शनिवार, 31 दिसंबर 2011

पुस्तक परिचय-14 : सोनामाटी

पुस्तक परिचय-14

सोनामाटीविवेकीराय copy

मनोज कुमार

IMG_2899आंचलिकता शब्द अंग्रेज़ी के ‘रिजन’ शब्द के पर्याय रूप में प्रयुक्त हुआ है। अंग्रेज़ी में ‘रिजनल नावेल’ की सुस्थिर परम्परा रही है। अंचल शब्द का अर्थ किसी ऐसे भूखंड, प्रांत या क्षेत्र विशेष है, जिसकी अपनी एक विशेष भौगोलिक स्थिति, संस्कृति, लोकजीवन, भाषा व समस्याएं हों। एक आंचलिक लेखक एक विशेष क्षेत्र पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है और इस क्षेत्र और वहां के निवासियों को अपनी कथा का आधार बनाता है। आज हम जिस उपन्यास का परिचय देने जा रहे हैं उसके लेखक श्री विवेकी राय जी का कहना है, “‘सोनामाटी’ की पृष्ठभूमि में पूर्वी उत्तर प्रदेश के दो ज़िलों, गाजीपुर और बलिया, का मध्यवर्ती एक विशिष्ठ अंचल है करइल। इस अंचल का भूगोल तो सत्य है परन्तु इतिहास अर्थात्‌ प्रस्तुत कहानी में प्रयुक्त करइल क्षेत्र के उन गांवों और पात्रों आदि के माध्यम से समकालीन जीवन-संघर्ष को चित्रांकित किया गया है। यह संघर्ष किस सीमा तक एक अंचल का है और कहां तक वह व्यापक राष्ट्रीय जीवन यथार्थ से जुड़ा है, इसका निर्णय तो पाठक ही कर सकता है।”

अंचल विशेष को आधार बनाकर रची जाने वाली औपन्यासिक कृति सहज ही आंचलिक उपन्यास मान ली जाती है। विवेकी राय की कहानियों में उत्तरप्रदेश के गांवों का बड़ा सजीव चित्रण हुआ है। उन्हें ग्रामीण जीवन का कुशल चितेरा कहा जाता है। वे गावों से हमेशा जुड़े रहे। ग़ाज़ीपुर और उसके आसपास के गावों का उन्हें विशद अनुभव है। प्रस्तुत उपन्यास “सोनामाटी” भी गांवों से जुड़ा है। इसमें विस्तृत ग्रामांचल की कहानी है जो ग़ाज़ीपुर और बलिया के बीच फैला है। आज के टूटते-बिखरते गांव का सम्पूर्ण सत्य उन्होंने इस उपन्यास के माध्यम से प्रस्तुत किया है। गांवों में व्याप्त मूल्यहीनता की बात इसमें बहुत ही मार्मिक ढंग से कही गई है। पैसे की संस्कृति से गांव भी अछूता नहीं है। रामरूप उपन्यास का मुख्य पात्र है। वह जीवन-मूल्यों में विश्वास रखता है। लेकिन वह आज के परिवेश में अपने को मज़बूर और कमज़ोर पा रहा है। उसका ससुर हनुमान प्रसाद रावण की भूमिका निभाता है।

इस उपन्यास की एक नारी पात्र है, कोइली। सुग्रीव से उसे प्यार है। कोइली को सुग्रीव चार हजार रुपए में खरीद कर लाया है। वह दगाबाज निकलता है। उसे हनुमान प्रसाद के हवाले कर देता है। हनुमान प्रसाद उससे शादी करना चाहता है। लेकिन उसके घर में कोइली को अनेक यातनाएं सहनी पड़ती हैं। अतः एक रात वह वहां से भाग खड़ी होती है। भागने के क्रम में वह रामरूप से टकराती है। रामरूप उससे पूछता है, “बता, तू कौन है?”

वह बताती है, “आप की ही एक करमजली बेटी ...’’।

वहां से निकल कर वह बढ़ारपुर के रामसुमेर नाम के बूढ़े के पास शरण लेती है। रामरूप अपने अध्यापक मित्र की सहायता से उससे मिलने जाता है तो देखता है कि कोइली को भीतर बंद करके घर में ताला लगाया गया है। जब रामरूप ताला खोलकर उससे मिलता है तब वह उससे कहती है, “अपने ग़रीब बाप के घर जवान हुई तब से हर आदमी हमारे पास ‘खास’ काम के लिए ही आया है मास्टर जी। यहां एकदम एकान्त है। कहिए, सेज लगा दूं, अपने को सौंप दूं? एक बेटी और कर क्या सकती है? यदि सुग्रीव जी की तरह आप भी कहीं और सौदा कर आए हों तो ‘राज सुख भोग’ के लिए उस पांचवें बाबा के पास आपके साथ चलूं?..”

असहाय स्त्री की दयनीय स्थिति व पूरी त्रासदी को बयान करता है यह वक्तव्य।इस उपन्यास में कोइली का अंकन बड़ा ही मर्मस्पर्शी है। वह एक बूढ़े के साथ जुड़ती है, स्वाभिमान की रक्षा के लिए और सारी लालसायें मसलकर रख देती है। उसके अंकन में अत्यन्त आधुनिक संवेदना का स्पर्श मिलता है। सर्वहारा की पहचान तो उसकी पीड़ा है। लेकिन इसमें भी एक बात निश्चित है कि इस वर्ग की स्त्री सबसे पीड़ित होती है। वह समाज की वासना का शिकार भी होती है। हर किसी के द्वारा शोषित और त्रस्त जीवन उसका नसीब हुआ करता है। एक पुरुष सत्तात्मक समाज स्त्री के बारे में कितना नृशंस और अत्याचारी हो सकता है, इसका प्रमाण विवेकी राय जी के इस उपन्यास में मिलता है।

पूर्वी उत्तरप्रदेश के पिछड़े हुए गांव महुआरी में “सोनामाटी” की कथा शुरु होती है। गांव के लोग जहां एक ओर आर्थिक मार सह रहे हैं, वहीं उन्हें सामाजिक उदासी और राजनीतिक उठापटक का समना भी करना पड़ता है। विकास की मृगमरीचिका में जीना उनकी नियति बन चुकी है। गांव का बुद्धिजीवी मास्टर और किसान रामरूप तेजी से बदलते हुई प्रस्थितियों के बीच जिन अंतर्विरोधों के बीच जीवन जीता है, जो पीड़ाएं भोगता है उसको बहुत ही मार्मिकता के साथ इस उपन्यास में दर्शाया गया है। उसकी इन पीड़ाओं में राजनीतिक अंतर्विरोधों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। रामरूप विरोधी पक्ष जनता पार्टी का प्रचार करता है। उसका साला सत्ताधारी पक्ष कांग्रेस पार्टी का उम्मीदवार है। उसका चुनाव प्रतिनिधि वर्मा, रामरूप के घर में ही रहकर प्रचार कार्य करता है।

एक तरफ़ चुनावी महौल और दूसरी तरफ़ अनेक समस्याओं से घिरा गांव है। “एक तो भीषण गर्मी, दूसरे जीवन के अनेकमुखी संकट-संत्रास। क्रिया-प्रतिक्रिया में हतप्रभ जनता क्या करेगी? अकुला कर कहेगी, जैसे नागनाथ वैसे सांपनाथ। चलो तुम्हीं को सही यह वोट। पिछड़ी और अभावग्रस्त जनता की सबसे बड़ी पहचान वोटों के चलते सिलसिलों और छलावों के बीच यही उभरी है कि वह सब कुछ भूल जाती है।”

