बुधवार, 30 नवंबर 2011

अंक-11 हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेयी

अंक-11

हिन्दी के पाणिनि - आचार्य किशोरीदास बाजपेयी

आचार्य परशुराम राय

पिछले अंक में चर्चा की गयी थी कि 1942 का आन्दोलन छिड़ने के कारण आचार्य जी भैणी (पंजाब) में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन स्थगित करने का हिन्दी साहित्य सम्मेलन को एक पत्र लिखकर 13 अगस्त को हरिद्वार के लिए रवाना हो गए। जब 14 अगस्त को सवेरे हरिद्वार पहुँचे, तो पूरी तरह आन्दोलन की आग भड़क चुकी थी। गोलियां चलीं, जिसमें ऋषिकुल आयुर्वेदिक कालेज का एक छात्र मारा गया। आचार्य जी लिखते हैं कि दो दिनों तक हरिद्वार, कलखल और ज्वालापुर में स्वराज का अर्थ अंग्रेजी राज की समाप्ति हो गया था। डाकखाने जला दिए गये थे। चारों ओर सन्नाटा फैल चुका था। पर फौज बुला ली गयी, शासन का भय पैदा किया गया, अनेक गिरफ्तारियाँ हुई। आचार्य जी भी गिरफ्तार हुए।

प्रशासन आचार्य जी को अहिंसावादी कांग्रेसी नहीं मानता था। इन्हें तिलक तथा सुभाष चन्द्र बोस का समर्थक माना जाता था। अतएव इनकी गिरफ्तारी के लिए पुलिस भी उसी प्रकार की तैयारी के साथ पहुँची थी। अतएव तलाशी हुई, पर कुछ मिला नहीं। लेकिन इनकी पत्नी, पुत्र मधुसूदन और बेटी सावित्री, तीनों काफी घबरा गए थे, यह सोचकर कि पता नहीं क्या हो। सँभालने के लिए इनके पास कुछ था नहीं, अतएव पत्नी से इन्होंने कहा कि मायके चली जाना। आचार्य जी आश्वस्त थे कि उनका कुछ नहीं होगा। क्योंकि 14 अगस्त को उनकी उपस्थिति हरिद्वार में सिद्ध करना कठिन था। चौदह को उनके भैणी में होने के प्रमाण थे, क्योंकि जो चिट्ठी सम्मेलन को भेजी गयी थी, 13 अगस्त को डाकखाना बन्द होने के कारण उस पर 14 अगस्त डाल दी गयी थी। हाँ, उसे पोस्ट 14 अगस्त को दूसरे द्वारा किया गया था।

आचार्य जी को को गिरफ्तार कर सीधे जेल भेज दिया गया। इन्होंने समझा कि हवालात में बन्द नहीं किया, मतलब कि केस नहीं चलेगा। पर ऐसा हुआ नहीं । चूँकि ये बाहर उपद्रव करने वाली भीड़ के साथ गिरफ्तार नहीं हुए थे, इनका मुकदमा अलग तरह से बना। किन्तु पुलिस कुछ सिद्ध न कर सकी। इनके ऊपर एक ही आरोप था कि ये कांग्रेस के डिक्टेटर थे, जिसे इन्होंने स्वीकार कर लिया। क्योंकि उसका लिखित प्रमाण था। अब आचार्य जी अपने छूटने की आशा छोड़ चुके थे। लेकिन उक्त अपराध के लिए मजिस्ट्रेट की दृष्टि में अर्थदण्ड ही पर्याप्त था। अब जुर्माने की धनराशि तय होनी थी। पुलिस इन्स्पेक्टर ने इनकी जो भी हैसियत बताई हो। उसने कहा कि इनके सामान बेचकर पचास रुपये तक वसूल हो जाएगा।

उनकी बातें अंग्रेजी में हो रही थीं। आचार्य जी की अंग्रेजी अच्छी न थी। वे लिखते है कि उनकी अंग्रेजी का स्तर कुलियों और तांगेवालों जैसा था। उन्होंने समझा कि वे लोग वेतन की बात कर रहे हैं। इसलिए इन्होंने कह दिया कि फिफ्टी नहीं सिक्सटी। क्योंकि 50 रुपये तक वेतन पाने वालों को जेल में ‘सी’ क्लास मिलता था और उससे ऊपर पाने वालों को ‘बी’ क्लास मिलता था। इनको लगा कि शायद वेतन कम करके इन्हें ‘सी’ क्लास की जेल में डालने का षडयन्त्र किया जा रहा है। इनकी बात सुनकर सभी उपस्थिति अधिकारी भौचक्के हो गए कि यह पहला व्यक्ति है जो अपने जुर्माने की धनराशि बढ़वाना चाहता है। जब आचार्य जी को समझाया गया, तो बोले तब तो ठीक है, एक पैसे भी वसूल न हो सकेगा।

जहाँ अदालत लगी थी, आचार्य जी की लड़का मधुसूदन भी वहीं था। आचार्य जी ने उससे कहा कि वह जाकर गाँधी आश्रम से एक तिरंगा लेकर अपने मकान पर फहरा दो। क्योंकि पहले वाला पुलिस उठा ले गयी थी। आचार्य जी ने लिखा है कि उस समय कनखल, हरिद्वार और ज्वालापुर में केवल एक ही झंडा उस समय लहराता था, जिसे लोग बड़े कौतूहल, भय और उत्साह से देखा करते थे।

