गुरुवार, 30 जून 2011

'इन्डियन लेबर गोज़ कैजुअल' : रोज़गार का बदलता चेहरा

'इन्डियन लेबर गोज़ कैजुअल' : रोज़गार का बदलता चेहरा
arunpicअरुण चन्द्र रॉय

पिछला सप्ताह बहुत व्यस्त गुज़रा. हमारी विज्ञापन एजेंसी के एक प्रतिष्ठित कारपोरेट ग्राहक का एक टाउनशिप लांच होने वाला था. ढेर सारी तैयारियां थी. 360 डिग्री मीडिया प्लान के हिसाब से. जों मेरी कविता पढ़ते हैं वे 360 डिग्री मीडिया प्लान से वाकिफ होंगे ही. खैर. इसी बीच मुझे आवश्यक काम से करनाल भी जाना पड़ गया गत शुक्रवार को. शुक्रवार को ही मुझे अपने क्लाइंट को उनकी कंपनी पुस्तिका मुद्रित करके देनी थी. शाम को पता चला कि पुस्तिका प्रिंट हो चुकी है लेकिन लेमिनेशन नहीं हुआ है. आनन फानन में मुझे किसी और लेमिनेशन वाले के पास भेजना पड़ा. जब तक मैं करनाल से वापिस लौटता पुस्तिका लेमिनेट हो चुकी थी. अब बारी थी फाइनल कटिंग, क्रीज़िंग और बाइंडिंग की. ये तीनो काम एक ही जगह होने थे. लेकिन बाइंडिंग वाला करने को तैयार नहीं था क्योंकि उन्हें यहाँ काम करने वाले लेबर दो रात से लगातार काम कर रहे थे. मैं खुद वहां पंहुचा. देखा तो सभी श्रमिक अभी युवा ही हो रहे थे और मेरे अपने प्रान्त या कहिये अपने ही इलाके के थे.

अपनी भाषा मैथिलि यहाँ काम काम कर गई और वे लोग मेरे लिए चार पांच घंटे और काम करने के लिए तैयार हो गए. मैंने मन ही मन में जय बिहार कहा. और यहीं जन्मी मेरी ताज़ी कविता 'एक घंटे दाई कटिंग मशीन पर'. लेकिन तब से मन में विचारों का रेला चल ही रहा था.

इन दिनों हिंदुस्तान टाइम्स का कारोबारी अखबार मिंट पढता हूँ. इकोनोमिक टाइम्स पढना छोड़ दिया है. क्यों यह बात कभी और. मिंट के पहले पन्ने पर कैप्शन था "इन्डियन लेबर  गोज़ कैजुअल". माथा ठनका कि कोई कारपोरेट जगत का प्रतिनिधित्व करने वाला अखबार कैसे इतनी बड़ी समाजवादी हेडलाइन लिख सकता है. एन एस एस ओ (नेशनल सेम्पल सर्वे ऑफिस ) जो कि भारत सरकार का एक विभाग है और सर्वेक्षण का कार्य करता है, उसकी ताज़ी रिपोर्ट अभी पेश हुई है. यह सर्वेक्षण बताता है कि किस तरह देश में कारपोरेट का चेहरा, श्रमिकों से काम लेने का तौर तरीका बदला है पिछले दशक में.   आज देश में अधिक कैजुअल लेबर हैं पांच साल पहले की तुलना में जो इस बात की ओर इशारा करता है कि देश में कामगार की गुणवत्ता में परिवर्तन कहिये या गिरावट कहिये आया है. साथ ही इस दौरान रोज़गार वृद्धि के दर में भी कमी आई है.

2004-05 और 2009-10 के बीच कैजुअल श्रमिको की संख्या बढ़ कर 2.19 करोड़ हो गई है जबकि स्थायी श्रमिको की संख्या आधी होकर लगभग 58 लाख रह गई गई है. यही नहीं स्व नियोजितों की संख्या जिसमे सबसे अधिक कृषि व्यवसाय से जुड़े छोटे बड़े किसान होते थे, उनकी संख्या में भारी कमी आई है.

कैजुअल लेबर वे होते हैं जिन्हें कभी भी बिना किसी पूर्व सूचना के हटाया जा सकता है, किसी दुर्घटना होने की दशा में कोई मुआवजा नहीं दिया जाता, भविष्य निधि या चिकित्सा सुविधा नहीं मिलती है. जबकि स्थायी श्रमिको के लिए भविष्य निधि, चिकित्सा सुविधा, औद्योगिक दुर्घटना होने की दशा में मुआवजा आदि का प्रावधान होता है. देश के बड़े बड़े औद्योगिक परिसरों में लाखों की संख्या में कुशल और अकुशल मजदूर काम करते हैं. लेकिन कंपनी उनके प्रति जिम्मेदार नहीं होती है. देश में श्रम क़ानून तो हैं लेकिन जिनके पास उन्हें क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी है वे अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर रहे.

श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक 1000 कामगारों में केवल 157 कामगारों को ही उचित मजदूरी मिलती है. प्रत्येक 1000 में से केवल 57 कामगारों को ही छुट्टियों का पैसा मिलता है. ऐसे में भविष्य निधि, पेंशन, बीमा, चिकित्सा लाभ आदि की बात तो बहुत दूर है. इसका तात्पर्य है कि सरकार जो न्यूनतम मजदूरी तय करती है वह क्रियान्वित नहीं हो रहा ना ही कोई मंशा दिख रही है. पिछले कुछ वर्षों में सरकार के फोकस से ये मुद्दे हैं ही नहीं.

आर्थिक विषयों की जानकारी नहीं है मुझे लेकिन इतना अवश्य है कि लोग पहले पूछते थे कि क्या तुम्हारी कंपनी लिमिटेड है. लिमिटेड कंपनियों में भविष्य निधि, चिकित्सा सुविधा आदि प्राप्त होता था. लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन के बाद यह प्रथा लगभग समाप्त हो रही है. यही कारण है कि देश में निर्माण, उत्पादन तो बढ़ा है लेकिन स्थायी कामगारों की संख्या के कमी आई है. सरकार की सबसे बड़ी रोज़गार योजना मनरेगा आने के बाद देश में श्रमिको की यह स्थिति सरकार के दावों की पोल खोलती है.

पहले सभी औद्योगिक परिसरों में श्रमिक यूनियन होते थे. लेकिन लाल झंडे को साजिशन बदनाम किया गया और कालांतर में इन्हें ऐसे कमज़ोर किया गया कि आज श्रमिक आन्दोलन दम तोड़ दिया है. कोलकाता के औद्योगिक बदहाली का जिम्मा तो लाल झंडे के मत्थे मढ़ दिया गया लेकिन बेरोज़गारी और भूखमरी से बचने के उपाय में जिस तरह देश में श्रमिको का शोषण हो रहा है, उस पर किसी की नज़र नहीं गई है. ऐसे में मुझे अपनी कविता "एक घंटे डाईकटिंग मशीन पर" (http://aruncroy.blogspot.com/2011/06/blog-post_27.html) बहुत सार्थक लग रही है आज.

'इन्डियन लेबर गोज़ कैजुअल' हेडलाइन मैंने किसी दूसरे अखबार में नहीं देखा यह मीडिया की अन्धता और उसकी प्राथमिकता की ओर भी इशारा कर रहा है.

बुधवार, 29 जून 2011

समालोचना

समालोचना

My Photoअनामिका

आलोचना शब्द की उत्पत्ति 'लुच' धातु से हुई है जिसका अर्थ है - देखना. साहित्य के सन्दर्भ मे समालोचना भी प्रयोग होता है, जिसका अर्थ है - 'सम्यक प्रकार से देखना या परखना'.

ड्राईडन के अनुसार -

आलोचना वह कसौटी है जिसकी सहायता से किसी रचना का मूल्यांकन किया जाता है. वह उन विशेषताओं का लेखा प्रस्तुत करती है जो साधारणतः किसी पात्र को आनंद प्रदान कर सकें.

मैथ्थ्यु आररनल्ड  के अनुसार -

"But the criticism, real criticism is essentially the exercise of this quality curiosity and disinterested love of a free play of mind".

टी. एस . इलियट पाश्चात्य आलोचना के प्रमुख समीक्षक माने जाते हैं.नयी आलोचना पर इलियट का पर्याप्त प्रभाव पडा है. जब काव्य तथा समीक्षा दोनो माध्यमों से साहित्यकार अपने एक ही विशिष्ट दृष्टीकोण को अभिव्यक्त तथा पुष्ट करता है तो उसकी कवि तथा समालोचक दोनो रूपो में मान्यता मिलती है.

कोई भी जागरूक साहित्यकार अपने युग की चेतना के निर्माण में यदि अपनी कविता द्वारा योग देता है तो उसका समीक्षात्मक साहित्य भी इसे अनिवार्य रूप से प्रभावित करता है.

इलियट आलोचना के संबंध मे महत्वपूर्ण बात कहते हैं. वे कहते हैं कि आलोचना के क्षेत्र मे परंपरा का अनुगमन रुढ़िवाद  नही है. प्राचीन परंपराएं मानव के भावी जीवन के विकास की आधारभूमि होती हैं और वर्तमान को भी प्रभावित करती हैं. इलियट कहते हैं की आलोचना के दो दृष्टिकोण हैं.

१. कवि के तत्कालिक समय की दृष्टि से कवि का मूल्यांकन करने के लिए.

२. वर्तमान समय मे उसकी उपादेयता के लिए

इलियट के अनुसार उत्कृष्ट आलोचना वह है जिसमे लोकदृष्टि हो तथा जो अध्येता  को रसास्वादन की सूझ-बूझ और क्षमता प्रदान कर सके.

कविता की भाषा के सन्दर्भ मे इलियट का कहना है की उसमे उच्चता का गुण अत्यंत आवश्यक है. कविता मे कल्पना का प्रयोग वांछित होता है, परंतु वह यथार्थ के धरातल से जुड़ी रहनी चाहिए.

इन विद्वानों के विचार पढ़ कर आलोचनाओ के विभिन्न कार्य सामने आते हैं.

१. रचना का भाव और कृतिकार के उद्देश्य को प्रकट करना.

२. रचना के गुण दोषों का उद्घाटन करना.

३. रचना की व्याख्या करना और अपने मन पर पड़ने वाली प्रतिक्रिया का प्रेषण करना.

समालोचक रचना की परख अलग अलग उद्देश्यों और दृष्टिकोण से करता है, उसकी आल्लोचना के मानदंड भी भिन्न भिन्न होते हैं. इसी आधार पर समालोचना भी भिन्न भिन्न प्रकार की होती है...जैसे ..

शास्त्रीय आलोचना

- जब कोई आलोचक शास्त्रीय नियमों को आधार बनाकर काव्य का मूल्यांकन करता है तो इसे शास्त्रीय आलोचना कहते हैं. इसमें न तो व्याख्या की जाती है, न प्रभाव का अंकन होता है, न मूल्यांकन होता है और न निर्णय दिया जाता है. काव्यशास्त्र के सिद्धांतो को आधार बनाकर यह आलोचना की जाती है.

निर्णयात्मक आलोचना

- निर्णयात्मक आलोचना में आलोचक एक न्यायाधीश की भांति कृति को अच्छा बुरा अथवा मध्यम बताता है. निर्णय के लिए वह कभी शास्त्रीय सिद्धांतो को आधार बनता है तो कभी व्यक्तिगत रूचि को. बाबु गुलाब राय मानते हैं की यदि निर्णय के लिए शास्त्रीय सिद्धांतो को आधार बनाया जाये तो इसमें सुगमता रहती हैं. आलोचना का यह रूप प्रायः व्यक्तिगत वैमनस्य निकालने का साधन बनकर रह जाता है. जहाँ पाठक स्वयं पर निर्णय थोपा हुआ महसूस करता है, वहीँ लेखक स्वयं को उपेक्षित अनुभव करता है.