प्रजातंत्र की यह चुनावी पद्धति और नेताओं की चुनाव कला पैंतरेबाजी का खूब रोचक वर्णन है इस उपन्यास में। नेताओं के वाक-चातुर्य और कूटनीति को पिछड़ी हुई ग्रामीण ज़िन्दगी झेलती है, भोगती है। वे जो जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए दिन-रात जूझते रहते हैं, संघर्ष करते रहते हैं, वे क्या सही और ग़लत नेताओं का चुनाव कर पाएंगे। राजनीतिक विचारधारा और दल से उनका क्या लेना-देना? दो जून की रोटी मिल जाए किसी तरह वही यथेष्ठ है। इस परिस्थिति में प्रजातांत्रिक चुनाव पद्धति पर ही प्रश्न चिह्न लग जाना स्वाभाविक है। रामरूप सोचता है, पूरा लोकतंत्र द्विधाग्रस्त है। … गिरोह में आदमी कितना ख़ुश है। … क्यों उसे ऐसा लग रहा है कि कही कुछ भी स्पष्ट नहीं है, न सिद्धान्त, न नारे और न संकल्प? पूरा राष्ट्र रोगग्रस्त है। चुनाव की औषधि रोग बढ़ा रही है कि घटा रही है, कुछ भी कहना कठिन है।”

गिरोहबाजी आज की राजनीति का यथार्थ है। उपन्यास में रामरूप की प्रतिबद्धताओं के समानान्तर उसका अभिन्न मित्र भारतेन्दु इस गिरोह का सदस्य हो जाता है। वह रामरूप को उसके परिवार से अलग कर रहा है। राजनीति का यह आज का रूप रामरूप को व्यक्ति और समाज दोनों ही स्तरों पर अकेला करता जा रहा है।

“धूर्त राजनीतिज्ञों की काली राजनीति के उद्देश्यों के लिए मानवीयता की बलि चढ़ जाती है। रातोंरात निर्लज्ज दलबदल हो जाता है। किसे उम्मीद थी कि दो शरीर एक प्राण सरीखे रहने वाले भारतेन्दु और रामरूप आमने-सामने दो विरोधी शिविर लगाकर बैठ जाएंगे।”

विवेकी राय जी ने इस उपन्यास के माध्यम से यह दर्शाया है कि आज़ादी के बाद की राजनीति का बिल्कुल ही विघटित रूप गांवों तक पहुंच गया है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के आपसी सम्बन्ध के निर्धारण में राजनीति की सक्रिय भूमिका है। आज राजनीति समाज के सामूहिक हित के अपने लक्ष्य से हटती जा रही है। अब उसने स्वार्थी, असत्य, अनैतिक विघटित तत्वों से खुद को जोड़ लिया है। इस तरह वह गिरोह में बदल गई है। गांवों में आज़ादी के बाद का यही विघटित रूप वहां के समाज पर हावी हो रहा है। आंचलिकता जिस ऐतिहासिक चेतना से प्रतिफलित होती है उसमें राजनीति की भूमिका रचनात्मक है। किन्तु “सोनामाटी” में हम जिस राजनीतिक यथार्थ से रू-ब-रू होते हैं, वह आज की राजनीति के अमानवीय हो जाने की गवाही देता है।

लेखक विवेकी राय का गांव की जनता, विशेषकर किसान जनता के दुख-सुख से गहरा सरोकार है। उनके इस गहरे सरोकार के कारण ही “सोनामाटी” की रचना हुई है। गांव की जनता संघर्षशील है। उपन्यास में लेखक का सर्वाधिक ध्यान अंचल विशेष की जन-चेतना को चित्रित करने पर केन्द्रित है। उन्होंने जन-सामान्य के प्रति हार्दिक संवेदना महसूस करते हुए चित्रित किया है। साथ ही साथ करइल अंचल की लोक संस्कृति भी सहज रूप से अंकित होती चलती है। समय और समाज ने एक मास्टर को अकेले जूझते और समझौता करते छोड़ दिया है। यही गाँव के बुद्धिजीवी की नियति है। गाँव के रावण का अंकन बहुत ही सशक्त है। लगता है, राम कहीं हिरा गये ‘राम का हिरा जाना’ मतलब आज रामराज कहीं खो गया है।

एक बैठक में पढ़ जाने लायक किताब है यह। ग्रामीण जीवन की जटिल सच्चाई को उसकी सम्पूर्णता के साथ रचनात्मक स्तर पर प्रस्तुत करना विवेकी राय जैसे कलम के जादूगर से ही संभव है। गहरी निष्ठा और असीम धैर्य के साथ, चकित कर देने वाले संतुलन और सामंजस्य के साथ उन्होंने गांव के विभिन्न पात्रों को चित्रित किया है। इस उपन्यास के शिल्प में गजब की किस्सागोई और व्यंजकता है। भाषा में आंचलिक शब्दों का प्रयोग समाज के मिजाज और उसके विशेष सांस्कृतिक पक्ष को सामने लाता है। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि इस उपन्यास को पढ़ना एक अंचल, एक समाज, एक देश और एक समय के साथ विचारोत्तेजनाओं के रोमांच के बीच से गुजरना है।

*** *** *** ***

पुस्तक का नाम

सोना माटी

लेखक

विवेकी राय

प्रकाशक

प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड, नई दिल्ली-2

संस्करण

2010

मूल्य

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पेज

464

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

हुए अमीर / गरीबी पर लिख / क्या तकदीर।


पिछली बार अपने कुछ हाइकु पढवाया था,  जिन्हें आप यहाँ पढ सकते हैं। आज फिर कुछ हाइकु आपसे बाँट रहा हूँ।  

अपहरण
देश में विकास का
शुभ लक्षण।

जो भी सोचेगा       
इंसानियत पर       
नहीं बचेगा।       

चलो खरीदें             
कोई सस्ता-सा कल       
महंगाई में।

बच्चे करते    
दूरदर्शनासन            
चौबीसों घंटे।

हुए अमीर         
गरीबी पर लिख
क्या तकदीर।

मार ही डाला            
इन आलोचकों ने         
नये कवि को।

मां और बाप
सुन टीनएज़र
हो चुपचाप।


गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

उपकोषा की बुद्धिमत्ता

उपकोषा की बुद्धिमत्ता

164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_nआदरणीय पाठक वृन्द को अनामिका का सादर प्रणाम ! पिछले तीन अंकों में हमने कथासरित्सागर से शिव-पार्वती जी की कथा, वररुचि की कथा और पाटलिपुत्र (पटना)नगर की कथा पढ़ी.

कथासरित्सागर की  पिछली कड़ियों को जोड़ते हुए....प्रथम अंक में पार्वती जी शिव के गण पुष्पदंत द्वारा योगशक्ति से कथा सुन लेने पर श्राप देती हैं और वह  धरती पर जाकर पाटलिपुत्र के राजा नन्द का मंत्री वररूचि  बन गया है, जहाँ उसे शाप-मुक्ति उपाय हेतु सुप्रतीक नामक यक्ष, जो कि काणभूति के नाम से जाना जाता है, को कहानी सुनानी है. कहानी सुन काणभूति शाप से मुक्त हो वररुचि की प्रशंसा करते हुए उससे उसकी आत्मकथा सुनाने का आग्रह करता है..द्वित्तीय अंक में वररुचि अपने जन्म और गुरु वर्ष से ज्ञान प्राप्ति का वृतांत बताते हुए तृतीय अंक में पाटलिपुत्र नगर की कथा कहते हैं.अब आगे..

