मंगलवार, 30 अगस्त 2011

यथार्थवादी और समस्या नाटक का विकास

नाटक साहित्य-13

यथार्थवादी और समस्या नाटक का विकास

बीसवीं शताब्दी का दूसरा दशक समाप्त होते-होते सामाजिक जीवन के यथार्थ को लक्ष्यकर सामाजिक नाटक लिखे जाने लगे। इसमें इब्सन के ढर्रे के सामाजिक नाटक या समस्या नाटक की शैली का अनुकरण किया गया। ऐसे नाटक को यथार्थमूलक या समस्यामूलक नाट्क भी कह सकते हैं। इनके कथानक सामाजिक और तात्कालिक समस्याओं पर आधारित होते थे।

सामाजिक मसले ऐसे होते हैं, हम आए दिन उन पर तर्क-वितर्क करते रहते हैं। समस्या नाटकों में भी इन्हीं तर्क-वितर्क पर पात्रों के माध्यम से बल दिया जाता है। जहां एक ओर परम्परागत रूढ़िवादी मूल्य-व्यवस्था का समर्थन करते हैं वहीं दूसरी ओर नई पीढ़ी उन मूल्यों का विरोध। यह टकराहट इन नाटकों का केन्द्र बिन्दु होता है। इस टकराहट से पारिवारिक और सामाजिक जीवन में तनाव उत्पन्न होता है। उन तनावपूर्ण अवस्थाओं का यथातथ्य रूप समस्या नाटकों में प्रकट होता है। ऐसे नाटकों का मूल स्वर सामाजिक कुरीतियों की प्रस्तुति है। इस तरह की प्रस्तुति में परम्परा का तिरस्कार मिलता है।

बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक में कई ऐसे प्रहसन और व्यंग्य पर आधारित सामाजिक नाटक लिखे गए जिनमें यथार्थ परक जीवन-चित्रण का आभास मिलता है। लेकिन इनमें इन रूढ़ियों के तोड़ने का वैसा प्रबल आग्रह नहीं है जैसा कि बाद के दिनों में प्रस्तुत समस्या-मूलक नाटकों में प्रकट हुआ।

लक्ष्मी नारायण मिश्र

लक्ष्मी नारायण मिश्र ने एक समस्या नाटक लिखा था, “मुक्ति का रहस्य”। इसकी भूमिका में उन्होंने सामाजिक या समस्या नाटकों के शिल्प और संवेदना के स्वरूप पर विस्तार से चर्चा की है। ऐसे नाटकों में समसामयिक प्रश्नों की जहां तक संभव हो तथ्य पर आधारित अभिव्यक्ति की जाती है। इस तरह की अभिव्यक्ति में नाटककार की बौद्धिक सोच की ईमानदारी बहुत महत्व रखती है। इन्होंने ‘अशोक’ (1927), ‘संन्यासी (1929), ‘मुक्ति का रहस्य’ (1932), ‘राक्षस का मंदिर’ (1932), ‘राजयोग’ (1934), ‘सिंदूर की होली’ (1934), ‘आधी रात’ (1934), आदि नाटकों की रचना की।

प्रसाद जी से भिन्न मार्ग पर चलकर उन्होंने हिंदी नाटक साहित्य को नया मोड़ दिया। ‘संन्यासी’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है, “इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने का काम इस युग के साहित्य में वांछनीय नहीं है।” ‘संन्यासी’ नाटक के साथ हिंदी-नाटक के विषय और शिल्प दोनों में बदलाव आया। उनके सभी नाटक तीन अंकों के हैं। अंकों का विभाजन दृश्यों में नहीं किया गया है। उनके नाटकों के शिल्पविधान पर अंगरेज़ी के यथार्थवादी नाटकों का प्रभाव पड़ा प्रतीत होता है।

‘संन्यासी’ से ‘आधी रात’ तक अपने सभी नाटकों में उन्होंने सामाजिक समस्याओं को आधार बनाया है। उन्होंने विशेष रूप से नारी की स्थिति और उसकी समस्याओं को अपने दृष्टिकोण से चित्रित किया। शिक्षा के प्रसार, स्वातंत्र्य आन्दोलन और नवीन जीवन दर्शन के कारण आधुनिक नारी का ऐसा रूप सामने आया, जिससे हमारा समाज अब तक अपरिचित था। प्रेम और विवाह, प्रणय और दाम्पत्य, काम और नैतिकता विषयक अनेक समस्याएं सहसा उपस्थित हो गईं। मिश्र जी ने इन समस्याओं को उठाते समय सामाजिक वैषम्य की पृष्ठभूमि में नारी और पुरुष के संबंधों का चित्रण किया। समस्याओं के समाधान के लिए उन्होंने बुद्धिवादी दृष्टिकोण का आग्रह रखा। हालाकि उनके नाटकों की नारियां अपने काम-संबंधों में पर्याप्त स्वतंत्रता बरतती हैं और इस कारण उनका चरित्र पहली दृष्टि में भारतीय मान्यताओं के प्रतिकूल दीख पड़ता है, पर गहराई में जाकर देखने से विदित होता है कि उनकी जीवन-दृष्टि मूलतः भारतीय है। ‘मुक्ति का रहस्य’ में पश्चिम के उन्मुक्त प्रेम पर भारतीय दांपत्य-विधान की विजय और ‘सिंदूर की होली’ में विधवा विवाह और नारी-उद्धार के प्रति मनोरमा के दृष्टिकोण से इस कथन की पुष्टि होती है।

अंबिकादत्त त्रिपाठी (सीय-स्वयंवर), रामचरित उपाध्याय (देवी द्रौपदी), रामनरेश त्रिपाठी (सुभद्रा), गंगाप्रसाद अरोड़ा (सावित्री-सत्यवान), गौरीशंकर प्रसाद (अजामिलचरित), वियोगी हरि (छद्मयोगिनी), बेचन शर्मा ‘उग्र’ (महात्मा ईसा) आदि इस काल के कुछ ऐसे नाटककारों के नाम हैं जिन्होंने अपने प्रहसनों और व्यंग्य प्रधान सामाजिक नाटकों में उस समय के समाज की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक-धार्मिक बुराइयों को सामने लाने का प्रयास किया। हालाकि वे सुधार की भावना से प्रेरित थे, लेकिन उनमें रूढ़ियों के प्रति विद्रोह का स्वर प्रमुख नहीं था।

मिश्र बंधुओं द्वारा लिखा हुआ नाटक “नेत्रोन्मीलन” (1915), प्रेमचन्द का “संग्राम” (1922), राजा लक्ष्मण सिंह का “ग़ुलामी का नशा” (1922) आदि प्रहसनों में यथार्थवादी दृष्टि का अधिक विकसित रूप मिलता है, फिर भी उनकी वस्तु निरूपण शैली प्रहसनात्मक ही है। हास्य रस इन रचनाओं के केन्द्रीत लक्ष्य हैं। वैचारिकता को केन्द्र विषय बनाकर ये नाटक नहीं रचे गए।

सोमवार, 29 अगस्त 2011

जनतन्त्र के सूर्योदय में

धूमिलधूमिल की कविता-4

जनतन्त्र के सूर्योदय में

रक्तपात –
कहीं नहीं होगा
सिर्फ़ एक पत्ती टूटेगी!
एक कन्धा झुक जायेगा!
फड़कती भुजाओं और सिसकती हुई आँखों को
एक साथ लाल फीतों में लपेटकर
वे रख देंगे

काले दराज़ों के निश्चल एकान्त में
जहाँ रात में
संविधान की धाराएँ
नाराज़ आदमी की परछाईं को
देश के नक्शे में
बदल देती है