इससे मुक्त होकर आचार्य जी फिर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन पर विचार करने लगे, जो भैणी में न हो सका। जनता में चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। कहीं कोई इसकी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं था। अतएव सम्मेलन की कार्य-समिति ने यह अधिवेशन प्रयाग में करने का निश्चय किया। केवल स्थायी-समिति की सहमति शेष थी। इसके लिए प्रयाग में स्थायी-समिति की बैठक बुलाई गई थी, जिसमें आचार्य जी भी भाग लेने प्रयाग पहुँचे थे। वहाँ वे प्रयाग विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक और गाँधी जी के परम भक्त पं. दयाशंकर दुबे के घर पर ठहरे। वे सम्मेलन के परीक्षा-मंत्री भी थे। वहीं पं. भगीरथ प्रसाद दीक्षित से मुलाकात हुई, जो आचार्य जी के रिस्तेदार भी थे और पुराने मित्र भी। उन्हीं के यहाँ श्री भगवान दास केला भी रहते थे।

भोजन के समय बातचीत में सम्मेलन के अधिवेशन पर चर्चा होने लगी, तो आचार्य जी ने कहा कि यह अच्छा नहीं लग रहा है कि सम्मेलन के अधिवेशन के लिए कोई पूछनेवाला नहीं है और इसे स्वयं इसका प्रबन्ध करना पड़ रहा है। प्रयाग में गरमी भी बहुत है। लोगों को परेशानी होगी। दीक्षित जी ने भी हामी भरी। तब दुबे जी ने कहा फिर अधिवेशन हरिद्वार में करो। दीक्षित जी ने भी पीठ ठोक दी। आचार्य जी भी मजाक-मजाक में सहमत हो गए। स्थाई समिति की बैठक में प्रस्ताव आया और हरिद्वार के पक्ष में एक मत अधिक पड़ा, जिससे हरिद्वार में अधिवेशन का होना तय हो गया।

आचार्य जी के मन में थोड़ी दुविधा थी कि हरिद्वार के अपने लोगों से पहले से इस विषय में बातचीत नहीं किया था। ऐसे समय में कोई साथ दे या न दे। पर इतना उनको विश्वास था कि झोली लेकर निकलेंगे, तो कनखल, हरिद्वार और ज्वालापुर में ऐसा कोई न था, जो दस-पाँच रुपये दान न दे। क्योंकि इनके ईमानदारी और सामाजिक कार्यों से लोग इतने प्रभावित थे कि लकड़ी बेचनेवाला गरीब मजदूर भी एक अठन्नी तो दे ही देता। लेकिन इसकी जरूरत न पड़ी। उनके एक विद्या-शिष्य महन्त शान्तानन्द ने अकेले सारा खर्च उठा लिया और हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन बड़े धूमधाम से हरिद्वार में सम्पन्न हुआ। आचार्य जी ने लिखा है कि इस यज्ञ में अपने साहस, धैर्य, बुद्धि और सहिष्णुता का प्रयोग जितना उन्होंने किया, उतना जीवन में कभी नहीं किया।

इस अंक में बस इतना ही।

सोमवार, 28 नवंबर 2011

कुरुक्षेत्र …. द्वितीय सर्ग ( भाग – 1 ) रामधारी सिंह ‘ दिनकर'




आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि
'योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर,
रुकी रहो पास कहीं'; और स्वयं लेट गये
बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर!
व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त,
काल के करों से छीन मुष्टि-गत प्राण कर।
और पंथ जोहती विनीत कहीं आसपास
हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर।
श्रृंग चढ जीवन के आर-पार हेरते-से
योगलीन लेटे थे पितामह गंभीर-से।
देखा धर्मराज ने, विभा प्रसन्न फैल रही
श्वेत शिरोरुह, शर-ग्रथित शरीर-से।
करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद,
उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से,
"हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ"
चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर-से।
"वीर-गति पाकर सुयोधन चला गया है,
छोड़ मेरे सामने अशेष ध्वंस का प्रसार;
छोड़ मेरे हाथ में शरीर निज प्राणहीन,
व्योम में बजाता जय-दुन्दुभि-सा बार-बार;
और यह मृतक शरीर जो बचा है शेष,
चुप-चुप, मानो, पूछता है मुझसे पुकार-
विजय का एक उपहार मैं बचा हूँ, बोलो,
जीत किसकी है और किसकी हुई है हार?
"हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह?
ध्वंस -अवशेष पर सिर धुनता है कौन?
कौन भस्मराशि में विफल सुख ढूँढता है?
लपटों से मुकुट के पट बुनता है कौन?
और बैठ मानव की रक्त-सरिता के तीर
नियति के व्यंग-भरे अर्थ गुनता है कौन?
कौन देखता है शवदाह बन्धु-बान्धवों का?
उत्तरा का करुण विलाप सुनता है कौन?
"जानता कहीं जो परिणाम महाभारत का,
तन-बल छोड़ मैं मनोबल से लड़ता;
तप से, सहिष्णुता से, त्याग से सुयोधन को
जीत, नयी नींव इतिहास कि मैं धरता।
और कहीं वज्र गलता न मेरी आह से जो,
मेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता;
तो भी हाय, यह रक्त-पात नहीं करता मैं,
भाइयों के संग कहीं भीख माँग मरता।
"किन्तु, हाय, जिस दिन बोया गया युद्ध-बीज,
साथ दिया मेर नहीं मेरे दिव्य ज्ञान ने;
उलट  दी मति मेरी भीम की गदा ने और
पार्थ के शरासन ने, अपनी कृपान ने;
और जब अर्जुन को मोह हुआ रण-बीच,
बुझती शिखा में दिया घृत भगवान ने;
सबकी सुबुद्धि पितामह, हाय, मारी गयी,
सबको विनष्ट किया एक अभिमान ने.
 
"कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे
प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से;
लगता मुझे है, क्यों मनुष्य बच पाता नहीं
दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से?
और महाभारत की बात क्या? गिराये गये
जहाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से,
अभिमन्यु-वध औ' सुयोधन का वध हाय,
हममें बचा है यहाँ कौन, किस पाप से?