ऐतिहासिक आलोचना

इस अल्लोचना पद्धति में किसी रचना का विश्लेषण तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में किया जाता है. उदाहरण के लिए राम काव्य की रचना - वाल्मीकि, तुलसी, मैथिलीशरण गुप्त ने की, किन्तु उनकी कृतियों में उपलब्ध आधारभूत मौलिक अंतर तद्युगीन परिस्थितियों की उपज है.

प्रभाव वादी आलोचना 

इस आलोचना में कृतिकार की कृति को पढ़कर मन पर पड़े प्रभावों की समीक्षा की जाती है. किन्तु हर व्यक्ति की रूचि भिन्न भिन्न होती है अतः एक कृति को कोई अच्छा कह सकता है और कोई बुरा. इसलिए इस आलोचना में प्रमाणिकता का सर्वथा अभाव रहता है.

मार्क्सवादी आलोचना 

मार्क्सवाद सामाजिक जीवन को एक आवयविक पूर्ण रूप से देखता है. जिसमें अलग अलग अवयव एक दूसरे पर निर्भर करते हैं. वह मानता है की सामाजिक जीवन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका भौतिक आर्थिक संबंधो द्वारा श्रम के रूपों द्वारा अदा की जाती है. अतः लेखक का कर्तव्य है कि किसी युग के सामन्य विश्लेषण में वह उस युग के सम्पूर्ण सामाजिक विकास का पूरा चित्र प्रस्तुत करे. वह कहता है कि कला के अनन्य प्रकारों में साहित्य इसलिए भिन्न है कि साहित्य में रूप की तुलना में विषय का महत्त्व है.इसलिए वह सबसे पहले कृति को विषय का अपने विश्लेषण का विषय बनता है.और तब कृति की अभिव्यक्ति की शक्ति द्वारा सामाजिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का निर्धारण करता है.

मार्क्सवादी आलोचक एक सीमा तक शिक्षक भी होता है. उसे सबसे पहले लेख के प्रति अपने रुख में शिक्षक होना चाहिए. आलोचक लेखक से बहुत कुछ सीखता है. श्रेष्ठ आलोचक लेखक के प्रति प्रशंसा और जोश की दृष्टि रखता है. उसका कर्तव्य है की वह नए लेखकों को उनकी ग़लतियाँ बताये साथ ही सामाजिक जीवन को समझने में उसकी सहायता करे. आलोचक पाठक की भी सहायता करता है. वह उसे अच्छे साहित्य का आस्वादन करा कर उसकी रूचि का परिष्कार करता है. मार्क्सवाद का मानना है की आलोचक को स्वयं को एक शिशु के रूप में देखना चाहिए. उसे विनम्र, विराट, प्रतिभाशाली साहित्य का अवलोकन करना चाहिए.

सोमवार, 27 जून 2011

कुछ क्षणिकाएँ


वक्त के साथ
पकड़ लिए थे
मैंने कुछ जुगनू
लेकिन उनकी रौशनी
छुप गयी
वक्त की गर्द में ..

भाषा हो 
मौन की ,
एहसास हों
ज़िंदगी के
व्यवहार में थोड़ी
गहराई लाइए
भावनाएं हो जाएँ
न कहीं दूषित
इसलिए मुझे
शब्द नहीं चाहिए .
 
आँख से
इस कदर
पानी गिरा
कि
लोग समझे
ज़बरदस्त
मानसून
आया है .

पलकों को 
निचोडने की
कोशिश में
समा गयी
हाथों में
सूखी रेत
तब जाना कि
आँखें मेरी
रेगिस्तान बन गयी हैं
संगीता स्वरुप

रविवार, 26 जून 2011

सबकी भाषा ऱाजभाषा


सबकी भाषा ऱाजभाषा
प्रेम सागर सिंह

भारतवर्ष में हिंदी की स्थिति को ध्यान में ऱखकर अनेक नाम सुझाए गए हैं,जैसे राजभाषा, राष्ट्रभाषा, संघभाषा संबंधभाषा, व्यवहारभाषा आदि। इन नामों पर कई प्रकार की आपत्तियां भी उठायी गयी हैं। इसलिए इन नामों के वास्तिवक अभिप्राय एवं प्रयोग पर ध्यान देना अच्छा होगा।
हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने पर यह दलील देकर आपत्ति उठायी गयी है कि भारत की अनेक भाषाओं की तुलना में उसे अधिक गौरव दिया जा रहा है। यदि हिंदी राष्ट्रभाषा कहलाने की अधिकारिणी है तो वह अधिकार भारत की अन्य भाषाओं को भी है क्योंकि वे भी राष्ट्र की ही भाषाएं हैं। राष्ट्रभाषा का सीधा-सादा अर्थ होता भी है राष्ट्र की भाषा और इस दृष्टि से राष्ट्र में जितनी भी भाषाएं व्यवहृत होती हों, उन सबको राष्ट्रभाषा कहना उचित है। किसी एक भाषा के राष्ट्रभाषा कहने से अन्य भाषा-भाषियों के हृदय में आशंका उत्पन्न हो सकती है। इस संबंध में एक–दो बातें ध्यान में रखने की हैं.पहली बात तो यह है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने वाले उसे गौरव प्रदान करने की भावना से ऐसा नही करते और न अन्य भाषाओं की तुलना में हीन बताने की भावना से। वस्तुत: राष्ट्रभाषा के प्रयोग का ऐतिहासिक कारण है।हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए नही कहा गया कि वह राष्ट्र की एकमात्र या प्रमुख भाषा है,बल्कि इस नाम का प्रयोग अंग्रेजी को ध्यान में ऱखकर किया गया।अंग्रेजी एक विदेशी भाषा थी जो विदेशी शासन का अनिवार्य अंग थी। अंग्रेजी शासन-सूत्र का विरोध करते समय उससे संबंधित और भी जो वस्तुए थीं उनका भी विरोध आवश्यक हो गया था। यदि सही संदर्भों में देखा जाए तो विदेशी भाषा का प्रभाव केवल शासन तक ही सीमित नही रहता, वह संस्कृति को भी प्रभावित करती है। इसलिए स्वाधीनता-संग्राम के समय नेताओं ने प्रत्येक दृष्टि से स्वदेशीपन, या राष्ट्रीयता की भावना को जगाने की कोशिश की। अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को छोड़ कर अपनी भाषाओं के प्रति उन्मुख होना चाहिए एवं यह उस आंदोलन का अनिवार्य लक्ष्य था।हिंदी की इसी विशेषता को ध्यान में रखते हुए उसे संविधान ने राजभाषा के रूप में स्वीकृत किया।अत: जो भाषा समग्र राष्ट्र के लिए संपर्क स्थापित कर सके उसे राष्ट्रभाषा कहने में कोई आपत्ति नही है। इसके ही कारण हिंदी को ऱाष्ट्रभाषा की संज्ञा से विभूषित किया जाता है।
इस आपत्ति को मिटाने के लिए कई दूसरे नाम सुझाए गए हैं। भारतीय संविधान में हिंदी के लिए कही भी राष्ट्रभाषा शब्द का प्रयोग नही हुआ है। इसे या तो संघभाषा य़ा संघ की राजभाषा कहा गया है। संघभाषा कहने के पीछे भी उद्देश्य वही है जो राष्ट्र भाषा के पीछे।जो भाषा सारे संघ के लिए प्रयुक्त हो उसे संघभाषा कहना उचित ही है। आपत्ति करने वाले यहां भी आपत्ति कर सकते हैं कि शेष भाषाएं भी तो संघ की ही भाषा है,फिर हिंदी को ही संघ भाषा क्यों कहा जा रहा है !आखिर उस भाषा का नाम तो रखना ही होगा जो राज्यों तथा प्रदेशों तक ही सीमित न रहकर सारे राष्ट्र के कार्य-कलाप के लिए व्यवहृत हो रही है. नाम चाहे जो भी रखा जाए, आपत्ति का अवकाश रहेगा ही।
इस आपत्ति का मूलोच्छेद करने की दृष्टि से दो दूसरे नाम प्रस्तावित किए गए हैं-संबंध भाषा और व्यवहारभाषा। इन शब्दों में महत्व और श्रेष्ठता का भाव बिल्कुल नही है। इनके द्वारा केवल इतना व्यक्त करना अभिमत है कि भारत में एक ऐसी भाषा आवश्यक है जो पारस्परिक संबंध अथवा व्यवहार के लिए सुविधाजनक हो। इन दोनों नामों में वह आपत्ति दूर हो जाती है।यदि ये नाम अधिक स्वीकार्य प्रतीत होते हैं तो इसमें कोई हानि नही है। राजभाषा अर्थात राजा की भाषा अर्थात शासक की भाषा,और शासक को स्वभावत: कुछ महत्व उपलब्ध हो जाता है, किंतु हम जानते हैं कि जनतांत्रिक शासन पद्धति में राजा शब्द का महत्व नही है। इसी अर्थ में भारत सरकार ने राजभाषा आयोग (Official Language Commission) का निर्माण किया था। इसका प्रयोग मुख्यत: चार क्षेत्रों में अभिप्रेत है-शासन, विधान, न्यायपालिका और कार्यपालिका। इन चारों में जिस भाषा का प्रयोग हो उसे राजभाषा कहेंगे। यह कार्य अंग्रेजी द्वारा होता रहा है और इसी का स्थान राजभाषा के रूप में हिंदी को देना है।इसका अर्थ यह नही होता कि हिंदी प्रादेशिक भाषाओं को किसी भी प्रकार की हानि पहुंचाएगी या उन्हें उन्मूलित कर देगी। हिंदी यथासंभव प्रादेशिक भाषाओं का पोषण ही करेगी।हिंदी दूसरी भाषाओं को कुछ दे सकती है तो उनसे कुछ ले भी सकती है। भारत की अनेक भाषाएं पर्याप्त समृद्ध हैं और वह समृद्धि एक दूसरे के संवर्द्धन में प्रेम के साथ प्रयोग की जा सकती है। इसलिए भारतीय भाषाओं मे परस्पर विरोध या बाधा का प्रश्न ही नही उठता।भारत में भाषा की राजकीय स्थितियां चार प्रकार की हैं-
1.प्रादेशिक 2.अंत:प्रादेशिक 3.राष्ट्रीय 4.अन्तरराष्ट्रीय
1.प्रादेशिकः- भाषावार राज्यों के निर्माण के बाद प्रत्येक राज्य के लिए एक-एक भाषा स्वीकृत हुई। इसको चाहें तो राजभाषा भी कह सकते हैं। किसी राज्य अथवा प्रदेश का शासन–कार्य वहीं की भाषा मे होगा, जैसे बंगाल का बंगला में, और महाराष्ट्र का मराठी में। इस सीमा मे हिंदी को दखल नही देना है। प्रत्येक राज्य को अपना कार्य अपनी भाषा में करने की पूरी-पूरी छूट एवं स्वतंत्रता है।
2.अंत:प्रादेशिक-हमारा देश अनेक राज्यों का संघ है। एक राज्य की सीमा पार करने के बाद दूसरे राज्य में प्रवेश करने पर एक भाषा को छो़ड़कर दूसरे भाषा से मुकाबला होता है।बंगाल की भाषा बंगला है तो उड़ीसा की भाषा उड़िया।केरल की भाषा मलयालम है तो कश्मीर की भाषा कश्मीरी।ये दोनों भाषाएं परस्पर अबोध्य हैं।मलयालम बोलने वाला कश्मीरी
नही समझता एवं कश्मीरी बोलने वाला मलयालम। इस समस्या को दूर करना है। अब तक इस कठिनाई को अंग्रेजी दूर करता था लेकिन अब इसे हिंदी को करना पड़ेगा। इसलिए अंत:प्रादेशिक संचार के लिए हिंदी आवश्यक हो गयी है।यहीं से हिंदी का उपयोग आरंभ होता है। एक राज्य से दूसरे राज्य का संपर्क स्थापन अंग्रेजी के बदले हिंदी को करना है।
3.ऱाष्ट्रीय:- इसके प्रगामी प्रयोग के लिए केंद्र और राज्यों को यह देखना होगा कि उनके बीच इस भाषा के विकास के लिए क्या करना है अर्थात केंद्र और राज्यों के बीच संचार की भाषा क्या हो,यह प्रश्न है। यह कार्य अब तक अंग्रेजी करती आ रही है,इसे अब हिंदी करेगी। केंद्र और राज्य के स्तर पर अथवा राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को प्रयोग में लाना है।
4।अंतरराष्ट्रीय:- जब देश में हिंदी का प्रचार- प्रसार बढ़ जाएगा तो हमें इसके विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सोचना होगा।इसके माध्यम से हमारा संबंध दूसरे देशों के साथ होता है।हमें दूसरे देशों में अपने राजदूतों के अधिकार पत्र भेजने होते हैं,राजनयिक वार्ताएं करनी होती हैं,वाणिज्य और व्यापार की संविदाएं तैयार करनी पड़ती हैं।भारत की संघ भाषा के रूप में हिंदी का यह चौथा उपयोग होगा।आजादी के बाद एवं आज तक हम हर कार्य अंग्रेजी के माध्यम से लेते रहे हैं एवं समय-समय पर कई बार हमें अंतरराष्ट्रीय जगत में अपमानित भी होना पड़ा है। कुछ देशों में हमारे अधिकार पत्र अंग्रेजी में गए और वहां से यह कहकर लौटा दिए गए कि भारत की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी नही है,इसलिए हम इन पत्रों को स्वीकार्य करने में असमर्थ हैं। दूबारा उन पत्रों को हिंदी में भेजना पड़ा तब वे स्वीकृत हुए।दुनिया के सभी विकसित देश अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रों में अपनी भाषा के माध्यम से ही अपना कार्य करते हैं और उनमें गौरव का अनुभव करते हैं। रूस, फ्रांस, या चीन अंग्रेजी में अपने पत्रादि प्रस्तुत नही करते। फिर,भारत जैसा समृद्ध परंपरओं का देश अंग्रेजी के गले लगाए रखकर हमेशा यह बताता चले कि हम दो सौ वर्षों तक पराधीन रहे हैं उसकी यह निशानी है।
यह हम सबके लिए गौरव एवं सम्मान की बात नही होगी। इसलिए हमें अंतरराष्ट्रीय उपयोग के लिए एक भाषा रखनी होगी और वह स्थान हिंदी ही ले सकती है। इस प्रकार प्रादेशिक, अंत:प्रादेशिक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रों में पहला क्षेत्र सर्वथा प्रादेशिक भाषाओं का होगा और शेष तीनों में हिंदी रहेगी अर्थात हिंदी प्रादेशिक भाषाओं का स्थान नही लेने जा रही है।यह केवल उन स्थानों को लेगी जिन पर अब तक अंग्रेजी अधिकार जमाए बैठी रही है। इससे वस्तु-स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि भारतीय भाषाओं में किसकी क्या सीमा और उपयोग है। आपस में बाधा पहँचाने का प्रश्न ही कहाँ उठता है !इस स्पष्टीकरण से यह भ्रम भी मिट जाना चाहिए कि हिंदी किसी भारतीय भाषा को किसी भी रूप में अपदस्थ कर सकती है। अंग्रेजी की छाया में रहकर किसी भी भारतीय भाषा का विकास नही हो सका है।आज जो भी त्रुटि या अभाव है, वह सभी भाषाओं में समान है। उससे मुक्त होने के लिए अन्य भाषाएं उत्सुक हैं और हिंदी भी उत्सुक है। सभी का लक्ष्य एक है-निरंतर प्रगति और विकास।यह लक्ष्य परस्पर सद्भाव और सहयोग से ही पूरा हो सकता है। इसमें न तो संदेह का अवकाश है, न आपत्ति का।आवश्यकता है एक दृढ़ संकल्प की,बुलंद हौसले की,समर्पण की।आईए,इस कार्य के लिए हम सब दृढ़ प्रतिज्ञ होकर राजभाषा हिंदी के व्यापक प्रचार-प्रसार में अपना सक्रिय य़ोगदान देकर इसे एक नई दिशा एवं दशा प्रदान करने के लिए कटिबद्द होकर इसके चतुर्दिक विकास की धारा को प्रवाहित करने की दिशा में सतत प्रयत्नशील रहें।आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि हर स्तर पर सकारात्मक दिशा में प्रयास करने पर हमें मंजिल अवश्य प्राप्त होगी क्योंकि -----