विंध्य के उस वन में वररुचि काणभूति को अपने गुरु उपाध्याय वर्ष के मुख से सुनी हुई पाटलिपुत्र नगर के निर्माण की यह कथा सुना कर फिर अपनी आपबीती सुनाने लगा, जो इस प्रकार थी :

अपने दोनों गुरुभाइयों - व्याड़ी तथा इन्द्रदत्त के साथ पाटलिपुत्र में रहते हुए मेरा बचपन बीत गया. एक बार हम तीनों नगर में इन्द्रोत्त्सव देखने के लिए घूम रहे थे, तो मैंने एक कन्या देखी, जो काम के धनुष जैसी लगती थी. इन्द्रदत्त ने पता करके मुझे बताया कि वह हमारे गुरु वर्ष के भाई उपवर्ष की  पुत्री उपकोषा है. मैं उपकोषा के आकर्षण में इस तरह बंध गया कि मुझे रात भर नींद नहीं आई. सवेरा होने पर मैं उपकोषा के घर के निकट आम के एक बगीचे में जा कर बैठ गया. उपकोषा की  एक सखी वहां आई तो उसके द्वारा मैंने उपकोषा की माता तक अपने मन की बात पहुंचाई. उपकोषा की माँ ने अपने पति उपवर्ष से चर्चा की और मेरा विवाह तय हो गया. उपाध्याय वर्ष की आज्ञा ले कर व्याड़ी कौशाम्बी चला गया और मेरी माता को ले कर आ गया. मेरा उपकोषा के साथ विवाह हो गया और मैं अपनी पत्नी, माता के साथ सुख से पाटलिपुत्र रहने लगा.

इधर उपाध्याय वर्ष के पांडित्य की ख्याति सारे राष्ट्र में फ़ैल गयी थी और उनके शिष्यों की संख्या लगातार बढती जा रही थी. इन्हीं में से एक शिष्य था पाणिनि . वह अत्यंत मंदबुद्धि था. गुरुपत्नी ने उसे हिमालय पर जा कर शिव की उपासना करने को कहा. वह हिमालय चला गया.

हिमालय से जब पाणिनि लौटा, तो उसे शिव की कृपा से नया व्याकरण प्राप्त हो चुका था. उसने मुझी को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा. हम दोनों का शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ और सात दिन तक चलता रहा. आठवें दिन मैंने पाणिनि को हरा ही दिया, पर ठीक इसी समय भगवान् शिव ने आकाश से भयंकर  हुंकार किया  और उसके प्रभाव से हमारा पढ़ा हुआ सारा का सारा ऐन्द्र व्याकरण नष्ट हो गया. हम लोग फिर से मूर्ख हो गए.

पाणिनि से मिली पराजय के कारण मेरे जी में वैराग्य उत्पन्न हो गया. मैंने घर का खर्च चलाने  के लिए कुछ धन हिरण्यगुप्त नामक वणिक के पास रख दिया जिससे उपकोषा आवश्यकता पड़ने पर उससे पैसा मंगवा सके और मैं भगवान् शिव की अराधना के लिए हिमालय की ओर चल दिया.

उपकोषा भी मेरी सफलता के लिए व्रत उपवास करती हुई प्रतिदिन प्रातः नियमित रूप से गंगा-स्नान के लिए जाती रही. वह मेरे विरह में पीली पड़ गयी थी, और प्रतिप्रदा के चंद्रमा के समान लगती थी. वसंत का समय था. उपकोषा को प्रतिदिन गंगास्नान के लिए आते-जाते राजपुरोहित, नगरपाल और युवराज का मंत्री - ये तीनों लोग देखते थे और उसके रूप - लावण्य पर मोहित हो गए थे.

उपकोषा इन तीनों की विकृत दृष्टि को समझ चुकी थी और किसी तरह अपना शील बचाए हुए अपना धर्म पाल रही थी. एक दिन गंगास्नान से लौटते हुए उसे कुमार सचिव (युवराज के मंत्री) ने रोक ही लिया. उपकोषा से उसे समझाया, और जब वह न माना तो कहा - इस तरह मिलने का प्रयास करना तुम्हारे लिए भी ठीक नहीं है, न मेरे लिए. इसीलिए  तुम वसंतोत्सव के दिन, जब सारे नागरिक उत्सव की धूमधाम में लगे हुए हों, रात के पहले पहर में मेरे घर आ जाओ.

उससे पीछा छुड़ा कर उपकोषा आगे बड़ी, तभी उसे राजपुरोहित ने घेर लिया. उपकोषा ने और कोई चारा न देख उसी प्रकार वसंतोत्सव के दिन रात के तीसरे प्रहर में उसे घर आने का संकेत दे दिया. पुरोहित से बच कर घबरायी हुई वह कुछ आगे बढ़ी थी कि दंडाधिप (नगरपाल) ने उसे पकड़ लिया. उपकोषा ने उसे उसी दिन रात के दूसरे पहर में घर आने को कहा.

भय से कांपती वह घर आई. दासियों को बुला कर उनके साथ परामर्श किया और सारी  रात मेरा स्मरण करते हुए निराहार रह कर बितायी. अगले दिन ब्राह्मणों के भोजन तथा दान के लिए धन की आवश्यकता होने से दासी को हिरण्यगुप्त के यहाँ मेरे द्वारा रखी धरोहर में से धन लाने के लिए भेजा.

हिरण्यगुप्त वणिक उलटे उसी के पास चला आया और एकांत में उससे बोला - तुम मेरी सेवा करो, तो मैं तुम्हारे पति का धन तुम्हें दे दूंगा. उपकोषा ने उसे वसंतोत्सव की रात के चौथे पहर में घर आने को कहा.

अब उपकोषा ने दासियों के द्वारा तेल में सना हुआ बहुत सारा काजल तैयार कराया और उसमे कस्तूरी आदि सुगन्धित द्रव्य मिलवाये. फिर उसने चार चिथड़े उस काजल में अच्छी तरह सनवा लिए. इसके बाद उसने एक बहुत बड़ा संदूक तैयार करवाया, जिसमे बाहर से बंद करने के लिए साकंल लगी थी.

वसंतोत्सव का दिन आ पहुंचा. रात के पहले पहर में कुमार सचिव उपकोषा से मिलने आ धमका. उपकोषा ने कहा - मैं किसी पुरुष को तभी छूती हूँ, जब वह मेरे पास स्नान करके आये. तो आप पहले स्नान कर लीजिये. वह मूर्ख तुरंत स्नान के लिए तैयार हो गया. दासियाँ उसे घर के भीतरी भाग में ले गयी जहाँ अँधेरा था और काजल में सना कपडा उसके बदन पर अच्छी तरह पोतती रहीं और काजल उसके तन पर लगाती रहीं. वह समझता रहा कि उसे सुगन्धित उबटन लगाया जा रहा है. यही करते करते रात का दूसरा पहर हो गया और पुरोहित आ पहुंचा. दासियों ने कुमारसचिव से कहा - यह हमारे स्वामी वररुचि का मित्र पुरोहित आ गया, तुम यहाँ छिप कर चुपचाप बैठ जाओ - यह कह कर उन्होंने उसे संदूक में उतार कर संदूक बंद कर दिया. यही गति पुरोहित और दंडाधिप की भी हुई - तीनों उस संदूक में बंद हो गए. उनकी देह एक दूसरे को छू रही थी, पर वे भय से चुप थे.

