बुधवार, 30 जून 2010

बाबा नागार्जुन के जन्‍म दिन पर........

-- मनोज कुमार

बिहार के दरभंगा जिले के तरौनी गांव में 30 जून 1911 को बाबा नागार्जुन का जन्‍म हुआ था। एक मैथिल ब्राहृण परिवार में जन्‍मे बाबा का नाम वैद्यनाथ मिश्र था। तीन वर्ष की छोटी उम्र में ही मातृ -विहीन हो चुके इस महापुरूष का बचपन बहुत ही कष्‍ट में बीता। बुद्धि से कुशाग्र इस बालक के स्‍वप्रयास से अध्‍ययन चलता रहा। उन्हें न सिर्फ संस्‍कृत भाषा का अच्‍छा ज्ञान था बल्कि ‘पाली’ और ‘प्राकृत’ पर उनकी अच्‍छी पकड़ थी। इसके माध्‍यम से उन्‍होंने बौद्ध- साहित्‍य और दर्शन का गंभीर अध्‍ययन किया। वे राहुल सांकृत्‍यायन से बेहद प्रभावित थे।

“यात्री” उपनाम से उन्‍होंने मैथिली में लिखना शुरू किया। बाद में उन्‍होंने हिंदी में भी लिखना आंरभ कर दिया। बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के कारण इन्‍होंने ‘बैद्यनाथ’ और ‘यात्री’ उपनाम छोड़कर अपना उपनाम नागार्जुन रखा।

नागार्जुन सीधे साधे व्‍यक्तित्‍व के स्‍वामी थे और खरी-खरी बात करते थे। तेवर उनका तल्‍ख था। इस व्‍यक्ति को हम एक संस्‍था कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उन्होंने जिन्‍दगी की सच्‍चाईयों को अपनी कविताओं में बड़े तल्‍ख तेवर के साथ प्रस्‍तुत किया है। सामाजिक चेतना और जनता के शोषण-उत्‍पीड़न के कारण इनका झुकाव मार्क्‍सवादी चिंतन की ओर हुआ। तद्ययुगीन कृषक नेता स्‍वामी सहजानंद के साथ इन्‍होंने बिहार के अनेक किसान आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया। स्‍वतंत्रता प्राप्ति के पहले एवं इसके बाद भी इन्‍हें कई बार जेल जाना पड़ा। बाबा नागार्जुन ने कविताओं में ही नहीं बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी अपने विद्रोह एवं क्रांतिकारिता का परिचय दिया है । इन्‍होंने किसी के सामने सिर नहीं झुकाया, तथा जीवन पर्यन्‍त मसिजीवी ही बने रहना पसंद किया।

इन्‍होनें अपनी काव्‍य चेतना के माध्‍यम से संपूर्ण भारत को समग्रता के साथ समाहित किया है। मिथिला जनपद से जुड़े होने के कारण इस अंचल विशेष के ग्रामीण परिवेश एवं तदयुगीन जमींदारों की सामंती प्रवृति पर भी कवि ने अपनी कलम चलाई है। अपने गद्य, खासकर उपन्‍यासों में उन्‍होंने ग्रामीण अंचल का वास्‍तविक चित्र प्रस्‍तुत किया। उनके उपन्‍यास ‘बलचनमा’ और ‘रतिनाथ की चाची’ इसके गवाह है।

स्‍वतंत्रता प्राप्ति के बाद जन कवि के रूप में इनका सर्वाधिक महत्‍व इनकी राजनीतिक कविताओं के माध्‍यम से उजागर हुआ है।

उन्होंने शासन द्वारा अपनाई गई हर जन विरोधी नीतियों का विरोध किया। उनकी कविताएं व्‍यवस्‍था पर चोट करती थी। उन्‍होंने ने न तो प्रथम प्रधानमंत्री स्‍व. जवाहरलाल नेहरू को छोड़ा न ही पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा जी को। जब नेहरू जी के निमंत्रण पर ब्रिटिश की महारानी भारत आई तो बाबा ने लिखा था-

“आओ रानी हम ढोएंगे पालकी,
यही हुई है राय जवाहर लाल की ”।



1975 में जब देश में आपात स्थिति लागू की गई तो उन्‍होंने उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा जी को भी अपनी कविता द्वारा संदेश पहुंचाया।

जय प्रकाश नारायण को जब उस दौरान लाठियों का प्रहार सहना पड़ा तो बाबा की कलम बोली-
“जय प्रकाश पर लाठियाँ लोकतंत्र की”!

उन्‍होंने जहां एक तरफ़ जनता की आवाज शासक वर्ग तक पहुंचाई वहीं दूसरी ओर अपने काव्य सृजन में प्रकृति का वर्णन भी किया है–

“अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है”।

भारतीय शोषित एवं उत्‍पीडि़त जनता का इतना बड़ा पक्षधर कवि हिंदी में दूसरा नहीं हुआ। साहित्‍य की सेवा में सतत समर्पित रहने वाले जन कवि बाबा नागार्जुन हम सबको छोड़कर 1988 में पंचतत्‍व में विलीन हो गए।

इनकी निम्‍नलिखित रचनाएं हिंदी साहित्य की अनुपम धरोहर के रूप में अपना बर्चस्‍व अक्षुण्‍ण बनाए रखने में आज भी जीवंत दस्‍तावेज की प्रतिमुर्ति है –


संग्रह- ‘युगधारा’, ‘सतरंगी पंखो वाली’ ‘प्‍यासी पथराई आंखे’, ‘तलाब की मछलियां’, ‘चंदना’, ‘खिचड़ी विपल्‍व देखा हमने ’, ‘तुमने कहा था’ ‘पुरानी जूतियों का कोरस’, ‘हजार हजार बांहो वाली’, ‘चित्रा’, ‘पत्रहीन नग्‍न गांछ(मैथिली काव्‍य संग्रह)’ तथा धर्म लोक शतकम (संस्‍कृत वाक्‍य)

उपन्‍यासः ‘रतिनाथ की चाची’, ‘बलचनमा’, ‘बाबा बटेसरनाथ’, ‘दुखलोचन’, ‘करूण के बेटे’, ‘पारो तथा नई पौध’ आदि ।

उनके जन्‍मदिन पर हम उन्‍हें विनम्र श्रद्धा सुमन अर्पित करते है।

आज का विचार

आज का विचार

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विचारों का तालमेल

_a_backforest1 यदि हर व्‍यक्ति के मन में विचारों का तालमेल हो तो समाज में सामन्‍जस्‍य एवं स्‍नेह स्‍वत: ही प्रतिबिम्बित होगा।

मंगलवार, 29 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार

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सन्‍तुष्‍टता

_a_art_007 (2) मूर्ख व्‍यक्ति कभी सन्‍तुष्‍ट नहीं हो सकता, जबकि बुद्धिमान व्‍यक्ति की सबसे बड़ी पूंजी सन्‍तुष्‍टता ही है।

सोमवार, 28 जून 2010

काव्यशास्त्र-२०

काव्यशास्त्र-२० ::

आचार्य अरिसिंह

और आचार्य अमरचन्द्र


- आचार्य परशुराम राय

 

J0148757 आचार्य राम चन्द्र गुणचन्द्र की भाँति आचार्य युगल अरिसिंह - अमरचन्द्र का नाम प्रमुख है। ये दोनों एक ही गुरु आचार्य जिनदन्त सूरि के शिष्य हैं और जैन आचार्यों की परम्परा में आते हैं।