पूरे आकाश को
दो हिस्सों में काटती हुई
एक गूँगी परछाईं गुज़रेगी
दीवारों पर खड़खड़ाते रहेंगे
हवाई हमलों से सुरक्षा के इश्तहार
यातायात को
रास्ता देती हुई जलती रहेंगी
चौरस्तों की बस्तियाँ

सड़क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा
पीला अन्धकार
शहर की समूची
पशुता के खिलाफ़
गलियों में नंगी घूमती हुई
पागल औरत के 'गाभिन पेट' की तरह
सड़क के पिछले हिस्से में
छाया रहेगा पीला अन्धकार
और तुम
महसूसते रहोगे कि ज़रूरतों के
हर मोर्चे पर

तुम्हारा शक
एक की नींद और
दूसरे की नफ़रत से
लड़ रहा है
अपराधियों के झुण्ड में शरीक होकर
अपनी आवाज़ का चेहरा टटोलने के लिए
कविता में
अब कोई शब्द छोटा नहीं पड़ रहा है:
लेकिन तुम चुप रहोगे
तुम चुप रहोगे और लज्जा के
उस गूंगेपन-से सहोगे –
यह जानकर कि तुम्हारी मातृभाषा
उस महरी की तरह है जो
महाजन के साथ रात-भर
सोने के लिए
एक साड़ी पर राज़ी है
सिर कटे मुर्गे की तरह फड़कते हुए
जनतन्त्र में
सुबह –
सिर्फ़ चमकते हुए रंगों की चालबाज़ी है
और यह जानकर भी तुम चुप रहोगे
या शायद वापसी के लिए पहल करनेवाले –

आदमी की तलाश में

एक बार फिर
तुम लौट जाना चाहोगे मुर्दा इतिहास में
मगर तभी –
य़ादों पर पर्दा डालती हुई सबेरे की
फिरंगी हवा बहने लगेगी

अख़बारों की धूल और
वनस्पतियों के हरे मुहावरे
तुम्हें तसल्ली देंगे
और जलते हुए जनतन्त्र के सूर्योदय में
शरीक़ होने के लिए
तुम चुपचाप अपनी दिनचर्या का
पिछला दरवाज़ा खोलकर
बाहर आ जाओगे
जहाँ घास की नोक पर
थरथराती हुई ओस की एक बूंद
झड़ पड़ने के लिए
तुम्हारी सहमति का इन्तज़ार
कर रही है।

एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।..



एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।


इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए,
कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए,
इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े,
और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए!
किंतु शहीदों की आहों से शापित लोहा, कच्चा धागा।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।


जय बोलो उस धीर व्रती की जिसने सोता देश जगाया,
जिसने मिट्टी के पुतलों को वीरों का बाना पहनाया,
जिसने आज़ादी लेने की एक निराली राह निकाली,
और स्वयं उसपर चलने में जिसने अपना शीश चढ़ाया,
घृणा मिटाने को दुनियाँ से लिखा लहू से जिसने अपने,
“जो कि तुम्हारे हित विष घोले, तुम उसके हित अमृत घोलो।”
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।


कठिन नहीं होता है बाहर की बाधा को दूर भगाना,
कठिन नहीं होता है बाहर के बंधन को काट हटाना,
ग़ैरों से कहना क्या मुश्किल अपने घर की राह सिधारें,
किंतु नहीं पहचाना जाता अपनों में बैठा बेगाना,
बाहर जब बेड़ी पड़ती है भीतर भी गाँठें लग जातीं,
बाहर के सब बंधन टूटे, भीतर के अब बंधन खोलो।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।


कटीं बेड़ियाँ औ’ हथकड़ियाँ, हर्ष मनाओ, मंगल गाओ,
किंतु यहाँ पर लक्ष्य नहीं है, आगे पथ पर पाँव बढ़ाओ,
आज़ादी वह मूर्ति नहीं है जो बैठी रहती मंदिर में,
उसकी पूजा करनी है तो नक्षत्रों से होड़ लगाओ।
हल्का फूल नहीं आज़ादी, वह है भारी ज़िम्मेदारी,
उसे उठाने को कंधों के, भुजदंडों के, बल को तोलो।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।





हरिवंश राय बच्चन

रविवार, 28 अगस्त 2011

मानव सेवा

प्रेरक प्रसंग – 1

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सेवाग्राम आश्रम में एक दिन सुबह एक व्यक्ति बापू की झोपड़ी में आया। बापू उसे पहचान गये। वह एक राजनीतिक कार्यकर्ता था और कई बार जेल हो आया था। वे थे पंडित परचुरे शास्त्री। वे संस्कृत के महान विद्वान थे। उनको कुष्ठ रोग हो गया था। इस रोग से वे काफ़ी परेशान रहते थे। अछूत की भांति इधर-उधर घूमते रहते थे। तकलीफ़ काफ़ी बढ़ गई और वे अपने जीवन से उकता चुके थे। उन्होंने निश्चय किया कि वे अनशन करके अपना प्राण त्याग देंगे। वे हरिद्वार में बहुत दिनों तक एकांतवास भी करते रहे। उस दिन वे पैदल चलकर बापू के दर्शन करने आए थे।

बापू की बातें सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए। बोले, “अब मैंने आपके दर्शन कर लिए हैं। मैं वह सूत भी लाया हूं जो मैंने आपके लिए काता है। मैं आपको ख़ुद भेंट करना चाहता था। मैं आज रात एक पेड़ के नीचे आराम करूंगा। सुबह चला जाऊंगा।”

गांधी जी ने शास्त्री जी से कहा, “यह तुमने क्या सोच लिया। तुम्हें उपवास करके प्राण नहीं त्यागना है। मैं ऐसा नही करने दूंगा।”

DSCN1459बापू पर उसकी श्रद्धा का बहुत प्रभाव पड़ा। पूरी रात वे सोचते रहे कि उसे जाने दें या आश्रम में ही रख लें। आखिर उन्होंने निश्चय किया कि उसे आश्रम में ही रखेंगे। गांधी जी ने अपनी कुटिया से क़रीब 200 फुट की दूरी पर परचुरे शास्त्री जी के लिए एक कुटीर बनवाया। इस प्रकार वे दिन रात उनकी देख भाल करते थे। जब भी टहलते हुए उधर से गुज़रते उनका हाल-चाल पूछते। क्या खाना-पीना है, यह सब उन्हें बताते।

हर दिन की तरह एक दिन जब गांधी जी उनके पास गए और उनका हाल चाल पूछा तो शास्त्री जी ने बताया, “रात को बड़ा कष्ट हुआ। दर्द बहुत हो रहा था और नींद भी नहीं आई।”

गांधी जी अपनी कुटिया वापस आए और धूप में एक खटिया डाली। शास्त्री जी को बुला कर उस पर लिटाया। सरसों के तेल से उनकी मालिश करने लगे। पूरी एकाग्रता, प्यार और स्नेह से बात भी करते गए और उनकी मालिश भी। यह क्रम रोज़ ही चलता गया। शास्त्री जी को काफ़ी राहत मिली। फ़ायदा भी होने लगा।

शनिवार, 27 अगस्त 2011

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,… हरिवंश राय बच्चन

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नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!

वह उठी आँधी कि नभ में
छा गया सहसा अँधेरा,
धूलि धूसर बादलों ने
भूमि को इस भाँति घेरा,

रात-सा दिन हो गया, फिर
रात आ‌ई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,

रात के उत्पात-भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण
किंतु प्राची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!

वह चले झोंके कि काँपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़-पुखड़कर
गिर पड़े, टूटे विटप वर,

हाय, तिनकों से विनिर्मित
घोंसलो पर क्या न बीती,
डगमगा‌ए जबकि कंकड़,
ईंट, पत्थर के महल-घर;

बोल आशा के विहंगम,
किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन पर चढ़ उठाता
गर्व से निज तान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!