रात के चौथे पहर में हिरण्यगुप्त वणिक आ गया. दिया जला कर स्नानागार तक ला कर उपकोषा ने उससे कहा - पहले मेरे पति का दिया हुआ धन मुझे लौटा दो.

हिरण्यगुप्त ने देखा कि वहां एकदम एकांत है, तो वह बोला - मैंने कह तो दिया मेरी सेवा करो तो तुम्हारे पति की धरोहर में से मैं तुम्हें धन देता रहूँगा.

उपकोषा ने वहां रखी हुई संदूक की ओर मुह करके ऊँचे स्वर में कहा - सुनो देवताओं, इस हिरण्यगुप्त वाणिक का वचन सुनो यह कह कर उसने दीपक बुझा दिया और दासियों से वणिक को स्नान कराने के लिए कहा. दासियों ने वणिक को उसी तरह काजल में लिपटा, चिथड़ा पहनाया और उबटन के बहाने अच्छी तरह काजल उसके तन पर लपेट दिया.

यह करते करते सवेरा हो गया और दासियों ने उससे कहा - अब प्रातः काल हो गया, तुम जाओ. वणिक आनाकानी करने लगा, तो दासियों ने उसे धक्का दे कर घर से बाहर कर दिया. काजल में सना, फटा चिथड़ा लपेटे और काजल से पुते देह वाला वणिक पाटलिपुत्र के राजमार्ग पर प्रातः निकला. कुत्ते भौंकते हुए उसे काटने को दौड़ रहे थे. किसी तरह वह घर पहुंचा और अपने सेवकों से देह में पुता काजल धुलवाने लगा. लाज के कारण वह उन सेवकों के आगे आँख नहीं उठा पा रहा था.

इधर उपकोषा ने एक दासी को साथ लिया और राजा नन्द के महल में गुहार करने जा पहुंची. उसने राजा से कहा कि हिरण्यगुप्त नामक बनिया मेरे पति के निक्षेप का धन हड़पना चाहता है. राजा ने तुरंत वणिक को बुलाया. उसने राजा से कहा - महाराज, मेरे पास वररुचि  कोई धरोहर रख के नहीं गया.

उपकोषा ने कहा - महाराज, मेरे गृहदेव, जो एक संदूक में बंद हैं, इस बात के साक्षी हैं. आप अपने सेवकों को भेज कर मेरे घर से संदूक उठवा लीजिये, देव गवाही देंगे.

राजा को बड़ा कौतुक हुआ. उसने संदूक मंगवाया. उपकोषा ने संदूक के सामने ऊँचे स्वर में कहा - हे देवो, बताओ इस बनिए के पास मेरे पति की धरोहर का धन है या नहीं, यदि तुम नहीं बताओगे तो इस भरी सभा में संदूक खोल कर मैं तुम्हारे दर्शन राजा को करा दूंगी. संदूक में बंद तीनों लोग डर के मरे एक साथ बोले - 'उपकोषा सच कहती है, हिरण्यगुप्त वणिक के पास  वररुचि धन रख कर गया है.

संदूक के भीतर से आते स्वर से राजा नन्द बड़ा चकित हुआ और उसने अर्गला तुडवा कर संदूक खुलवाया. अँधेरे के पिंडों की तरह तीन पुरुष उसमे से बाहर निकले. बड़ी कठिनाई से वे तीनों उस भरी राजसभा में पहचाने गए और उनकी जगहंसाई हुई.

राजा के पूछने पर उपकोषा ने सारा वृतांत सुनाया. राजा ने उसकी बड़ी प्रशंसा की और कहा कि आज से तुम मेरी बहिन हो. इसके साथ ही कुमारसचिव, दंडाधिप तथा पुरोहित की  संपत्ति जब्त करके राजा ने तीनों को देश निकाला दे दिया.

इसके बाद इन सारी घटनाओं का पता हमारे गुरु वर्ष और मेरे ससुर उपवर्ष को चला, तो उन्होंने उपकोषा की बुद्धिमत्ता को बहुत सराहा. सारे नगर में उपकोषा की जयजयकार होने लगी.


पाठक गण ये कथा यहीं समाप्त होती है. नमस्कार !

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

अंक-15 हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी


अंक-15
हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में आपने पढ़ा कि किस प्रकार हरिद्वार नगर में शरणार्थियों के बस जाने से नगरवासियों के मन में अनेकानेक शंकाएं उपजने लगीं थी और प्रतिक्रिया होने की आशंका नजर आने लगी थी। इसे निर्मूल करने के लिए कांग्रेसियों द्वारा ‘अमन सभा’ का गठन किया गया। वहाँ, मतभिन्नता के कारण आचार्य जी को ‘अमन सभा’ छोड़नी पड़ी। प्रत्युत्तर में उन्होंने अगले दिन ही ‘नगर शान्ति सभा’ का गठन किया, स्वयं मंत्री बने तथा जगह-जगह सभाएं कर ‘अमन सभा’ की कलई खोलनी शुरू कर दी। इस प्रकार कांग्रेसी लोग उनसे बुरी तरह नाराज हो गए।
आचार्य जी ने ज्वालापुर से दूर कनखल में अपना निवास बनाया। ज्वालापुर में आधी आबादी मुस्लिम थी। वहाँ कसाईखानों में गो-हत्या होती थी, किन्तु कोई विरोध नहीं करता था। हरिद्वार देवभूमि है, अतः वहाँ यह सब होना आचार्य जी को खलने लग। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से एक प्रार्थना छपवाई कि कसाईखानों में गोहत्या बन्द कर दी जानी चाहिए, क्योंकि हरिद्वार कस्बा एक तीर्थस्थल है और इससे लोगों की भावना आहत होती है। यह प्रार्थना उन्होंने स्वयं ही बाँटी। उनके इस कृत्य से कांग्रेसी भी नाराज हो गए और मुसलमान भी। उनपर हिन्दूवादी होने का आरोप लगाया जाने लगा तथा विस्थापितों को भड़काकर दंगा कराने की शिकायत जिला मजिस्ट्रेट से की गई। कुछ दिन पश्चात दंगा हो गया जिसमें सैकड़ों जाने गईं तथापि आचार्य जी पर आरोप सिद्ध न हो सका और वे बच गए।
जनवरी 1948 में जब महात्मा गाँधी की हत्या हुई तो हिन्दू महासभा तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग पकड़-पकड़कर जेल में डाले जाने लगे। तब कांग्रेसियों ने षडयंत्र करके उन पर ‘संघ का कार्यकर्ता’ होने का आरोप लगवाकर उन्हें पकड़वा दिया: जेल से छूटने के पश्चात आचार्य जी ने स्वाभाविक-आत्मरक्षार्थ ‘संघ’ तथा ‘सभा’ से अपना लगाव प्रकट किया क्योंकि यह उस समय जरूरी हो गया था। आचार्य जी को इन संगठनों के कुछ विचार पसंद तो आते थे, किन्तु उन्होंने कभी इनकी सदस्यता नहीं ली।
सहारनपुर जेल में नजरबन्दी के जब चार-साढ़े चार माह हो गए तो उन्हें न्याय की आशा क्षीण हो गई। तब उन्होंने प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम एक लम्बा पत्र लिखा। यह पत्र जिला मजिस्ट्रेट श्री रामेश्वर दयाल जी के मार्फत भेजा। पत्र में उन्होंने लिखा कि उन्होंने वही किया है जो आप भी करते आए हैं और जिसके लिए महात्मा गाँधी और सरदार पटेल जैसे उनके नेताओं ने निर्देश दिए हैं - जनता को अब अपने पैरों पर खड़े हो जाना चाहिए, केन्द्र सरकार इस समय पंगु है। उन्होंने अपनी जान जोखिम में डाली, गुण्डों से मुकाबला किया। अब साम्प्रदायिक कहकर उन्हें जेल में डाल दिया गया। उन्होंने निश्चय किया कि वे अब इन नेताओं के कहने में न आएँगे और यदि उन्हें पन्द्रह दिन में न छोड़ा गया तो वे सोलहवें दिन से अनशन प्रारम्भ कर देंगे।
मजिस्ट्रेट ने यह पत्र आगे पहुँचाया या नहीं, उन्हें नहीं पता, लेकिन बाद में जेलर ने उनसे जमानत-मुचलके भरकर छोड़ने के लिए कहा। वे ठहरे पुराने कांग्रेसी, जमानत पर छूटना उन्हें स्वीकार नहीं था। तब जेलर ने उन्हें एक सप्ताह बाद जमानत-मुचलका भर देने की शर्त पर पहले छोड़ देने के लिए कहा तो वह सहमत हो गए, क्योंकि इससे उनकी बात भी रह जानी थी। छूटने के बाद वह सीधे घर गए, आवश्यक व्यवस्थाओं से जब निवृत्त हुए तब शब्द-शास्त्र पर कलम चलाने पर विचार करने लगे।
तबतक एक सप्ताह बीत चुका था और एक दिन जिला मजिस्ट्रेट की चेतावनी लेकर एक पुलिस का आदमी उनके घर आ धमका। जिस पर लिखा था ‘एक सप्ताह का समय समाप्त हो गया है। यदि तीन दिन के भीतर जमानत-मुचलके न दिए, तो कानूनी कार्रवाई की जाएगी।’ जमानत भरना तो दूर आचार्य जी ने उस कागज के उलटी तरफ लिख कर वापस कर दिया कि वह जमानत देने को तैयार नहीं हैं, घर पर व्यवस्थाएं कर दीं हैं, अतः अब वह जेल में और छह माह रह सकते हैं। कैदी को पहले छोड़ने और बाद में जमानत की माँग करने पर हाईकोर्ट में उनको (मजिस्ट्रेट को) इसका सामना करना आसान नहीं होगा। अतः यह उनके हित में ही होगा कि अब जमानत-मुचलके की बात न उठाएँ। इस प्रकार जब मजिस्ट्रेट साहब फँस गए तो कागज दाखिल-दफ्तर हो गया और मामला बन्द। कांग्रेसियों के एक बार फिर चिढ़ने की बारी आ गई थी।
उसके पश्चात, आचार्य जी के मस्तिष्क में जिन-जिन विषयों पर मंथन चल रहा था उन्होंने अपना सम्पूर्ण ध्यान साहित्य सृजन पर केन्द्रित कर दिया।
इस अंक में बस इतना ही।