क्रमश:


प्रथम सर्ग ( भाग - 1 )( भाग -2)

रविवार, 27 नवंबर 2011

प्रेरक प्रसंग–13 : सौ सुधारकों का करती है काम अकेली मधुशाला

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प्रस्तुतकर्ता : मनोज कुमार

आज इस ब्लॉग पर प्रेरक प्रसंग पोस्ट करने का दिन है।

आज डॉ. हरिवंश राय बच्चन का जन्म दिन है।

सोचा क्यों न उनकी आत्मकथा “क्या भूलूं क्या याद करूँ” से कोई प्रसंग लूं जो प्रेरक भी हो और उनके प्रति श्रद्धांजलि भी। तो लीजिए उसी पुस्तक का एक अंश प्रस्तुत है ...

हरिवंशराय बच्चन

***

मेरा जन्म 27 नवम्बर 1907 को हुआ। मेरा नाम हरिवंश राय रक्खा गया, घर पर मुझे बच्चन नाम से पुकारा जाता। हरिवंश नाम रखने का विशेष कारण था। मेरे से पहले के दो बच्चे अल्पायु में ही चल बसे थे। तब पंडित रामचरण शुक्ल ने प्रताप नारायण (पिता) को यह सलाह दी कि अब मेरी माता गर्भवती हों तब वे हरिवंश पुराण सुनें। घंटों पति-पत्नी गांठ जोड़कर परिवार के पुरोहित से हरिवंश पुराण की कथा सुनते, ‘पुत्रप्रद संतान गोपाल यंत्र’ की पूजा करते।

***

मेरे होने और जीने के लिए मेरी माता ने और भी बहुत-से दाय-उपाय, टोटके-टामन आदि किए। मेरे जन्म के पूर्व मुहल्ले की किसी बड़ी-बूढ़ी ने उन्हें सलाह दी थी कि तुम्हारे लड़के नहीं जीते तो अब जब लड़का हो तो उसे किसी चमारिन-धमारिन के हाथ बेच देना और मन से उसे पराया समझकर पालना-पोसना। उन दिनों बच्चा जनाने के लिए हमारे यहां लछमिनियां चमारिन आती थी। मैं पैदा हुआ तो मेरी मां ने पांच पैसे में मुझे लछमिनियां चमारिन के हाथों बेच दिया और उनके बतासे मंगाकर खा लिए। कहते हैं, साल-भर पहले लछमिनियां का अपना एक मात्र लड़का कुछ महीने का होकर गुजर गया था और उसका दूध सूख गया था, पर जैसे ही उसने मुझे अपनी गोद में लिया उसकी छाती कहराई और उसने बारह दिन तक मुझे अपना दूध पिलाया। मैं उसे चम्मा कहता था, अपनी मां को अम्मा। वह मुझे अपनी मां से अधिक सुन्दर लगती थी। मुझे मोल लेने के बाद चम्मा के कोई संतान नहीं हुई। किसी रूप में यदि उसकी वत्सलता का कोई आधार हो सकता था तो एक मैं – उसका होकर भी कितना न उसका !

***

चम्मा की मृत्यु मेरे लड़कपन में ही हो गई थी। उसने इच्छा प्रकट की कि अंत समय पर मेरे हाथों से ही उसके मुंह में तुलसी गंगाजल डाला जाए। दूसरे दिन चम्मा की अर्थी उठी तो किसी ने मुझे कमर से उठाकर मेरा कंधा उसकी अर्थी से छुला दिया। बचपन में चम्मा की झोपड़ी में खेलने-खाने और उसकी ममतामयी आंखों के नीचे तरह-तरह की शैतानी करने की धुंधली-धुंधली-सी स्मृति अब भी मेरे साथ है।

IMG_1961मुझे गर्व है कि मेरी तो एक मां चमारिन चम्मा थी। एक दिन नगर में आयोजित किसी प्रीतिभोज में मैंने अछूतों की पंगत में बैठकर कच्चा खाना खा लिया। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। संतोष का अनुभव हुआ। पर मेरे संबंधियों और नातेदारों को यह खबर बड़ी नागवार गुज़री। उन्होंने व्यंग्य से कहा कि आखिर इसने चमारिन की छाती का दूध पिया था, उस कुसंस्कार का कुछ असर होना था। मेरे मन से बहुत पहले ही अछूतों को अछूत समझने की बात बिलकुल उठ गई थी। जब स्वतंत्र रूप से अपना घर हुआ तो अक्सर चमार ही मेरे खाना बनानेवाले रहे। मुझे आश्चर्य और क्रोध तो तब होता जब घर की कहारिन चमार के छुए बर्तनों को मांजने से इन्कार कर देती। मुझे लगता है कि मेरे पूर्वजों ने अछूतों का अपमान करके जो पाप किया था उसका यत्किंचित प्रायश्चित मैं कर रहा हूं। सामाजिक स्तर पर कोई सुधार हो, इसके पूर्व व्यक्ति-व्यक्ति को निर्भिकता और साहस के साथ आगे बढ़ना होगा।

इधर मैं सोचने लगा हूं कि अछूतों के साथ या उनके हाथ का खाना-पीना अथवा उनके लिए मन्दिरों का द्वार खोल देना केवल रूमानी औपचारिकताएं अथवा प्रदर्शन हैं। समाज में उनको अपना यथोचित स्थान तभी मिलेगा जब उनमें शिक्षा का व्यापक प्रचार हो और उनका आर्थिक स्तर ऊपर उठे। साथ ही जाति की श्रृंखला को ऊपर से नीचे तक टूटना नहीं तो ढीली होना होगा। जाति की जड़, अर्थहीन और हानिकारक रूढ़ियों से निम्नवर्ग के लोग उतने ही जकड़े हैं जितने उच्च वर्ग के लोग। एक छोटा-सा क़दम इस दिशा में यह उठाया जा सकता है कि लोग अपने नाम के साथ अपनी जाति का संकेत करना बन्द कर दें। वे अपने नाम के साथ अपनी जाति न जोड़ें – अपने को राम प्रसाद त्रिपाठी नहीं; केवल राम प्रसाद कहें।

***

और अब मधुशाला से बच्चन जी के विचार ...IMG_1962

दुतकारा मस्जिद ने मुझको

कहकर   है   पीनेवाला,

ठुकराया  ठाकुरद्वारे  ने

देख  हथेली  पर  प्याला,

कहां ठिकाना मिलता जग में

भला  अभागे  काफिर को?

