रविवार, 31 जुलाई 2011

शून्य मंदिर में बनूँगी आज मैं प्रतिमा तुम्हारी


महादेवी वर्मा की की कविताएं-1

शून्य मंदिर में बनूँगी आज मैं प्रतिमा तुम्हारी

शून्य मंदिर में बनूँगी आज मैं प्रतिमा तुम्हारी॥

      अर्चना हों शूल भाले,
      क्षार दृग-जल अर्घ्य हो ले,
            आज करुणा-स्नात उजला,
            दुःख हो मेरा पुजारी।

      नुपूरों का मूक छूना,
      सरव करदे विश्व सूना,
            यह अगम आकाश उतरे,
            कम्पनों का ही भिखारी।

लोल तार कभी अचंचल,
      चल न मेरा एक कुन्तल,
            अचल रोमों में समाई,
            मुग्ध हो गति आज सारी।

राग मद की दूर लाली,
      साथ भी इसमें न पाली,
            शून्य चितवन में बसेगी,
            मूक हो गाथा तुम्हारी।

मानवीय मूल्यों के संस्थापक- प्रेमचंद


मानवीय मूल्यों के संस्थापक- प्रेमचंद

31 जुलाई 1880-8 अक्टूबर 1936           
                                        मनोज कुमार



आज उनका जन्मदिन है


धनपत राय उर्दू में नवाब राय के नाम से गल्प लिखते थे। वतन-परस्ती के ज़ज़्बे से लबरेज़ थे। पांच कहानियों का संकलन 'सोज़े-वतन' 1909 में प्रकाशित हुआ। ब्रिटिश सरकार ने इसे ख़तरनाक माना। प्रेमचंद पर ‘सिडीशन’ का आरोप लगा। बरतानि हुकूमत को 'सोज़े-वतन' हज़म नहीं हुई और इसकी हज़ारों प्रतियां जला दी गईं। संबद्ध ब्रिटिश अधिकारी ने चेतावनी देते हुए कहा था, “आगे से ऐसा कुछ भी करने की ज़ुर्रत न करना। तुम ब्रिटीश अमलदारी में हो, नहीं तो इस ज़ुर्म के लिए तुम्हारा हाथ कलम कर दिया जा सकता था।” 'सोज़े-वतन' क्या जली वतन को प्रेमचन्द मिल गया।

‘सोज़ेवतन’ की पांच में से चार कहानियां ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’, ‘शेख मखमूर’, ‘यही मेरा वतन है’, और ‘सांसारिक प्रेम और देश प्रेम’ उस समय की राष्ट्रीय चेतना के उभार को रेखांकित करती हैं। ये कहानियां भावना के स्तर पर देश और राष्ट्र प्रेम को प्रोत्साहित करने की कोशिश का परिणाम हैं।

1936 में लखनऊ में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन में भाषण देते हुए प्रेमचंद जी ने कहा था,
साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है – उसका दरज़ा इतना न गिराइए। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं है, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।”

इससे बढ़िया साहित्य की परिभाषा हो ही नहीं सकती। प्रेमचंद साहित्य को उद्देश्य परक मानते थे। प्रेमचंद के पहले हिन्दी उपन्यास साहित्य रोमानी, ऐयारी और तिलस्मी प्रभाव में लिखा जा रहा था। उन्होंने उससे इसे मुक्त किया और यथार्थ की ठोस ज़मीन पर उतारा। यथातथ्यवाद की प्रवृत्ति के साथ प्रेमचंद जी हिंदी साहित्य के उपन्यास का पूर्ण और परिष्कृत स्वरूप लेकर आए। उन्होंने अपनी रचनाओं में समाज की सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों को उजागर किया। शोषित, दलित और ग़रीब वर्ग को नायकत्व प्रदान किया। आम आदमी की घुटन, चुभन कसक को अपने कहानियों और उपन्यासों में उन्होंने प्रतिबिम्बित किया। इन्होंने अपनी रचनाओं में समय को ही पूर्ण रूप से चित्रित नहीं किया वरन भारत के चिंतन आदर्शों को भी वर्णित किया है।