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

कुरुक्षेत्र ... तृतीय सर्ग ( भाग -2 )




शान्ति नहीं तब तक, जब तक
सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को अधिक हो,
नहीं किसी को कम हो।

ऐसी शान्ति राज्य करती है
तन पर नहीं, हृदय पर,
नर के ऊँचे विश्वासों पर,
श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर।
न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है,
जबतक न्याय न आता,
जैसा भी हो, महल शान्ति का
सुदृढ नहीं रह पाता।

कृत्रिम शान्ति सशंक आप
अपने से ही डरती है,
खड्ग छोड़ विश्वास किसी का
कभी नहीं करती है।
और जिन्हेँ इस शान्ति-व्यवस्था
में सिख-भोग सुलभ है,
उनके लिए शान्ति ही जीवन-
सार, सिद्धि दुर्लभ है।

पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर,
शोणित पीकर तन का,
जीती है यह शान्ति, दाह
समझो कुछ उनके मन का।
सत्व माँगने से न मिले,
संघात पाप हो जायें,
बोलो धर्मराज, शोषित वे
जियें या कि मिट जायें? 

न्यायोचित अधिकार माँगने
से न मिलें, तो लड़ के,
तेजस्वी छीनते समर को
जीत, या कि खुद मरके।

किसने कहा, पाप है समुचित
सत्व-प्राप्ति-हित लड़ना ?
उठा न्याय क खड्ग समर में
अभय मारना-मरना ?
क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल
की दे वृथा दुहाई,
धर्मराज, व्यंजित करते तुम
मानव की कदराई।

हिंसा का आघात तपस्या ने
कब, कहाँ सहा है ?
देवों का दल सदा दानवों
से हारता रहा है।
मनःशक्ति प्यारी थी तुमको
यदि पौरुष ज्वलन से,
लोभ किया क्यों भरत-राज्य का?
फिर आये क्यों वन से?

पिया भीम ने विष, लाक्षागृह
जला, हुए वनवासी,
केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख
कहलायी दासी
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,
सबका लिया सहारा;
पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा?

क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
तुम हुए विनत जितना ही,
दुष्ट कौरवों ने तुमको
कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है,
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को,
जिसके पास गरल हो।
उसको क्या, जो दन्तहीन,
विषरहित, विनीत, सरल हो ?
तीन दिवस तक पन्थ माँगते
रघुपति सिन्धु-किनारे,
बैठे पढते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से,
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।
सिन्धु देह धर 'त्राहि-त्राहि'
करता आ गिरा शरण में,
चरण पूज, दासता ग्रहण की,
बँधा मूढ बन्धन में।

सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की,
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।



क्रमश: 


प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग -२
द्वितीय  सर्ग  ---  भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३
तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १




घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।...अदम गोंडवी

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अदम गोंडवी 
जन्म - २२ अक्टूबर १९४७ 
मृत्यु - १८ दिसंबर २०११ 

घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।।

भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी।
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।

बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है।।

सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे।
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।

रविवार, 25 दिसंबर 2011

प्रेरक प्रसंग-17 : नाम –गांधी, जाति – किसान, धंधा – बुनाई

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प्रस्तुतकर्ता : मनोज कुमार

gandhi (10)मार्च 1922 की बात है। बारडोली का सत्याग्रह स्थगित किया जा चुका था। गांधी जी को गिरफ़्तार करने की ज़रूरत नहीं थी। लेकिन आन्दोलन रोक देने के कारण गांधी जी के प्रति जनता और राष्ट्र के नेता क्षुब्ध हैं, यह देखकर उस प्रभावशाली नेता को जेल भेजने का निश्चय सरकार ने किया।

10 मार्च 1922 को गांधी जी को गिरफ़्तार किया गया और उनपर सरकार के विरुद्ध द्वेष फैलाने का अभियोग लगाया गया। अहमदाबाद की अदालत में मुकदमा चला। गांधी जी ने अपराध स्वीकार करते हुए कहा, “इस शासन के विरुद्ध असन्तोष पैदा करना मेरा धर्म है। बुराई से असहयोग करना वैसा ही फ़र्ज़ है जैसा अच्छा से सहयोग।”

इसके पहले लोकमान्य तिलक को छह वर्ष की सज़ा दी गयी थी। उसी उदाहरण को सामने रखकर न्यायाधीशों ने गांधी जी को भी छह वर्ष की सज़ा सुनाई। अब छह साल तक बाहर रहकर बापू देश को नेतृत्व देने वाले नहीं थे। महादेवभाई रोने लगे। तात्या साहब केलकर उन्हें धीरज बंधा रहे थे। दृश्य बड़ा ही हृदय विदारक था।

उधर बंगाल के एक गांव में एक मकान में एक संतरी रो रहा था। क्यों? वह भला क्यों रो रहा था?