क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों
में उषा है मुसकराती,
घोर गर्जनमय गगन के
कंठ में खग पंक्ति गाती;

एक चिड़िया चोंच में तिनका
लि‌ए जो जा रही है,
वह सहज में ही पवन
उंचास को नीचा दिखाती!

नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से
सृष्टि का नव गान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्णान फिर-फिर!

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

संसद में जन लोकपाल बिल

संसद में जन लोकपाल बिल


अरुण चन्द्र रॉय

पिछले दस दिनों से देश अन्नामय है. जनता जिन अहिंसक आंदोलनों, क्रांति जो इतिहास की किताबों में था वह निकल कर रामलीला मैदान में आ गया है. इस से पूर्व जो छोटे मोटे आन्दोलन हुए हैं उनमे और इस आन्दोलन में एक भारी फर्क है. दिल्ली जैसे व्यस्त शहर में कोई ट्रैफिक जाम नहीं हुआ है. कोई तोड़ फोड़ या जबरदस्ती बंद नहीं हुआ है. फिर भी औसतन साठ हज़ार लोग रोज़ रामलीला मैदान पहुचे हैं. सब स्व प्रेरणा से हुआ है. राजनीतिक रैलियों की तरह कोई भाड़े पर नहीं आया है. कोई बिना टिकट यात्रा करके नहीं आया है. कोई जबरदस्ती बस को खींच कर नहीं लाया है.

उलटे कई ऐसे ऑटो ड्राइवर मिले हैं जिन्होंने फ्री सेवा दी है रामलीला मैदान तक. संक्षेप में कहें तो एक नया इतिहास लिखा जा रहा है.
इन सब के बीच राजनीतिक पार्टियां बार बार संसद की दुहाई दे रही हैं कि संसद सर्वोच्च है. लेकिन संसद की गरिमा कहाँ चली जाती है जब हमारे सांसद माइक उखाड़ कर एक दूसरे पर दे मारते हैं. ऐसे कई उदहारण हैं जब हमारे माननीय सांसदों के व्यवहार से हमारे संसद और लोकतंत्र को शर्मशार होना पड़ा है. एक उदहारण देखिये इस विडिओ में.
(http://www.metacafe.com/watch/86775/goverment_brawl_in_india/)

साथ ही,  सभी राजनीतिक पार्टियां एक सुर में कह रही हैं कि जन लोक पाल बिल को ३० अगस्त तक संसद में पास नहीं कराया जा सकता है. इस बारे में कुछ अधिक तो नहीं जनता मैं लेकिन मुझे याद आ रहा है कि २००९ के बजट सत्र में कई महत्वपूर्ण बिल संसद में बिना बहस के पास हुए. इकोनोमिक टाइम्स ने बहुत रोचक शीर्षक दिया था उस समय :"These days, bills get passed in Parliament faster than a T20 match". चौदहवी लोकसभा में स्पेशल इकोनोमिक ज़ोन एक्ट  जो कि किसी भी तरह से कम महत्वपूर्ण बिल नहीं था, को लोकसभा ने दो घंटे से कम के बहस में पास कर दिया था, जबकि इस बिल से हजारों किसानो का भविष्य जुड़ा था. भूमि अधिग्रहण जैसे मामले इस से जुड़े थे. इसी लोकसभा में ७००,००० करोड़ रूपये वाला भारतीय बजट जिस से हर एक भारतीय का जीवन प्रभावित होता है, केवल छः से दस घंटे के बहस में पास हो गया था. मार्च २००९ के सत्र में केवल २० मिनट में संसद ने ३६ में से १६ बिल को पास कर दिया था और बिना बहस के सभी सांसदों की सहमति बन गई थी. सांसदों के वेतन, भत्ते और अन्य सुविधाओं से जुड़े बिल बिना किसी बहस के पास हो जाते हैं. भूमि अधिग्रहण एवं पुनर्वास अधिनियम जैसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील बिल को लोकसभा ने २००८ में बिना बहस के पास कर दिया था जबकि राज्य सभा में जाकर यह अटक गई. यदि देखें तो दिनों दिन दोनों सदनों में बिलों पर बहस का समय लगातार घट रहा है. एक तो बैठकों के दिन कम रहे हैं दूसरे महत्वपूर्ण समय लोकसभा विपक्ष के वाकआउट में चला जाता है. ऐसे में यदि राजनीतिक दल कहते हैं कि जन लोकपाल बिल पर बहस कराया जाना और बिल पास करना संभव नहीं है तो यह विश्वसनीय नहीं लगता.

आज अन्ना को अनशन पर बैठे ११ दिन हो गए हैं. इतने दिनों में गंभीर सरकार इस बिल पर संसद के दोनों सदनों में चर्चा करा सकती थी. जो बातें आज हो रही हैं (इस आलेख के पढ़े जाने तक संसद में जन लोक पाल बिल पर चर्चा हो रही होगी) वह १६ अगस्त को भी हो सकती थी. लेकिन सरकार इस मुहिम की गंभीरता से प्रायः अनिभिज्ञ रही होगी. आज सरकार को अन्ना को मिल रहा जनसमर्थन चौंका रहा है.

१५वीं लोकसभा के पांचवे सत्र यानी २०१० के मानसून सत्र में लोकसभा में १८ बिल पेश हुए और पुराने लंबित बिलों को मिला कर २१ बिल पास हुए इसमें अधिकाश बिल बिना चर्चा के पास हुए जबकि कई बिल ऐसे थे जिनका देश के आम जन पर दूरगामी प्रभाव पड़ा है. इसी सत्र में संसद सदस्य के वेतन, भत्तों और पेंशन से जुड़ा बिल भी था जो बिना चर्चा हुए पास हो गया था. इसी तरह राज्य सभा के २२०वें सत्र (मानसून सत्र २०१०) में आठ बिल पेश हुए थे और लंबित बिलों को मिला कर कुल २१ बिल पास हुए. संसद सदस्य के वेतन, भत्ता और पेंशन (संशोधन) बिल २०१० पर राज्य सभा पर भी चर्चा नहीं हुई.  लेकिन जनलोकपाल बिल पर हमारे राजनीतिक दल देशवासियों को संसदीय प्रक्रिया की सीख दे रहे हैं.

यदि जन लोकपाल पर सभी राजनीतिक पार्टियों और सरकार ने इच्छा शक्ति दिखाई होती तो अन्ना का अनशन ग्यारहवें दिन नहीं पंहुचा होता. किन्तु जिस संसद के एक तिहाई सदस्य आपराधिक पृष्ठभूमि के हों उस सदन से सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक सशक्त लोकपाल का पास होना एक चुनौती से कम नहीं है. जो भी हो, देश को एक गाँधी और देशवासियों को राजनीतिक दलों और अपने प्रतिनिधियों को जानने का मौका मिला है.