“मंजिल उन्ही को मिलती है,
जिनके कदमों में जान होती है.
परों से क्या होता है दोस्तों,
हौंसलों से उड़ान होती है।“
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शुक्रवार, 24 जून 2011

ग्रामीण भारत के प्रतिनिधि रचनाकार–विवेकी राय

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ग्रामीण भारत के प्रतिनिधि रचनाकार

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अब वे दिन सपने हुए हैं कि जब सुबह पहर दिन चढे तक किनारे पर बैठ निश्चिंत भाव से घरों की औरतें मोटी मोटी दातून करती और गाँव भर की बातें करती। उनसे कभी कभी हूं-टूं होते होते गरजा गरजी, गोत्रोच्चार और फिर उघटा-पुरान होने लगता। नदी तीर की राजनीति, गाँव की राजनीति। लडकियां घर के सारे बर्तन-भांडे कपार पर लादकर लातीं और रच-रचकर माँजती। उनका तेलउंस करिखा पानी में तैरता रहता। काम से अधिक कचहरी । छन भर का काम, पहर-भर में। कैसा मयगर मंगई नदी का यह छोटा तट है, जो आता है, वो इस तट से सट जाता है।
    ये लाईनें हैं श्री विवेकी राय जी के एक लेख की जो उन्होंने एक नदी मंगई के बारे में लिखी हैं।

(श्री सतीश पंचम जी के पोस्ट से साभार)

डॉ. विवेकी राय हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार हैं। वे ग्रामीण भारत के प्रतिनिधि रचनाकार हैं। श्री राय उनका जन्म 19 नवम्बर सन् 1924 को भरौली (बलिया) नामक ग्राम में हुआ है। इनकी आरमिभिक शिक्षा इनके पैतृक गाँव सोनवानी (गाजीपुर) में हुई।  स्नातकोत्तर परीक्षा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। सन् 1970 ई. में स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कथा साहित्य और ग्राम जीवन विषय पर काशी विद्यापीठ, वाराणसी से आपको पी. एच. डी. की उपाधि मिली।

डॉ. विवेकी राय जी के अध्यापकीय जीवन की जो शुरूआत ‘सोनवानी’ के लोअर प्राइमरी स्कूल शुरू हुई वह हाई स्कूल नरहीं (बलिया), श्री सर्वोदय इण्टर कॉलेज खरडीहां (गाज़ीपुर) होते हुए स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गाज़ीपुर में सन् 1988 ई. तक चली। यह अपने आप में शैक्षिक मूल्यों की प्राप्ति और प्रदेय का अनूठा उदाहरण है।

जब 7वीं कक्षा में अध्यन कर रहे थे उसी समय से डॉ.विवेकी राय जी ने लिखना शुरू किया। सन् 1945 ई. में आपकी प्रथम कहानी ‘पाकिस्तानी’ दैनिक ‘आज’ में प्रकाशित हुई। इसके बाद इनकी लेखनी हर विधा पर चलने लगी जो कभी थमनें का नाम ही नहीं ले सकी। इनका रचना कार्य कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज, डायरी, समीक्षा, सम्पादन एवं पत्रकारिता आदि विविध विधाओं से जुड़ा रहा। अब तक इन सभी विधाओं से सम्बन्धित लगभग 60 कृतियाँ आपकी प्रकाशित हो चुकी हैं और लगभग 10 प्रकाशनाधीन हैं।

प्रकाशित कृतियाँ निम्न हैं-

काव्य संग्रह : अर्गला,राजनीगंधा, गायत्री, दीक्षा, लौटकर देखना आदि।

कहानी संग्रह : जीवन परिधि, नई कोयल, गूंगा जहाज बेटे की बिक्री, कालातीत, चित्रकूट के घाट पर, विवेकी राय की श्रेष्ठ कहानियाँ , श्रेष्ठ आंचलिक कहानियाँ, अतिथि, विवेकी राय की तेरह कहानियाँ आदि।

उपन्यास : बबूल,पूरुष पुराण, लोक ऋण, बनगंगी मुक्त है, श्वेत पत्र, सोनामाटी, समर शेष है, मंगल भवन, नमामि ग्रामम्, अमंगल हारी, देहरी के पार आदि।

फिर बैतलवा डाल पर, जुलूस रुका है, मन बोध मास्टर की डायरी, नया गाँवनाम, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ ,जगत तपोवन सो कियो, आम रास्ता नहीं है, जावन अज्ञात की गणित है, चली फगुनाहट, बौरे आम आदि अन्य रचनाओं का प्रणयन भी डॉ. विवेकी राय ने किया है। इसके अलावा डॉ. विवेकी राय ने 5 भोजपुरी ग्रन्थों का सम्पादन भी किया है। सर्वप्रथम इन्होंने अपना लेखन कार्य कविता से शुरू किया। इसीलिए उन्हें आज भी ‘कविजी’ उपनाम से जाना जाता है।

विवेकी राय स्वभावतः गम्भीर एवं खुश-मिज़ाज़ रचनाकार हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी, सीधे, सच्चे, उदार एवं कर्मठ व्यक्ति हैं। ललाट पर एक बड़ा सा तिल, सादगी, सौमनस्य, गंगा की तरह पवित्रता, ठहाका मारकर हँसना, निर्मल आचार-विचार आपकी विशेषताएँ हैं। सदा खादी के घवल वस्त्रों में दिखने वाले, अतिथियों का ठठाकर आतिथ्य सत्कार करने वाले साहित्य सृजन हेतु नवयुवकों को प्रेरित करने वाले आप भारतीय संस्कृति की साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं।

डॉ. विवेकी राय का जीवन सादगी पूर्ण है। गम्भीरता उनका आभूषण है। दूसरों के प्रति अपार स्नेह एवं सम्मान का भाव सदा वे रखते हैं। सबसे खुलकर गम्भीर विषय की निष्पत्ति एवं चर्चा करना उनका स्वभाव है। अपने इन्हीं गुणों के कारण पहुतों के लिए वे परम पूज्य एवं आदरणीय बने हुए हैं। कुल मिलाकर वे संत प्रकृति के सज्जन हैं। विशुद्ध भोजपुरी अंचल के महान् साहित्यकार हैं।

सत्पथ पर दृढ़ निश्चय के साथ बढ़ते रहने का सतत् प्रेरणा देने वाले डॉ. विवेकी राय मूलतः गँवई सरोकार के रचनाकार हैं। बदलते समय के साथ गाँवों में होने वाले परिवर्तनों एवं  आँचलिक चेतना विवेकी राय के कथा साहित्य की एव विशेषता है। इन्होंने अपने उपन्यासों एवं कहानियों में किसानों, मज़दूरों, स्त्रियों तथा उपेक्षितों की पीड़ा को अभिव्यक्ति प्रदान की है। अपनी रचनाधार्मिता के कारण इन्हें हम प्रेमचन्द और फणीश्वर नाथ रेणु के बीच का स्थान दे सकते हैं। स्वातंत्र्योत्तर भारतीय ग्रामीण जीवन में परिलक्षित परिवर्तनों को इन्होंने अपने उपन्यासों एवं कहानियों में सशक्त ढंग से प्रस्तुत किया है। इनके कथा साहित्य में गाँव की खूबियाँ एवं अन्तर्विरोध हमें स्वष्ट रूप से दिखाई देते हैं।

उनकी सृजन यात्रा अर्धशती से आगे निकली है। जीवन के साकारात्मक पहलुओं की ओर, लोक मंगल की ओर इन्होंने अब तक विशेष ध्यान दिया है।