उस मकान में क्रांतिकारी उल्लासकर दत्त रहते थे। अभी-अभी वे जेल से छूटे थे। अपने मकान के पहरेदार को रोते देख वे उसके पास गए। उसके हाथ में एक अख़बार था। क्रांतिकारी दत्त ने उससे पूछा, “क्यों रोते हो?”

पहरेदार ने कहा, “मेरी जाति के एक आदमी को छह वर्ष की सज़ा हुई है। वह बूढ़ा है। 54-55 वर्ष की उसकी उमर है। देखो, इस अख़बार में छपा है।”

अख़बार में गांधी जी के उस ऐतिहासिक मुकदमे की तफ़सील थी। गांधी जी ने मुकदमे के दौरान अपनी जाति किसान बतायी थी और धन्धा कपड़े की बुनाई लिखाया था। वह पहरेदार मुसलमान था। वह बुनकर जाति का था। यह ख़बर पढ़कर उसकी आंखें भर आई थी।

क्रांतिकारी दत्त की समझ में सारी बातें आ गई। वह अपने संस्मरण में लिखते हैं, “हम कैसे क्रांतिकारी हैं? सच्चे क्रांतिकारी तो गांधी जी हैं। सारे राष्ट्र के साथ वे एकरूप हुए थे। मैं किसान हूं, मैं बुनकर हूं, --- यह उनका शब्द राष्ट्रभर में पहुंच गया होगा। करोड़ों लोगों को यही लगा होगा कि हममें से ही कोई जेल गया। जनता से जो एकरूप हुआ, जनता से जिसने संपर्क जोड़ा, वही विदेशियों के बन्धन से देश को मुक्त कर सकता है। उस सच्चे महान क्रांतिकारी को प्रणाम!”

***

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

पुस्तक परिचय-13 : अन्या से अनन्या

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1. व्योमकेश दरवेश, 2. मित्रो मरजानी, 3. धरती धन न अपना, 4. सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, 5. अकथ कहानी प्रेम की, 6. संसद से सड़क तक, 7. मुक्तिबोध की कविताएं, 8. जूठन, 9. सूफ़ीमत और सूफ़ी-काव्य, 10. एक कहानी यह भी, 11. आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श, 12. स्मृतियों में रूस

पुस्तक परिचय-13

अन्या से अनन्या

मनोज कुमार

आज के पुस्तक परिचय में आपका परिचय कराने जा रहा हूं बेहद बेबाक, वर्जनाहीन और उत्तेजक आत्मकथा – अन्या से अनन्या से।

आगे बढ़ने के पहले इन दो शब्दों के अर्थ भी देखता चलूं। शब्द कोश के पन्ने पलटता हूं। अन्य और ‘अनन्य’ तो मिलते हैं, ‘अन्या’ और ‘अनन्या’ नहीं। एक बार इसी तरह ‘कवयित्री’ शब्द खोजने चला था, नहीं मिला। कितना पुरुष मानसिकता वाला है हमारा समाज, न सिर्फ़ शब्द कोश को देखते वक़्त बल्कि इस आत्मकथा को पढ़ते वक़्त भी यह अहसास होता है मुझे। इस साहित्यिक पुस्तक को जब मैंने पढ़ना शुरु किया तो पूरा पढ़के ही छोड़ा। आप भी देखिएगा किताब एक बार बांधती है, तो पूरा पढ़ाके छोड़ती है। .. और खूबी यह है कि यह पहली पंक्ति से ही बांध लेती है। इसका एक विशेष कारण भी है। इस आत्मकथा की शैली में नवीन प्रयोग है – उपन्यास की तरह बातचीत (संवादात्मक) शैली है, जिसके कारण इसमें जबर्दस्त रोचकता है। इस पुस्तक के उन्हीं अंशों को, टुकड़ों और संवादों को आपके सामने रखता जाऊंगा, कोई समीक्षात्मक टिप्पणी नहीं करूंगा। आज मेरा काम सिर्फ़ इस पुस्तक से आपका परिचय कराना है।

clip_image002हां, तो मैं बात कर रहा था इन दो शब्दों के अर्थ का... शब्द कोश में पुरुष रूप में जो अर्थ हैं, उन्हीं से अर्थ लेता हूं – अर्थ संभवतः आप जानते तो होंगे ही, लेकिन इसे लिखे बिना आगे बढ़ना उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि पूरी कथा इसके ही आस पास है।

अन्या मतलब कोई दूसरी, भिन्न।

अनन्या मतलब अन्य से सम्बन्ध न रखने वाली, एक ही में लीन, एकनिष्ठ।

*** “प्रेम का विकल्प तर्क-वितर्क नहीं, कि प्रेम और घृणा, स्वतंत्रता और गुलामी, झूठ और सच, जीवन और मृत्यु ... कुछ ऐसे स्थायी द्वित्व हैं, जिनके बीच कहीं कोई स्पेस नहीं, कोई तीसरा विकल्प है ही नहीं। इसी द्वित्व में से किसी एक का चुनाव करना होगा।”

इस पुस्तक का मूल स्वर स्त्रीवादी है। इसमें इसकी लेखिका प्रभा खेतान का अन्तरद्वन्द्व, और जीवन की अन्तरयात्रा निहित है। लेखिका जब साठ की हो गई हैं, तब इसे लिखना उन्होंने शुरु किया और इसके शुरु में ही कहती हैं,

“मेरे लिए सती का अर्थ था, पति की एकनिष्ठ भक्ति, सूचना समर्पण, किसी पराए मर्द की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखना। आज मेरे भीतर बची स्त्री को प्रणाम।”

अपने जीवन के स्पन्दन को व्यक्त किया है उन्होंने। जीवन का एक एक कतरा खोल कर रख दिया है, पूरी भावुकता से, निष्पक्ष होकर, लेकिन पूरी निष्ठा से। भावुकता में कदम भले लड़खड़ाते हों लेकिन सम्भलते ही कहती हैं

“औरत के लिए अजीबो-ग़रीब है दुनिया।”

अपने जीवन के एक-एक परतों को इस पुस्तक में उन्होंने उधेड़ कर रख दिया। यह उनके सच कहने का साहस ही है जो वे इस बेबाकी से सारी बात कह गईं। अपने उस अधेड़ उम्र के प्रेमी से कैसे मिली?

“बाइस वर्ष की थी। आंखों का इलाज कराने एक रोगी के रूप में उनके पास गई थी। वे मेरी आंखों में ही खो गए। दो लड़के और तीन लड़कियों के पिता, चालीस से ऊपर की उम्र। जिस राह पर मैं चल पड़ी, वह ग़लत-सही जो भी हो पर वहां से वापस मुड़ना सम्भव नहीं।”

“हमारे मिलने का कारण केवल देह नहीं...पर हम देह से अलग भी तो नहीं हो पा रहे थे। मुझे शादी नहीं करनी, मैं किसी और पुरुष के बारे में सोच भी नहीं सकती। सात फेरों के बिना भी तुम मेरे हो। प्यार दिमाग से नहीं हृदय से किया जाता है। और हृदय से यदि हम कुछ करते हैं तो ज़्यादा सोचने-समझने की ज़रूरत नहीं।”

इस तरह के संबंध और प्रेम का नतीज़ा क्या हुआ?