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

दुनिया

रघुवीर सहाय की कविताएं 2

दुनिया

हिलती हुई मुँडेरें हैं और चटखे हुए हैं पुल
बररे हुए दरवाज़े हैं और धँसते हुए चबूतरे

दुनिया एक चुरमुरायी हुई-सी चीज़ हो गई है
दुनिया एक पपड़ियायी हुई-सी चीज़ हो गई है

लोग आज भी खुश होते हैं
पर उस वक़्त एक बार तरस ज़रूर खाते हैं
लोग ज़्यादातर वक़्त संगीत सुना करते हैं
पर साथ-साथ और कुछ ज़रूर करते रहते हैं
मर्द मुसाहबत किया करते हैं, बच्चे स्कूल का काम
औरतें बुना करती हैं - दुनिया की सब औरतें मिलकर
एक दूसरे के नमूनोंवाला एक अनंत स्वेटर
दुनिया एक चिपचिपायी हुई-सी चीज़ हो गई है।

लोग या तो कृपा करते हैं या खुशामद करते हैं
लोग या तो ईर्ष्या करते हैं या चुगली खाते हैं
लोग या तो शिष्टाचार करते हैं या खिसियाते हैं
लोग या तो पश्चाताप करते हैं या घिघियाते हैं
न कोई तारीफ़ करता है न कोई बुराई करता है
न कोई हँसता है न कोई रोता है
न कोई प्यार करता है न कोई नफ़रत
लोग या तो दया करते हैं या घमंड
दुनिया एक फँफुदियायी हुई-चीज़ हो गई है।

लोग कुछ नहीं करते जो करना चाहिए तो लोग करते क्या हैं
यही तो सवाल है कि लोग करते क्या हैं अगर कुछ करते हैं
लोग सिर्फ़ लोग हैं, तमाम लोग, मार तमाम लोग
लोग ही लोग हैं चारों तरफ़ लोग, लोग, लोग
मुँह बाये हुए लोग और आँख चुँधियाये हुए लोग

कुढ़ते हुए लोग और बिराते हुए लोग
खुजलाते हुए लोग और सहलाते हुए लोग
दुनिया एक बजबजायी हुई-सी चीज़ हो गई है।

बुधवार, 24 अगस्त 2011

अंधेरे में (खंड-3)

गजानन मा. मुक्तिबोध‘अंधेरे में’ मुक्तिबोध की लंबी कविता है। कविता आठ खंडों में विभाजित है। इस कविता में गहनतम अंधकार है। अंधेरा सामाजिक व्यवस्था और व्यक्ति के अवचेतन दोनों स्तरों पर छाया हुआ है। कविता का नायक अंधेरे में चक्कर लगाता है।

आज प्रस्तुत है तीसरा खंड। इसमें भय और आतंक के वातावरण का प्रसार है। व्यवस्था की अमानवीय साजिश के बीच नायक है। नायक को व्यवस्था अपना शत्रु समझती है। उसकी खोज करती है। सारांश यह है कि विवेक को कोई भी व्यवस्था बर्दाश्त करना नहीं चाहती है।

गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताएं-3

अंधेरे में

खंड-३.

समझ न पाया कि चल रहा स्वप्न या

जाग्रति शुरू है।

दिया जल रहा है,
पीतालोक-प्रसार में काल चल रहा है,
आस-पास फैली हुई जग-आकृतियाँ
लगती हैं छपी हुई जड़ चित्रकृतियों-सी
अलग व दूर-दूर
निर्जीव!!
यह सिविल लाइन्स है। मैं अपने कमरे में
यहाँ पड़ा हुआ हूँ
आँखें खुली हुई हैं,
पीटे गये बालक-सा मार खाया चेहरा
उदास इकहरा,
स्लेट-पट्टी पर खींची गयी तसवीर
भूत-जैसी आकृति--
क्या वह मैं हूँ
मैं हूँ?

रात के दो हैं,
दूर-दूर जंगल में सियारों का हो-हो,
पास-पास आती हुई घहराती गूँजती
किसी रेल-गाड़ी के पहियों की आवाज़!!
किसी अनपेक्षित
असंभव घटना का भयानक संदेह,
अचेतन प्रतीक्षा,
कहीं कोई रेल-एक्सीडेण्ट न हो जाय।
चिन्ता के गणित अंक
आसमानी-स्लेट-पट्टी पर चमकते
खिड़की से दीखते।
..........................
हाय! हाय! तॉल्सतॉय
कैसे मुझे दीख गये
सितारों के बीच-बीच
घूमते व रुकते
पृथ्वी को देखते।

शायद तॉल्सतॉय-नुमा
कोई वह आदमी
और है,
मेरे किसी भीतरी धागे का आख़िरी छोर वह
अनलिखे मेरे उपन्यास का
केन्द्रीय संवेदन
दबी हाय-हाय-नुमा।
शायद, तॉल्सतॉय-नुमा।

प्रोसेशन?
निस्तब्ध नगर के मध्य-रात्रि-अँधेरे में सुनसान
किसी दूर बैण्ड की दबी हुई क्रमागत तान-धुन,
मन्द-तार उच्च-निम्न स्वर-स्वप्न,
उदास-उदास ध्वनि-तरंगें हैं गम्भीर,
दीर्घ लहरियाँ!!

गैलरी में जाता हूँ, देखता हूँ रास्ता
वह कोलतार-पथ अथवा
मरी हुई खिंची हुई कोई काली जिह्वा
बिजली के द्युतिमान दिये या
मरे हुए दाँतों का चमकदार नमूना!!

किन्तु दूर सड़क के उस छोर
शीत-भरे थर्राते तारों के अँधियाले तल में
नील तेज-उद्भास
पास-पास पास-पास
आ रहा इस ओर!
दबी हुई गम्भीर स्वर-स्वप्न-तरंगें,
शत-ध्वनि-संगम-संगीत
उदास तान-धुन
समीप आ रहा!!

और, अब
गैस-लाइट-पाँतों की बिन्दुएँ छिटकीं,
बीचों-बीच उनके
साँवले जुलूस-सा क्या-कुछ दीखता!!

और अब
गैस-लाइट-निलाई में रँगे हुए अपार्थिव चेहरे,
बैण्ड-दल,
उनके पीछे काले-काले बलवान् घोड़ों का जत्था
दीखता,
घना व डरावना अवचेतन ही
जुलूस में चलता।
क्या शोभा-यात्रा
किसी मृत्यु दल की?

अजीब!!
दोनों ओर, नीली गैस-लाइट-पाँत
रही जल, रही जल।
नींद में खोये हुए शहर की गहन अवचेतना में
हलचल, (पाताली तल में
चमकदार साँपों की उड़ती हुई लगातार
लकीरों की वारदात!!
सब सोये हुए हैं।
लेकिन, मैं जाग रहा, देख रहा
रोमांचकारी वह जादुई करामात!!)

विचित्र प्रोसेशन,
गम्भीर क्वीक मार्च....
कलाबत्तूवाला काला ज़रीदार ड्रेस पहने
चमकदार बैण्ड-दल--
अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति
आँतों के जाल से, बाजे वे दमकते हैं भयंकर
गम्भीर गीत-स्वप्न-तरंगें
उभारते रहते,
ध्वनियों के आवर्त मँडराते पथ पर।
बैण्ड के लोगों के चेहरे
मिलते हैं मेरे देखे हुओं-से
लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार
इसी नगर के!!
बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैण्ड-दल में!
उनके पीछे चल रहा
संगीत नोकों का चमकता जंगल,
चल रही पदचाप, ताल-बद्ध दीर्घ पाँत
टेंक-दल, मोर्टार, ऑर्टिलरी, सन्नद्ध,
धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना,
सैनिकों के पथराये चेहरे
चिढ़े हुए, झुलसे हुए, बिगड़े हुए गहरे!
शायद, मैंने उन्हे पहले भी तो कहीं देखा था।
शायद, उनमें कई परिचित!!
उनके पीछे यह क्या!!
कैवेलरी!
काले-काले घोड़ों पर ख़ाकी मिलिट्री ड्रेस,
चेहरे का आधा भाग सिन्दूरी-गेरुआ
आधा भाग कोलतारी भैरव,
आबदार!!
कन्धे से कमर तक कारतूसी बेल्ट है तिरछा।
कमर में, चमड़े के कवर में पिस्तोल,
रोष-भरी एकाग्रदृष्टि में धार है,
कर्नल, बिग्रेडियर, जनरल, मॉर्शल
कई और सेनापति सेनाध्यक्ष
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते,
उनके चित्र समाचारपत्रों में छपे थे,
उनके लेख देखे थे,
यहाँ तक कि कविताएँ पढ़ी थीं
भई वाह!
उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक जगमगाते कवि-गण
मन्त्री भी, उद्योगपति और विद्वान
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
डोमाजी उस्ताद
बनता है बलवन
हाय, हाय!!
यहाँ ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय।
भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब
साफ़ उभर आया है,
छिपे हुए उद्देश्य
यहाँ निखर आये हैं,
यह शोभायात्रा है किसी मृत-दल की।
(विचारों की फिरकी सिर में घूमती।)