काव्यशास्त्र के क्षेत्र में इन दोनों आचार्यों ने मिलकर 'काव्यकल्पलतावृत्ति' नामक ग्रंथ की रचना की है। इस ग्रंथ की रचना पूर्ववर्ती परम्परा से हटकर की गई है। इसका प्रतिपाद्य विषय कविशिक्षा है अर्थात् इसमें काव्य के गुण, दोष, अलंकार आदि का निरूपण न करके, काव्य रचना के नियमों का विवेचन किया गया है। यह ग्रंथ चार प्रतानों में विभक्त है और इनमें छन्दसिद्धि, शब्दसिद्धि, श्लेषसिद्धि और अर्थसिद्धि के उपायों का निरूपण मिलता है।

इसके अला वा दोनों आचार्यों के स्वतंत्र रूप से लिखे ग्रंथ भी मिलते हैं।

आचार्य अरिसिंह ने अपने मित्र वस्तुपाल जैन, जो गुजरात के ढोलकर राज्य के मंत्री थे, की प्रशंसा में 'सुहत्सकीर्तन' नामक एक काव्य लिखा।

आचार्य अमरचन्द्र ने 'काव्यकल्पलतावृत्ति' में अपने तीन ग्रंथों का उल्लेख किया हैं - छनदोरलावली, 'काव्यकल्पलतावृत्ति' और अलंकारप्रबोध।

अन्तिम दोनों ग्रंथों का सम्बन्ध भी काव्यशास्त्र से है। इनका एक 'जिनेन्दचरितम्' नामक ग्रंथ भी मिलता है। यह 'पद्यानन्द' के नाम से भी जाना जाता है।

आचार्य देवेश्वर

चौदहवीं शताब्दी में आचार्य युगल अरिसिंह अमरचन्द्र के बाद जैन विद्वान आचार्य देवेश्वर का नाम आता है। इनके द्वारा 'कविकल्पलता' नामक ग्रंथ की रचना की गई, जिसमें मामूली से शैली भेद के साथ आचार्य युगल अरिसिंह - अमरचन्द्र द्वारा विरचित 'काव्यकल्पलतावृत्ति' का अनुकरण मात्र है। यही कारण है कि यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के क्षेत्र में अपना कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं बना पाया।

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आज का विचार

आज का विचार :: मौन

_a_tree5 मौन से मस्तिष्‍क को आराम मिलता है और इसका अर्थ है शरीर को आराम मिलना।

रविवार, 27 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार :: शक्ति

_a_bush07 जब आप क्रोधित होते हैं तो बहुत सारी शक्ति नष्‍ट हो जाती है, अत: शक्ति का प्रयोग बुद्धिमत्‍ता से करें।

शनिवार, 26 जून 2010

कबीर जयन्‍ती … पर

कबीर जयन्‍ती … पर

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--- --- मनोज कुमार

हमारे देश के हिन्दू समाज में प्राचीन काल से ही वेदों पर आधारित परंपरा मान्य रही है। मध्यकाल तक आते-आते वर्णाश्रम व्यवस्था जटिल हो चुकी थी। जातियों में विभाजित समाज में हर तरह का भेद-भाव विद्यमान था। मनुष्यता स्त्री-पुरुष, ऊंच-नीच एवं अनेक धर्मों में बंटी हुई थी। छुआछूत के कठोर नियम थे। ईश्‍वर की उपासना एवं मोक्ष प्राप्ति में भी भेद-भाव था। वैदिक कर्मकांड तथा ॠढिवादिता से स्थिति बड़ी जटिल थी। समय-समय पर इस व्यवस्था के प्रति प्रतिक्रियाएँ जन्म लेती रहीं। ये प्रतिक्रियाएँ रूढिवादी समाज में परिवर्तन के लिए अल्प प्रयास ही साबित हुईं। किन्तु चौदहवीं तथा पंद्रहवीं शताब्दी में आस्था एवं भक्ति के मध्य से व्यापक आंदोलन की एक ऐसी बलवती धारा फूटी जिसने वर्ण-व्यवस्था पर आधारित समाज, कट्टरता एवं रूढिवादिता पर आधारित धर्मांधता को चुनौती दी।

समय-समय पर संत, विचारक और सुधारक भक्ति-मार्गी विचारधारा के द्वारा सुधारों का प्रयास करते रहे और यह एक आंदोलन का रूप लेता गया। इस आंदोलन से संतों का एक नया वर्ग आगे आया। जातिप्रथा, अस्पृश्यता और धार्मिक कर्मकांड का विरोध कर सामाजिक एवं धार्मिक प्रथाओं में सुधार इनका लक्ष्य था। इस आंदोलन के संतों ने अनेक जातियों एवं सम्प्रदायों में विभक्त समाज, अनेक कुसंस्कारों से पीड़ित देश, सैंकड़ों देवताओं और आडंबरों एवं कट्टरता में उलझे धर्म, के भेद-भाव की दीवार को ढहाने का एक सार्थक प्रयास किया। संतों ने समाज में लोगों के बीच वर्तमान आपसी वैमनस्य को मिटाने और सामाजिक वर्ग विभेद को समाप्त कर सबको समान स्तर पर लाने का प्रयास किया।

इन्हीं संतों में से एक थे संत कबीर। महात्मा कबीर के जन्म के विषय में भिन्न- भिन्न मत हैं। "कबीर- चरित्र- बाँध'' में कहा गया हौ कि संवत् चौदह सौ पचपन (१४५५) विक्रमी ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार के दिन, निर्गुणपंथी संत कबीर का जन्म हुआ। वे भक्त संत ही नहीं समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अंधविश्‍वास, कुरीतियों और रूढिवादिता का विरोध किया। विषमताग्रस्त समाज में जागृति पैदा कर लोगों को भक्ति का नया मार्ग दिखाना इनका उद्देश्य था। जिसमें वे काफ़ी हद तक सफल भी हुए। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयास किए। उन्होंने राम-रहीम के एकत्व पर ज़ोर दिया। उन्होंने दोनों दर्मों की कट्टरता पर समान रूप से फटकार लगाई।

पाहन पुजे तो हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़।
ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार।।

वे मूर्ति पूजा और कर्मकांड का विरोध करते थे। वे भेद-भाव रहित समाज की स्थापना करना चाहते थे। उन्होंने ब्रह्म के निराकार रूप में विश्‍वास प्रकट किया। एकेश्‍वरवाद के समर्थक कबीर का मानना था कि ईश्‍वर एक है। उन्होंने व्यंग्यात्मक दोहों और सीधे-सादे शब्दों में अपने विचार को व्यक्त किया। फलतः बड़ी संख्या में सभी धर्म एवं जाति के लोग उनके अनुयायी हुए। कबीर दास जी के अनुयाई कबीरपंथी कहलाए। उनके उपदेशों का संकलन बीजक में है।

संत कबीर का मानना था कि सभी धर्मों का लक्ष्य एक ही है। सिर्फ़ उनके कर्मकांड अलग-अलग होते हैं। पुजारी वर्ग कर्मकांड पर अधिक ज़ोर देकर भेद पैदा करते हैं।

माला फेरत जुग गया, मिटा न मनका फेर।

कर का मनका डारि कै, मन का मनका फेर।।

उनका यह भी मानना था कि जाति प्रथा उचित नहीं है और इसे समाप्त कर देना चाहिए। वे एक आलोचक थे। उनका मानना था कि समाज की रूढिवादिता एवं कट्टर्वादिता की निन्दा करके ही इसे समाप्त किया जा सकता है। कबीर को अपने समाज में जो मान्‍यतजा मिली वह प्रमाण है कि वे अपने परिवेश की ही उपज थे। वह समय भारतीय इतिहास में आधुनिकता के उदय का समय था। इस आधुनिकता का बीज यहां की परंपरा से ही अंकुरित हुआ था। वर्णव्यवस्‍था की परंपरा से जकड़ा समाज जाति-पाति से मुक्ति की आवाज उठा रहा था। सामाजिक अन्‍याय के प्रति रोष इस संत की रचनाओं में व्‍याप्‍त है। कबीर मूलतः कवि हैं। उनकी काव्‍य संवेदना में प्रेम, मृत्‍यु और समाज एक दूसरे में गुंथे हुए हैं। कबीर हिंदी के महान कवियों में से हैं।