प्रेमचंद का साहित्य ग़रीब जनता का साहित्य है। उन्होंने जीवन को बहुत नज़दीक से देखा था। उनके उपन्यासों में निम्न और मध्यम श्रेणी के गृहस्थों के जीवन का बहुत सच्चा रूप मिलता है। इनकी कहानियों में पहली बार समाज का पूरा परिवेश उसकी कुरूपता, असमानता, छुआछूत, शोषण की विभिषिका, कमज़ोर वर्ग और स्त्रियों का दमन आदि वास्तविकता के साथ प्रकट हुई है। ग्रामीण जीवन को उन्होंने बिना किसी वाद की ओर देखे अपने उपन्यासों में चित्रित किया है। अपने पात्रों को ऐसा सजीव चित्र देते हैं कि पाठक की उससे सहानुभूति सहज ही प्राप्त हो जाती है। पुरुष-पात्रों के साथ-साथ उन्हें नारी-पात्र के चरित्र चित्रण में भी  सफलता मिली है। सच तो यह है कि समाज के सभी वर्ग के पात्रों का चरित्र अपने-अपने अनुरूप समान स्थान पाता है।

प्रेमचंद का जीवन औसत भारतीय जन जैसा है। यह साधारणत्व एवं सहजता प्रेमचंद की विशेषता है। प्रेमचंद दरिद्रता में जनमे, दरिद्रता में पले और दरिद्रता से ही जूझते-जूझते समाप्त हो गए। फिर भी वे भारत के महान साहित्यकार बन गए थे। उन्होंने अपने को सदा मज़दूर समझा। बीमारी की हालत में, मरने के कुछ दिन पहले तक भी अपने कमज़ोर शरीर को लिखने पर मज़बूर करते थे। कहते थे, मैं मज़दूर हूं! मज़दूरी किए बिना  मुझे भोजन का अधिकार नहीं है।

कलाकार जब वस्तु पर अपने भाव और विवेक का आरोप कर देता है और उसे अपने आदर्श के अनुकूल गढ़ता है तब उसका दृष्टिकोण आदर्शवादी बन जाता है। प्रेमचन्द की कहानियों में आदर्शवाद के बदलते रूप दिखाई देते हैं। ये समसामयिक युगबोध को स्पष्ट करते हैं। शुरु की कहानियों जैसे ‘बड़े घर की बेटी’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘नमक का दारोगा’, ‘उपदेश’, ‘परीक्षा’, ‘अमावस्या की रात’, ‘पछतावा’ आदि कहानियों में वे पूरी तरह से आदर्शवादी दिखते हैं। इनमें कर्तव्य, त्याग, प्रेम, न्याय, मित्रता, देश सेवा आदि की प्रतिष्ठा हुई है। बाद में आदर्शवाद यथार्थ में बदलता जाता है। ‘गोदान’, ‘प्रेमाश्रम’ ‘रंगभूमि’ जैसे उपन्यास और  ‘पूस की रात’, ‘ठाकुर का कुँआ’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘दूध का दाम’, ‘सद्गति’, ‘वज्रपात’ आदि में जीवन का नग्नतम यथार्थ उजागर होता है।

सामाजिक सुधार संबंधी भावना का प्रबल प्रवाह उन्हें कभी-कभी एक कल्पित यथार्थवाद की ओर खींच ले जाता है फिर भी उन्होंने कल्पना और वायवीयता से कथा-साहित्य को निकालकर उसे समय और समाज के रू--रू खड़ा करके वास्तविक जीवन के सरोकारों से जोड़ा। अपने जीवन काल में वे विभिन्न सुधारवादी और पराधीनता की स्थितिजन्य नव जागरण प्रवृत्तियों से प्रभावित रहे हैं, जैसे - आर्यसमाज, गाँधीवाद, वामपंथी विचारधारा आदि। लेकिन समाज की यथार्थगत भूमि पर उसकी सहज प्रवृत्ति में ये प्रवृत्तियाँ जितनी समा सकती है, उतनी ही मिलाते हैं, ठूस कर नहीं भरते। इसीलिए चित्रण में जितनी स्वाभाविकता प्रेमचन्द में देखने को मिलती है, अन्यत्र दुर्लभ है। 'गोदानमें तो यह अपनी पराकष्ठा पर पहुँच गई है।