इतने में प्रोसेशन में से कुछ मेरी ओर
आँखें उठीं मेरी ओर-भर
हृदय में मानो कि संगीन नोंकें ही घुस पड़ीं बर्बर,
सड़क पर उठ खड़ा हो गया कोई शोर--
"मारो गोली, दाग़ो स्साले को एकदम
दुनिया की नज़रों से हटकर
छिपे तरीक़े से
हम जा रहे थे कि
आधीरात--अँधेरे में उसने
देख लिया हमको
व जान गया वह सब
मार डालो, उसको खत्म करो एकदम"

रास्ते पर भाग-दौड़ थका-पेल!!
गैलरी से भागा मैं पसीने से शराबोर!!

एकाएक टूट गया स्वप्न व छिन्न-भिन्न हो गये सब चित्र

जागते में फिर से याद आने लगा वह स्वप्न,
फिर से याद आने लगे अँधेरे में चेहरे,
और, तब मुझे प्रतीत हुआ भयानक
गहन मृतात्माएँ इसी नगर की
हर रात जुलूस में चलतीं,
परन्तु दिन में
बैठती हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र
विभिन्न दफ़्तरों-कार्यालयों, केन्द्रों में, घरों में।

हाय, हाय! मैंने उन्हे दैख लिया नंगा,
इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी।

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

कालिदास

 

बाबा नागार्जुन की कविताएं-5

कालिदास

कालिदास, सच-सच बतलाना !
इन्दुमती के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोये थे?
कालिदास, सच-सच बतलाना!

शिवजी की तीसरी आँख से
निकली हुई महाज्वाला में
घृत-मिश्रित सूखी समिधा-सम
कामदेव जब भस्म हो गया
रति का क्रंदन सुन आँसू से
तुमने ही तो दृग धोये थे
कालिदास, सच-सच बतलाना
रति रोयी या तुम रोये थे ?

 

वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घन घटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर
चित्रकूट से सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था

जिनके ही द्वारा संदेशा
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़ने वाले
कालिदास, सच-सच बतलाना
पर पीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थककर औ' चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर, तुम कब तक सोये थे ?
रोया यक्ष कि तुम रोये थे ?
कालिदास, सच-सच बतलाना !

प्रसाद जी के नाटकों की मौलिक विशेषताएं


नाटक साहित्य-12
नाटक साहित्य प्रसाद युग-5

प्रसाद जी के नाटकों की मौलिक विशेषताएं

रोमांटिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक नाटकों का सृजन कर प्रसाद ने हिंदी नाटक को नई दिशा दी। इनके माध्यम से उन्होंने हिन्दी-नाट्यसाहित्य को विशिष्ट स्तर और गरिमा प्रदान की। उनके लिए नाटक एक साहित्य विधा है। उनका मानना था कि नाटक की रचना रंगमंच को ध्यान में रखकर नहीं की जानी चाहिए। बल्कि नाटक के अनुसार रंगमंच को रूपांतरित किया जाना चाहिए। इससे उनके नाटकों का वैशिष्ट्य निर्मित हुआ।

प्रसाद जी मुख्यतः ऐतिहासिक नाटककार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उन्होंने अपने अधिकांश नाटकों की कथा-वस्तु इतिहास से ली है। ऐतिहासिक नाटक लिखने का एक प्रमुख कारण यह था कि वे नाटकों के माध्यम से आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे जनमानस को प्रेरित करना चाहते थे। वे भारतीय संस्कृति को उजागर करना चाहते थे। परतंत्र देश का लेखक वर्तमान की क्षतिपूर्ति अपने गौरवमय अतीत में करता है। जनता में यह विश्वास व्याप्त था कि जो कुछ अच्छा है, या हो सकता है, वह सब प्राचीन भारत में था। इस विश्वास से चालित होकर साहित्य का सृजन किया जाने लगा। प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटकों का फलक अति विराट होता है। इसमें पूरे राष्ट्र की समस्याएं अभिव्यक्त होती हैं। वे उन्हें सरल रूप में नहीं वरन्‌ जटिल रूप में रखते हैं। हिंदी नाटकों को इतने विराट परिप्रेक्ष्य में रचने का ऐसा उपक्रम बहुत कम हुआ है।

प्रसाद जी ने अपने नाटकों में पात्रों का चरित्र चित्रण बड़ी सावधानी से गढ़ा है। उन्होंने इतिहास के प्रसिद्ध पात्रों में नया जीवन भर दिया। पात्रों के मन का विश्लेषण बड़ी बुद्धिमत्ता से किया। नारी पात्रों में उनकी कल्पना और भावुकता का अधिक पुट है और उनका व्यक्तित्व अधिक औपन्यासिक और रोमांटिक है। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वे नाट्य-वस्तु को ऐसे-ऐसे घुमाव देते थे जिससे मानवीय संबंधों की अनेकानेक संवेदनाएं प्रकट होती थीं। जिन जीवन प्रसंगों के प्रति इतिहास मौन था उसे वह अपनी कल्पना से रूप और आकार देते थे। इस कोशिश में उनके नाटकों के कथानक जटिल हो गए। उनके नाटकों में आचार्य शुक्ल के अनुसार, “प्राचीन काल की परिस्थितियों के स्वरूप की मधुर भावना के अतिरिक्त भाषा को रंगनेवाली चित्रमयी कल्पना और भावुकता की अधिकता भी विशेष परिमाण में पाई जाती है। इससे कथोपकथन कई स्थलों पर नाटकीय न होकर वर्तमान गद्यकाव्य के खंड हो गए हैं। बीच बीच में जो गान रखे गए हैं वे न तो प्रकरण के अनुकूल हैं, न प्राचीन काल की भावपद्धति के। वे तो वर्तमान काव्य की एक शाखा के प्रगीत मुक्तक (लिरिक्स) मात्र हैं”

प्रसाद जी के नाटकों में संवादों की भाषा की भी काफ़ी आलोचना की जाती रही है। संस्कृतनिष्ठ, तत्सम शब्दावली और काव्यात्मक विशेषताओं से युक्त भाषा को नाटकों के लिए बहुत उपयुक्त नहीं माना जाता। प्रसाद के नाटकों का भाषिक मूल्यांकन का यह तरीक़ा सही प्रतीत नहीं होता। प्रसाद पारसी नाटकों की उर्दू-मिश्रित हिंदी से नाटकों की भाषा को छुटकारा दिलाना चाहते थे। वह नाटकों की भाषा को साहित्यिक और रचनात्मक बनाना चाहते थे। छायावाद के प्रमुख स्तंभ होने के कारण उसका प्रभाव उनके नाटकों की भाषा पर भी था।