संत कबीर दास महान चिन्‍तक, विचारक और युग द्रष्‍टा थे। वे ऐसे समय में संसार में आए जब देश में नफरत और हिंसा चारों तरफ फैले हुए थे। हिंदु-मुसलमानों, शासक-प्रजा, अमीर गरीब के देश-समाज बंटा हुआ था, गरीबी और शोषण से लोग त्रस्‍त थे। ऐसे समय में संत कबीर ने धर्म की नयी व्‍याख्‍या प्रस्‍तुत की। उन्‍होंने कहा कि अत्‍याचारियों से समझौता करना और जुल्‍म सहना गलत है। उन्‍होंने समाज में उपस्थित भेदभाव समाप्‍त करने पर बल दिया। दोनों समुदाय को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। उन्‍होंने कहा था,

वही महादेव वही मुहम्‍मद ब्रह्मा आदम कहिए।

कोई हिंदू कोई तुर्क कहावं एक जमीं पर रहिए।

कबीर की सामाजिक चेतना उनकी आध्‍यात्मिक खोज की परिणति है। उनकी रचनाओं का गहन अध्‍ययन करें तो हम पाते हैं कि वे धर्मेतर अध्‍यात्‍म का सपना देखने वाले थे। ऐसा अध्‍यात्‍म जो मनुष्‍य सत्ता को ब्रह्मांड सत्ता से जोड़ता है। उन्‍होंने धर्म की आलोचना की। वे जब हिंदू या मुसलमान की आलोचना करते हैं तो उसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कोई नया धर्म प्रवर्तन करना चाहते थे।

धर्म के नाम पर व्‍याप्‍त आडम्‍बर का वे सदा विरोध करते रहे। धार्मिक कुरीतियों को उनहोनें जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रण लिया। साधक के साथ-साथ वे विचारक भी थे। उनका मानना था कि इस जग में कोई छोटा और बड़ा नहीं है। सब समान हैं। ये सामाजिक आर्थिक राजनीतिक परिस्थिति की देन है। हम सब एक ही ईश्‍वर की संतान है।

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

आज भी इस संसार में हिंसा, आतंक, जातिवाद आदि के कारण निर्दोष लोगों पर अत्‍याचार हो रहे हैं। ऐसी भयावह परिस्थिति में कबीर ऐसे युगप्रवर्तक की आवश्‍यकता है जो समाज को सही राह दिखाए। कबीर तो सच्‍चे अर्थों में मानवतावादी थे। उन्‍होंने हिंदू और मुसलमानों के बीच मानवता का सेतु बांधा। पर आज वह सेतु भग्नावस्‍था में है। इसके पुनः निर्माण की आवश्‍यकता है। कबीर के विचार समाज को नई दिशा दिखा सकता है।

आज का विचार

आज का विचार

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स्‍वतन्‍त्रता

_a_bush06 नैतिक, आध्‍यात्मिक व मानवीय मूल्‍यों को स्‍थापित किए बिना सच्‍ची स्‍वतन्‍त्रता असम्‍भव है।

शुक्रवार, 25 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार :: लगन

_a_bush05 जो सच्‍ची लगन से हर कार्य करते हैं उनके विचारों, वाणी और कर्मों पर पूर्ण आत्‍मविश्‍वास की छाप लग जाती है।

गुरुवार, 24 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार

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प्रयासों का फल

_a_apple यदि मैं अपने प्रयासों का फल प्राप्‍त करने के लिए बेचैन हूँ तो यह कच्‍चा फल खाने की इच्‍छा समान है।

बुधवार, 23 जून 2010

अपना अपना आनंद

--- --- मनोज कुमार

कोलकाता की उमस भरी तपती-जलती दोपहरी को बड़े साहब का संदेश मिला कि इस बार का राजभाषा सम्‍मेलन हम देहरादून में करेंगे। कोलकाता के 40 डिग्री सेल्सियस का तापमान और लगभग 100 प्रतिशत की आर्द्रता वाले माहौल में भी लगा कि कोई शीतल बयार आकर छूकर चली गई हो।

 

तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार हम पिछले सप्‍ताहांत (11-12 जून) देहरादून में सम्‍मेलन कर आए। गर्मियों में देहरादून जाना एक सुखद अनुभव रहा। देहरादून उत्तराखण्ड की राजधानी है। हम मैदानी इलाकों में रहने वालों के लिए पहाड़ी स्‍थल तक की यात्रा एवं स्‍थान परिवर्तन से बहुत राहत मिलती है। कईयों के मुंह से देहरादून की जलवायु की प्रशंसा सुन रखी थी। गर्मियों में भी वहां हल्‍की सी ठंड रहती है। लू तो कभी चलती ही नहीं। हरे भरे जंगल चारों ओर फैले हैं। फिर, मसूरी की सैर का आनंद ही अलग है।

कुछ ही दूरी पर सहस्रधारा है। सहस्रधारा में पहाड़ की चट्टानों से निरन्तर पानी की झड़ी लगी रहती है। प्रकृति की इस सुंदरता का वर्णन मुझे सदैव आह्लादित किए रहता था कि यह सब एक बार अपनी आंखों से देखकर तृप्त हो जाऊँ।

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सहस्रधारा जाने के लिए पक्‍की सड़क है। तीन पहाडि़यों को पार कर सहस्रधारा तक पहुँचा जा सकता है। पहाड़ों की घुमावदार एवं ऊँची-नीची सड़कें और हरे-भरे पेड़–पौधे शहर छोड़ते ही साथ हो लेते हैं। एक पहाड़ी नाले के ऊपर सहस्रधारा की चट्टानें हैं। उसके नीचे गुफा है, जिसमें पानी झरता रहता है- बहुत ही ठंडा, बूंद-बूंद, फुहारों की तरह और इसीसे छोटी-छोटी असंख्य धाराएं बन जाती हैं। गरमी अधिक थी, अतः धाराएं कम थीं। शायद बरसाती दिनों में सहस्र धाराएं अवश्य बन जाती होंगी।

यहां आकर चारो ओर एकांत, शांत और स्‍वच्छ वातावरण की मेरी उम्‍मीदों पर मानों पानी फिर गया। मोटर की आवाजों का शोर, चाय, पान, सिगरेट, पूरी मिठाइयों की दुकानें और इनसे उपजी गंदगियां- जूठे पत्तल, दोने, कुल्‍हड़, प्‍लास्टिक की बोतलें, गिलास, सिगरेट बीड़ी के टुकड़े, खाली डिब्‍बे, पान की पीक आदि नाले के सड़े पानी की दुर्गंध के साथ चारो ओर बिखरे पड़े थे। ये सब हमारी ही तो देन हैं। हम अपनी प्रकृति का आनन्द लेने के बहाने उसको नष्‍ट करने का मजा लेते हैं। उसे अशोभन, अनाकर्षक और कुरूप बना देते हैं। सहस्रधारा से अविरल झरता पानी प्रकृति के साथ हुए अत्‍याचार पर आंसू बहाता प्रतीत हुआ।

IMG_0161 हमारा अगला पड़ाव मसूरी था। मसूरी देहरादून से ऊपर 32-35 कि.मी. चढ़ने पर आता है। रास्‍ते में प्रकाशेश्‍वर मंदिर पड़ता है। और उससे पहले ही, चढ़ाई शुरू होने के पहले, सांई बाबा का मंदिर है। यह यात्रा भी हमने मोटर से की। हालाकि, पहाड़ पर पैदल चलने, चढ़ने का आनंद ही कुछ और होता है। यद्यपि चढ़ाई कष्‍टकर होती ही है, खासकर उनके लिए जिन्‍हें चढ़ने का तरीका नहीं आता। पांवो में दर्द हो जाता है, सांस फूलने लगती है। लेकिन जो चढ़ने का आनंद लेते हैं उन्‍हें तो इसमें भी आनंद ही आता है। जीवन में कुछ पीड़ा न हो, कुछ कष्‍ट न हो, कुछ कठिनाई न हो तो आदमी किस चुनौती पर जिए। चुनौतियों से प्ररेणा लेकर जो चढ़ाई करता है, विजयश्री उसे ही मिलती है।

