंध को दूर दूर तक फैला देती है, ऐसे ही वे इस कथा का प्रसार करेंगे.

गुणाढ्य को ये सुझाव पसंद आया. वह इस काव्य को लेकर अपने शिष्यों के साथ प्रतिष्ठानपुर चल दिए .  नगर में पहुच कर गुणाढ्य बाहर एक बगीचे में रुक गए और शिष्यों को राजा के पास भेजा.

शिष्यों ने राजा सातवाहन को  ब्रह्त्कथा की पुस्तक का बताते हुए कहा कि यह गुणाढ्य की कृति है.

राजा ने उस पुस्तक का वृतांत सुनक कर कहा - एक तो सात लाख शलोकों में इतना लम्बा यह पोथा है, तिस पर नीरस पिशाच भाषा में लिखा हुआ और लिखावट मनुष्य के रक्त से की गयी है.

धिक्कार है ऐसी कथा को.

दोनों शिष्य चुपचाप पुस्तक उठा कर गुणाढ्य के पास लौट आये और अपने गुरु को राजा के व्यवहार  की बात जस की तस बता दी.

यह सब सुन कर गुणाढ्य बहुत खिन्न हुए .  वह उस बगीचे के पास ही एक ऊँची चट्टान पर बैठ गए  तथा चट्टान के नीचे उसने एक अग्निकुंड बनवाया. जब अग्निकुंड में आग दहकने लगी, तो गुणाढ्य ने अपनी  ब्रह्त्कथा पढना प्रारम्भ किया. शिष्य आँखों में आंसू भर कर यह दृश्य देख रहे थे. गुणाढ्य आस-पास के वन में रहने वाले मृगों और पशु-पक्षियों को कथा सुनाते हुए एक एक पन्ना आग में झोंकने लगे . वह कथा सुनाते जाते और  सुनाये हुए भाग के पन्ने एक एक कर जलाते जाते . वन के पशुओं और पक्षियों ने आहार त्याग दिया. वे गुणाढ्य के आस पास स्तब्ध हो कर आँखों में आंसू भर कर  ब्रह्त्कथा  सुनते रहे.

इस बीच राजा सातवाहन अस्वस्थ हो गए. वैद्यों ने परीक्षा करके बताया - सूखा मांस खाने से राजा को रोग लग गया है.

पाकशाला के रसोइयों को बुला कर डांटा गया, तो उन्होंने कहा - इसमें हमारा क्या दोष ? बहेलियों से जैसा मांस हमें मिलता है, वैसा हम पकाते हैं.

बहेलियों को बुला कर पूछा तो उन्होंने बताया - नगर के पास ही पहाड़ की चोटी पर एक ब्राह्मण बैठा हुआ है. वह पोथी का एक एक पन्ना पढता जाता है और आग में फैंकता जाता है. वन के सारे प्राणी इकट्ठे हो कर निराहार रह कर उसकी कथा को सुन रहे हैं. इसलिए उनका मांस  ऐसा हो गया है.

राजा को इस बात का पता चला तो उसे बहुत कौतुहल हुआ. वह उस स्थान पर गया जहाँ गुणाढ्य अपनी कथा सुना रहे थे . इतने समय से वन में रहने के कारण गुणाढ्य की देह पर जटाएं बढ़ कर लटक आई थीं, मानो कुछ शेष बचे शाप के धुंए की लकीरों ने उन्हें  घेर रखा हो. आंसू बहाते शांत बैठे पशु-पक्षियों के बीच गुणाढ्य कथा पढ़ रहे थे ..  राजा ने उन्हें  पहचाना, प्रणाम किया और सारा वृतांत पूछा.

यह जान कर कि गुणाढ्य वास्तव में शिव के गण माल्यवान का अवतार हैं, राजा उनके  चरणों पर गिर पड़ा और शिव कथा मांगने लगा.

गुणाढ्य ने कहा - राजन, एक एक लाख श्लोकों के सात  खण्डों वाले इस ग्रन्थ के छः लाख श्लोक मैं जला चुका हूँ. एक लाख श्लोकों का यह अंतिम सातवाँ खंड बचा है, जिसमे राजा नरवाहन की कथा है. इसे ले जाओ. यह कह  कथा का शेष भाग गुणाढ्य ने राजा को सौंप दिया और राजा से विदा ली. अंत में योग से गुणाढ्य अपना देह त्याग कर शापमुक्त हो पूर्वपद को प्राप्त किये.

राजा सातवाहन  ब्रह्त्कथा की बची हुई पोथी लेकर नगर आया. उसने गुणाढ्य के शिष्यों का मान-सम्मान कर उनकी सहायता से कथा का अपनी भाषा में अनुवाद कराया और इस कथापीठ की रचना की. फिर यह कथा प्रतिष्ठानपुर और उसके पश्चात सारे भूमंडल में प्रसिद्द होती चली गयी.

साथियों इसी के साथ अब मैं भी आपसे आज्ञा लेती हूँ. आशा करती हूँ आप सब भी इसे पढ़ कर आनंदित हुए होंगे.


नमस्कार !