शरणस्थल बनकर न मुझे यदि

अपना    लेती    मधुशाला।

***

कभी नहीं सुन पड़ता ‘इसने,

हा,  छू  दी  मेरी  हाला’

कभी न कोई कहता, ‘उसने

जूठा  कर  डाला  प्याला’;

सभी जाति के लोग यहां पर

साथ   बैठकर   पीते  हैं;

सौ  सुधारकों का करती है

काम   अकेली मधुशाला।

शनिवार, 26 नवंबर 2011

पुस्तक परिचय – 8 : जूठन

पुस्तक परिचय – 8

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IMG_0568मनोज कुमार

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व्योमकेश दरवेश, मित्रो मरजानी, धरती धन न अपना, सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, अकथ कहानी प्रेम की, संसद से सड़क तक, मुक्तिबोध की कविताएं

IMG_1955हमें भारतीय समाज के सबसे उपेक्षित और वंचित दलित वर्ग के जीवन सरोकारों को मानवीय दृष्टिकोण से जानने का प्रयास करना चाहिए। साथ ही हमें भारतीय समाज व्यवस्था के जाति आधारित स्वरूप, जातिगत भेदभाव और गैरबराबरी को जन्म देने वाली धार्मिक तथा ब्राह्मणवादी प्रवृत्तियों को समझना चाहिए। तभी हम सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक न्याय के लिए प्रतिबद्ध साहित्य की पहचान कर सकेंगे। इसी दिशा में पिछले कुछेक दशकों में दलित सामाजिक आंदोलन की साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में दलित साहित्य का उभार हुआ है।

IMG_1957हिंदी साहित्य में अपनी सशक्त रचनाओं के योगदान से दलित विमर्श की दस्तक देने वाले ओमप्रकाश वाल्मीकि हिंदी दलित साहित्य के अग्रणी लेखक हैं। वे पिछले साल ही सेवानिवृत्त हुए हैं। उत्तरप्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के बरला गांव के दलित परिवार में जन्मे वाल्मीकि जी हमारे संगठन (आयुध निर्माणी, देहरादून) में सेवारत थे। इस सप्ताह के पुस्तक परिचय में हमने सामाजिक सड़ांध को उजागर करनेवाले दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा “जूठन” को लिया है। श्री वाल्मीकि दलित जीवन की व्यथा, छटपटाहट, सरोकारों को अपनी कहानियों के माध्यम से वे अभिव्यक्ति देते रहे हैं। उनकी रचनाएं दलित जीवन के अनुभवों की अभिव्यक्ति है, जो एक ऐसे यथार्थ से हमारा साक्षात्कार कराती है, जो हजारों सालों तक रचनाकारों की रचना का विषय ही नहीं बना। ऐसी उफनती पीड़ा, अंधेरे कोनों में व्याप्त वेदना, अपमानित जीवन का संत्रास, दारुण ग़रीबी, विवशता, दीनहीन होने की वेदना को ओमप्रकाश वाल्मीकि ने रचनात्मक अभिव्यक्ति दी है। साथ ही दबे कुचले शोषित पीड़ित जन समूह की अस्मिता को मुखर करके सामाजिक विसंगतियों पर चोट की है।

इस पुस्तक में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित जीवन की त्रासदी को अभिव्यक्त किया है। एक जगह अपने आत्मकथ्य में उन्होंने कहा है, हिंदी साहित्य की सामंती ब्राह्मणवादी प्रवृत्तियों ने जिन विषयों को त्याज्य माना, जिन्हें अनदेखा किया उन पर लिखना मेरी प्रतिबद्धता है।” जूठन इनकी आत्मकथा है जिसमें स्वयं के दलित जीवन की सच्चाइयों को बेबाक होकर अतीशय प्रामाणिकता के साथ अभिव्यक्त किया है। इसकी रचना के समय की अनुभूति के बारे में वे लिखते हैं, “इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे। एक लम्बी जद्दोजहद के बाद मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरु किया। तमाम कष्टों, यातनाओं, उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा, उस दौरान गहरी मानसिक यंत्रणाएं मैंने भोगी। स्वयं को परत-दर-परत उधेड़ते हुए कई बार लगा कितना दुःखदायी है यह सब! कुछ लोगों को यह अविश्वसनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता है।”

इस पुस्तक में उन सभी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहलुओं को गंभीरतापूर्वक परखा गया है, जिसके कारण दलित उत्पीड़न का प्रश्न एक गहन समस्या बनी हुई है। वाल्मीकि जी लिखते हैं, “दलित जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभवदग्ध हैं। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। एक ऐसी समाज-व्यवस्था में हमने सांसें ली हैं, जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति असंवेदनशील भी …”