प्रेमचन्द क्रांति नहीं, सुधार के समर्थक थे। हां यह ज़रूर है कि वे धीरे-धीरे आदर्शवाद और सुधारवाद के प्रभाव से मुक्त हो रहे थे। ‘गोदान’, ‘पूस की रात’ या ‘सादगी’ में यह बात दिखती है। बदली हुई परिस्थितियों में वे ख़ुद को बदल रहे थे। यदि प्रेमचन्द युग का आरम्भ 'सेवासदनमें है, तो उसका उत्कर्ष 'गोदानमें। इस उपन्यास में उन्होंने भारतीय किसान की पतनशील स्थिति के लिए शोषकों के साथ-साथ सामाजिक रूढ़ियों, अंधविश्वासों और दुराग्रहों को जिम्मेदार माना है। उन्होंने बदलते हुए यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में चीज़ों को समझने का प्रयत्न किया है। छोटे व ग़रीब किसान की मज़दूर बन जाने की विवशता इस उपन्यास की उपलब्धि है। ‘गोदान’ किसान जीवन की त्रासदी का महाकाव्य है। भाग्यवाद ने किसान को यथास्थितिवादी होने के लिए मज़बूर कर दिया है। इस उपन्यास में प्रेमचंद आदर्शवाद से यथार्थवाद की ओर बढ़ते हुए दिखाई देते हैं। यह एक तरह से आदर्श और यथार्थ का मिलाजुला रूप है। प्रेमचंद ने प्रगतिवादी साहित्य को नयी दिशा दी जिसे आलोचकों ने ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ कहा है।

वे आदर्शों और विचारधाराओं को अपने पात्रों पर थोपते नहीं हैं, बल्कि अन्तमन या अन्तरात्मा की आवाज की तरह स्वाभाविक रूप से प्रस्फुटित होने देते हैं। ‘सेवासदन’ के गांधीवादी प्रेमचंद गबन’ में मार्क्सवादी विचारधारा में ढलते दीखते हैं लेकिन गोदान’ तक आते-आते वामपंथ से भी उनका मोहभंग हो चुका है। जीवन के अंत में मृत्यु-शैय्या पर पड़े प्रेमचंद का जैनेन्द्र से यह कहना कि “अब आदर्श से काम नहीं चलेगा” शायद उनकी आशाओं और दृढ़ विश्वासों के स्खलन का सूचक है।

उनकी कहानियों में आदर्श और यथार्थ का अन्तर्द्वन्द्व है। हालाकि बाद की कहानियाँ समस्यामूलक रही हैं, किन्तु उन्होंने आदर्श समाधान प्रस्तुत करना बन्द कर दिया। यह उनकी रचनाओं में रिक्ति नहीं बनी, बल्कि ये वैचारिक मंथन के रूप में पाठकों को झकझोरने लगीं और ये रचनाएं अपने उत्कर्ष को प्राप्त करती अधिक प्रभावशाली साबित हुईं। पूस की रातऔर'कफनजैसी कहानियों में उनकी बदली हुई वैचारिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट देखा जा सकता है। उनकी बाद की कहानियाँ घटना प्रधान न होकर चरित्र प्रधान हैं जिनमें पात्रों की मनोवृत्तियों का वास्तविक चित्रण नितांत सहज रूप में देखने को मिलता है। उनका स्वयं कथन है - 'कोई घटना तब तक कहानी नहीं होती जब तक कि वह किसी मनोवैज्ञानिक सत्य को व्यक्त न करे।इस कथन से उनकी कहानियों में आए विकास को समझा जा सकता है। 'कफनकहानी उनके इस वैचारिक विकास का उत्कर्ष है। इसमें ग्रामीण कृषक की दुरावस्था का चित्रण है। किसानों की आर्थिक विपन्नता जमीदारों - साहूकारों के शोषण का नतीजा नहीं है बल्कि यह आर्थिक विषमता मूलक समाज की संरचना है। यह कहानी उस सामाजिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करती है जो मनुष्य के जिन्दा रहने पर उसका शोषण होने देती है और मर जाने पर खोखली नैतिकता का जामा पहन उसके अंतिम संस्कार के लिए उपाय करती है, सहयोग करती है।
प्रेमचंद का व्यक्तित्व साधारण और व्यावहारिक था। साथ ही उनके जीवन के आदर्श भी प्रत्यक्ष और सुनिश्चित थे। अतएव उन्होंने व्यावहारिक धरातल पर ही आदर्शवाद की प्रतिष्ठा की है। उनका आदर्शवाद रोमानी आदर्शवाद नहीं है, व्यावहारिक आदर्शवाद है। उन्होंने बहुत विस्तृत क्षेत्र का चित्रण किया है। यथार्थ और आदर्श के चित्रण के समन्वय से इस चित्रण में एक स्वाभाविकता है। उनका मानना था कि यथार्थवाद हमारी आंखें खोल देता है तो आदर्शवाद ऊंचा उठाकर किसी मनोरम स्थान पर पहुंचा देता है। किसी देवता की कामना करना मुमकिन है लेकिन उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करना मुश्किल है। यथार्थ और आदर्श के समन्वय से उन्होंने अपने पात्रों में सच्ची प्राण-प्रतिष्ठा की। मानवीय दुर्बलता उनके पात्रों में मिलती है। लेकिन ऐसी दुर्बलताएं ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है। अन्यथा निर्दोष चरित्र तो देवताओं में ही मिल सकता है। साहित्य में होरी’, ‘धनिया’ और गोबर’ जैसे 'सर्वहारा' पात्रों को स्थान दिलाने का श्रेय भी प्रेमचंद को ही है।