उनके नाटकों की कथावस्तु में पर्याप्त नाटकीय तत्व मिलते हैं। प्रसाद के नाटकों में एक दोष यह भी माना जाता है कि उनमें पात्रों की बहुलता होती है। नाटक में ज़्यादा पात्र होने पर उनके निजस्व को चित्रित करना नाटककार के लिए मुश्किल हो जाता है। हालाकि प्रसाद जी के नाटकों में पात्रों की संख्या अधिक ज़रूर है, लेकिन कथा के केन्द्र में एक-दो पात्र ही होते हैं। फिर भी उनकी सफलता इस बात में है कि चरित्र छोटा हो या बड़ा उसकी विशिष्टता और महत्व को पूरी तरह से चित्रित करने में वे सफल होते हैं।


प्रसाद अपने नाटकों का इतिहास और कल्पना का बेजोड़ समन्वय उनके नाटकों को बहुआयामी चित्र प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने इतने विविध प्रकार के पात्रों की सृष्टि की है कि उनके माध्यम से पूरा युग ही सजीव होकर सामने उपस्थित हो गया है। उन्होंने इतिहास की प्राचीन घटनाओं के माध्यम से व्यंग्य रूप में वर्तमान की सम्स्याओं का चित्रण और समाधान प्रस्तुत किया। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी कहते हैं, “उनके ऐतिहासिक नाटक पीछे लौटने की सलाह लेकर नहीं आए, आगे बढ़ने की प्रेरणा लेकर आए थे।” प्रसाद के नाटकों का सही मूल्यांकन इस बात से नहीं होगा कि उनका मंचन कितनी सफलता के साथ किया जा सकता है बल्कि एक रचनात्मक कृति के तौर पर वह कितना प्रभावशाली है। यह प्रसाद के नाटकों की शक्ति भी है और सीमा भी।

सोमवार, 22 अगस्त 2011

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है


दुष्यंत कुमार त्यागी - 4

इस  नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक   चिंगारी  कहीं  से ढूँढ  लाओ दोस्तों,
इस  दिए में तेल  से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी  की पीर  गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर  साँझ ने सारे   नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

निर्वचन  मैदान  में  लेटी हुई  है  जो  नदी,
पत्थरों से,  ओट में  जा-जाके बतियाती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

रविवार, 21 अगस्त 2011

नया अवतार …


कृष्ण ! 
कहा था तुमने
जब जब होगी
धर्म की  हानि
तुम आओगे
धरती पर ,
आज मानव
कर रहा है
तुम्हारा इंतज़ार
हे माखनचोर
कब लोगे
तुम अवतार ?
 

  तुम्हारा
कोई रूप नहीं
जाति नहीं
देह नहीं
सबके मन में
तुम्हारा वास
कब लोगे
तुम अवतार ?
 

धरा पाप से
मलिन हुई
पीड़ा जनता की
असीम हुई
अन्याय का
नहीं  कोई पारावार
कब लोगे
तुम अवतार ?

लीला तुम्हारी
अपरम्पार
भेजा एक कृष्ण
हमारे द्वार
करने दूर
अत्याचार
खत्म करने
भ्रष्टाचार
सब भक्तिभाव से
स्वीकार रहे
मन में आशा
जगा रहे
उसमें तुमको
देख रहे
जन्मदिन तुम्हारा
मना रहे
उमड़ पड़ा
जनसमूह अपार
ज्यों ही
कृष्ण ने
भरी हुंकार
क्या यही है
तुम्हारा नया  अवतार ?



संगीता स्वरुप
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पटकथा का एक अंश


धूमिल की कविता-3

धूमिल की प्रसिद्ध लंबी कविता पटकथा का एक अंश

मुझसे कहा गया कि संसद
देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का
नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद -
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है
?

प्रसाद जी की नाट्य संबंधी सोच


नाटक साहित्य-11

नाटक साहित्य – प्रसाद युग-4

प्रसाद जी की नाट्य संबंधी सोच

प्रसाद जी ने ‘हिंदी नाटक का स्थान’, ‘नाटकों में रस का प्रयोग’, ‘नाटकों का आरंभ’ और ‘रंगमंच’ नामक अपने लेखों में नाटक और रंगमंच पर विचार किया है। जब उन्होंने नाटक लिखना शुरु किया था तब हिंदी में नाटकों की समृद्ध परंपरा नहीं थी। भारतेन्दु युग के नाटक उनके सामने थे। इसके साथ ही संस्कृत और पश्चिम के नाटकों की समृद्ध परंपरा भी मौज़ूद थी। उन्होंने संस्कृत के नाटकों और नाट्य संबंधी अवधारणाओं का गहरा अध्ययन किया। पश्चिम के नाट्य चिंतन और परंपराओं से भी वे वाकिफ़ थे। उस समय के रंगमंच पर खेले जाने वाले नाटकों पर पश्चिम के नाटकों का गहरा प्रभाव था। उस समय एक तो शिक्षित समाज के लिए अभिजात्य नाटक खेले जाते थे वहीं दूसरी तरफ़ जनसाधारण के पारसी रंगमंच के नाटक थे। प्रसाद हिंदी पर पारसी रंगमंच के प्रभाव को अच्छा नहीं मानते थे। वे अपनी नाट्य परंपरा के अनुरूप हिंदी नाटक और रंगमंच के विकास के समर्थक थे।

प्रसाद जी नाटक को ‘कला का विकसित रूप’ मानते थे। वे नाटक को ‘सब ललित सुकुमार कलाओं का समन्वय’ कहते थे। नाटक में दृश्य और श्रव्य दोनों कलाओं की अनुभूति होती है। इसलिए वे यह नहीं चाहते थे कि लोग नाटक को देखते वक़्त खुद को भूल जाएं और तल्लीन हो जाएं। प्रसाद जी नाटकीयता और सोद्देश्यता दोनों को नाटक के लिए ज़रूरी मानते थे। वे कहते थे, “जो नाटक मनोभाव का विश्लेषण करके चमत्कार के बल से मोहता हुआ, अंतःकरण में आदर्श सत्य को स्वयंमेव विकसित कर देता है, उसे ... सभी सभ्य जातियों के साहित्य में सम्मान मिलता है।”

प्रसाद जी के अनुसार पश्चिम में कला को अनुकरण माना जाता है जबकि हमारे यहां कला में दार्शनिक सत्य की प्रतिष्ठा की जाती है। आत्मा का अभिनय भाव है। भाव ही आत्म-चैतन्य में विश्रान्ति पा जाने पर रस होते हैं। जैसे विश्व के भीतर से विश्वात्मा की अभिव्यक्ति होती है, उसी तरह नाटकों से रस की। भरत के अनुसार नाटक देखते हुए जो हृदय स्थित भाव है, वही परिपक्व होकर रस रूप में परिणत हो जाता है। जब अभिनेता अपने आत्म चैतन्य में तल्लीन हो जाता है तो उसका भाव रस रूप में परिणत हो जाता है। इस प्रकार पश्चिम में नाटक के केन्द्र में अनुकरण होता है जबकि भारत में रस। इसलिए प्रायः भारत में नाटकों का अंत सुख या आनंद में होता है जबकि पश्चिम में दुखांत।

पश्चिम के नाटकों में त्रासदी का ज़ोर रहा तो इसीलिए कि उनकी परिस्थिति ने उन्हें लगातार दुख और संघर्ष की ओर अग्रसर किया। उपनिवेशों की खोज में दुर्गम भूभागों में उन्हें भटकना पड़ा। विपरीत परिस्थितियों से निरंतर संघर्ष करते हुए जीवन जीना पड़ा। इसीलिए उन्होंने जीवन को दुखमय (ट्रेजेडी) समझ लिया। चूंकि उन्होंने भावना की बजाए बुद्धि पर अधिक भरोसा किया इसलिए उन्होंने इस दुख को ही जीवन का सत्य समझ लिया।