डॉ. विवेकी राय को अनेकों पुरस्कारों एवं मानद उपाधियों से सम्मानित किया गया है। हिन्दी संस्थान (उ.प्र.) द्वारा ‘सोनामाटी’ उपन्यास पर दिया गया प्रेमचन्द पुरस्कार , हिन्दी संस्थान लखनऊ (उ.प्र. ) द्वारा दिया गया साहित्य भूषण पुस्स्कार, बिहार सरकार द्वारा प्रदान किया गया आचार्य शिवपूजन सहाय सम्मान; ‘आचार्य शिवपूजन सहाय’ पुरस्कार मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रदत्त ‘शरद चन्द जोशी ; सम्मान केन्द्रीय हिन्दी संस्थान एवं मानव संसाधन विकास मंत्रालय, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में दिया गया ‘पंडित राहुल सांकृत्यायन’ सम्मान तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की ओर से प्रदत्त ‘साहित्य वाचस्पति’ उपाधि जैसे अनेकों सम्मान इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं। डॉ. विवेकी राय के उपन्यासों, कहानियों, ललित निबन्धों; उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व, उनकी सम्पूर्ण साहित्य साधना पर पंजाब वि.वि, गोरखपुर विश्वविद्यालय, रुहेल खण्ड विश्वाद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ, मगध विश्वविद्यालय,दिल्ली विश्वविद्यालय, मुम्बई विश्वविद्यालय, उस्मानिया विश्वविद्यालय, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सबा मद्रास, श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, डॉ. भीमराव अमबेडकर विश्वविद्यालय, पंडित दीन दयाल विश्वविद्यालय, शिवाजी विश्वविद्यालय, माहाराष्ट्र विश्वविद्यालय, राजस्थान विश्वविद्यालय, वीर बहादुर सिंह पर्वांचल विश्वविद्यालय,बेंगलोर विश्वविद्यालय, जेयोति बाई विश्वविद्यालय, जम्मू विश्वविद्यालय, महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय आदि विश्वविद्यालयों में एम, फिल,/ पी. एच. डी. के 70 शोध प्रबन्ध लिखे जा चुके हैं और कई विश्वविद्यालयों में छात्रों द्वारा इन पर शोध कार्य किया जा रहा है।

नोट : इस आलेख के लिए श्री आशीष राय ने जो योगदान दिया है, मैं उसके लिए उनका आभार प्रकट करता हूं।                                        – मनोज कुमार

बुधवार, 22 जून 2011

मैला आंचल - आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति

उपन्यास साहित्य

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फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ का ‘मैला आंचल’ - आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति

IMG_1393मनोज कुमार

मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ जैसे आंचलिक उपन्यासों की रचना का श्रेय फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ को जाता है। प्रेमचंद के बाद रेणु ने गांव को नये सौन्दर्यबोध और रागात्मकता के साथ चित्रित किया है।

‘रेणु’ जी का ‘मैला आंचल’ वस्तु और शिल्प दोनों स्तरों पर सबसे अलग है। इसमें एक नए शिल्प में ग्रामीण-जीवन को दिखलाया गया है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इसका नायक कोई व्यक्ति (पुरुष या महिला) नहीं है, पूरा का पूरा अंचल ही इसका नायक है। दूसरी प्रमुख बात यह है कि मिथिलांचल की पृष्ठभूमि पर रचे इस उपन्यास में उस अंचल की भाषा विशेष का अधिक से अधिक प्रयोग किया गया है। खूबी यह है कि यह प्रयोग इतना सार्थक है कि वह वहां के लोगों की इच्छा-आकांक्षा, रीति-रिवाज़, पर्व-त्यौहार, सोच-विचार, को पूरी प्रामाणिकता के साथ पाठक के सामने उपस्थित करता है।

रेणु जी ने ही सबसे पहले ‘आंचलिक’ शब्द का प्रयोग किया था। इसकी भूमिका, 9 अगस्त 1954, को लिखते हुए फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ कहते हैं,

“यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास।“

इस उपन्यास के केन्द्र में है बिहार का पूर्णिया ज़िला, जो काफ़ी पिछड़ा है। ‘रेणु’ कहते हैं,

“इसमें फूल भी है, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी – मैं किसी से दामन बचाकर नहीं निकल पाया।“

यही इस उपन्यास का यथार्थ है। यही इसे अन्य आंचलिक उपन्यासों से अलग करता है जो गांव की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखे गए हैं। गांव की अच्छाई-बुराई को दिखाता प्रेमचंद, शिवपूजन सहाय, शिवप्रसाद रुद्र, भैरव प्रसाद गुप्त और नागार्जुन के कई उपन्यास हैं जिनमें गांव की संवेदना रची बसी है, लेकिन ये उपन्यास अंचल विशेष की पूरी तस्वीर प्रस्तुत नहीं करते। बल्कि ये उपन्यासकार गांवों में हो रहे बदलाव को चित्रित करते नज़र आते हैं। परन्तु ‘रेणु’ का ‘मेरीगंज’ गांव एक जिवंत चित्र की तरह हमारे सामने है जिसमें वहां के लोगों का हंसी-मज़ाक़, प्रेम-घृणा, सौहार्द्र-वैमनस्य, ईर्ष्या-द्वेष, संवेदना-करुणा, संबंध-शोषण, अपने समस्त उतार-चढाव के साथ उकेरा गया है। इसमें जहां एक ओर नैतिकता के प्रति तिरस्कार का भाव है तो वहीं दूसरी ओर नैतिकता के लिए छटपटाहट भी है। परस्पर विरोधी मान्यताओं के बीच कहीं न कहीं जीवन के प्रति गहरी आस्था भी है – “मैला´आंचल में”!

पूरे उपन्यास में एक संगीत है, गांव का संगीत, लोक गीत-सा, जिसकी लय जीवन के प्रति आस्था का संचार करती है। एक तरफ़ यह उपन्यास आंचलिकता को जीवंत बनाता है तो दूसरी तरफ़ उस समय का बोध भी दृष्टिगोचर होता है। ‘मेरीगंज’ में मलेरिया केन्द्र के खुलने से वहां के जीवन में हलचल पैदा होती है। पर इसे खुलवाने में पैंतीस वर्षों की मशक्कत है इसके पीछे, और यह घटना वहां के लोगों का विज्ञान और आधुनिकता को अपनाने के की हक़ीक़त बयान करती है। भूत-प्रेत, टोना-टोटका, झाड़-फूक, में विश्‍वास करनेवाली अंधविश्वासी परंपरा गनेश की नानी की हत्या में दिखती है। साथ ही जाति-व्यवस्था का कट्टर रूप भी दिखाया गया है। सब डॉ.प्रशान्त की जाति जानने के इच्छुक हैं। हर जातियों का अपना अलग टोला है। दलितों के टोले में सवर्ण विरले ही प्रवेश करते हैं, शायद तभी जब अपना स्वार्थ हो। छूआछूत का महौल है, भंडारे में हर जाति के लोग अलग-अलग पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं। और किसी को इसपर आपत्ति नहीं है।

‘रेणु’ ने स्वतंत्रता के बाद पैदा हुई राजनीतिक अवसरवादिता, स्वार्थ और क्षुद्रता को भी बड़ी कुशलता से उजगर किया है। गांधीवाद की चादर ओढे हुए भ्रष्ट राजनेताओं का कुकर्म बड़ी सजगता से दिखाया गया है। राजनीति, समाज, धर्म, जाति, सभी तरह की विसंगतियों पर ‘रेणु’ ने अपने कलम से प्रहार किया है। इस उपन्यास की कथा-वस्तु काफ़ी रोचक है। चरित्रांकन जीवंत। भाषा इसका सशक्त पक्ष है। ‘रेणु’ जी सरस व सजीव भाषा में परंपरा से प्रचलित लोककथाएं, लोकगीत, लोकसंगीत आदि को शब्दों में बांधकर तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिवेश को हमारे सामने सफलतापूर्वक प्रस्तुत करते हैं।

अपने अंचल को केन्द्र में रखकर कथानक को “मैला आंचल” द्वारा प्रस्तुत करने के कारण फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हिन्दी में आंचलिक उपन्यास की परंपरा के प्रवर्तक के रूप में प्रतिष्ठित हुए। अपने प्रकाशन के 56 साल बाद भी यह उपन्यास हिन्दी में आंचलिक उपन्यास के अप्रतिम उदाहरण के रूप में विराजमान है। यह केवल एक उपन्यास भर नहीं है, यह हिन्दी का व भारतीय उपन्यास साहित्य का एक अत्यंत ही श्रेष्ठ उपन्यास है और इसका दर्ज़ा क्लासिक रचना का है। इसकी यह शक्ति केवल इसकी आंचलिकता के कारण ही नहीं है, वरन्‌ एक ऐतिहासिक दौर के संक्रमण को आंचलिकता के परिवेश में चित्रित करने के कारण भी है। बोली-बानी, गीतों, रीतिरिवाज़ों आदि के सूक्ष्म ब्योरों से है। जहां एक ओर अंचल विशेष की लोकसंस्कृति की सांस्कृतिक व्याख्या की है वहीं दूसरी ओर बदलते हुए यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में लोक-व्यवहार के विविध रूपों का वर्णन भी किया है। इन वर्णनों के माध्यम से ‘रेणु’ ने “मैला आंचल” में इस अंचल का इतना गहरा और व्यापक चित्र खींचा है कि सचमुच यह उपन्यास हिन्दी में आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति बन गया है।

संदर्भ

1. हिंदी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल 2. हिंदी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र 3. हिन्दी साहित्य का इतिहास – श्यामचन्द्र कपूर 4. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारी प्रसाद द्विवेदी 5. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली खंड-7 6. साहित्यिक निबंध आधुनिक दृष्टिकोण – बच्चन सिंह 7. झूठा सच – यशपाल 8. त्यागपत्र – जैनेन्द्र कुमार 9. फणीश्वरनाथ रेणु – व्यक्तित्व, काल और कृतियां – गोपी कृष्ण प्रसाद 10. फणीश्वरनाथ रेणु व्यक्तित्व एवं कृतित्व – डॉ. हरिशंकर दुबे

मंगलवार, 21 जून 2011

अर्थशास्त्री के नेतृत्व में गिरवी भारतीय अर्थव्यवस्था

अर्थशास्त्री के नेतृत्व में गिरवी भारतीय अर्थव्यवस्था

अरुण चन्द्र रॉय

जब यह खबर आर्थिक जगत और मीडिया में जोर से आ रही थी कि योजना आयोग ने पंच वर्षीय योजना तैयार करने के लिए एक निजी कंसल्टिंग कंपनी से बिना किसी पैसे के काम लिया है तब मैं योजना आयोग की 2007 से 12 के लिए परिप्रेक्ष्य रिपोर्ट पढ़ रहा था. मुझे अर्थव्यवस्था का ज्ञान नहीं है न कभी अर्थशास्त्र का विद्यार्थी रहा. अर्थशास्त्र का स्वाध्यानन भी नहीं है. लेकिन जिस तरह उस रिपोर्ट में आकडे प्रस्तुत किये गए थे, जिस तरह पंच वर्षीय सब्जबाग दिखाया गया था वह देख मुझे निजी कंसल्टिंग कंपनी का बिना पैसे लिए काम करने में कुछ 'बिटवीन दी लाइंस' बात लगी. खैर !