इस कथन में सिर्फ़ एक व्यक्ति की नहीं, संपूर्ण दलित समाज की विवशता, व्यथा और मानसिक त्रास की सच्चाई व्यक्त हो रही हैं। अपने मोहल्ले का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं, “अस्पृश्यता का ऐसा माहौल कि कुत्ते-बिल्ली, गाय-भैंस को छूना बुरा नहीं था लेकिन यदि चूहड़े का स्पर्श हो जाए तो पाप लग जाता था। सामाजिक स्तर पर इनसानी दर्ज़ा नहीं था। वे सिर्फ़ ज़रूरत की वस्तु थे। काम पूरा होते ही उपयोग खत्म। इस्तेमाल करो, दूर फेंको।”

मेहनत मज़दूरी में किसी से पीछे न हटने वाले इस समाज के लोगों को खाना खा चुके बारातियों के जूठन मिलते थे। लेखक लिखते हैं “जब मैं इन सब बातों के बारे में सोचता हूं तो मन के भीतर कांटे उगने लगते हैं, कैसा जीवन था? दिन-रात मर-खपकर भी हमारे पसीने की क़ीमत मात्र जूठन, फिर भी किसी को कोई शिकायत नहीं। कोई शर्मिंदगी नहीं, कोई पश्चाताप नहीं।”

पढ़ने-लिखने में होनहार बालक ओमप्रकाश बहुत सारी बाधाओं के बीच अपनी पढ़ाई लिखाई की और और्डनेंस फ़ैक्टरी देहरादून में जब एप्रेंटिस के रूप में भरती हुआ, तो अपने पिता को चिट्ठी लिखकर बताता है, वह पढ़ाई छोड़कर एप्रेंटिस बनकर रक्षामंत्रालय की फ़ैक्टरी में प्रवेश पा गया है। पिता को संतोष हुआ कि अब कारखाने में मशीन के कल-पुर्जों का तकनीकी काम सीखेगा, अच्छा ही हुआ जात से तो पीछा छूटा। उनके इस उद्गार पर ओमप्रकाश लिखते हैं, “लेकिन ‘जाति’ से मृत्युपर्यंत पीछा नहीं छूटता, इस तथ्य से वे अंत तक अपरिचित रहे।”

एक बड़ा ही मार्मिक वर्नण है इस आत्मकथा में। मुम्बई के पास एक जगह है अम्बरनाथ। वहां के और्डनेंस फ़ैक्टरी में काम करते हुए ओमप्रकाश की घनिष्ठता एक ब्राह्मण परिवार से हो गई। वाल्मीकि उपनाम के कारण वे भी उन्हें ब्राह्मण समझ रहे थे। उनकी पुत्री ओमप्रकाश को पसंद करने लगी। पर उनके घर में एक बार ओमप्रकाश के सामने किसी दोस्त को, जो महार जाति का था, चाय अलग बर्तनों में पिलाई गई। तब उन्हें लगा कि हो न हो ये लोग उन्हें सवर्ण समझ रहे हों। अपनी प्रेमिका से उन्होंने स्पष्ट कहना उचित समझा और जब यह सच उस लड़की को मालूम हुआ तो उस वाकये का ज़िक्र करते हुए वाल्मीकि जी लिखते हैं,

“वह चुप हो गई थी, उसकी चंचलता भी गायब थी। कुछ देर हम चुप रहे। … वह रोने लगी। मेरा एस.सी. होना जैसे कोई अपराध था। वह काफ़ी देर सुबकती रही। हमारे बीच अचानक फासला बढ़ गया था। हजारों साल की नफ़रत हमारे दिलों में भर गई थी। एक झूठ को हमने संस्कृति मान लिया था।”

इस पुस्तक में लेखक ने दलितों के प्रति असहिष्णुता, तिरस्कार और अपमान दर्शाने की सवर्ण मानसिकता की घिनौनी प्रवृत्तियों का परदाफ़ाश किया है। जब वे इस आत्मकथा को लिख रहे थे, तब लेखक के कुछ मित्रों की सलाह थी कि खुद को नंगा करके आप अपने समाज की हीनता को ही बढ़ाएंगे। लेकिन लेखक का कहना है, “जो सच है, उसे सबके सामने रख देने में संकोच क्यों? … इस पीड़ा के दंश को वही जानता है जिसे सहना पड़ा।”

अपने घर के आस पास के माहौल का वर्णन करते हुए लिखते हैं, “‘चारों तरफ़ गंदगी भरी होती थी। ऐसी दुर्गंध कि मिनट भर में सांस घुट जाए। तंग गलियों में घूमते सूअर, नंग-धड़ंग बच्चे, कुत्ते, रोज़मर्रा के झगड़े, बस यह था वह वातावरण जिसमें बचपन बीता। इस माहौल में यदि वर्ण-व्यवस्था को आदर्श-व्यवस्था कहनेवालों को दो-चार दिन रहना पड़ जाए तो उनकी राय बदल जाएगी।”

जातिगत आधार पर भेद-भाव एक सामाजिक रोग है। ‘जाति’ ही जिस समाज में मान-सम्मान और योग्यता का आधार हो, सामाजिक श्रेष्ठता के लिए महत्वपूर्ण कारक हो, वहां यह लड़ाई एक दिन में नहीं लड़ी जा सकती है। लगातार विरोध और संघर्ष की चेतना चाहिए जो मात्र बाह्य ही नहीं, आंतरिक परिवर्तनगामी भी हो, जो सामाजिक बदलाव को दिशा दे। प्रस्तुत पुस्तक के माध्यम से ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित चेतना के विकास से नई पीढ़ी में अस्तित्व-अस्मिता के प्रति बढ़ती सजगता को भी रेखांकित किया गया है।