बुद्धिवाद और दुख को (ट्रेजेडी) प्रधानता देने के कारण ही पश्चिमी सिद्धांत मनुष्य के चरित्र-निर्माण का पक्षपाती है। नाटक देखकर या कविता पढ़कर यदि मनुष्य अपने को बुराई की तरफ़ जाने से रोकता है और अपने चरित्र में संशोधन करता है तो साहित्य का लक्ष्य पूरा हो जाता है। मौज़ूदा साहित्य की दो प्रमुख विशेषताओं – व्यक्ति-वैचित्र्य और यथार्थवाद को इसी दृष्टि से देखा जा सकता है। प्रसाद पाश्चात्य के व्यक्ति-वैचित्र्य को साधन मानते हैं, साध्य नहीं। किन्तु उन्होंने आदर्शवाद को भी अंतिम नहीं माना है। उनके शब्दों में, “चरित्र-चित्रण आदर्श के लिए हो, यह अति उत्तम सिद्धांत नहीं है, क्योंकि चरित्र-चित्रण का लक्ष्य आदर्श तो अवश्य है, किन्तु प्रत्येक चरित्र आदर्श हो तो वही उपर्युक्त दोषापत्ति हो जाती है।” प्रसाद ने पात्र के ‘नैतिक विकास’ अर्थात्‌ व्यक्तित्व के सहज विकास को मुख्यता दी है।

पश्चिम के विपरीत भारतीय परंपरा रस पर आधारित है। इसका कारण यह है कि पश्चिम की तरह आर्यों को घरबार छोड़कर इधर-उधर भटकना न पड़ा। भारतीय आर्य निराशावादी नहीं थे। उन्होंने प्रत्येक भावना में अभेद निर्विकार, अनंद लेने में अधिक सुख माना। रस में लोकमंगल की भावना प्रच्छन्न रूप में विद्यमान रहती है। भारतीय परंपरा में लोकमंगल स्थूल सामाजिक रूप में नहीं बल्कि दार्शनिक सूक्ष्मता के आधार पर मौज़ूद रहता है। जबकि पश्चिम में वासना का आधार रहता है। वासना से ही क्रिया संपन्न होती है। क्रिया के संकलन से व्यक्ति का चरित्र बनता है। चरित्र में महत्ता का आरोप हो जाने पर, व्यक्तिवाद का वैचित्र्य उस महती लीलाओं से विद्रोह करता है। इस प्रकार पश्चिम का साहित्य व्यक्ति और समाज की वासनात्मक क्रियाओं से ही संचालित और प्रेरित होता है। यही कारण है कि उसमें किसी दार्शनिक श्रेष्ठता के दर्शन नहीं होते।

आत्माभिव्यक्ति की गीतात्मकता को प्रसाद ने रसानुभूति माना है। रसवाद को अपनाने के कारण मनुष्य की वासनात्मक मनोवृत्तियां साधारणीकरण के द्वारा आनंदमय बना दी जाती हैं। इससे मनुष्य की वासना का संशोधन हो जाता है। इससे मनुष्य की विशिष्टता और विभिन्नता समाप्त हो जाती है। मनुष्य की भावनाओं को मानवीय आधार मिल जाता है। इस आधार हम पाते हैं कि प्रसाद जी नाट्य रचना के लिए पश्चिम के अनुकरण सिद्धांत, बुद्धिवाद और दुख व निराशा को स्वीकार नहीं करते। वे नाटक में लोकमंगल को स्वीकार करते हुए भी रस को ही उसका लक्ष्य मानते हैं। प्रसाद द्वारा विवेचित ‘रसानुभूति’ ही ‘रंगानुभूति’ और ‘जीवनानुभूति’ है, क्योंकि उन्होंने रस का विवेचन ‘नाट्य’ और जीवन-संदर्भों के साथ जोड़ते हुए किया है। एक तरह से वे रस पर विचार करते हुए यथार्थवाद की अपनी परंपरा को तलाशते हैं।

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि प्रसाद ने अनेक भारतीय रंग-परंपराओं की युक्तियों, रूढ़ियों और व्यवहारों का रचनात्मक उपयोग किया। इस प्रक्रिया में उन्होंने आंशिक रूप से इन्हें नए संदर्भों में स्वीकारा, और कहीं-कहीं नकारा भी है। उनकी यह स्वीकृति न तो विवशता थी और न ही अस्वीकृति महज़ फैशन। वे अपनी विषय-वस्तु के अनुकूल रंग-तत्वों की तलाश करते रहे, जो विशुद्ध मनोरंजन से हटकर नए जीवन-बोध को अनेक आयामों के साथ व्यंजित कर सकें। इस पुनर्रचना के तहत उन्होंने न तो संस्कृत नाटकों के शास्त्रीय नियमों का पूर्ण रूप से पालन किया है, न पारसी नाटकों की अतिनाटकीयता को पूर्णतया स्वीकार किया है, न इब्सन की तरह नाटकों को तर्कमूलक बनाया है और न ही शेक्सपियर के त्रासदी नाटकों से आतंकित हुए हैं।

***

संदर्भ ग्रंथ

१. हिन्दी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र, सह सं. डॉ. हरदयाल २. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली – खंड ९ ३. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारीप्रसाद द्विवेदी ४. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ. श्यम चन्द्र कपूर ५. हिन्दी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ६. मोहन राकेश, रंग-शिल्प और प्रदर्शन – डॉ. जयदेव तनेजा  ७. हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास – डॉ. दशरथ ओझा ८. रंग दर्शन – नेमिचन्द्र जैन  ९. कोणार्क – जगदीश चन्द्र माथुर १०. जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि नाटक के लिए रंगमंच – महेश आनंद ११. अन्धेर नगरी में भारतेन्दु के व्यक्तित्व के स र्जनात्मक बिन्दु – गिरिश रस्तोगी, रीडर, हिन्दी विभाग, गोरखपुर विश्व विद्यालय १२. रंगमंच का सौन्दर्यशास्त्र – देवेन्द्र राज अंकुर १३. दूसरे नाट्यशास्त्र की खोज - देवेन्द्र राज अंकुर

शनिवार, 20 अगस्त 2011

रोटी और संसद


धूमिल की कविता-3


रोटी और संसद


एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है।
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं
“यह तीसरा आदमी कौन है ?”
मेरे देश की संसद मौन है।

जातिवादी मानसिकता और जातिगत राजनीति जाति सूचक सरनेम के कारण नहीं

जातिवादी मानसिकता और जातिगत राजनीति जाति सूचक सरनेम के कारण नहीं

दलसिंगार यादव

"खैर, जो पता लगा वो यही था कि झगड़ा बेवजह हुआ था। और, शायद पहले की कोई प्रतिक्रिया थी। प्रधान यादव है उसने हमारे दादाजी से आकर कहा- पंडितजी कोई बात नहीं। दरोगा का फोन आया था रात में 11 बजे। मैंने बता दिया, सब ठीक है। कुछ खास नहीं हुआ था। ये एक बड़ा बदलाव था पहले शायद दरोगा के आसपास भी सिर्फ ब्राह्मण-ठाकुर ही पाए जाते थे। और, दरोगा से फोन पर हुई बातचीत या मुलाकात के जरिए विरोधियों को डराने का काम भी वही करते थे। अब यादवजी, पंडितजी को भरोसा दिला रहे हैं कि दरोगा कुछ नहीं करेगा।"


मैंने यह पैरा हर्ष वर्धन के बतंगड़ से लिया है अपनी बात को साबित करने के लिए कि क्या जाति सूचक सरनेम समाप्त हो जाने से जातिवादी सोच को नहीं बदल सकता है। अभी कम से कम 100-200 साल और लगेंगे।