 

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शाम ढलने से पहले हम केम्प्टी फॉल पहुँच गए। जोरों से बहती हुई हवा थी। सर्द! ठंढी!! कँपकँपी दिलाने वाली!!! मौसम का मिजाज कितना बदल गया था। प्रकृति के सौंदर्य में दुबका मन किसी अनजाने एकाकीपन के वशीभूत, मसूरी के केम्‍प्टी फॉल के इर्द-गिर्द के वातावरण का आनंद ले रहा था। सीधी सड़क। ऊँचाई को जाती सड़क। पहाड़ी ढलान। ढलता सूरज। और आसमान में फैली लालिमा। मालरोड की भीड़ को छोड़ हम केम्‍प्‍टी फॉल का सौन्‍दर्य निहार रहे थे। ऊँचाई से झरने की गिरती धारा के मोहक नाद के बीच हवा के चलने पर वृक्षों का मर्मर स्‍वर और चिडि़यों का मन को मोहने वाला कलरव। ऊपर से देखें तो नीचे देहरादून की रोशनियाँ टिमटिमाते तारों का भ्रम दिलाती हैं। मानों आसमान जमीन पर उतर आया हो। एक भ्रम और भ्रम के इस आभास का आनंद। सहज होने पर मन को झटका लगा। मैं कल्पना लोक की उड़ान पर था। लगा यह कैसा अज्ञान था जिसने मुझे घेर रखा था।

डिजराइली ने कहा था-

‘अपने अज्ञान का आभास होना ही ज्ञान की तरफ़ बढ़ा एक कदम है।’

मैं अब वर्तमान में था।

शोरगुल, धमाके, ठहाकों के बीच पहाड़ की चोटी से गिरता झरना और केम्‍प्‍टी फॉल का यह नजारा कुदरत से प्यार करने वालों को आनंदित करता है। शहर की भीड़-भाड़, उमस-तमस, कोलाहल-हलचल चहल-पहल से दूर पहाड़ो की वादियों में, झरने की कलकल करती धारा और सूर्य की ढलती हुई किरणों को निहारते हम! पक्षियों के चहचहाते हुए सुरों का आनंद लेते मन में ये पंक्तियां गूंज रहीं थीं –

IMG_0136 जीवन क्‍या है निर्झर है

मस्ती ही इसका पानी है

सुख दुख के दोनों तीरों से

चल रहा राह मनमानी है।

निर्झर में गति ही जीवन है,

यह गति रूक जाएगी जिस दिन

मर जाएगा मानव समाज,

जग के दुर्दिन की घडि़यां गिन-गिन।

 

खाने पीने के शौकीन लोगों के लिए एक से एक ढाबा, रेस्‍तराँ और होटल मिले। जहां जायकेदार खाना और उसका आनंद लूटते लोग उमड़े पड़े थे। लेकिन, झरने के नीचे एक गुफा (खोह) नुमा संरचना मुझे महात्‍माओं और संतो के आसपास होने का भ्रम दे गई और इसी सोच से मुझे आनंद की अनुभूति होने लगी। मेरी उत्सुकता मुझे उस गुफा में खींच ले गई जहां लगा कि कोई मुनि जल की आसनी पर भगवान के प्रति सम्‍पूर्ण आस्‍था से ध्‍यानस्‍थ हैं और प्रभु की समीपता का आनंद लूट रहे हैं।

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ऊपर के लोग भी आनंद में थे। अपना-अपना आनंद है। कोई उस जल-प्रपात के तरण ताल में हिलोरें ले-लेकर आनंद लूट रहा था तो कोई सोमरस की खुमारी का। किसी जोड़े के चहरे पर नव विवाहित होने की मस्‍ती थी, तो कोई अपनी ढलती उम्र का आनंद ले रहा था। आनंद की प्राप्ति के लिए हम क्‍या कुछ नहीं करते? हां आनंद की परिभाषा और मायने हमारे लिए अलग-अलग हैं।

वहां पहुंच कर कैमरे में तस्‍वीरें कैद करते वक्‍त अपने ब्लॉग के लिए एक पोस्ट बन सकने की कल्‍पना मात्र से मुझे असीम आनंद का अनुभव हो रहा था। वैसे आनंद की परिभाषा भी बदलती रहती है। जब आ रहा था तो बीच रास्‍ते में एक शिव मंदिर पड़ा। वहां शिव के दर्शन से ज्‍यादा भीड़ उमड़ी पड़ी थी प्रसाद ग्रहण में। प्रसाद पाने की अनियमितता, धक्‍का-मुक्‍की और तुमसे पहले मैं की छीना-झपटी के बीच प्रसाद पाने का आनंद मुझे फर्स्‍ट डे फर्स्‍ट शो दीवार फिल्‍म देखने के लिए प्राप्‍त किए गए टिकट के आनंद सा लगा।

आनंद हमें भटकाता भी है। आदमी आनंद प्राप्‍त करने के लिए कहां-कहां नहीं भटकता है। अब देखिए, जब रात गहराने लगी तो मन भटकने लगा कि चलो भाई! जल्‍दी करो, देहरादून भी वापस पहुंचना है। अब आनंद का कारण बदलने लगा। क्‍योंकि अब वापस देहरादून पहुंचकर जो आनंद मिलने वाला था उसकी उत्‍कंठा जागृत होने लगी थी।

हम धन-दौलत, मद-मोह, पद-वैभव लेकर कहां जाएंगे। जब जाएंगे – तब यहीं धरा रह जाएगा सब! तो इस गुफा के अंदर जल की आसनी पर बैठे ऋषि की कल्‍पना का विस्‍तार मुझे भरमाने भी लगा। मन में आया कि यदि हम उनकी तरह भगवान के बारे में जान भी लें तो हमें क्‍या मिलेगा? क्‍या भगवान स्‍वयं मिल जाएंगे?

इस कल्‍पना और इन्हीं मनोभावों के वशीभूत हमने अपने चारो तरफ नजर दौड़ाई तो मुझे लगा ये जो लोग हैं, जो हंस रहे हैं, गा रहे हैं, प्राकृतिक सौदंर्य का आनंद उठा रहे हैं, सब स्‍वस्थ प्रसन्‍न होने का ढोंग और स्वांग रच रहे हैं। कहीं न कहीं ये सब भीतर से अस्वस्‍थ हैं। कुछ जुमले जो मैंने गौर से सुनने की कोशिश की इस प्रकार थे –

‘देखो कैसे इतरा रहा है’

‘हूंह, पानी में ऐसे कूद रहा है मानो कभी स्‍वीमिंग पूल में नहाया ही न हो’

‘देखो कैसे लड़कियों को घूर रहा हैआदि।

ये परनिंदा, ईर्ष्‍या, द्वेष आदि का आनंद लूटते लोग – ये स्‍वस्‍थ भी हैं या मानसिक रूप से विकल?