मैं जो अध्याय पढ़ रहा था उसमे देश में अवसंरचना और रियल एस्टेट के सम्बन्ध में आकडे थे. वास्तव में रियल एस्टेट सबसे अधिक लोगों को रोज़गार देता है. कई अन्य उद्योग जैसे सीमेंट , स्टील आदि उद्योग इसपर प्रत्यक्ष रूप से आधारित हैं. लेकिन दुःख की बात यह है कि आज भी देश के आधे लोग बिना छत के रह रहे हैं. विकास की इस बात का उल्लेख उस किताब में इतनी प्रमुखता से नहीं है जितनी कि भूमि अधिग्रहण को सरकार कैसे सरल बनाएगी, किस तरह विदेशी निवेश आएगा और सरकार विदेशी निवेश के लिए कैसे जमीन और बहाने तैयार कर रही है. दिल्ली और इसके आसपास अक्सर एफोर्डेबल हाउसिंग पर सेमिनार होते हैं जिसमे मंत्री से लेकर सचिव तक हिस्सा लेते हैं. ये सभी सेमिनार पांच तारा या हैबिटेट सेंटर जैसे जगहों पर होते हैं. शायद ये लोग तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट नहीं पढ़ते हैं जो कहती है कि इस देश के 37 फिसिदी लोग अब भी गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं. अर्जुन सेनगुप्ता की एक रिपोर्ट कहती है कि 77 फिसिदी भारतीय बीस  रूपये प्रतिदिन से कम में गुजरा करते हैं और जो योजना आयोग देश में भूमि अधिग्रहण और रियल एस्टेट के पक्ष में आकडे तैयार करती है वह भी  इस इस रिपोर्ट को स्वीकार कर चुकी है. इसी क्रम में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट कहती है इस देश में अफ़्रीकी देशों से अधिक जनता गरीबी रेखा से नीचे रहती है. लेकिन मुझे किसी सेमिनार में, किसी बहस में इनके लिए कोई ठोस नीति या इच्छा शक्ति दिखाई नहीं देती.

हाँ जो कंपनी योजना आयोग के लिए निःशुल्क सेवा दे रही थी वह है बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप. यह एक अग्रणी बहुराष्ट्रीय कंसल्टिंग फर्म है. इस कम्पनी की उपस्थिति दुनिया के सत्तर देशो में हैं और तमाम उद्योग क्षेत्रों में जैसे स्वास्थ्य, औषध, परिवहन, स्टील, तेल, पर्यावरण आदि आदि में परामर्श देने का विशाल अनुभव है. और इसके ग्राहकों में दुनिया के बड़े बैंक,तेल कम्पनियां, इस्पात कंपनिया, दवाई कम्पनियां हैं. ऐसे में यदि बोस्टन के निःशुल्क परामर्श के पीछे की मंशा स्पष्ट हो जाती है. और बोस्टन का प्रभाव देखिये कि ये खबर आई और फिर अचानक बिना तूल दिए यह मुद्दा अखबार के पन्नो से गायब भी हो गई. यह कोई मामूली बात नहीं. एक गंभीर मुद्दा है जो देश की नीव योजना आयोग को ही गीली कर रही है.

अर्थशास्त्री के नेतृत्व में भारतीय अर्थव्यवस्था किस तरह जनहित के प्रतिकूल हो काम कर रही है और सरकार असहायता जाहिर कर रही है, इतना तो स्पष्ट है कि देश का पूरा तंत्र गिरवी है कहीं,

सोमवार, 20 जून 2011

रचयिता सृष्टि की






माँ के गर्भ में साँस लेते हुए
मैं खुश हूँ बहुत
मेरा आस्तित्व आ चुका है
बस प्रादुर्भाव होना बाकी है।



मैं माँ की कोख से ही
इस दुनिया को देख पाती हूँ
पर माँ - बाबा की बातें समझ नही पाती हूँ
माँ मेरी सहमी रहती हैं और बाबा मेरे खामोश
बस एक ही प्रश्न उठता है दोनों के बीच
कि परीक्षण का परिणाम क्या होगा ?

आज बाबा कागज़ का एक पुर्जा लाये हैं
और माँ की आँखों में चिंता के बादल छाये हैं
मैं देख रही हूँ कि माँ बेसाख्ता रो रही है
हर बार किसी बात पर मना कर रही है
पर बाबा हैं कि अपनी बात पर अड़े हैं
माँ को कहीं ले जाने के लिए खड़े हैं
इस बार भी परीक्षण में कन्या- भ्रूण ही आ गया है
इसीलिए बाबा ने मेरी मौत पर हस्ताक्षर कर दिया है।

मैं गर्भ में बैठी बिनती कर रही हूँ कि-
बाबा मैं तुम्हारा ही बीज हूँ-
क्या मुझे इस दुनिया में नही आने दोगे?
अपने ही बीज को नष्ट कर मुझे यूँ ही मर जाने दोगे?
माँ ! मैं तो तुम्हारा ही प्रतिरूप हूँ , तुम्हारी ही कृति हूँ
तुम्हारी ही संरचना हूँ , तुम्हारी ही सृष्टि हूँ।

माँ ! मुझे जन्म दो, हे माँ ! मुझे जन्म दो
मैं दुनिया में आना चाहती हूँ
कन्या हूँ ,इसीलिए अपना धर्म निबाहना चाहती हूँ।
यदि इस धरती पर कन्या नही रह पाएगी
तो सारी सृष्टि तहस - नहस हो जायेगी ।

हे स्वार्थी मानव ! ज़रा सोचो-
तुम हमारी शक्ति को जानो
हम ही इस सृष्टि की  रचयिता हैं
इस सत्य को तो पहचानो.



Cute Baby 05















संगीता स्वरुप 

शुक्रवार, 17 जून 2011

गामांचल के उपन्यास

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IMG_0877मनोज कुमार

ग्रामांचल उपन्यासों को आंचलिक उपन्यास भी कहा जाता है। जिन उपन्यासों को ग्रामांचल के उपन्यास कहा जाता है, उनमें गांव की धरती, खेत-खलिहान, नदी-नाले, डबरे, पशु-पक्षी, हल-बैल, भाषा, गीत, त्योहार आदि वहां रहने वाले लोग के साथ समवेत स्वर में वाणी पाते हैं। मतलब कि न सिर्फ़ इन उपन्यासों के पात्र बोलते हैं, बल्कि पूरा परिवेश भी बोलता है।

1954 में प्रकाशित फणिश्‍वरनाथ ‘रेणु’ का “मैला आंचल” हिन्दी साहित्य में आंचलिक उपन्यास की परंपरा को स्थापित करने का पहला सफल प्रयास है। हालाकि नागार्जुन ने रेणु से पहले लिखना शुरु किया। उनके ‘रतिनाथ की चाची’ (1949), ‘बलचनमा’, (1952), ‘नई पौध’ (1953) और ‘बाबा बटेसरनाथ’ (1954) में भी आंचलिक परिवेश का चित्रण हुआ है। इनके उपन्यासों में बिहार के दरभंगा और पुर्णिया ज़िले का राजनीतिक व सांस्कृतिक चित्रण हुआ है। उन्होंने मार्क्सवादी दृष्टिकोण से गांव की समस्याओं को चित्रित किया है।

‘मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ जैसे आंचलिक उपन्यासों की रचना करने वाले फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ ने प्रेमचंद के बाद, गांव को नये सौन्दर्यबोध और रागात्मकता के साथ चित्रित किया है। प्रेमचंद ने भी अपने उपन्यासों में गांव के निवासियों की कथाएं लिखी है। लेकिन इन्हें आंचलिक उपन्यास नहीं कहा गया।

‘रेणु’ जी का ‘मैला आंचल’ वस्तु और शिल्प दोनों स्तरों पर सबसे अलग है। इसमें एक नए शिल्प में ग्रामीण-जीवन को दिखलाया गया है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इसका नायक कोई व्यक्ति (पुरुष या महिला) नहीं है, पूरा का पूरा अंचल ही इसका नायक है। दूसरी प्रमुख बात यह है कि मिथिलांचल की पृष्ठभूमि पर रचे इस उपन्यास में उस अंचल की भाषा विशेष का अधिक से अधिक प्रयोग किया गया है। खूबी यह है कि यह प्रयोग इतना सार्थक है कि वह वहां के लोगों की इच्छा-आकांक्षा, रीति-रिवाज़, पर्व-त्यौहार, सोच-विचार, को पूरी प्रामाणिकता के साथ पाठक के सामने उपस्थित करता है।

ग्रामांचल उपन्यासों की परंपरा

वैसे देखा जाए तो 1925 में प्रकाशित शिवपूजन सहाय के ‘देहाती दुनिया’ में भोजपुरी जनपद का चित्रण बहुत ही मनभावन तरीक़े से हुआ है। हम मान सकते हैं कि आंचलिक उपन्यास परंपरा का यह पहला उपन्यास है।

1952 में प्रकाशित शिवप्रसाद रुद्र का ‘बहती गंगा’ भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है।

प्रसंगवश यह भी याद करते चलें कि अंग्रेज़ी लेखिका मारिया एडवर्थ (1768-1849) का आंचलिक उपन्यासकारों की श्रेणी में सबसे पहले नाम लिया जाना चाहिए, जिनकी कृति ‘कासल रैकर्न्ट’ 1800 में आई थी।

अन्य आंचलिक उपन्यास

अन्य आंचलिक उपन्यासों में उदयशंकर भट्ट का ‘सागर, लहरें और मनुष्य’ (1955) इस धारा की प्रसिद्ध कृति है। इसमें बम्बई के पश्चिमी तट पर बसे हुए बरसोवा गांव के मछुआरों की जीवनकथा का वर्णन किया गया है। शहर के सम्पर्क में जब यह गांव आता है तो गांव की एकांगिता में दरारें पड़ने लगती है। नई परिस्थितियों के कारण बदलाव आता है। गांव की नायिका पूंजीवादी यातना में जा फंसती है।

रांगेय राघव के ‘कब तक पुकारूं’ (1858) और ‘मुर्दों का टीला’, में भी ग्रामांचल का वर्णन हुआ है।

रामदरश मिश्र के ‘पानी की प्राचीर’, ‘जल टूटता हुआ’ तथा ‘सूखता हुआ तालाब’ काफ़ी प्रभावशाली उपन्यास हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश के कछार अंचल की दमघोंट समस्याओं, विसंगतियों, अभावों, आंतरिक संदर्भों को तीव्रता से अभिव्यक्त किया है। अधुनिकीकरण का गांव पर प्रभाव पड़ता है और इसके परिणामस्वरूप काफ़ी बदलाव आता है। गांव को वे लगातार उसके परिवर्तनशील रूप में पकड़ने की कोशिश करते रहे हैं।

शिवप्रसाद सिंह के ‘अलग अलग वैतरणी’, में आंचलिक परिवेश का चित्रण है। नये-पुराने मूल्यों, पीढ़ियों, वर्गों और जातियों का टकराहट है। हर इंसान अपनी-अपनी वैतरणी में घिर जाता है। वैतरणी को पार करने का मतलब है नरक। गांव नरक हो गए हैं, जहां अलगाव और टूटन है।

हिमांशु श्रीवास्तव के ‘लोहे के पंख’, और ‘रथ के पहिए’ भी अपने ढ़ंग के प्रभावशाली ग्रामांचलीय उपन्यास हैं।

राही मासूम रज़ा के ‘आधा गांव’, में शिया मुसलमानों की ज़िन्दगी पर प्रकाश डाला गया है। इसमें भारत विभाजन से पहले और बाद की ज़िन्दगी को उभारा गया है। ज़िन्दगी का एकाकीपन और बिखराव को ऐतिहासिक सन्दर्भ में चित्रित किया गया है।

भैरव प्रसाद गुप्त के ‘गंगा मैया’, ‘सती मैया का चौरा’ मार्क्सवादी दृष्टिकोण से लिखे गए हैं। इनमें गांवों के प्रति आशावादी दृष्टिकोण तथा स्थानीय रंग दर्शाया गया है।