क्या जाति सूचक सरनेम समाप्त हो जाने से कोई ब्राह्मण अपना सर्वश्रेष्ठ होने का दंभ नहीं भरेगा? क्या कोई राजपूत अपनी हेकड़ी नहीं दिखाएगा? क्या कोई यादव अपने आपको क्षत्रियों से होड़ छोड़ देगा? कोई जाटव ब्राह्मणों की पाँत में बैठकर खाना खा लेगा? मेरा विचार है कि बिलकुल भी नहीं। बीमारी सरनेम में नहीं बल्कि मानसिकता में है। कुछ लोग खुद जातिवाद करेंगे परंतु दूसरों पर उँगली उठाएँगे। एक मंच पर पाँच ब्राह्मण होंगे तो किसी का ध्यान नहीं जाएगा लेकिन किसी अन्य जाति के पाँच लोग एकत्र हो जाएँगे तो लोगों का ध्यान तुरंत इस ओर जाएगा कि यह तो जातिविशेष का सम्मेलन है। कोई जाट नेतृत्व करता है तो उसे जाट नेता कहा जाता है। सुशील कुमार शिंदे अनुसूचित जाति के नेता हैं परंतु ममता बनर्जी बंगाली नेता होते हुए भी राष्ट्रीय नेता हैं। राहुल गांधी तो पैदायशी राष्ट्रीय नेता है। मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, मायावती, अजित सिंह, चौटाला कभी राष्ट्रीय नेता नहीं बन पाएँगे। कोई मुसलमान नेता होगा तो उस पर कौमी नेता का लेबल चस्पा हो हो जाएगा। क्यों? जाति सूचक सरनेम के कारण या जातिवादी मानसिकता और जातिगत राजनीति के कारण।


यह मानसिकता कुछ लोगों को उत्तर प्रदेश और बिहार में ज्यादा दिखती है। परंतु यह समस्या तो महाराष्ट्र में इससे भी ज़्यादा है। वहाँ पर तो जाति सूचक सरनेम नहीं लगाया जाता है। वहाँ पर भी सरनेम कोई हो परंतु दूसरों को यह पता लग ही जाता है कि यह कुनबी (कुर्मी) जाति का है, वह तेली समाज का है, वह अकोलकर है तो ब्राह्मण होगा, शिंदे लिखता है परंतु अनुसूचित जाति का है। महाराष्ट्र में 1,25,000 से भी अधिक सरनेम हैं जिनका जाति से कोई संबंध नहीं है फिर भी चुनाव के समय सभी को पता चल जाता है कि वह किस जाति का है और उसे उसी ढंग से वोट मिलते हैं। अतः खामी सरनेम में नहीं बल्कि मानसिकता में है और वह बदलना असंभव नहीं तो दुष्कर ज़रूर है।


मैं उत्तर प्रदेश का हूँ और एम.ए. तक की पढ़ाई तक का समय वहीं बीता। बाद में केंद्र सरकार की सेवा में आया और पहली पोस्टिंग करनाल (हरियाणा) में हुई। जाट बहुल क्षेत्र। वहाँ पर कॉमन टाइटिल सिंह होती है। क्षेत्रों के आधार पर कोई बेनीवाल, अहलावत, कोई महिवाल, सोनवाल, बागड़ी आदि लिखता है। फिर भी लोगों को पता चल ही जाता है कि जाट है और वह अनुसूचित जाति का है। मेरे कई परिचित हरियाणे से हैं जो अच्छे पढ़े लिखे, बुद्धिमान, सुंदर, सुशील हैं और कोई कुमार लिखता है, कोई बागड़ी लिखता है। हम सब साथ खाना खाते हैं, काम करते हैं परंतु कभी सामाजिक रस्मो रिवाज़ की बात आती है तो लोग उन्हें अलगा ही देते हैं और तथा कथित ऊँची किनबड़ी धूम धाम से मनाते हैं परंतु धार्मिक अनुष्ठानों में स्वजातीय को ही शामिल करते हैं।


उत्तर भारत में आप अच्छे कपड़े पहने हों और सहयात्री आपसे नाम पूछे और आप अपना नाम सुरेंद्र कुमार बता दें तो पूछेगा कि पूरा नाम क्या है? यानी आपकी जाति क्या है? यदि आपने कहा कि मेरा पूरा नाम यही है तो उसे तसल्ली नहीं होगी। आपके पिता जी का नाम पूछ लेगा। मतलब यह कि आपकी जाति पूछ कर ही दम लेगा। उसे आपकी जाति से क्या लेना देना? परंतु यहाँ की मानसिकता ऐसी है कि आपकी जाति पूछने के बाद दलगत, जातिगत और धर्मगत उधेड़ बुन शुरू होगा। यदि आप उसके पक्ष के न हुए तो आपसे अपने जातिगत प्रछन्न विद्वेष के कारण आपकी जाति के नेता की बुराई करेगा, चाहे आप उस नेता के समर्थक हों या न हों।


एक बार मैं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय के कुलपति त्रिभुवन नारायण सिंह के पास प्रस्ताव लेकर गया था कि मैं राजभाषा विकास परिषद के तत्वावधान में, "हिंदी की सांविधिक स्थिति और सरकार की उदासीनता" विषय पर अखिल भारतीय संगोष्ठी करना चाहता हूं। इस काम में विश्व विद्यालय से कुछ सहायता करा दें क्योंकि परिषद के पास धन नहीं है। उन्होंने तुरंत कहा विश्व विद्यालय के पास निधि तो नहीं है कोई और मदद चाहें तो हम हाज़िर हैं, मतलब यह कि उद्घाटन के लिए या भाषण के लिए आ सकते हैं। बातचीत के दौरान मैंने कहा कि केंद्र सरकार की उदासीनता के कारण कार्यालयों में हिंदी की दुरवस्था के बारे में कुछ कहना शुरू किया तो उन्होंने तुरंत मुलायम सिंह का नाम लेकर सारा दोष उनके सिर पर मढ़ दिया और मुझे एहसास दिला दिया कि आप यादव हैं और आप भी बराबर के दोषी हैं। 


आई.ए.एस., आई.पी.एस. परीक्षाओं के माध्यम की दुहाई देने लगे। क्या उन्हें मालूम नहीं है कि यू.पी.एस. की सभी परीक्षाओं के लिए हिंदी माध्यम उपलब्ध है? विश्व विद्यालयों में भी उच्च शिक्षा हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं में दी जाती है। परंतु अंग्रेज़ी मानसिकता के पोषक प्राध्यापकों को अंग्रेज़ी में लिखित ग्रंथों को पढ़कर पढ़ाना आसान लगता है। वे हिंदी में पुस्तकें नहीं लिखते हैं और न ही पढ़ने के लिए सिफ़ारिश करते हैं इसीलिए हिंदी में लिखी गई स्तरीय पुस्तकें नहीं मिलती हैं। अब अच्छी पुस्तकें नहीं मिलेंगी तो खरीदने वाले भी कम ही होंगे। क्या इसके लिए जातिवादी सरनेम दोषी है? अतः जातिवादी सरनेम समाप्त हो जाने पर भी जातिवाद समाप्त नहीं होगा जब तक कि मानसिकता और जातिगत राजनीति नहीं समाप्त होगी।


*******

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

राम धारी सिंह 'दिनकर'

सदियों की ठंढी, बुझी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

 

जनता? हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,

जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,

जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे

तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।

 

जनता? हां, लंबी-बडी जीभ की वही कसम,

"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"

"सो ठीक, मगर, आखिर इस पर जनमत क्या है?"

'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"

 

मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,

जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;

अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के

जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।

 

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,

जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

 

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,

सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,

जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?

वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।

 

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार

बीता; गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;

यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय

चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।

 

सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,

तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो

अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,

तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

 

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,

मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?

देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,

देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।

 

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,

धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;

दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।