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मैं फिर उस गुफा की तरफ मुड़ता हूँ। मेरी कल्‍पना फिर परवान चढ़ती है। मुझे लगता है उसमें धयानस्‍थ जो मुनि है, वही सच्‍चा आनंद लूट रहे हैं- भक्ति का, भगवत प्रेम का। उन्हें बाहरी आनंद की चाह नहीं, वह तो आन्‍तरिक आनंद की अमृत धारा से सराबोर हैं।

वापसी की यात्रा में ऐसा प्रतीत हुआ कि जो मनःस्थिति लेकर हम देहरादून आए थे उसमें बड़ा अन्‍तर आ गया है। मोटर के कैसेट प्‍लेयर पर फिर वही गीत बज रहा था जो जाते समय बजा था –

दिल ढूंढता, है फिर वही

फुरसत के रात दिन,

बैठे रहे तसव्‍वुर-ए-जाना किए हुए ।

इस गीत ने जाते समय मन में जो ताना-बाना बुना था अब वह टूट रहा था। हम वापस जा रहे थे, देहरादून के बारे में एक अलग अनुभव के साथ। फिर कोलकाता। फिर उमस, फिर गर्मी!!

आज का विचार

आज का विचार

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आज का दिन

_a_tomato1 यदि किसी भूल के कारण कल का दिन दु:ख में बीता, तो उसे याद कर आज का दिन व्‍यर्थ न गँवाइए।

मंगलवार, 22 जून 2010

काव्यशास्त्र-19

काव्यशास्त्र-19

आचार्य  वाग्भट्ट

आचार्य  परशुराम राय

 

कुछ काल तक गुजरात का अनहिलपट्टन राच्य जैन विद्वनों का केन्द्र था। आचार्य हेमचन्द्र, रामचन्द्र, गुणचन्द्र आदि काव्यशास्त्र के अनेक आचार्यों ने शास्त्रों एवं साहित्य का प्रणयन किया। इसी परम्परा में आचार्य रामचन्द्र-गुणचन्द्र के बाद आचार्य वाग्भट का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इनका काल अनहिलपट्टन के चालुक्यवंशी राजा जयसिंह का शासन काल माना जाता है। अपने ग्रंथ “वाग्भटालंकार”में उदाहरण के रूप में राजा जयसिंह की स्तुति देखने को मिलती है। इसके अनुसार वे राजा जयसिंह के मंत्री (महामात्य) भी थे।

_a_art_028 आचार्य  वाग्भट को अनेक ग्रंथों का रचयिता माना जाता है, जिनमें वाग्भटालङ्कार, काव्यानुशासन, नेमिनिर्वाणमहाकाव्य, ऋषभदेवचरित, छन्दोनुशासन और अष्टाङ्गहृदयसंहिता मुख्य हैं। कुछ लोगों का मानना है कि दो वाग्भट हुए हैं और उन्हें वाग्भट प्रथम और वाग्भट द्वितीय के नाम से अभिहित करते हैं। इस मान्यता के अनुसार वाग्भट प्रथम ने केवल वाग्भटालंकार की रचना की थी और काव्यानुशासन, छन्दोनुशासन एवं ऋषभदेवचरित की रचना वाग्भट द्वितीय ने। नेमिनिर्वाणहाकाव्य और आयुर्वेद पर लिखी अष्टांगहृदयसंहिता किस वाग्भट की रचनाएँ हैं, स्पष्ट नहीं है। लेकिन कुछ विद्वान दो वाग्भट न मानकर उक्त सारी रचनाएँ एक ही वाग्भट की मानते हैं। क्योंकि वाग्भटालङ्कार की टीका में एक पंक्ति इस प्रकार मिलती है-

‘इदानीं ग्रंथकार इदमलङ्कारकर्तृत्वख्यापनाय वाग्भटाभिधस्य महाकवेर्महायात्यस्य तन्नाम गाथया एकया निदर्शयति।’

उपर्युक्त पंक्ति में आचार्यवाग्भट को महाकवि, अलङ्कारकर्ता और महामात्य कहा गया है।  इससे लगता है कि उक्त ग्रंथों  के रचयिता एक ही वाग्भट हैं।

_a_back_prof1 आचार्य वाग्भट के जीवन वृत्त के विषय में  बहुत अधिक नहीं मिलता। लेकिन उपर्युक्त सारी उपलब्धियों के होते हुए भी इनके जीवन में बड़ी ही दुखद घटना हुई। इनकी एक अत्यन्त सुन्दरी, गुणवती, विदुषी एवं कवयित्री कन्या जब विवाह के योग्य हुई, तो उसे हठात् राजप्रासाद की शोभा बढ़ाने के लिए इनसे छीन लिया गया। न चाहते हुए भी कठोर राजाज्ञा के सामने दोनों को झुकना पड़ा। राजभवन प्रस्थान करते समय पिता को सान्त्वना देते हुए उसने कहा-

    तात वाग्भट! मा रोदीः कर्मणां गतिरिदृशी।

    दुष्  धातोरिवास्माकं गुणो दोषाय केवलम्।।

उक्त  घटना का उल्लेख करते हुए अत्यन्त  कष्ट का अनुभव हो रहा है।  आज भी इक्कीसवीं शताब्दी में सारे विकास के होते हुए भी हम लोगों को ऐसी घटनाएँ आए दिन देखने-सुनने को मिलती हैं, यह उससे भी दुखद है।

इन  सबके बावजूद काव्य जगत  आचार्य वाग्भट को याद रखेगा। काव्यशास्त्र के क्षेत्र  में इनके दो ग्रंथ ‘वाग्भटालङ्कार’ और ‘काव्यानुशासन’ बड़े ही महत्त्वपूर्ण है।

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आज का विचार

आज का विचार :: आलस्‍य

_a_sunflower2 जो प्रसन्‍न रहते हैं, उनके मन में कभी आलस्‍य नहीं आता। आलस्‍य एक बहुत बड़ा विकार है।

सोमवार, 21 जून 2010

काव्यशास्त्र-18

काव्यशास्त्र-18

आचार्य परशुराम राय

आचार्य हेमचन्द्र

आचार्य हेमचन्द्र का जन्म गुजरात प्रान्त के अहमदाबाद जनपद के धुन्धुक गांव में 1088 ई. में हुआ था। ये जैनधर्म के विख्यात आचार्य हैं। इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की। अनहिलपट्टन के चालुक्य राजा सिद्धराज के आग्रह पर इन्होंने व्याकरण पर एक ग्रंथ लिखा और महाराज सिद्धराज और अपने नाम पर उसका नाम सिद्धहेम रखा।

काव्यशास्त्र पर इनका अत्यंत प्रसिद्ध ग्रंथ “काव्यानुशासन”मिलता है। यह सूत्र शैली में लिखा गया है। इस पर “विवेक”नामक टीका भी इन्होंने स्वयं लिखा है। यह ग्रंथ अध्यायों में विभक्त है। इसमें काव्य के लक्षण, प्रयोजन, रस, दोष, गुण, अलंकार आदि का निरूपण किया गया है। इसमें काव्यमीमांसा, काव्यप्रकाश, ध्वन्यालोक, अभिनव भारती आदि से लम्बे उद्धरण लिए गए हैं।

आचार्य हेमचन्द्र ने 1172 ई. में 84 वर्ष की आयु में अपना शरीर छोड़ा। काव्यानुशासन के लिए ये हमेशा काव्यशास्त्र के इतिहास में याद किए जाएंगे।

आचार्य रामचन्द्र और गुणचन्द्र

आचार्य रामचन्द्र और आचार्य गुणचन्द्र दोनों आचार्य हेमचन्द्र के शिष्य हैं। इन दोनों आचार्यों का नाम साथ-साथ आता है। इन दोनों के नाम काव्यशास्त्र के इतिहास में संयुक्त रूप से विरचित“नाट्यशास्त्र” के कारण याद किए जाएंगे।

इनका कार्यकाल गुजरात के सिद्धराज, कुमारपाल और अजयपाल तीनों राजाओं के शासनकाल में रहा है। कहा जाता है कि अन्तिम राजा अजयपाल ने किसी कारण से क्रोधित होकर इन्हें प्राणदण्ड दे दिया था।