हिन्दी साहित्य का यह प्रकाश स्तंभ, जो जीवन मूल्यों को बताता था आज हमारे बीच नहीं है पर यह तो निश्चित है कि वे देश के महान सर्वोत्तम रत्न  थे। उन्होंने जनवादी लेखनी को नया आयाम दिया। जीवन को कसौटी पर कसने के लिए उन्होंने एक मापदंड दिया। वे लेखनी के माध्यम से भविष्य का मार्ग दर्शन भी करते थे।  उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से मानवीय मूल्यों को स्थापित करने का गंभीर प्रयास किया। हिंदी साहित्य में उनके योगदान को नहीं भुलाया जा सकता। उनके दिखाए जीवन का मूल्य और उनका साहित्य आज भी प्रासंगिक हैं।

शनिवार, 30 जुलाई 2011

बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु !


महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
 
बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु !

बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु !
पूछेगा सारा गाँव, बन्धु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखे रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बन्धु !

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहते थी,
सबकी सुनती थी,सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बन्धु !




शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

भारतेन्दु जी की नाट्य दृष्टि

नाटक साहित्य-5

भारतेन्दु युग-1

भारतेन्दु जी की नाट्य दृष्टि

मनोज कुमार

images (50)भारतेन्दु जी सेठ अमीचन्द के वंशज थे। इनका जन्म 1850 में काशी में हुआ था। इनके पिता गोपालचन्द्र जी प्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने ‘नहुष’ नामक नाटक भी लिखा था। हालाकि उनकी काव्य-प्रतिभा बाल्य-काल में ही चमक उठी थी, फिर भी उन्हें लगा कि अपने भावों और विचारों को जनता तक पहुंचाने का सबसे अच्छा साधन नाटक है। इसलिए नाटक-रचना की ओर उनका ध्यान आकर्षित हुआ।

उन दिनों अंग्रेज़ी नाटकों को पढ़ने वाले भारतीय, संस्कृत और देशी भाषाओं के नाट्य साहित्य का उपहास किया करते थे। भारतेन्दु जी जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति को यह कहां से बर्दाश्त होता। उन्होंने मातृभाषा की सेवा में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का संकल्प लिया और इस दिशा में सक्रिय हो गए। उन्होंने सोद्देश्यपूर्ण साहित्य रचना की। नाट्य लेखन में उनकी चिंताएं आधुनिक थीं। उन्होंने नाट्य लेखन को सामाजिक परिवर्तन और राष्ट्रीय जागरण का माध्यम बनाया। वे हिंदी साहित्य को भी समृद्ध करना चाहते थे। इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किए गए उनके प्रयास आन्दोलन की तरह थे।