ग्रामांचल को महत्व देने वाले अन्य उपन्यासकारों में विवेकी राय के बबूल, पुरुष पुराण, लोकऋण, सोना माटी, समर शेष है हिमांशु जोशी के ‘कमार की आग’, कृष्णा सोबती के ‘ज़िंदगीनामा’, ‘मितरो मरजानी’, जगदीश चंद्र के ‘कभी न छोड़े खेत’, बलवंत सिंह के ‘शत चोर और चांद’, देवेन्द्र सत्यार्थी के ‘ब्रह्मपुत्र’ (1956) और ‘दूध छाछ’, राजेन्द्र अवस्थी के ‘जंगल के फूल’, ‘जाने कितनी आंखें’, शैलेश मटियानी के ‘हौलदार’ (1960), मनहर चौहान के ‘हिरना सांवरी’, केशव प्रसाद मिर के ‘कोहवर की शर्त’, उदय राज सिंह के ‘अंधेरे के विरुद्ध’, श्रीलाल शुक्ल (रागदरबारी), हिमांशु जोशी (अरण्य), शैलेश मटियानी (कबूतरखाना, दो बूंद जल), शानी (काला जल) ), अमृतलाल नागर के ‘बूंद और समुद्र’ (1956), बलभद्र ठाकुर के ‘मुक्तावली’, और सच्चिदानंद धूमकेतु के ‘माटी की महक’ आदि में और रेणु के भी अन्य उपन्यास जैसे ‘परती परिकथा’ (1958), ’जुलूस’, ‘दीर्घतपा’, ‘कलंक मुक्ति’, व ‘पलटू बाबू रोड’ में अंचल विशेष के सजीव चित्र प्रस्तुत हुए हैं। इन उपन्यासों की रचना करके उपन्यासकारों ने भारत के विभिन्न अंचलों के जीवन-यथार्थ, आशा-आकांक्षा. संघर्ष-टूटन, राजनीतिक-सामाजिक पिछड़ेपन-जागृति आदि का चित्रण किया।

मंगलवार, 14 जून 2011

मीडिया हाउसों के मुंह में तो पानी आता है हर नए घोटाले को देख कर

मीडिया हाउसों के मुंह में तो पानी आता है हर नए घोटाले को देख कर

arunpicअरुण चन्द्र रॉय

बाबा रामदेव ने अंततः अपना व्रत तोड़ दिया. जब बाबा ने काले धन और भ्रष्ट्राचार के मुद्दे पर अनशन और सत्याग्रह की शुरुआत की थी, पूरा मीडिया समाज अति उत्साहित हो इसका कवरेज़ कर रहा था. बाबा भी उत्साह में थे और कांग्रेसी राजनीति के शिकार हो गए. दो घाघ राजनीतिज्ञों ने बाबा को फांस लिया. रात को जो रामलीला मैदान में होना था उसकी नीति दिन में ही तैयार हो गई थी और पूरे मीडिया वर्ग को इसकी विधिवत सूचना दी गई थी. इस बीच छद्म पत्रकार भी बनाये गए थे जिन्हें मीडिया वालो के बीच असहज  और बाबा को भड़काने वाले प्रश्न पूछने के लिए प्लांट किया गया था.

रामलीला मैदान में जो कुछ हुआ उसे मीडिया ने ही जलियांवाला बाग़ करार दिया. अब तक मीडिया का उद्देश्य कालाधन को देश के सामने लाना था.

रविवार को कांग्रेस के मुख्यालय और कई गुप्त स्थानों पर दिन भर बैठकें हुई. फिर सरकार को अचानक भारत निर्माण, जननी सुरक्षा, ग्रामीण स्वस्थ्य, वृद्ध पेंशन जैसे मुद्दों की याद आई गई. सोमवार को ड़ी ए वी पी  से मीडिया प्लान तैयार करने के लिए कहा गया. फिर उसी दिन शाम तक सभी मीडिया हाउसों के शिड्यूलिंग डिपार्टमेंट में विभिन्न योजनाओं के विज्ञापन के आर ओ यानी रिलीज़ आर्डर पहुँच गए. ये आर्डर लाखों में नहीं थे. उस से कहीं अधिक थे.

अचानक मीडिया का सुर बदल गया. बाबा रामदेव झूठे हो गए. उन्होंने काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की हवा निकाल दी. तरह तरह के रिपोर्ट आने लगे. बाबा के ट्रस्ट को खंगाला गया. बाबा के सहयोगी बालकृष्ण की जन्मपत्री तक ढूंढ लिया गया.

थोड़े दिन पहले राजस्थान सरकार के किसी बड़ी परियोजना में मुख्यमंत्री जी के बेटे शामिल थे. बड़ी परियोजना बड़ा खेल. पत्रिका और भास्कर ग्रुप को क्या था. उछाल दिया मुद्दे को हवा में. तीन दिन तक मुख्य पृष्ठ पर यही मुद्दा छाया रहा राष्ट्रीय मुद्दे के तौर पर. फिर कांग्रेस को वापिस सत्ता दिलाने वाली विज्ञापन एजेंसी के मालिक और प्रबंधकों जिनकी सोनिया जी के पास सीधी पहुँच है, मनमोहन और प्रणव दा से कहीं अधिक को जल्दी में जयपुर बुलाया गया. एक गुप्त बैठक फिर हुई. संवाद जो कि राजस्थान सरकार की सरकारी विज्ञापन एजेंसी है के निदेशक को बुलाया गया. गहलोत सरकार की उपलब्धियों के पूरे पूरे पृष्ठ के रंगीन विज्ञापन आनन फानन में तैयार हुए. विज्ञापन अखबारों में रातों रात लगे. ये विज्ञापन भी लाखों में नहीं थे. थोड़े अधिक थे. इसकी महक दिल्ली के मीडिया हाउसों तक भी पहुची और हम भी राजस्थान सरकार की उप्लाधियों से वाकिफ हुए.

अब ऐसे में जो बाबा प्रथम पृष्ठ पर थे वे तीसरे पेज पर गए. फिर पांचवे पेज पर. फिर ग्यारहवे पेज पर. फिर अखबार से बाहर भी चले जाएँ तो क्या है. मीडिया ने अपना दायित्व तो निभा लिया.

फिर मीडिया का कहना कि रामलीला मैदान में जो हुआ वह बाबा रामदेव के कारण हुआ, बाबा में नेतृत्वा गुण नहीं हैं. बाबा को केवल योग पर ध्यान देना चाहिए, बाबा को ऐसे मुद्दे उठाने ही नहीं चाहिए आदि आदि!!

वहाँ कोई गलत तो नहीं. अभी तो मीडिया और सरकार ने इस मुद्दे को दबा दिया है. अभी जो विज्ञापन की हड्डियाँ मिली हैं वो पचने में थोडा समय तो लगेगा. आने दीजिये मानसून सत्र. कोई ना कोई मुद्दा जरुर उठाएगी मीडिया जैसे महिला आरक्षण, लोकपाल बिल... अरे कहाँ हैं आप.. अभी तो तेल कुओं के आवंटन का घोटाला सामने आ रहा है... मीडिया हाउसों के मुह में तो पानी आ रहा है इस नए घोटाले को देख कर.

सोमवार, 13 जून 2011

जलवा लेडीज़ क्लब का …

आज यूँ ही एक  हल्की - फुलकी सी रचना …


बस यूँ ही एक दिन मैं
गयी लेडीज़ क्लब में,
देखा वहाँ जा कर आईं थीं सब
अपने पूरे मेक-अप में,
सबके आते ही वहाँ
एक हलचल सी मच गयी थी
देखने के लिए वहाँ
एक प्रदर्शनी सज गयी थी .
सब मिल रहीं थीं
एक दूसरे से तपाक से
पूछे जा रहे थे हाल
एक दूसरे के खटाक़ से.
थोड़ी देर बाद एक दूसरे की
आलोचना होने लगी
एक दूसरे के मेकअप से
सब चिढ़ने सी लगीं
कद्दू से जूड़े वाली एक बोलीं
देखो मिसेस मेहता का जूड़ा
लगता है जैसे
इसमें भर रखा है कूड़ा .
थोड़ी देर बाद
चर्चा साड़ी पर आ गयी
उस चर्चा से जैसे
एक कयामत छा गयी.
आज के दिन 

मिसेस चौधरी की साड़ी
केंद्र बनी हुई थी
जिसे देख सबके दिल में
एक कसक उठ रही थी .
अपनी साड़ी की चर्चा कर
सब दिल को तसल्ली दे रही थीं
हमारी साड़ी भी अच्छी है
ये समझाने की
कोशिश कर रहीं थीं.
थोड़ी देर बाद
फिर विषय बदल गया
साड़ी के बाद वो
कुत्तों पर आ गया
बोलीं मिसेस अग्रवाल
क्यों मिसेस गुप्ता..
कैसा चल रहा है
आज कल आपका कुत्ता?
बोलीं मिसेस गुप्ता
बहुत मायूस हो कर
ठीक हुआ है अभी
काफ़ी बीमार हो कर
अभी वो ठीक से
चल नही पाता है
इसी लिए डॉक्टर
दिन में दो बार आता है.
इसी तरह ना जाने
क्या क्या टॉपिक्स
चल रहे थे
क्लब की सेक्रेटरी ने देखा
घड़ी में पाँच बज रहे थे
वो बोलीं --
लो हो गया सबके
हस्बैन्ड्स के आने का टाइम
अब मीटिंग बर्खास्त करो
और  रजिस्टर पर करो साइन.
इस तरह सब मीटिंग बर्खास्त कर
घर को चलीं गयीं
और मैं वहाँ बड़ी देर
सोचती रह गयी
ये है लेडीज़  क्लब ?
जहाँ लेडीज़  इकट्ठी हुआ करती हैं
केवल आपस के चर्चे होते हैं
या कुछ समस्याएँ
हल भी हुआ करती हैं.

( इसमें प्रयुक्त सभी नाम काल्पनिक हैं )

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(संगीता स्वरुप --- १९७२)

शुक्रवार, 10 जून 2011

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास

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भ्रमवश कुछ लोगों द्वारा 1950 के बाद के दशक को आंचलिक उपन्यासों का दशक मान लिया गय। वास्तव में यह दशक एक नये प्रकार के मुक्ति आन्दोलन से जुड़ा हुआ था। यह मुक्ति वैक्तिक भी है, सामाजिक भी। पुराने नैतिक मूल्यों से मुक्त होकर व्यक्ति खुले में सांस लेना चाहता है। देश विभाजन की समस्याएं और उसकी चिंता भी इस दशक के उपन्यासों के विषय रहे। कुल मिलाकर 1950-60 के दशक के उपन्यासों में प्रयोगात्मक विशेषता पाई जाती है। इसमें तीन पीढियों की सर्जनात्मकता का योगदान है।

१. प्रेमचंदोत्तर रचनाकार :

जैनेन्द्र, इलाचंद्र जोशी, अज्ञेय, यशपाल, मन्मथनाथ गुप्त, भगवती चरण वर्मा, वृन्दावन लाल वर्मा, अमृतलाल नागर आदि।

स्वंत्रता प्राप्ति के बाद देश के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में व्यापक परिवर्तन हुआ। विभाजन के बाद की त्रासादी दंगे के रूप में देश झेल रहा था। साथ ही आज़ाद भारत के निर्माण और विकास की प्रक्रिया भी चल रही थी। सो देश में परिवर्तन, विघटन और निर्माण की प्रक्रिया शुरु हुई। अज़ादी के जो मीठे-कड़वे अनुभव हुए उन सबको केन्द्र में रखकर महत्वपूर्ण उपन्यासों की रचना हुई।

यशपाल का ‘झूठा सच’ स्वतंत्रता पूर्व और प्राप्ति के बाद के यथार्थ को चित्रित करने वाला उपन्यास है। इसका पहला खण्ड ‘वतन और देश’ और दूसरा खण्ड ‘देश का भविष्य’ आज़ादी के पूर्व और अज़ादी के बाद के भारत की संघर्ष कथा को बड़ी सजीवता से रूपायित करते हैं। उन्हें उपन्यास और कहानी दोनों में ही सफलता प्राप्त हुई। ‘मनुष्य के रूप’ और ‘दिव्या’ उनकी अमर कृति है।