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

कुरुक्षेत्र ..चतुर्थ सर्ग … ( भाग- ६ ) रामधारी सिंह ‘दिनकर'


शूरधर्म है अभय दहकते
                        अंगारों पर चलना
शूरधर्म है शाणित  असि पर
                धर कर चरण मचलना |

शूरधर्म कहते हैं छाती तान
                          तीर खाने को
शूरधर्म कहते हँस कर
                  हालाहल पी जाने को |

आग हथेली पर सुलगा कर
                     सिर का हविष्  चढाना
शूरधर्म है जग को अनुपम
                    बलि का पाठ पढ़ाना |

सबसे बड़ा धर्म है नर का
                      सदा प्रज्वलित रहना
दाहक शक्ति समेट स्पर्श भी
                   नहीं किसी का सहना |

बुझा बुद्धि का दीप वीरवर
                       आँख मूँद चलते हैं
उछल वेदिका पर चढ जाते
                       और स्वयं बलते हैं |

बात पूछने को विवेक से
                           जभी वीरता जाती
पी जाती अपमान पतित हो
                          अपना तेज गंवाती |

सच है बुद्धि-कलश में जल है
                     शीतल सुधा तरल है
पर ,भूलो मत , कुसमय में
                 हो जाता वही गरल है |

सदा नहीं मानापमान की
                   बुद्धि उचित सुधि लेती
करती बहुत विचार , अग्नि की
                      शिखा बुझा है देती |

उसने ही दी बुझा तुम्हारे
                           पौरुष की चिंगारी
जली न आँख देख कर खिंचती
                       द्रुपद- सुता की साड़ी |

बाँध उसी ने मुझे द्विधा से
                        बना दिया कायर था
जगूँ-जगूँ जब तक , तब तक तो
                       निकल चुका अवसर था |

यौवन चलता सदा गर्व से
                         सिर ताने , शर खींचे
झुकने लगता किन्तु क्षीण बल
                             वे विवेक के नीचे |

यौवन के उच्छल प्रवाह को
                         देख मौन , मन मारे
सहमी हुई बुद्धि रहती है
                       निश्छल खड़ी  किनारे |

डरती है , बह जाए नहीं
                     तिनके - सी इस धारा में
प्लावन - भीत स्वयं छिपती
                     फिरती अपनी कारा मे

हिम-विमुक्त , निर्विघ्न , तपस्या
                        पर खिलता यौवन है
नयी दीप्ति, नूतन सौरभ से
                       रहता भरा भुवन है ||
 
क्रमश:



प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग -२ 
द्वितीय  सर्ग  ---  भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३ 
तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १ /भाग -२ 
चतुर्थ सर्ग ---- भाग -१    / भाग -२  / भाग - ३ /भाग -४ /भाग - ५ .

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

प्रेरक प्रसंग-23 कुर्ता क्यों नहीं पहनते?

प्रेरक प्रसंग-23

कुर्ता क्यों नहीं पहनते?

प्रस्तुत कर्ता : मनोज कुमार

1919-20 में गांधीजी देश के सबसे बड़े राजनैतिक नेता बन गए। आपने आचार-विचार से उन्होंने लोगों को मोहित कर रखा था। लोग उन्हें महात्मा के रूप में श्रद्धा और भक्ति अर्पित करते थे। स्वेच्छा से अपनाई हुई गरीबी, सादगी, विनम्रता और साधुता आदि गुणों के कारण वह कोई ऐसे अतीतकालीन ऋषि प्रतीत होते थे।

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गांधी जी की हर बात किसी खास मकसद से होती थी। उनके कपड़ों के फ़र्क़ को ही देखें, तो उनके जीवन की क्रांति समझ में आ जाएगी। जब वे बैरिस्टर थे, तब एकदम यूरोपियन पोशाक पहनते थे। बाद में उन्होंने उसका त्याग कर दिया। अफ़्रीका में सत्याग्रह के समय सत्याग्रही पोशाक धारण करने लगे।

जब भारत लौटे, तब काठियावाड़ की पारंपरिक पगड़ी धारण करते थे, धोती पहनते थे। जब उन्हें यह ख्याल आया कि एक पगड़ी में कई टोपियां बन सकती हैं, तब वे टोपी पहनने लगे। इसी टोपी को गांधी टोपी कहा जाने लगा।

फिर उन्होंने कुर्ता और टोपी का त्याग भी कर दिया। केवल एक पंछिया पहनकर ही रहा करते थे। यह पंछिया पहनकर ही वे लंदन में सम्राट पंचम जॉर्ज से मिलने उनके राजमहल गए थे। इसे देखकर चर्चिल नाराज हो गए थे। लेकिन उस महात्मा की आत्मा तो ग़रीब से ग़रीब लोगों से एकरूप होने के लिए छटपटाती रहती थी।

एक बार गांधी जी एक स्कूल के किसी कार्यक्रम में गए थे। महात्मा तो बड़े ही विनोदी स्वभाव के थे। छात्रों के साथ हंसी-मज़ाक़ चल रहा था। एक लड़के ने प्रश्न किया, “आपने कुर्ता क्यों नहीं पहना है? मैं अपनी मां से कहूं क्या? वह कुर्ता सी देगी। आप पहनेंगे न? मेरी मां के हाथ का सिला कुर्ता आप पहनेंगे?”

बापू ने कहा, “ज़रूर पहनेंगे। लेकिन एक शर्त है बेटा! मैं कोई अकेला नहीं हूं।”

बच्चे को उत्सुकता हुई, पूछा, “तब और कितने चाहिए? मां दो सी देगी।”

बापू ने जवाब दिया, “बेटा, मेरे चालीस करोड़ भाई-बहन हैं। चालीस करोड़ लोगों के बदन पर कपड़ा आएगा, तब मेरे लिए भी कुर्ता चलेगा। तुम्हारी मां चालीस करोड़ कुर्ते सी देंगी?”

बापू ने बच्चे की पीठ प्यार से थपथपाई और वहां से चल दिए। विद्यालय के गुरु और छात्र अपनी आंखों के सामने राष्ट्र के दरिद्रनारायण को देखकर स्तम्भित रह गए। बापू राष्ट्र के साथ एकरूप हुए थे।

***