भारतेन्दु जी के नाटकों का मूल आधार देश-प्रेम है। वे ख़ुद अभिनेता, रंगकर्मी और समीक्षक थे। उन्होंने अपनी भाषा और संस्कृति का प्रचार-प्रसार भी इस माध्यम से किया। उनके नाटकों का रुझान आदर्शवादी है। देश उस समय ग़ुलाम था। आज़ादी के लिए हमारे चरित्र बल का मज़बूत और शक्तिशाली होना बहुत ज़रूरी था। साथ ही अपनी भाषा, अपने राष्ट्र की भाषा भी होना बहुत ज़रूरी था। तभी हम सही मायनों में आज़ाद कहलाने के हक़दार होते। इन्हीं बातों को सम्प्रेषित करने के लिए उन्होंने अपने नाटकों में कहीं उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया तो कहीं भरत वाक्य में उसे प्रकट किया। नाटक में दृश्यात्मक और काव्यत्व को उन्होंने सबसे अधिक महत्व दिया। हास्य-व्यंग्य की शैली में लिखे गए उनके नाटक चरित्र निर्माण की शिक्षा देते हैं।

भारतेन्दु जी की नाट्य दृष्टि

भारतेन्दु जी ने न सिर्फ़ नाटकों की रचना की बल्कि नाटक संबंधी विस्तृत लेख लिखकर उन्होंने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। उन्होंने इस बात पर गहराई से चिंतन किया कि नाटक का लेखन और मंचन क्यों किया जाना चाहिए? नाट्य-परंपरा के विकास के लिए किस परंपरा का अनुपालन किया जाना चाहिए। उन्होंने लिखा है,

“आजकल यूरोप के नाटकों की छाया पर जो नाटक लिखे जाते हैं और बंगदेश में जिस चाल के बहुत से नाटक बन चुके हैं वह सब नवीन भेद में परिगणित हैं।”

जिस नवीन परंपरा की बात वो कर रहे थे उसे वह पश्चिम के यूरोपीय नाट्य परंपरा और बंगला नाटकों पर उसके प्रभाव से जोड़ते हैं। वे नवीन नाटकों के दो भेद मानते हैं,

१. नाटक – जिनमें कथाभाग विशेष और गीति न्यून, और

२. गीतिरूपक – जिसमें गीति विशेष हों।

इस तरह से वे ऐसे नाटकों की कल्पना नहीं कर सके जो गीत या पद्य रहित हो। वे संस्कृत नाट्य परंपरा को न तो पूरी तरह से अस्वीकार कर रहे थे और न ही उसके अनुकरण की बात कर रहे थे। किन्तु यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि वे प्राचीन नाट्य रीतियों को तब ही स्वीकार करने को तैयार थे जब वे आधुनिक ज़रूरतों के अनुरूप हों। उनके प्राचीन और नवीन के बीच की विभाजन रेखा यथार्थ के प्रति उनका दृष्टिकोण थी। उन्होंने नाटकों में लौकिक दृष्टि के समावेश का प्रयास किया। उनके अनुसार, “जो लोकातीत और असंभव हैं वे वर्तमान काल के लोगों को स्वीकार नहीं हो सकते।” यह उनका यथार्थवादी दृष्टिकोण था।

उद्देश्य

भारतेन्दु जी के नाटकों के उद्देश्य में विवेकपूर्ण आधुनिक दृष्टिकोण दिखाई देता है। नाटक रचना का मूल उद्देश्य मनोरंजन के साथ ही जनमानस को जाग्रत करना और उसमें आत्मविश्वास उत्पन्न करना था। उन्होंने अपने समय की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के साथ ही अपने उद्गारों को अभिव्यक्त करते हुए प्रचुर नाट्य साहित्य की रचना की जो मौलिक भी हैं और अनूदित भी। अपने निबंध में नवीन नाटकों के उद्देश्य की चर्चा करते हुए पांच उद्देश्य बताते हैं,

१. श्रृंगार, २. हास्य, ३. कौतुक, ४, समाज संस्कार और ५. देशवत्सलता।

जहां एक ओर वे देशवत्सलता नाटकों का उपयोग लोगों में देशभक्ति की भावना जगाने के लिए करना चाहते थे वहीं दूसरी ओर समाज संस्कार से उनका उद्देश्य था कुरीतियों और धर्म संबंधी अन्य विषयों में सुधार। लोगों में जागृति पैदा करना उनका प्रमुख उदेश्य था। भारत जननी, नील देवी और भारत दुर्दशा आदि नाटक इसके उदाहरण हैं। वे इन नाटकों के द्वारा उस समय की प्रस्थितियों के प्रति लोगों को जागरूक करना चाहते थे। वे जनजागरण और लोक रुचि के लिए मनोरंजन और हास्य को ज़रूरी मानते थे। उन्होंने नाटक को खेल आदि कहा। हास्य और तीखे व्यंग्य में वे बड़ी से बड़ी समस्या को प्रस्तुत कर देते थे। उनके नाटकों में स्थानीय बोली का प्रयोग, टोन और मुहावरे भी होते थे। नाटक की प्रकृति के साथ जनता की प्रकृति और देश की आवश्यकताओं का सामंजस्य बिठाते हुए उन्होंने साहित्यिकता और रंगमंचीयता का अनूठा उदाहरण पेश किया है।