अन्य उपन्यासकारों में चतुरसेन शास्त्री (धर्मपुत्र), विष्णु प्रभाकर (निशिकांत), मन्मथनाथ गुप्त (गृहयुद्ध, तूफ़ान के बादल), भीष्म साहनी (तमस), कमलेश्वर (लौटे हुए मुसाफ़िर), जगदीश चन्द्र (मुट्ठी भर कांकर), राही मासूम रज़ा (आधा गांव), बलवन्त सिंह (काले कोस), बदीउज़्ज़मा (छाको की वापसी), भगवती चरण वर्मा (सीधी सच्ची बातें, प्रश्न और मरीचिका, वह फिर नहीं आई), और कृष्णबलदेव वैद (गुज़रा हुआ ज़माना) के नाम उल्लेखनीय हैं।

देश का विभाजन और उसकी त्रासदी इन उपन्यासों के केन्द्र में है। इन्हें पढ़ने के बाद इस शताब्दी की सबसे बड़ी त्रासदी के अनेक पहलुओं को जानने-समझने में सुविधा होती है। यह मनुष्यता के अंधकारकाल की लोमहर्षक घटनाओं का जीता-जागता चित्र है।

२. स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद वाले दशक के रचनाकार :

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पिछली पीढी के व्यक्तिवादी, समाजवादी, मनोवैज्ञानिक और ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना करने वाले उपन्यासकार स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी सक्रिय रहे। अमृतलाल नागर ने कई महत्वपूर्ण उपन्यास स्वतंत्रता के बाद वाले दौर में लिखे। उन्होंने अपने उपन्यासों में व्यक्ति और समाज के सापेक्षिक संबंध को चित्रित किया है। ‘नवाबी मसनद’, ‘सेठ बांके मल’, ‘महाकाल’, ‘बूंद और समुद्र’, ‘सुहाग के नूपुर’, ‘शंतरंज के मोहरे’, अमृत और विष’, ‘एकदा नैमिषारण्ये’, ‘बिखरे तिनके’, ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’, ‘मानस के हंस’, ‘खंजन नयन’, और ‘करवट’ जैसे उनके प्रसिद्ध उपन्यास इसी काल में प्रकाशित हुए।

अपने विस्तार और गहराई के कारण ‘बूद और समुंद्र’ काफ़ी महत्वपूर्ण उपन्यास है। इसमें बूंद व्यक्ति और समुद्र समाज का प्रतीक है। इसमें भारतीय समाज के विभिन्न रूपों, रीतियों, आचार-विचार, मर्यादाओं, व्यवस्थाओं का चित्रण बड़ी खूबी से किया गया है।

भगवती चरण वर्मा के ‘भूले बिसरे चित्र’, ‘सामर्थ्य और सीमा’, ‘सबहिं नचावत राम गोसाईं’, ‘सीधी सच्ची बातें’, उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’ के ‘गिरती दीवारें’, ‘गर्म राख’, ‘शहर में घूमता आईना’, ‘बांधो न नाव इस ठांव बन्धु’, जैसे सामाजिक उपन्यास स्वतंत्रता मिलने के २०-२५ वर्षों की अवधि में लिखे गए।

मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकारों में इलाचन्द्र जोशी के ‘मुक्ति पथ’, ‘जिप्सी’, ‘जहाज का पंछी’, ‘भूत का भविष्य’ अज्ञेय के ‘नदी के द्वीप’ (1951), ‘अपने-अपने अजनबी’ इस दशक की प्रमुख कृतियां हैं। ‘नदी के द्वीप’ को रोमैंटिक क़िस्म के व्यक्तिवादी उपन्यासों का चरम समझना चाहिए।

देवराज का ‘पथ की खोज’, नागार्जुन का ‘बलचनमा’, धर्मवीर भारती का ‘सूरज का सातवां घोड़ा’, रुद्र का ‘बहती गंगा’, और रेणु का ‘मैला आंचल’ (1954) इसी दशक के उपन्यास हैं। इन सभी उपन्यासों में जूझते हुए आदमी और समाज की अवस्थाओं को देखा जा सकता है।

3. आंचलिक उपन्यास

‘मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ जैसे आंचलिक उपन्यासों की रचना का श्रेय फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ को जाता है। प्रेमचंद के बाद रेणु ने गांव को नये सौन्दर्यबोध और रागात्मकता के साथ चित्रित किया है।

उदयशंकर भट्ट (कब तक पुकारूं), रामदरश मिश्र (पानी के प्राचीर, जल टूटता हुआ), राही मासूम रज़ा (आधा गांव), शिवप्रसाद सिंह (अलग-अलग वैतरणी), श्रीलाल शुक्ल (रागदरबारी), हिमांशु जोशी (अरण्य), शैलेश मटियानी (कबूतरखाना, दो बूंद जल), शानी (काला जल) विवेकी राय (बबूल, पुरुष पुराण, लोकऋण, सोना माटी, समर शेष है), आदि उपन्यासों की रचना करके भारत के विभिन्न अंचलों के जीवन-यथार्थ, आशा-आकांक्षा. संघर्ष-टूटन, राजनीतिक-सामाजिक पिछड़ेपन-जागृति आदि का चित्रण किया।

बुधवार, 8 जून 2011

उपन्यास साहित्य–आधुनिक युग

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३. मार्क्सवादी धारा :

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इस धारा के प्रवर्तक यशपाल जी हैं। मर्क्स ने समाज को प्रमुख रूप से दो भागों में विभक्त किया है – शोषक और शोषित। मर्क्स के विचारों से प्रभावित होकर आधुनिक साहित्यकार शोषित वर्ग की समस्याओं, कठिनाइयों, परिस्थितियों और अभावों का यथार्थ चित्रण करने लगे हैं। ऐसे साहित्य को समाजवादी यथार्थ के नाम से पुकारा जाता है। इस धारा से प्रभावित कलाकार जाति, धर्म तथा वर्ग की प्राचीन रूढ़ियों के प्रति विद्रोही होता है तथा सामाजिक संघर्षों से अधिक विषमता को देखने का प्रयास करता है।

हिन्दी-उपन्यास साहित्य के क्षेत्र में यशपाल जी का बहुत बड़ा योगदान है। अपनी विशिष्ट विचारधारा और सर्जनात्मक शक्ति के कारण यशपाल ने स्वतंत्र पहचान बना ली। वैसे तो प्रेमचंद के परवर्ती लेखन पर मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव दिखाई पड़ने लगा था किन्तु मध्यम वर्ग को आधार बना कर साम्यवादी विचारधारा को हिन्दी साहित्य में व्यापक प्रतिष्ठा दिलाने वाले यशपाल जी प्रथम कलाकार हैं। ‘गोदान’ में प्रेमचंद जी ने आदर्शवाद से बहुत-कुछ मुक्त होकर जिस यथार्थवादी दृष्टिकोण को अपनाया था, उसकी परंपरा को यशपाल ने आगे बढाया। ‘अमिता’ और ‘दिव्या’ जैसे ऐतिहासिक उपन्यासों को छोड़कर उनके सभी उपन्यास समाजवादी यथार्थ का चित्र प्रस्तुत करते हैं।

दादा कॉमरेड (1941), देशद्रोही (1943), पार्टी कॉमरेड (1946), मनुष्य के रूप (1949), झूठा सच (1958 पहला भाग और 1960 दूसरा भाग), मेरी तेरी उसकी बात (1973) आदि उपन्यासों में यशपाल की इसी विचारधारा के दर्शन होते हैं। ‘दादा कामरेड’ में पूंजीवाद, गांधीवाद और आतंकवाद का विरोध करते हुए समाजवाद का समर्थन किया गया है। ‘देशद्रोही’ 1941 की क्रांति से सम्बद्ध उपन्यास है। ‘मेरी तेरी उसकी बात’ में 1942 की क्रांति की बात है।

यशपाल जी का जन्म पंजाब के फिरोजपुर नगर में हुआ था। इनकी प्रारम्बिक शिक्षा गुरुकुल कांगड़ी में हुई। बाद में ये लाहौर के नेशनल कॉलेज में पढ़े। यही वे क्रांतिकारी भगत सिंह और सुखदेव के सम्पर्क में आए। इसके बाद सशक्त क्रान्तिकारी आन्दोलन में उन्होंने देश-विदेश के साहित्य का खूब अध्ययन किया। देश स्वतंत्र होने के बाद स्वतंत्र रूप से साहित्य सृजन में लग गए।

यशपाल में कथा कहने की अद्भुत क्षमता थी। यशपाल का ‘झूठा सच’ स्वतंत्रता पूर्व और प्राप्ति के बाद के यथार्थ को चित्रित करने वाला उपन्यास है। इसका पहला खण्ड ‘वतन और देश’ और दूसरा खण्ड ‘देश का भविष्य’ आज़ादी के पूर्व और अज़ादी के बाद के भारत की संघर्ष कथा को बड़ी सजीवता से रूपायित करते हैं। इस उपन्यास ने सिद्ध कर दिया कि यशपाल बहुत विशाल फलक पर जीवन के विविध रूपों, आयामों, समस्याओं और जटिलताओं को अपने ढ़ंग से प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं। इसलिए इस उपन्यास को औपन्यासिक महाकाव्य की संज्ञा दी जा सकती है।

कहानी संग्रह :: ज्ञानदान, अभिशाप, तर्क का तूफ़ान, वो दुनिया, भस्मावृत, चिनगारी, फूलों का कुर्ता, धर्मयुग, उत्तराधिकारी, उत्तमी की मां।

यशपाल के अतिरिक्त इस धारा के प्रमुख उपन्यासकारों में रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ का नाम उल्लेखनीय है। ‘चढ़ती धूप’ (1945), `नयी इमारत’ (1946), ‘उल्का’ (1947) और ‘मरुप्रदीप’ (1951) उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। यथार्थ के प्रति रुझान होने पर भी उन्होंने कथा-विन्यास में कल्पना की अतिशयता रखी है। इसलिए इनमें जीवन की द्वन्द्वात्मक चेतना अपनी पूरी शक्ति से नहीं उभर पायी है।

अमृतराय, भगवत शरण, उपेन्द्रनाथ अश्क, रागेय राघव (घरौंदे, विषाद मठ,), मन्मथनाथ गुप्त (शोले, माशाल) आदि का नाम भी आदर के साथ लिया जाता है।

४. राजनीतिक धारा :

गुरुदत्त और यज्ञदत्त शर्मा को इस धारा का प्रवर्तक माना जा सकता हिअ। यद्यपि उनके उपन्यासों में अन्तर है तथापि इन दोनों उपन्यासकारों की पृष्ठभूमि राजनीतिक ही है। गुरुदत्त ने प्राचीन कड़ियों का आश्रय लेकर राजनीतिक उपन्यासों का प्रणयन किया है। बहती रेखा, गुंठन, मानव, विश्वासघात, वाममार्ग, प्रकृति, छाया, आदि उपन्यास उनकी इस धारा के सूचक हैं।

इस धारा से अनुप्राणित होकर यज्ञदत्त शर्मा के इंसान, महाराव का काम, इंसाफ़, दो पहलु, आदि उपन्यास हैं।

मंगलवार, 7 जून 2011

अपहृत लोकतंत्र

अपहृत लोकतंत्र

अरुण चन्द्र रॉय

शनिवार यानी ४ जून को बाबा रामदेव और मैं दोनों बहुत व्यस्त थे. एक ओर जहाँ बाबा रामदेव रामलीला मैदान में देश में काले धन के मुद्दे पर अनशन पर बैठे थे, वहीं दूसरी ओर  मैं एक बड़े रियल एस्टेट कंपनी के नए प्रोजेक्ट लांच की तैयारियो के सिलसिले में उनकी कारपोरेट फिल्म बनाने के लिए भिवाड़ी के औद्योगिक क्षेत्रों और कंपनी के प्रोजेक्टों की शूटिंग कर रहा था.