दलित जीवन के संपूर्ण सरोकारों को समेटती यह आत्मकथा केवल दलित जीवन की त्रासदी को ही अभिव्यक्त नहीं करती, बल्कि अन्य समाजों के साथ उसके संबंध, भेदभाव और जड़ मानसिकता को भी प्रकट करती है। अपने इस साहसपूर्ण सृजनात्मक प्रयास के द्वारा बहुत ही ईमानदारी से लेखक ने सच को सामने रखा है। देखी हुई यातना और भोगी हुई यातना के विवरण में फ़र्क़ होता है। यह कहावत सही तौर पर इस पुस्तक को पढ़ने के बाद खरी उतरती है कि “जिसके पांव न फटे बिवाई, वाह क्या जाने पीड़ पराई”। लेखक के भोगे हुए यथार्थ का दिल दहला देने वाला सच्चाईपूर्ण चित्रण इस पुस्तक में हुआ है। इसलिए अंत में यही कहना चाहूंगा कि यदि देखी हुई सच्चाई और भोगी हुई सच्चाई के फ़र्क़ को आप महसूस करना चाहते हैं, तो आप “जूठन” ज़रूर पढ़िए।

पुस्तक का नाम जूठन (आत्मकथा)

रचनाकार : ओमप्रकाश वाल्मीकि

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली

पहला संस्करण : 1997

तीसरी आवृत्ति : 2009

मूल् : 125 रु.

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

हिन्दी सिनेमा और हिन्दी प्रचार का धोखा



हिन्दी सिनेमा पूरे देश में देखा और समझा जाता है। हम जानते हैं भारत में हिन्दी सिनेमा की अधिकतम अभिनेत्रियाँ जैसे बैजयंती माला, वहीदा रहमान, आशा पारेख, श्रीदेवी, हेमा मालिनी भी अहिन्दी प्रदेशों की ही हैं। लेकिन ये सब हिन्दी की बदौलत ही जानी जाती हैं। ठीक इसी तरह गायकों में कोई पंजाबी तो कोई बंगाली तो कोई मराठी जैसे मोहम्मद रफी, मन्ना डे, किशोर कुमार, लता मंगेशकर, आशा भोंसले, कुमार सानू आदि, अभिनेता जैसे धर्मेंद्र, अशोक कुमार, संजीव कुमार और जाने कितने नाम हैं जिनकी गिनती आसान नहीं आज आमि खान, शाहरुख खान जैसे कलाकार अंग्रेजी बोलते हैं लेकिन जरा सोचिये कि इन खानों को, इन अभिनेताओं को, इन गायकों को कौन जानता होता अगर हिन्दी में इनकी फिल्में नहीं बनी होतीं। …… आयोजित किया जाता है फिल्म के लिए अवार्ड समारोह वहां कहा जाता है कि यह समारोह हिन्दी या भारतीय सिनेमा का है। लेकिन वह आयोजित होता है विदेशों में, इस समारोह में दो घंटे में दो मिनट भी हिन्दी बोलते लोग नहीं देखे जाते। ……कभी-कभी तो लगता है कि हिन्दी को नुकसान पहुँचाने में और अंग्रेजी को स्थापित करने में पिछले 20 साल की फिल्मों ने सबसे ज्यादा हाथ दिया है।
किसी भी फिल्म को जो इन दिनों बनी है, को लेकर गांव में चले जाइये और लोगों से पूछिये कि कितने डायलॉग समझ में आये। 120 मिनट में 20-25-30-50 मिनट तक अंग्रेजी बोलने के दृश्य, विदेशों में शापिंग के दृश्य, करोड़ों की लेन-देन यही सब दिखाये जाते हैं। मैं पूछता हूं कि कौन से देश के लिए फिल्म बनी है यह? ……हिन्दी की कमाई खाकर अंग्रेजी का राग अलापने के लिए इन्हें भारत सरकार सम्मान देती है। खूब तरक्की कर रहे हैं हम!!
ये सब हिन्दी के साथ गद्दारी करना ही जानते हैं, ऐसा लगता है। हिन्दी फिल्मों के डायलॉग रोमन में लिख कर दिये जाते हैं, इससे शर्मनाक हिन्दी कला जगत के लिए और क्या होगी? अगर कोई यह कहे कि भारत के अलग-अलग क्षेत्रों से आने के कारण इन्हें रोमन में लिखकर दिया जाता है तो उनसे इतना ही कहना है कि ऐसे कलाकार जो कला और फिल्म की भाषा ही नहीं जानते उन्हें फिल्म करने की कोई जरुरत नहीं। उनसे देश का कितना भला हुआ है, बताने की आवश्यकता नहीं।