“शान्ता ने सम्बन्ध तोड़ लिया, गीता नाराज़ रहने लगी थी। सहेलियां मुंह चुराने लगी थीं।”

पर क्या इस रिश्ते को सामाजिक स्वीकृति मिली या मिलती? खुद ही तो कहती हैं,

“हम अपने आप को बहलाते फुसलाते बिना यह समझे कि ऐसे रिश्तों को दुनिया अपनी नज़र, अपने पैमाने, अपनी परम्परा से तौला करती है। दुनिया की नज़र में पति-पत्नी के अलावा औरत-मर्द का हर रिश्ता, नापाक है, ग़लत है।”

खुद ही प्रश्न खड़ी करती है ...

“मैं क्या लगती थी डॉक्टर साहब की? प्रियतमा, मिस्ट्रेस, शायद आधी पत्नी, पूरी पत्नी तो मैं कभी नहीं बन सकती, क्योंकि एक पत्नी पहले से मौजूद थी। बीस सालों से उनके साथ थी .. किस रूप में? इस रिश्ते को नाम नहीं दे पाऊंगी।”

“प्रेम करने वाली स्त्री पत्नी, मां, बहन, कुछ भी हो सकती है, फिर सीधे-सीधे उसे रखैल कहो ना।”

रखैल, ... यह भी कहना सही होगा क्या? उनसे ही सुनिए ..

“मैं तो खुद कमाती थी। स्वावलम्बी थी, एक आत्मनिर्भर संघर्षशील महिला थी।”

पिता को उनके जिगरी दोस्त और समधी ने जहर देकर मार डाला। पिता की मृत्यु (हत्या) के बाद परिवार पर आर्थिक संकट मंडराने लगते हैं। पढ़ाई छुड़वा दिया जाता है। वहां से इस लेखिका ने सीढ़ी दर सीढ़ी जीवन के मार्ग को प्रशस्त किया और कलकत्ते के पुरुष वर्चस्व वाले व्यावसायिक समाज में एक सफल उद्योगपति होने का रुतवा हासिल किया, कलकत्ता चैम्बर ऑफ कॉमर्स की अध्यक्ष बनीं। अनेकों उपन्यासें लिखीं, स्त्री के शोषण, मनोविज्ञान और मुक्ति के संघर्ष पर विचारोत्तेजक लेखन किया, ... यह उनके चरित्र का एक पक्ष है, ... तो दूसरा पक्ष है ... एक अविवाहित स्त्री, विवाहित डॉक्टर को पागलपन की हद तक प्रेम करना, जो पांच बच्चों का पिता है। इच्छा से गर्भपात कराती है, डॉक्टर पर आश्रित नहीं है, इसलिए “रखैल” का सांचा भी तोड़ती नज़र आती है।

“मैंने स्क्रैच से ज़िन्दगी शुरु की। बचपन एक बड़ी वाहियात-सी ज़िन्दगी थी। फुटपाथ खेल का मैदान था। सुधारवादी, आदर्शवादी, गांधीवादी पिता, सदा द्वन्द्व से घिरी मां, कभी परम्परा, कभी आधुनिकता के बीच झूलते हम बच्चे। अनाथ बचपन था। अम्मा ने कभी गोद में लेकर चूमा नहीं। मां से अधिक दाई मां से प्यार मिला। पड़ोस के खेदरवा से दोस्ती हुई। आत्मसम्मान की कमी ने ज़िन्दगी भर पीछा किया। ग़रीबी ने हसरतें पूरी नहीं होने दी। काला रंग का ताना सुनना पड़ता। विद्रोही स्वभाव हो गया।”

इतना कुछ करना एक मारवाड़ी लड़की के लिए कम साहस की बात नहीं थी। एम.ए.. पी-एच.डी. (दर्शनशास्त्र)। हॉलीवुड से ब्यूटी थेरापी का कोर्स, कलकत्ते में ब्यूटी पार्लर, फिर चमड़े के निर्यात का स्वतंत्र व्यवसाय। इंडिया टुडे में फोटो छपती है ... बहुत डायनमिक महिला है। सात उपन्यास, छह काव्य-संग्रह, चिंतन पर पुस्तकें, दो पुस्तकों का अनुवाद किया।

इतने के बाद भी क्या हुआ कि कहना पड़ा ** “मेरी कोई पहचान नहीं” ... ** “मैं भीतर ही भीतर सलाद की तरह कटती जा रही थी।”

कारण उनके ही द्वारा सुनिए ..

“मैं सधवा नहीं, क्योंकि मेरी शादी नहीं हुई, मैं विधवा नहीं ... क्योंकि कोई दिवंगत पति नहीं, मैं कोठे पर बैठी हुई रंडी भी नहीं...क्योंकि मैं अपनी देह का व्यापार नहीं करती।’’

स्वेच्छा से एक जीवन वरण करने वाले की इस स्थिति के बारे में उनका कहना है,

“आवारगी को समाज स्वीकार कर लेता है। मगर अविवाहित रहकर एक विवाहित पुरुष, पांच बच्चों के पिता के साथ टंगे रहना, भला यह भी कोई बात हुई?”

तभी तो बीमार डॉक्टर को इलाज के लिए अमेरिका ले जाते वक़्त उसकी पत्नी से एयरपोर्ट पर सुनना पड़ता है --- आप जैसे इन्हें लेकर जा रही हैं, वैसे ही ले भी आइएगा। ये मेरी अमानत हैं, मेरा सुहाग, मेरे बच्चों के पिता ...

पूछना चाहती है

“... और मेरे?” पूछ नहीं पाती। मन में कहती है --- “पच्चीस सालों के सम्बन्ध के बावज़ूद डॉक्टर साहब मेरे कुछ नहीं लगते?”

सच्चाई आत्मकथा की सबसे पहले और अंतिम शर्त है। आत्मकथा लेखन साहस का काम है। प्रभा जी के साहस की दाद देनी होगी। जब वे यह बोल्ड और निर्भीक आत्मस्वीकृति के रूप में आत्मकथा लिख रही थीं, तब वो कलकत्ते की एक प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी, सफल व्यापारी और अविवाहित महिला थीं। बहुत ही कम लोग होंगे जो खुले आम समाज के सामने आकर अपनी कमज़ोरी को स्वीकार कर ले। जहां एक ओर उन्हें प्रशंसा मिली वहीं दूसरी ओर “बेशर्म और निर्लज्ज स्त्री द्वारा अपने आपको चौराहे पर नंगा करने की कुत्सित बेशर्मी” का नाम भी इसे दिया गया।

“वैसे आत्मकथा लिखना तो स्ट्रीप्टीस का नाच है। आप चौराहे पर एक-एक कर कपड़े उतारते जाते हैं। दर्शक-वृन्द अपना निर्णय लेने में स्वतन्त्र हैं। उनका मन, वे इस नाच को देखें या फिर पलटकर चले जाएं।”

यह पूरी किताब तल्ख हक़ीक़तों का बयान है –

“मर्द हमेशा औरत को रुलाता है, ऑल मेन आर बास्टर्ड। वैसे इन मर्दों को पैदा हम औरतों ने ही किया है, नौ मिनट का सुख ... और नौ महीने का पेट ...”

फिर ऐसा क्या था कि उस डॉक्टर से ऐसा सम्बन्ध बना।

देह का आकर्षण?