संदर्भ ग्रंथ

१. हिन्दी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र, सह सं. डॉ. हरदयाल २. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली – खंड-९ ३. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारीप्रसाद द्विवेदी ४. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ. श्यम चन्द्र कपूर ५. हिन्दी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ६. मोहन राकेश, रंग-शिल्प और प्रदर्शन – डॉ. जयदेव तनेजा ७. हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास – डॉ. दशरथ ओझा ८. रंग दर्शन – नेमिचन्द्र जैन ९. कोणार्क – जगदीश चन्द्र माथुर १०. जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि नाटक के लिए रंगमंच – महेश आनंद ११. अन्धेर नगरी में भारतेन्दु के व्यक्तित्व के सर्जनात्मक बिन्दु – गिरिश रस्तोगी, रीडर, हिन्दी विभाग, गोरखपुर विश्व विद्यालय

बालिका का परिचय


सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता-2
बालिका का परिचय
यह  मेरी  गोदी की  शोभा
सुख सुहाग  की  है लाली।
शाही शान भिखारिन की है
मनोकामना    मतवाली ॥
दीप-शिखा है अन्धकार की
घनी  घटा  की उजियाली
ऊषा है यह कमल-भृंग की
है  पतझड़ की  हरियाली॥
सुधा-धार  यह नीरस दिल की
मस्ती   मगन  तपस्वी  की।
जीवन ज्योति नष्ट नयनों की
सच्ची  लगन  मनस्वी  की॥
बीते  हुए  बालपन  की यह
क्रीड़ापूर्ण     वाटिका    है।
वही मचलना, वही किलकना
हँसती    हुई   नाटिका है॥
मेरा मन्दिर, मेरी  मसजिद
काबा-काशी   यह    मेरी
पूजा-पाठ, ध्यान-जप-तप है
घट-घट-वासी   यह  मेरी॥
कृष्णचन्द्र की क्रीड़ाओं को
अपने  आँगन  में  देखो।
कौशल्या के मातृमोद  को
अपने ही मन  में  लेखो॥
प्रभु   ईसा  की  क्षमाशीलता
नबी  मुहम्मद  का विश्वास।
जीव दया जिनवर गौतम की
आओ   देखो  इसके  पास॥
परिचय पूछ रहे  हो मुझसे,
कैसे  परिचय  दूँ  इसका।
वही जान सकता है इसको,
      माता का दिल है जिसका॥

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

छायावादी गीति काव्य की प्रेरणा भूमि

छायावादी गीति काव्य की प्रेरणा भूमि

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आज छायावाद के इतिहास की बात शुरु करते हैं.  परंतु छायावाद के इतिहास को जानने से पहले गीति काव्य के बारे में जनना उचित होगा.  संक्षिप्त रूप से पहले गीति काव्य की पृष्ठभूमी की बात करते हैं .

गीतिकाव्य का इतिहास

यह तो हम सभी जानते हैं कि गीति काव्य को ही काव्य का सबसे प्राचीन रूप माना जाता है. हमारे वेदों में भी एक ऐसा वेद 'सामवेद' है जिसका गायन होता है. गीत शब्द का अर्थ भी गाये जाने से ही है.

बौद्ध साहित्य कि थेर गाथाओं में भी गीति काव्य के दर्शन मिलते हैं. 'मेघदूत' को भी अधिकाँश विद्वान गेय काव्य ही मानते हैं. संस्कृत साहित्य में गीति काव्य अपने वास्तविक रूप में 'गीतगोविन्द' में प्राप्त होता है. जयदेव के इस काव्य का हिंदी साहित्य पर प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई पड़ता है. विद्यापति और चंडीदास दोनों कवियों ने जयदेव की शैली को  ऐसा आत्मसात किया जिससे काव्यरस और संगीत रस के मिश्रण से गीतकारों के सम्मुख हिंदी गीतों का एक आदर्श  रूप सामने आया.

कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास, मीरा

 

इसके बाद कबीरदास के रहस्यगीत बहुत लोकप्रिय हुए जिन्होंने खुद को अपने राम की बहुरिया बना कर विरह और मिलन सम्बन्धी गीतों का ऐसा राग फूंका कि आज तक जनता को तड़पाता और आह्लादित करता है.

कबीर के बाद सूरदास, तुलसी और मीरा आदि वैष्णव भक्तों के गीति काव्यों में रागात्मक तत्वों की प्रधानता पायी जाती है. विद्यापति के सामान सूर के पदों पर भी 'गीतगोविन्द' का प्रभाव स्पष्ट झलकता है.  सूर के गीति काव्य में रतिभाव के तीनों प्रबल और प्रधान रूप - भगवद्विशयक रति, वात्सल्य और दाम्पत्य रति - प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं.

तुलसीदास की गीतावली में भी भावों की व्यंजना उसी रूप में हुई है जिस रूप में मनुष्य को उनकी अनुभूति हुआ करती है या हो सकती है.

मीरा ने विरहिणी के रूप में जिन पदों में आत्मनिवेदन किया है वे निजत्व की पराकाष्ठा तक पहुँच गये हैं. मीरा के विरह से आहत हृदय को जब कसक और वेदना विक्षिप्त बना देती है उसकी मनोदशा का कोई पारखी नहीं मिलता.

हरिश्चंद्र युग

 

इन सब के बाद हरिश्चंद्र युग की शुरुआत हुई. इस काल में गीति काव्य की दो धारायें हो गयी.

१. आत्मनिवेदन शैली

२. राष्ट्रीय शैली

भारतेंदु की 'चन्द्रावली' में प्रथम शैली और 'भारत दुर्दशा' में दूसरी शैली स्पष्ट झलकती है.

द्विवेदी युग -

राष्ट्रीय गीत ' जय जय प्यारा भारत देश' श्री धर पाठक जी के गीत से सारा हिंदी प्रदेश गूँज उठा. इस युग के मैथिलीशरण गुप्त जी के राष्ट्रीय गीतों का अधिक प्रचार हुआ. 

बाबु गुलाब राय जी का मत था कि गुप्त जी ने चार प्रकार के गीतों का प्रणयन किया ;

१. छायावादी  २. आह्लादसूचक  ३. वेदनासूचक ४. नारी-गौरव सूचक.

छायावादी गीति काव्य की प्रेरणा भूमि

द्विवेदी युग में गीति काव्य की दो प्रमुख धाराएँ थी :

१. भारतीय परंपरावादी

२. परिवर्तनवादी

महावीर प्रसाद द्विवेदी प्रथम धारा के समर्थक थे, और नवयुवक  कवियों मे मुकुट धारी, प्रसाद, पंत, निराला आदि द्वितीय धारा के परिपोषक थे. परंपरावादियों की रूढ़िवादिता और हिन्दी के प्रति अँग्रेज़ीदानों की उपेक्षा के थपेड़ो से ऊबकर नवयुवक वर्ग कोई नया मार्ग ढूँढने को व्यग्र हो रहा था.  इसी काल मे बंगाल का एक भारतीय अपनी ही भाषा और अपने ही परिचित विचारों के बल से काव्य के विशाल मंदिर में विश्व के दिग्गज विद्वानों द्वारा सम्मानित किया जा रहा था. उसकी कविता ने भारतीय भाषा प्रेमियों को उस तिमिराच्छन्न काल मे आशा की वह ज्योति दिखाई जिसकी ओर निराश हृदय नवयुवक दौड़ पड़े. रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाए बड़ी रूचि के साथ  पढ़ी जाने लगीं. गुप्त बंधु और सुमित्रा नंदन पंत  ने यह स्वतः स्वीकार किया है कि उन पर रवीन्द्रनाथ की रचनाओं का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है.

पंत जी का मत है कि - पूर्व में उपनिषदों के दर्शन के जागरण की आभा को पश्चिम की यंत्र युग की सभ्यता सौंदर्य बोध से दूषित कर कवीन्द्र रवीन्द्र ने सर्व-प्रथम छायावाद की भावना को जन्म दिया.