आचार्य गुणचन्द्र का “नाट्यदर्पण” के अलावा और कोई दूसरा ग्रंथ नहीं मिलता है। लेकिन कहा जाता है कि आचार्य रामचन्द्र ने कुल लगभग 190 ग्रंथों की रचना की थी। इनके द्वारा विरचित 11 नाटकों के उद्धरण “नाट्यदर्पण” में देखने को मिलते हैं। इसके अतिरिक्त “नाट्यशास्त्र” के इस ग्रंथ में अनेक दुर्लभ नाटकों के भी उद्धरण आए हैं, यथा विशाखदत्त द्वारा विरचित“देवीचन्द्र गुप्त”।

“नाट्यदर्पण” की रचना कारिका शैली में की गयी है। इसकी वृत्ति भी इन्हीं दोनों आचार्यों ने लिखी है। यह ग्रंथ चार “विवेकों”में विभक्त है। इसमें नाटक, प्रकरण आदि रूपक, रस, अभिनव एवं रूपक से सम्बन्धित अन्य विषयों का भी निरूपण किया गया है।

आज का विचार

आज का विचार

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श्रेष्‍ठ कर्म

electro व्‍यर्थ कर्म भारीपन व थकान लाते हैं जबकि श्रेष्‍ठ कर्म हमें प्रसन्‍न और हल्‍का बनाकर ताज़गी प्रदान करते हैं।

रविवार, 20 जून 2010

काव्यशास्त्र-17 :: आचार्य सागरनन्दी एवं आचार्य (राजानक) रुय्यक (रुचक)

काव्यशास्त्र-17

आचार्य  सागरनन्दी

एवं

आचार्य (राजानक) रुय्यक

- आचार्य परशुराम राय

 

आचार्य  सागरनन्दी

आचार्य  मम्मट के परवर्ती आचार्यों में आचार्य सागरनन्दी का नाम सर्वप्रथम आता है। इनका नाम केवल सागर था नन्दी वंश में उत्पन्न होने के कारण सागरनन्दी के नाम से ये जाने जाते हैं। इनके जीवन-वृत्त के विषय में कोई अधिक विवरण उपलब्ध नहीं है।

आचार्य  सागरनन्दी कृत ‘नाटकलक्षणरत्नकोश’ नामक केवल एक ग्रंथ है। यह नाट्यशास्त्र पर लिखा गया ग्रंथ है। अपने ग्रंथ के प्रणयन में जिन आचार्यों को इन्होंने अपना प्रेरणास्त्रोत माना है, ग्रंथ के अन्त में उनका उल्लेख इस प्रकार किया है-

श्रीहर्षविक्रमनराधिपमातृगुप्त-

गर्गाश्मकुट्टनखकुट्टकबादरीणाम्।

एषां  मतेन भरतस्य मतं  विगाह्य

घुष्टं  मया समनुगच्छत  रत्नकोशम्।।

यहाँ  आचार्य सागरनंदी ने नाट्यशास्त्र के पूर्ववर्ती आचार्यों के मतों का अपने ग्रथं ‘नाटकलक्षणरत्नकोश’ का आधार बताया है। उक्त श्लोक में इनके पूर्ववर्ती आचार्यों के नाम इस प्रकार हैं- हर्षविक्रम, मातृगुप्त, गर्ग, अश्मकुट्ट, नखकुट्ट, बादरिका और आचार्य भरत। कई स्थानों पर इन्होंने आचार्य भरत के श्लोकों को यथावत ले लिया है। इससे लगता है कि ये आचार्य भरत से अधिक प्रभावित हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि नाट्यशास्त्र के उक्त आचार्यों के अतिरिक्त आचार्य धनञ्जय और उनके भाई आचार्य धनिक भी हैं।

आचार्य  सागरनन्दी का ग्रंथ ‘नाटकलक्षणकोश’ उपलब्ध नहीं था। केवल इसका परिचय अन्य ग्रंथों में उल्लेख के रुप में ही मिलता था। लेकिन 1922 में इसकी एक पाण्डुलिपि स्व0 सिलवाँ लेवी को नेपाल में मिली जिन्होंने इस पर एक लेख ‘जरनल एशियाटिक’ में प्रकाशित करवाया। इसके बाद इसका सम्पादन कर श्री एम. डिलन ने लन्दन से इसे 1937 प्रकाशित करवाया।

forestback2 आचार्य (राजानक) रुय्यक

(रुचक)

आचार्य  रुय्यक का काल बारहवीं  शताब्दी है। ‘राजानक’ इन्हें कश्मीर नरेश द्वारा प्रदत्त उपाधि है। कश्मीर में राजाओं द्वारा विद्वानों को ‘राजानक’ की उपाधि देने की परम्परा सी थी। इनके जीवनवृत्त के विषय कोई विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है।

कहा जाता है कि आचार्य रुय्यक ने कुल नौ ग्रंथों का प्रणयन किया था जिनके नाम हैं- सहृदयलीला, व्यक्तिविवेक पर टीका, अलंकारसर्वस्व, काव्यप्रकाशसङे्त, अलंकारमञ्जरी, अलंकारानुसारिणी, साहित्यमीमांसा, नाटकमीमांसा, और अलंकारवार्त्तिक। सहृदयलीला स्त्रियों के प्रसाधन, अलंकार आदि से सम्बंधित काव्य है। ‘अलंकार सर्वस्व’ काव्यशास्त्र पर लिखा गया ग्रंथ है। वैसे राजानक रुय्यक के केवल प्रथम तीन ग्रंथ ही मिलते हैं। शेष अन्तिम छः ग्रंथों का उल्लेख मात्र मिलता है, विशेषकर ‘अलंकारसर्वस्व’ पर आचार्य जयरथ कृत ‘विमर्शिनी’ नामक टीका में। इसके अतिरिक्त आचार्य समुद्रबन्ध ने भी ‘अलंकारसर्वस्व’ पर टीका लिखी है।

‘अलंकारसर्वस्व’ और इस पर आचार्य समुद्रबन्धकृत टीका में काव्यशास्त्र के रस, ध्वनि, व्रकोक्ति आदि सम्प्रदायों का बड़ा ही वैज्ञानिक निरुपण मिलता है।

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आज का विचार

आज का विचार

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मानसिक शान्ति

_a_art_008 मानसिक शान्ति का आनन्‍द प्राप्‍त करने के लिए मन को व्‍यर्थ की उलझनों में फँसने नहीं दो।

शनिवार, 19 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार :: मुस्कान

_a_art_028 होठों पर मुस्कान हर मुश्किल कार्य को आसान कर देती है।

शुक्रवार, 18 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार

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हर्षितमुख

_a_art_018 जो हर्षितमुख है, वह स्‍वयं भी प्रसन्‍न रहता है और दूसरों के चेहरे पर भी मुस्‍कान ले आता है।

गुरुवार, 17 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार :: एकता

_a_romashka1 एकता का किला सबसे सुरक्षित होता है। न वह टूटता है और न उसमें रहने वाला कभी दुखी होता है। -अज्ञात

बुधवार, 16 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार :: स्वार्थी

_a_sunflower2 आंख के अंधे को दुनिया नहीं दिखती, काम के अंधे को विवेक नहीं दिखता, मद के अंधे को अपने से श्रेष्ठ नहीं दिखता और स्वार्थी को कहीं भी दोष नहीं दिखता। -चाणक्य

मंगलवार, 15 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार :: काम

_a_waterfall2 आपका कोई भी काम महत्वहीन हो सकता है पर महत्वपूर्ण यह है कि आप कुछ करें। -महात्मा गांधी