मेरे साथ दिल्ली के एक बड़े विज्ञापन एजेंसी के मालिक जिनका उठाना बैठना देश के बड़े उद्योगपतियों, मीडिया के लोगों, बालीवुड की हस्तियों और तारिकाओं के साथ होता है, वे भी थे. दिन भर उनका मोबाइल फोन बजता रहा और सबका एक ही सवाल था बाबा रामदेव का अनशन यदि अधिक दिनों तक चला तो क्या होगा. मेरे मित्र के चेहरे पर बैचैनी आसानी से पढ़ी जा सकती थी.

मेरे सामने भिवाड़ी में बड़े बड़े प्रोजेक्ट थे. भिवाड़ी में होंडा सील एशिया का सबसे बड़ा संयत्र और वेयरहाउस लगा रहा है. साथ में कई और भी बड़ी परियोजनाएं आ रही हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जमवाडा होने वाला है यहाँ. यही कारण है कि रियल एस्टेट भी बड़ी तैयारियों में है यहाँ. हाइवे चौड़ा हो रहा है, बिजली आ रही है. यानी पूरा कायाकल्प हो रहा है.

इस सुनहरे दौर के बाद संयोग से मुझे भिवाड़ी के पुराने औद्योगिक क्षेत्र जाने का मौका भी मिला. वहां भारतीय कंपनिया थी, छोटे उद्यमी थे, पारंपरिक उद्योग थे.. जो रुग्ण अवस्था में मिले. दयनीय स्थिति थी वहां. सड़के खराब, बिजली नहीं थी. और यह स्थिति कमोबेश सभी औद्योगिक परिसरों में है. अभी अभी आकडे आये हैं कि अपने देश में विनिर्माण (मैनुफेक्चरिंग) क्षेत्र में ५% की कमी आई है. जबकि अन्य विकासशील देशों जिसमे चीन शामिल है इस क्षेत्र में १०% तक की बढ़ोतरी हुई है. यह इस बात का द्योतक है कि अपने देश में उद्योग का फोकस बदल गया है और दीर्घावधि में यह रुझान देश के लिए ठीक नहीं. लेकिन जब नेतृत्व ही देश के बारे में नहीं सोच रहा तो उद्योग, व्यापार को क्या फ़िक्र पड़ी है.

एक और बात जो सामने आ रही है इन दिनों वह यह  कि नई पीढी का उद्यमी चीन और अन्य देशों से आयात करना बेहतर समझता है, बनिस्बत अपने यहाँ निर्माण करने के. इसके पीछे उनके अपने तर्क हैं जिसमे भ्रष्ट्राचार और लालफीताशाही शामिल हैं. साथ में नई उद्योग नीति भी ऐसी बन रही है जिसमे भारत बाज़ार तो बन रहा है लेकिन निर्माण हब नहीं बन रहा. इसके दुष्परिणाम आने वाली पीढ़ियों को भुगतने होंगे, यह तय है.

मैं कहाँ से कहाँ चला गया. वापिस आता हूँ अपने बेचैन मित्र पर. वास्तव में वह बैचैनी मेरे मित्र की ही नहीं थी बल्कि यह बैचैनी समूचे उद्योग और व्यापार तबका का था जो इस काले धन और भ्रष्ट्राचार के मुद्दे का शमन यही करना चाहता है. राजनेताओं के साथ साथ छोटे बड़े उद्यमी, व्यापारी, रियल एस्टेट, निवेशक सब काले धन के वाहक हैं और सबसे आसानी से काला धन रियल इस्टेट में निवेश हो जाता है और हो रहा है. ऐसे में बाबा रामदेव के धरने, अनशन से  सबसे ज़्यादा डरा हुआ भी यही तबका था. लेकिन दोपहर के बाद मैंने अपने बेचैन मित्र को उतना बैचैन नहीं देखा. अब जो भी फ़ोन आ रहे थे उसमे बस यही कहा जा रहा था कि बाबा को वापिस उतराखंड भेज दिया जायेगा. मुझे पहले तो यह स्ट्रेस ब्रस्टर  टिप्स लगा लेकिन रविवार की सुबह की घटनाक्रम के बाद मेरा विश्वास पक्का था कि बाबा रामदेव का इंतजाम जितना राजनीतिक भय था उससे कहीं अधिक उद्योग और व्यापार के लोगों की शह पर हुआ है.

जिस तरह उद्योग जगत इन दिनों चुनावों में राजनीतिक दलों को वित्त मुहैया करता है उस से लग रहा है कि मानों लोकतंत्र अपहृत हो गया हो. बाबा रामदेव प्रकरण से यह बात अधिक स्पष्ट हो गई है. इस बीच मेरी कारपोरेट फिल्म तैयार हो गई है और मेरे क्लाइंट का नया रियल एस्टेट प्रोजेक्ट बुधवार को राजधानी के एक पांचतारा होटल में विधिवत लांच हो रहा है.

सोमवार, 6 जून 2011

ज़िंदगी और असमानंतर रेखाएं


अक्सर 
रेल कि पटरियों को
देखते हुए
सोचती हूँ
रेल
कितनी सुगमता से
भागती है इन
समानांतर  रेखाओं पर
और पहुँच जाती  है
अपने गंतव्य पर
लेकिन ज़िंदगी की
गाड़ी के लिए
न तो समानांतर
पटरियां हैं
और न ही
निश्चित व्यास लिए
पहिये ही ..
वक्त ज़रूरत पर
गाड़ी स्वयं ही
संतुलित करती है
अपने पहियों को
और दौड जाती है
बिना पटरियों के भी .
ज़िंदगी भी तो
अपना गंतव्य
पा ही जाती है ....



संगीता स्वरुप

शनिवार, 4 जून 2011

आओ मिल जाएँ हम सुगंध और सुमन की तरह


                          Salil Varma 
- सलिल वर्मा
(एक घोषणा: मुझमें भाषा की कोई समझ नहीं है और ना ही मैं साहित्य का विद्यार्थी रहा हूँ. यह आलेख एक सामान्य जानकारी और साधारण जिज्ञासा का परिणाम है, जो किसी भी व्यक्ति के मन में जागृत हो सकती है. इसलिए इस आलेख को उसी आलोक में ग्रहण किया जाए.)
भाषा और राजभाषा की चर्चा से पूर्व एक पहेली. भारतवर्ष की एक ऐसी भाषा का नाम बताएं जो पाँच अक्षरों के मेल से बनी है और जिसे उलटा सीधा दोनों तरफ से एक समान पढ़ा जा सकता है. अगर आपका उत्तर है मलयालम, तो मैं कहूँगा, गलत जवाब! और मेरी बात यहीं से आरम्भ होती है. मलयालम शब्द वस्तुतः मलयाळम है, अतः इसे उलटा पढने पर, इस शब्द में और का स्थान परिवर्तित हो जाएगा, साथ ही उच्चारण भी. अब आप समझ गए होंगे कि आपका उत्तर क्यों और कैसे गलत है.
हिन्दी से राजभाषा के रूप में परिचय अपनी नौकरी के सिलसिले में हुआ. भारत सरकार के उपक्रम में कार्य करने के कारण हिन्दी दिवस, हिन्दी कार्यशाला आदि के माध्यम से राजभाषा के रूप में हिन्दी की उपयोगिता जानने को मिली. बताया गया कि देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली यह भाषा अत्यंत सरल है और इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि शब्दों को जिस प्रकार उच्चारित किया जाता है, ठीक वैसे ही इन्हें लिपिबद्ध भी किया जाता है. अर्थात, जैसा उच्चारण, वैसा ही लेखन या हिज्जे. एक और विशेषता यह भी बताई गयी कि इस भाषा ने कई स्थानीय, प्रादेशिक, देशज व विदेशज शब्दों को सहज ही सामाहित कर लिया है, जिसके कारण वे शब्द हिन्दी का ही एक अभिन्न अंग प्रतीत होते हैं.
मेरे विचार से इसी उदारता के कारण हमारी वर्णमाला की सीमा का भी पता चला. कालान्तर में कई ऐसे स्वर, व्यंजन अथवा मात्राएं प्रयोग में लाई गईं, जो हिन्दी-वर्णमाला में नहीं थीं. कारण स्पष्ट है कि देवनागरी की वर्णमाला हिन्दी शब्दों के लिए थी, न कि हिन्दी इतर भाषाओं के लिए. न वे शब्द थे हिन्दी में, न उनको लिखने के लिए हमारे पास वर्णमाला में अक्षर थे; न वे ध्वनियाँ थीं, न उनको लिपिबद्ध करने के लिए हमारे पास मात्राएं थीं.
विज्ञापन की दुनिया ने इस आवश्यकता का सर्वाधिक बोध कराया, जब कई शब्द अंग्रेज़ी से हू-ब-हू लिप्यांतरित कर दिए गए. एक विज्ञापन की टैग लाइन है “Go get it!”. यदि इसे देवनागरी में लिखा जाए तो एक शब्द व्यवधान पैदा करता है. वह शब्द है “Get”. हिन्दी में Get और Gate दोनों को गेट ही लिखा जाता है. किन्तु पहले शब्द की ध्वनि, दूसरे स्वर की ध्वनि से भिन्न है अर्थात उच्चारण भिन्न. यही बात College शब्द के भी साथ दिखाए देती है. बिहार में जहां इसे कौलेज कहा जाता है, वहीं यू.पी. में कालेज. जबकि इस शब्द का उच्चारण दोनों के मध्य कहीं पर है.
दक्षिण भारतीय भाषाओं में यह समस्या नहीं है. वहाँ की वर्णमाला में स्वर , और तथा , और सम्मिलित हैं. जिस कारण वे इस प्रकार लिखते हैं:
Get: गॅट        Gate: गेट     College: कॉलेज
मराठी और दक्षिण भारतीय भाषाओं में एक अक्षर है जिसका उच्चारण, हिन्दी के से भिन्न है. किन्तु इसे भी हम के स्थानापन्न के रूप में प्रयोग करते हैं. जबकि किसी मराठी माणूस को पूछ कर देखें तो दलवी और काले बिलकुल अलग हैं दळवी और काळे से.
पिछले दिनों कनिमोड़ी के समाचारों में बने रहने के कारण, उनके नाम की कई हिज्जे देखने को मिली. दक्षिण भारतीय भाषाओं में एक अक्षर है इसका उच्चारण बड़ा कठिन है, क्योंकि इसमें जीभ को घुमाकर कंठ की ओर ले जाकर एक ध्वनि उत्पन्न की जाती है, जो हिन्दी के और ड़ के बीच की ध्वनि है. रोमन लिपि में इसे “Zha” लिखने का प्रचलन है और अंग्रेज़ी का अंधानुकरण करने के कारण हम कभी कनिमोझी, कभी कनिमोज़ी लिखते और बोलते हैं. पहले इस अक्षर को में नुक्ता लगाकर लिखा जाता था.
उर्दू और हिन्दी के संबंधों पर तो कई चर्चाएं और बहस हुईं है. ग़ालिब और मीर भी देवनागरी में लिप्यांतरित होकर उपलब्ध हैं. उर्दू के कई शब्दों को हमने देवनागरी के अक्षरों के नीचे बिंदी लगाकर अपना लिया है जैसे ग़ालिब, ज़ेवर, फ़रमाइश आदि.
आज जब लिप्यान्तरण, अनुवाद तथा साझेदारी, भाषा को समृद्ध कर रही है (अंग्रेज़ी शब्दकोष में हिन्दी भाषा से लिए गए शब्द Loot, Dacoity, Bandh, Gherao आदि) तो आवश्यकता है कि उनको ससम्मान स्वीकार किया जाए; इसके लिए चाहे क्यों न हिन्दी वर्णमाला, मात्राओं आदि में स्वल्प परिवर्तन करना पड़े. प्रांतीय भाषाओं को अंतर नहीं पड़ता, किन्तु राजभाषा और राष्ट्रभाषा होने के लिए यह अनिवार्य है कि हिन्दी के सुमन से अन्य भाषाओं की सुगंध साहित्य को सुवासित करे.