कितना प्रचार किया है हिन्दी फिल्मों ने हिन्दी का 

खूब सुनने को मिलता है कि हिन्दी को फैलाने में हिन्दी की फिल्मों का बहुत योगदान है। जरा इस सच को समझ लेते हैं।  भारत के आधे लोग हिन्दी पहले से समझते और जानते हैं। यानि अब सिर्फ आधे लोगों में से ही तय करना है कि कितने लोगों ने हिन्दी फिल्मों से हिन्दी सीखीआधे में से कितने लोग ऐसे होंगे जिन्होंने हिन्दी सीखी होगीपूरी दुनिया में कुल मिलाकर प्रतिवर्ष तीन लाख से ज्यादा गाँवोंशहरों आदि में हिन्दी सीखने वाले अगर एक गांव में दो भी लोग हों तो पूरे पचास साल में हिन्दी फिल्मों के दम पर हिन्दी सीखनेवाले लोग दो-तीन करोड़ से ज्यादा होंगे यह सोचना कहीं से बुद्धिमानी नहीं है। अगर इस संख्या पाँच करोड़ भी मान लें तो दस लाख प्रतिवर्ष लोग ऐसे होंगे जो हिन्दी सीखने का श्रेय फिल्मों को देंगे( यह पहले ही बता दूँ कि यह सम्भव ही नहीं कि फिल्मों के दम पर पाँच करोड़ लोगों ने हिन्दी सीख ली हो) लेकिन हिन्दी फिल्मों को देखकर अंग्रेजी की ओर आकर्षित होने वाले लोगों की संख्या सिर्फ फिल्मों के कारण पाँच करोड़ नहीं इससे कई गुना ज्यादा होगीयह एकदम सही है।
जब देश के स्टार और सेिब्रिटी कहे जाने वाले ये लोग अपनी भाषा को कुछ नहीं समते तो साधारण दर्शक या फैन जो भ्रमवश इनको अपना आदर्श नहीं आइडल बनाता है, भाषाओं को सही नजर से देखने लगे यह सोचना ठीक नहीं। ऐसा नहीं ये लोग ही हिन्दी प्रचार में योगदान देंगे।
अब जरा देखिए कि हिन्दी को बिगाड़ने में इन फिल्मों का कितना योगदान रहा है। अगर हम 1975-80 के बाद की फिल्में देखें तब जाकर पता चलता है कि हिन्दी फिल्मों में कितनी हिन्दी हैगानों में अंग्रेजी घुसाने की परम्परा पहले भी रही है लेकिन पहले यह संख्या 1000 गानों में एक-दो थी लेकिन लगभग बीस सालों से यह संख्या ऐसी हो गई है कि गानों को हिन्दी गाना माना ही नहीं जाययही सही होगा। अगर आप फिल्मों में घर को देखेंस्कूल को देखें तो मालूम हो जाएगा कि फिल्म वालों के स्कूल अंग्रेजी के ही रहे हैं। यानि फिल्मों में जितने भी स्कूल के दृश्य हैं उन सबमें कुछ अपवादों को छोड़कर सभी स्कूल अंग्रेजी के हैं। 1970 के पहले तक या कहें जब श्वेत-श्याम फिल्मों का समय था तब तक फिल्मों में स्कूल यानि विद्यालय होते थे लेकिन बाद में ये सिर्फ महँगे स्कूलों से बढ़ते-बढ़ते विदेशी स्कूलों तक पहुँच गए। फिल्मों में शिक्षा का मतलब ही है अंग्रेजी जानने वाला। लेकिन यह कहते हुए एक फिल्म याद रही है जिसका नाम था पूरब और पश्चिम जिसमें मनोज कुमार नायक थे और फिल्म का अच्छा-खासा हिस्सा इंग्लैंड पर आधारि था लेकिन उस फिल्म में मनोज कुमार के मुँह से आप अंग्रेजी के दस शब्द भी शायद ही सुनेंगे। उस फिल्म को बनानेवाले को शायद मालूम था कि यह फिल्म भारत में दिखाई जाएगी और हिन्दी में बन रही है। पहले अंग्रेजों के डायलाग भी अक्सर हिन्दी में होते थे या हिन्दी में अनुवाद करके किसी पात्र द्वारा बताए जाते थे लेकिन अब आप चाहें तो अंग्रेजों के समय पर बननेवाले फिल्म को देख लें सारे पात्र पूरी अंग्रेजी बोलते हैं। मैं पूछ सकता हूँ कि जिस दर्शक वर्ग ने फिल्मों को आगे बढ़ायाक्या यह फिल्में उसके लिए बन रही हैंजबकि उस वर्ग को अंग्रेजी आती नहीं है। आज अगर कोई फिल्म बनती है तो माना ही यह जाता है 121 करोड़ लोगों में से सिर्फ 21 करोड़ लोग(ये तो बहुत अधिक कह गया!) ही यह फिल्म देखेंगे और तथाकथित अभिनेता या अभिनेत्री जम कर पाकेटमारी करेंगे।
आप चाहें तो हिन्दी फिल्मों को खंगाल लें लेकिन आप बीस प्रतिशत फिल्म भी खोज नहीं पाएंगे जिसमें किताब के नाम पर हिन्दी या किसी अन्य भारतीय भाषा की किताबें किसी शेल्फ़ में दिख जाएंगी। क्योंकि हिन्दी फिल्मों में जब भी किताब का दृश्य होगा किताब अंग्रेजी में ही होगी।
अब लोग सोचने लगते हैं कि देखो ये हीरो-हीरोइन लोग अंग्रेजी बोलते हैं और उनकी नकल शुरु करते हैं। और हाल वही होता है जो नकलची लकड़हारे का हुआ था जिसकी अपनी कुल्हाड़ी भी खो गई। और एक यूरोपीय नकल आटोग्राफ हैजिसके बारे में इतना ही कहना है कि पूरे हिन्दी सिनेमा के सभी कलाकारों के आटोग्राफ ले लें और गिन लें कि हिन्दी में कितने लोगों ने हस्ताक्षर किए हैंसब साफ हो जाएगा।
अब बात करते हैं हिन्दी फिल्मों में हिन्दी और अंग्रेजी में लिखे नामों आदि की। हिन्दी फिल्मों में गुलजार की कुछ फिल्मों में शुरु से अन्त तक निर्दे, निर्माता से लेकर गीतकार-संगीतकार तक सबके नाम हिन्दी में लिखे मिल जाते हैं। लेकिन आज की फिल्मों में तो हिन्दी या नागरी में नाम देखने को भी नहीं मिल रहे हैं। ऐसा नहीं कि पहले ये सारे नाम हिन्दी में लिखे जाते थे। सिर्फ फिल्म का नाम हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू में दिखाया जाता रहा है। उसमें भी अंग्रेजी में पहले और बाद में हिन्दी में। जब हिन्दी फिल्म को देखने वाले नब्बे प्रतिशत(या शायद कभी-कभी सौ प्रतिशत) से अधिक दर्शक हिन्दी जानते हैं तब क्यों सारे नाम अंग्रेजी में लिखे जाते हैं। कारण है फिल्मों के कलाकारों का धन कमाने का व्यावसायिक नजरिया जिसमें भाषा या भावना का कोई महत्व नहीं। अगर कभी-कभार कुछ अच्छी फिल्में बन जाती हैं तो ऐसा शायद ही होता है कि वहाँ निर्माता या निर्देशक देश का भला चाहते हों। वहाँ उन्हें लगता है कि अच्छी कमाई हो जाएगी और लूट भी।
      वैसे भी हिन्दी फिल्मों का गढ़ हिन्दी भाषी क्षेत्र रहा भी नहीं है। दक्षिण के लगभग सारे बड़े कलाकारों ने अपने हाथ-पैर हिन्दी में चलाएँ हैं या कोशि की है। कुछ सफल रहे और कुछ असफल, क्यों? क्योंकि उन्हें दिखता है कि हिन्दी का बाजार कितना बड़ा है। उन्हें हिन्दी सीखने में कोई दिक्कत नहीं होती लेकिन अन्य दक्षिणवासियों के लिए हिन्दी सीखना दुनिया का सबसे कठिन कार्य बन जाता है। और जब हिन्दी को व्यापार या बाजार की भाषा के रुप में ये दक्षिण के कलाकार अपनाते हैं तो जाहिर इनमें कितना हिन्दी-प्रेम होता होगा? किसी बाजार में किसी व्यापार को अपने व्यापार के अलावे किसी चीज की फिक्र तो होती नहीं है। कोई व्यापारी चाहे वह किराने का सामान बेचे, चाहे सिनेमा बेचे शायद ही कभी सेवा भाव रखता होगा। मैं या कोई भी आदमी यह दावा कर सकता है कि 80 प्रतिशत हिन्दी सिनेमा के सभी कलाकारों में कोई कलाकार हिन्दी का इस्तेमाल अपने जीवन में आठ प्रतिशत भी नहीं करता।  