सोमवार, 14 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार :: विवेक

2i109k4_th उड़ने की अपेक्षा जब हम झुकते हैं तब विवेक के अधिक निकट होते हैं।

रविवार, 13 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार :: संयम

122137b_th.jpg जीवन की जड़ संयम की भूमि में जितनी गहरी जमती है और सदाचार का जितना जल दिया जाता है उतना ही जीवन हरा भरा होता है और उसमें ज्ञान का मधुर फल लगता है। -दीनानाथ दिनेश

शनिवार, 12 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार :: विजयी

palm tree वे ही विजयी हो सकते हैं जिनमें विश्वास है कि वे विजयी होंगे।

शुक्रवार, 11 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार

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उदार मन

mjlu8g_th.jpg उदार मन वाले विभिन्न धर्मों में सत्य देखते हैं। संकीर्ण मन वाले केवल अंतर देखते हैं। -चीनी कहावत

गुरुवार, 10 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार

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चरित्रशीलता

24lss5u_th जिस राष्ट्र में चरित्रशीलता नहीं है उसमें कोई योजना काम नहीं कर सकती। – विनोबा

बुधवार, 9 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार :: अनुराग

_a_tree_8 अनुराग, यौवन, रूप या धन से उत्पन्न नहीं होता। अनुराग, अनुराग से उत्पन्न होता है। – प्रेमचंद

मंगलवार, 8 जून 2010

लव यू डैड

लव यू डैड


एक व्‍यक्ति अपनी नई नवेली कार को पॉलिश कर रहा था। उसके साथ ही उसका 04 वर्षीय लड़का खेल रहा था  , अचानक उस लड़के ने एक पत्‍थर उठाया और कार पर कुछ खरोच दिया । यह देखते ही उसका पिता उपने पर काबू न रख सका और बिना कुछ सोचे समझे उसने गुस्‍से में बच्‍चे के हाथ को कई बार हिंसक ढंग से मरोड दिया । अस्‍पताल में यह ज्ञात हुआ कि मल्‍टीपल फ्रैक्‍चर के कारण बच्‍चे की सभी उँगलियॉं स्‍थायी रूप बेकार हो गई।

जब बच्‍चे ने अपने पिता को देखा तो उसने ऑंसू भरे ऑखों से कहा ‘’पिताजी कब मेरी उँगलियॉं फिर से ठीक होंगी ?’’ यह सुनते ही पिता निरूत्‍तर हो गया उसे तीव्र ग्‍लानी हुई। वह बहुत दुखी हुआ घर के पिछवाड़े खड़ी कार को लात मारने लगा। अपने ही कृत्‍य से शर्मिंदा व हताश होकर वह कार के आगे बैठ गया । अनायास ही उसकी नज़र बेटे द्वारा खरोचे गए हिस्‍से पर गढ़ गई, बच्‍चे ने उस पर लिखा था ‘'LOVE YOU DAD'’

अगले ही दिन उस व्‍यक्ति ने आत्‍महत्‍या कर ली।

क्रोध एवं प्रेम की कोई सीमा नहीं होती, सदैव खुश्‍नुमा जिन्‍दगी के लिए प्रेम को चुने ................. । वस्‍तु का उपयोग तथा मनुष्‍यों से प्रेम करना चाहिए पर दुर्भाग्‍यवश आज की दुनिया में मुनुष्‍यों का उपयोग तथा वस्‍तु से प्‍यार किया जा रहा है। 

आइए इस वर्ष हम यह स्‍मरण करें कि वस्‍तु का उपयोग तथा मनुष्‍यों से प्रेम करना चाहिए। आप स्‍वयं क्‍यों न हों...........? अपने विचारों का मनन करें, ऐसा करने से ऐसी भावना आपके वचन एवं कर्म अर्थात कृत्‍य बनेंगे । आपके कृत्‍य आपके आदतें बनेगी और आपकी आदतों से ही आपका चरित्र .......... आपका चरित्र अंतत: आपका भाग्‍य बनेगा। 


मैं अभिभूत हूँ कि मेरे मित्र ने मुझे यह स्‍मरण करवाया।

 [श्री अभय निम्‍बालकर द्वारा प्रेषित ई-मेल का अनुवाद ] 

आज का विचार

आज का विचार :: सत्‍य

_a_bush07 उन पर विश्‍वास कीजिए जो सत्‍य को खोज रहे हैं, उन पर संदेह कीजिए जो इसे खोज लेने का दावा करते हैं!          आंद्रे गिडे

सोमवार, 7 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार

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अच्‍छे लोग

_a_bush05 अच्‍छे लोग इसलिए अच्‍छे होते हैं, क्‍योंकि उन्‍होंने अपनी नाकामियों से काफी ज्ञान बटोरा है । विलियम सरोया

रविवार, 6 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार

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महानता

J0179963 मनुष्य की महानता उसके कपडों से नहीं बल्कि उसके चरित्र से आँकी जाती है। - स्वामी विवेकाननद

शनिवार, 5 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार :: मुस्कान

000032 मुस्कान पाने वाला मालामाल हो जाता है पर देने वाला दरिद्र नहीं होता।

शुक्रवार, 4 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार :: लालची

BELIN-thumb दरिद्र व्यक्ति कुछ वस्तुएं चाहता है, विलासी बहुत सी और लालची सभी वस्तुएं चाहता है।

गुरुवार, 3 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार :: विपत्ति

Fire कष्ट और विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने वाले श्रेष्ठ गुण हैं। जो साहस के साथ उनका सामना करते हैं, वे विजयी होते हैं। -लोकमान्य तिलक

बुधवार, 2 जून 2010

आज का विचार

आज का विचार

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सत्याग्रह

J0341654 सत्याग्रह की लड़ाई हमेशा दो प्रकार की होती है। एक जुल्मों के खिलाफ और दूसरी स्वयं की दुर्बलता के विरूद्ध। – सरदार पटेल

मंगलवार, 1 जून 2010

मायक्रोसाफ्ट इंडिंक इनपूट टूल (बिटा) ("ILIT")



मायक्रोसाफ्ट इंडिंक इनपूट टूल (बिटा)("ILIT")


राजभाषा विभाग, भारत सरकार द्वारा राजभाषा हिन्‍दी को सर्वव्‍यापी बनाने तथा युनिकोड में हिन्‍दी टंकण को प्रोत्‍साहित करने हेतु समय-समय पर परिपत्र आदि परिचालित किए जाते हैं। वस्‍तुत: युनिकोड स्‍क्रीप्‍ट में ही हिन्‍दी भाषा की प्रगति संभव है क्‍योंकि युनिकोड में टंकित पाठ्यसामग्री को देखने अथवा पढ़ने के लिए कम्‍प्‍यूटर पर अलग से हिन्‍दी फॉन्‍ट इन्‍स्‍टाल करने की आवश्‍यकता नहीं होती है । युनिकोड में टंकित पाठ्यसामग्री को वेबसाइट पर अपलोड करना तथा पढ़ पाना संभव हो पाता है। वर्तमान में युनिकोड फॉन्‍ट तो डिफाल्‍ट फॉन्‍ट के रूप में माइक्रोसाफ्ट कम्‍पनी द्वारा निर्मित माइक्रोसाफ्ट 2000 तथा उसके बाद के संस्‍करण वाले सॉफ्टवेयरों में विद्यमान रहता है। इस अंक में विंडोज विस्‍टा कम्‍प्‍यूटर को युनिकोड एनेबल्‍ड करने हेतु मायक्रोसाफ्ट इंडिंक इनपूट टूल (बिटा) के इन्‍स्टालेशन की जानकारी प्रस्‍तुत है। 

सिस्‍टम की आवश्‍यकताऍं
विंडोज एक्‍स.पी. सर्विस पैक 2 + (32-बिट)
माइक्रोसाफ्ट डॉट नेट फ्रेमवर्क 2.0
माइक्रोसाफ्ट विन्‍डोज इंस्‍टालर 3.1