इतिहास साक्षी है कि ईसा की बीसवीं शताब्दी लगते लगते स्कूलों और कालेजों में अँग्रेज़ी साहित्य की शिक्षा का प्रचार व्यापक बन गया था. परिणाम-स्वरूप अँग्रेज़ी काव्य का प्रभाव हिन्दी कविता की गतिविधि पर पड़ने लगा. नंददुलारे वाजपेयी का मत है कि इसका सबसे अधिक प्रभाव हिन्दी की उस काव्यधारा पर पड़ा जो थोड़ी अधिक भाव-प्रवणता लिए उद्भासित  हुई. इस स्वच्छंदतावादी  काव्य प्रवृति में उत्तर  भारत की परिवर्तन शील सामाजिक स्थितियाँ मुख्य रूप से कारण बनीं थी.

इन सब कारणों से छायावादी कविता का जन्म हुआ. जन्मकाल मे इसका रूप कई आचार्यों को इतना विकृत प्रतीत हुआ कि वे इसका जन्म - देश और जाति के लिए अमंगलकारी मानते थे. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने एक बार खीजकर लिखा : छायावादियों की रचना तो कभी समझ में भी नही आती. ये लोग बहुधा बड़े ही विलक्षण छंदों या वृतों का भी प्रयोग करते हैं. कोई चौपदे लिखते हैं, कोई छःपदे, कोई ग्यारह पदे, कोई तेरह पदे  ! किसी की चार सतरें गज गज भर लंबी तो दो सतरें दो ही दो अंगुल की. फिर ये लोग बेतुकी पद्यावलि भी लिखने की बहुधा कृपा करते हैं. इस दशा में इनकी रचना एक अजीब गोरख धंधा हो जाती है. न ये शास्त्र की  आज्ञा के कायल, न ये पूर्ववर्ति कवियों की प्रणाली के अनुवर्ती ; न ये समालोचकों के परामर्श की परवाह करनेवाले. इनका क्या इलाज हो सकता है, कुछ समझ में नहीं आता.

छायावाद की प्रयोगावस्था -

छायावादी  कविता अपने आरंभिक काल में स्वच्छंदतावाद के समीप पहुँचती है और परिपक्वावस्था में रहस्यवाद का दर्शन कराती है. सन 1850 से 1912 तक की हिन्दी कविताओं पर अँग्रेज़ी की स्वच्छंदतावादी काव्य प्रवृति के अपरिपक्व रूप का प्रभाव झलकता है, किंतु सन 1913 से 20 तक का समय ऐसा प्रतीत होता है मानो हिन्दी कवियों की स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति परिपक्व और प्रगाढ़ बनती हुई छायावाद की विशिष्ट काव्यशैली के रूप में परिवर्तित और परिणत होती जा रही है.

अगला भाग अगले वृहस्पतिवार को …

                                                                                                                                                       क्रमशः

अकाल और उसके बाद


बाबा नागार्जुन की कविताएं - 3
30 जून 1911 - 5 नवंबर, 1998


अकाल और उसके बाद

कई  दिनों  तक  चूल्हा  रोया,  चक्की रही उदास
कई दिनों तक  कानी  कुतिया  सोई  उनके  पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई  दिनों  तक  चूहों की भी हालत रही शिकस्त

दाने  आए  घर  के  अंदर  कई  दिनों  के  बाद
धुआँ उठा आँगन  से  ऊपर  कई  दिनों  के  बाद
चमक  उठी  घर  भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए  ने   खुजलाई  पाँखें  कई  दिनों  के  बाद।

बुधवार, 27 जुलाई 2011

मोह


सुमित्रानन्दन पन्त
मोह

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले ! तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन ?
                      भूल अभी से इस जग को !
तज कर तरल तरंगों को,
इन्द्रधनुष  के  रंगों  को,
                तेरे भ्रूभंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन ?
                       भूल अभी से इस जग को !
कोयल का वह कोमल बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
कह, तब तेरे ही प्रिय स्वर से कैसे भर लूँ सजनि ! श्रवण ?
                          भूल अभी से इस जग को !
ऊषा सस्मित किसलय दल,
सुधारश्मि  से  उतरा  जल,
      ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन ?
                         भूल अभी से इस जग को !
***
{‘पल्लव’ से ... }