अब आप ही सोचिए  

अब आप खुद ही सोचिए कि कितने लोग हिन्दी फिल्मों से हिन्दी सीखते हैं और कितने लोग हिन्दी फिल्मों से हिन्दी छोड़ते हैं या हिन्दी को बिगाड़ते हैं? जब हिन्दी सिनेमा के कलाकार तो आटोग्राफ हिन्दी में देते हैं, गाने हिन्दी में गाते हैं, साक्षात्कार हिन्दी में देते हैं, हिन्दी बोलना पसन्द करते हैं और हिन्दी फिल्मों के जरिये अंग्रेजी और अंग्रेजियत का मोह फैला रहे हैं तो कैसे कहा जा सकता है हिन्दी फिल्मों ने हिन्दी को फैलाने में हमारी मदद की है! यह हिन्दी के नाम किया जाने वाला मिथ्या प्रचार है। यहाँ मेरा विषय हिन्दी फिल्मों का विषय आदि नहीं था वरना इसपर जमकर लिखता। किसी भी अक्लमंद के लिए यह संभव नहीं कि वह पाँच जार आदमी को हिन्दी सिखाकर बीस हजार आदमी को हिन्दी सीखने से रोके या हिन्दी को छोड़कर अंग्रेजी के मोह में  पड़ने की प्रेरणा दे और कहे कि इस काम से हिन्दी का प्रचार हो रहा है।

अब जरा फिल्मों के नाम देखिए। यह एक साधारण सी खोजबीन से पता चली जानकारी है।

2011 में अंग्रेजी-31हिंग्रेजी-17 कुल-85
2010 में अंग्रेजी-34, हिंग्रेजी-11, कुल-120 
2008 में अंग्रेजी-26, हिंग्रेजी-10, कुल-80
2009 में अंग्रेजी-26, हिंग्रेजी-12, कुल-81
2007 में अंग्रेजी-32, हिंग्रेजी-10, कुल-102
2006 में अंग्रेजी-13, हिंग्रेजी-13, कुल-80
2005 में अंग्रेजी-15, हिंग्रेजी-12, कुल-93
2004 में अंग्रेजी-10, हिंग्रेजी-7, कुल-72
2003 में अंग्रेजी-11, हिंग्रेजी-10, कुल-70
2002 में अंग्रेजी-4, हिंग्रेजी-4, कुल-62
एक मामले में हिन्दी सिनेमा जगत सबसे रद्दी सिनेमा जगत है जिसमें शायद ही कोई अभिनेता ऐसा हो या अभिनेत्री ऐसी हो जिसे अंग्रेजी के कुत्ते नहीं काटा हो। लगभग सभी जाने-माने सिनेमा कलाकार भारतीय अंग्रेजी में ही सबकुछ करते हैं।
फिल्मों में नौकरों से, गँवारों से हिन्दी, क्षेत्रीय भाषाएँ बोलवाई जाती हैं, लेकिन साहब या मेमसाहब मालिक या अंग्रेजी बोलते हैं। स्कूल देखिएगा तो अंग्रेजी में पढ़ाई हो रही है। इसका सीधा सा अर्थ तो इतना ही है कि हिन्दी नौकरों की भाषा है, दाइयों की भाषा है?


(यह लेख मेरी किताब के एक अध्याय का संपादित रूप है। कुछ बातें और थीं, लेकिन उनका सीधा सम्बन्ध हिन्दी या भारतीय भाषाओं से नही था, इसलिए कुछ सम्पादन करना पड़ा। यह एक विवादास्पद-सा लेख है क्योंकि हर जगह सुनने को मिलता है कि हिन्दी सिनेमा ने हिन्दी का बहुत प्रचार किया है। इसको लेकर एक बार एक जगह बहस भी हो चुकी है।)