समर्थित हार्डवेयर
1 GHz 32-बिट (x86) या 64-बिट (x64) प्रोसेसर
512 MB
सिस्‍टम मेमरी

विंडोज एक्‍स.पी. में इन्‍स्‍टालेशन
सर्वप्रथम यह सुनिश्चित करें की आपके कम्‍प्‍यूटर में माइक्रोसाफ्ट डॉट नेट फ्रेमवर्क 2.0 तथा माइक्रोसाफ्ट विन्‍डोज इंस्‍टालर 3.1 इन्‍स्‍टाल हैं । यदि नहीं तो उन्‍हें लोड करने के उपरान्‍त  हिन्‍दी ई.एक्‍स.ई. फाइल को रन कर सिस्‍टम को रिबूट कर दें।  ऐसा करते ही आपके कम्‍प्‍यूटर पर हिन्‍दी मायक्रोसाफ्ट इंडिंक इनपूट टूल (बिटा वर्जन) इन्‍स्‍टाल हो जाएगा।  

विंडोज में हिन्‍दी सपोर्ट इनेबल करना: अपने कम्‍प्‍यूटर के क्रमश: र्स्‍टाट एवं प्रोग्राम मेन्‍यू से होते हुए कन्‍ट्रोल पैनल' में जाऍं। वहॉं 'रिजनल एण्‍ड लैंग्‍वेज ऑप्‍शन' को सक्रिय करते हुए 'लैंग्‍वेज' टैब को क्लिक करें।   
 तदुपरान्‍त 'इन्‍स्‍टाल फाइल्‍स फार काम्‍पेलेक्‍स स्क्रिप्‍ट चेक बॉक्‍स' के सम्‍मुख प्रदर्शित चेक बॉक्‍स को क्लिक कर 'ओ.के.' प्रेस बटन को दबाएं। यदि आपके कम्‍प्‍यूटर में विंडोज एक्‍स.पी. पूर्ण रूप से इन्‍स्‍टाल किया गया होगा तो सिस्‍टम स्‍वत: ही काम्‍पेलेक्‍स स्क्रिप्‍ट हेतु वांछित फाइल्‍स इन्‍स्‍टाल कर देगा अन्‍यथा विन्‍डोज एक्‍स.पी. सी.डी. को सीडी.रॉम में डाले जाने संबंधी निदेश स्‍क्रीन पर प्रदर्शित करेगा। सीडी.रॉम में वांछित सी.डी. डाले जाने पर कम्‍प्‍यूटर स्‍वत: ही आवश्‍यक फाइल्‍स ग्रहण कर कम्‍प्‍यूटर स्‍वत: ही आवश्‍यक फाइल्‍स ग्रहण कर लेगा। ऐसा होते ही इन्डिक लैंग्‍वेज सपोर्ट आपके कम्‍प्‍यूटर पर इंस्‍टाल हो जाएगा। इन्‍स्‍टालेशन के अन्तिम चरण में कम्‍प्‍यूटर को 'रिस्‍टार्ट' करें। 

 इण्डिक आई.एम.ई. की-बोर्ड जोड़ना:  पूर्वोक्‍त विधि द्वारा क्रमश: स्‍टार्ट, सेटिंग्‍स तथा कन्‍टोल पैनल मैन्‍यू से होते हुए रिजनल एण्‍ड लैंग्‍वेज ऑप्‍शन डायलॉग बॉक्‍स के 'लैंग्‍वेज' टैब को सक्रिय कर 'डिटेल' प्रेस बटन को क्लिक करें। ऐसा करते ही 'टेक्‍स्‍ट सर्विस एण्‍ड इनपूट लैंग्‍वेज सर्विस डायलॉग बॉक्‍स' प्रदर्शित हो जाएगा जिसमें आपके सिस्‍टम में विद्यमान विविध की-बोर्ड तथा उन्‍हें जोड़ने और हटाने हेतु 'ऐड''रिमूव' प्रेस बटन दिखाई देंगे।  'ऐड' बटन को माउस द्वारा प्रेस कर 'इनपूट लैंग्‍वेज' सूची में 'हिन्‍दी' तथा प्रदर्शित 'की-बोर्ड ले-आउट' में 'हिन्‍दी आई.एम.ई. की-बोर्ड ले-आउट' को चुन कर 'अप्‍लाय''ओ.के.' बटन को क्लिक करें। ऐसा होते ही हिन्‍दी आई.एम.ई. की-बोर्ड आपके कम्‍प्‍यूटर से जुड़ जाएगा। अब टैक्‍स्‍ट सर्विस एण्‍ड इनपॅट लैंग्‍वेजेस डॉयलग बॉक्‍स के सेटिंग टैब को क्लिक कर क्रमश: लैंग्‍वेज बार को क्लिक करें।
भाषा परिवर्तन हेतु कुँजी सैट करना: ऐसा करते ही स्‍क्रीन पर लैंग्‍वेज बार सेटिंग्स नामक डायलग बॉक्‍स उभर आएगा जिसमें से शो लैंग्‍वेज बार ऑन द डेस्‍कटॉप के आगे बने रेडियो बटन को क्लिक कर दें।  अब आप अपनी आवश्‍यकता एवं रूचि अनुसार अंग्रेजी से हिन्‍दी तथा हिन्‍दी से अंग्रेजी या अन्‍य भारतीय भाषा में टंकण कर सकेंगे । सामान्‍यत: भाषा परिवर्तन के लिए ALT+SHIFT को डिफाल्‍ट सेटिंग्‍स के रूप में रखा गया है। भाषा परिवर्तन संबंधी कुँजी सेट करने के उपरान्‍त ओ.के. प्रेस बटन को क्लिक कर दें।  
 
इस क्रिया की समाप्ति के साथ ही कम्‍प्‍यूटर स्‍क्रीन की दाँए नीचे में एक टास्‍कबार बना मिलेगा जिसमें भाषा परिवर्तन तथा वर्चुअल की बोर्ड तथा हिन्‍दी, बंगाली, तमिल,तेलुगू, कन्‍नडा, मलयालम तथा अंग्रेजी भाषा में टंकण करने के विकल्‍प बने मिलेंगे । इस टूल से केवल ट्रान्स्लिट्रेशन की-बोर्ड ले-आउट में टंकण किया जा सकता है।

 
 

  इंडिक आई.एम.ई. का प्रयोग कैसे :-  उपयोगकर्ता इस टूल के साथ वर्ड पैड, नोटपैड, एम.एस.वर्ड, एक्सेल, इन्टरनेट, पावर पाइन्, आउटलूक, फ्रन् पेज, इन्टरनेट एक्सप्लोरर, गुगल टॉक आदि किसी भी विंडोज एप्लिकेशन में कार्य सुगमता से करने में सक्षम हो पाएगा। इस टूल से हिन्‍दी ट्रान्स्लिट्रेशन की-बोर्ड ले आउट में ही टाइप किया जा सकेगा । जैसे ही आप अंग्रेजी में कोई शब्‍द टाइप करेंगे तथा स्‍पेसबार या अल्‍प विराम  कुँजी प्रेस करेंगे उस समय टंकित शब्‍द के उच्‍चारण आधारित विविध हिन्‍दी शब्‍द उभर आएंगे।

समस्‍या एवं समाधान
प्रश्‍न:  मैं अंग्रेजी में नहीं टाइप कर पा रहा हूँ ?                                 उत्‍तर: हिन्‍दी से अंग्रेजी में टंकण कार्य करने हेतु की-बोर्ड के बाँयी ओर विद्यमान ALT+SHIFT कुंजी को एक साथ दबाएं। ऐसा करते ही हिन्‍दी इंडिक आई.एम.ई. निष्‍क्रीय हो जाएगा तथा अब आप अंग्रेजी में कार्य कर सकेंगे।