“देह तो हर जगह उपलब्ध है। कहीं भी, किसी भी कोने में।”

मन का लगाव? प्रेम?

“हां...नहीं...वैसे सब कुछ देह से शुरु होता है।”

फिर???

“एक दिन प्रेम के मीठे से भी मन भर जाता है। बची रहती है एक रुग्ण निर्भरता, डॉक्टर साहब मेरे लिए सुरक्षा के प्रतीक थे। एक बरगद की छांव। ऐसा लगता है स्त्री होना मात्र पाप है, एक हीन स्थिति है, गुलामों का जत्था है जो बिना मालिक के जी नहीं पाएगा।”

क्या यह पुस्तक एक प्रेम और प्रेम की कथा भर है? शायद नहीं। इसका लक्ष्य है न्याय। स्त्रियों को मिले सामाजिक न्याय।

“प्यार या तो जल्दी होता है, यानी बिना सोचे समझे या फिर हम ताउम्र दूसरे व्यक्ति को तौलते रह जाते हैं।”

“हर हिन्दुस्तानी लड़की का बस एक वही शाश्वत सपना कब वह लाल चुनरी ओढ़ेगी? कब उसकी सुहागरात होगी, कब कोई धीरे से उसके लाज भरे चेहरे को हथेलियों में भरकर चूम लेगा मेरी ज़िन्दगी में भी तो सब कुछ कितनी जल्दी घट गया मगर बिना किसी उत्सव के, बिना मेंहदी के, बिना सिन्दूर के।”

जीवन के ये सारे संघर्ष, सारे उथलपुथल सिखाते रहते हैं।

“हम औरतें प्रेम को जितनी गम्भीरता से लेती हैं, उतनी ही गम्भीरता से यदि अपना काम लेतीं तो अच्छा रहता, जितने आंसू डॉक्टर साहब के लिए गिरते हैं उससे बहुत कम पसीना भी यदि बहा सकूं तो पूरी दुनिया जीत लूंगी।”

“औरत की सारी स्वतन्त्रता उसके पर्स में निहित है।”

इस पुस्तक में अन्य अनेक चरित्र हैं जो अन्याय से पीड़ित हैं। अमेरिका के संदर्भ में उनकी बातें सुनिए –

“अमेरिकी औरतें भी हम भारतीय औरतों की तरह असहाय हैं। केवल पैंट पहनने और मेक‍अप करने से औरत सबल नहीं हो जाती। अमेरिका में भी औरतों को अपने हक़ के लिए लड़ना पड़ रहा है।”

मन्नू भंडारी से मुलाक़ात का वाकया बताते हुए कहती हैं ... “साहित्य की दुनिया में जिनके क़दमों की छाप पर मैंने चलना चाहा वे भी कहां इन आंसुओं की नियति से मुक्त थीं? राजेन्द्र यादव को उन्होंने जीवन साथी के रूप में स्वीकारा था लेकिन शादी के बाद एक दिन मन्नू जी ने रोते-रोते अपने पति-परमेश्वर के कारनामे सुनाए। ऐसे दगाबाज़ आदमी पर मुझे बेहद गुस्सा आया था। ग़लत पुरुष के हाथ में पड़कर औरत कितनी असहाय हो जाती है।”

आत्मकथा में स्त्री के कई रूप सामने आते हैं।

“कोई जन्म से स्त्री नहीं होती, समाज उसे स्त्री बनाता है।”

“स्त्री होना कोई अपराध नहीं है पर नारीत्व को आंसू भरी नियति स्वीकारना बहुत बड़ा अपराध है।”

स्त्री की अनेक किस्म की चालाकियां अथवा रणनीतियां न सिर्फ़ इस पुस्तक में रेखांकित की गई हैं बल्कि जिस परिवार नामक संस्था को हम महान मानते हैं, पति-पत्नी के संबंध को उच्चकोटि का मानते हैं, वह संबंध किस कदर खोखला हो चुका है और अंदर से सड़ रहा है, यह भी दिखाया गया है।

“माना कि पत्नीत्व एक संस्था है और पुरुष के लिए इस संस्था को चुनौती देना संभव नहीं।”

“डॉक्टर साहब चाहते थे कि मैं उनके परिवार में घुल-मिल जाऊं, परिवार का हिस्सा बनूं, बच्चों की परवरिश में हाथ बटाऊं, लड़कियों को स्मार्ट बनाऊं। आश्चर्य की बात तो यह थी कि उनकी पत्नी भी यही चाहती थीं। अतः हमारे आपसी सम्बन्धों में अजीब तरह की उभयवादिता थी।”

स्वार्थों के कारण यह संबंध महान है और किस तरह और कब इस संबंध के बाहर बनाए संबंध, जिसे सारा समाज अस्वीकार कर रहा था, किसी हद तक स्वीकार करने लगता है। लेकिन अंत में हुआ क्या? मिला क्या?

“मेरे पास आने से लोग डरते हैं, मेरा यह संबंध लोगों को आतंकित करता है। स्त्री को ही सारे लांछन सहने पड़ते हैं। पुरुष को कोई कुछ नहीं कहता। सम्बन्ध दो व्यक्तियों का होता है। दोनों ही इसके लिए उत्तरदायी हैं। नैतिकवादी होने की इनकी सारी चेष्टा एक ढोंग के अलावा और कुछ भी नहीं।”

“अजीब समाज है। यहां सिर्फ़ कुंआरी कन्याओं और पत्नियों की ज़रूरत है।”

“मैंने ज़िन्दगी के पच्चीस साल आप सबके पीछे गंवाए हैं। अब और भ्रम पालने से क्या होगा? यह तो बताइए कि आप या आपके परिवार का कौन मेरा अपना हुआ? लोग मुझे आपकी रखैल कहते हैं।”

स्त्री से सब लोग पाना चाहते हैं, उसे कोई देना नहीं चाहता। ‘अन्या से अनन्या’ से एक बात यह भी निकलती है कि स्त्री-पुरूष के प्रेम में वस्तुत: प्रेम तो औरत ही करती है, पुरुष तो प्रेम का भोग करता है। पुरुष में देने का भाव नहीं होता।

“भारत से एक पुरुष मित्र का फोन आया है, डॉक्टर साहब ने अन्दर वाले कमरे में फोन उठा रखा है। मुझ पर नियन्त्रण रखने का यह उनका अपना तरीक़ा है। मेरे नाम की हर चिट्ठी पहले डॉक्टर साहब की मेज पर आती थी। तीस साल के साथ के बावजूद मैं कभी उनका विश्वास नहीं जीत पाई। मेरे सम्पर्क में आनेवाले हर पुरुष के प्रति वे संदेहग्रस्त रहते और रिश्तों की कैफ़ियत देते-देते मैं थक जाती। उधर इस अवैध रिश्ते के कारण लोग मुझे खराब औरत कहते।”

निष्कर्ष यह निकलता है कि मर्द जैसा है वैसा ही रहेगा। उसके बदलने के चांस नहीं हैं। बदलना है तो औरत बदले।

“डॉक्टर साहब जैसे पुरुष आखिर क्योंकर किसी एक से सन्तुष्ट नहीं हो पाते? और...और की खोज किसलिए? डॉक्टर साहब किसी और को खोज सकते हैं तो मैं क्यों नहीं खोज सकती?”

स्वयं की कमजोरियों को बताते समय लेखिका इस तथ्य पर जोर देना चाहती है कि इन कमजोरियों से मुक्त हुआ जा सकता है। स्त्री की ये कमजोरियां स्थायी चीज नहीं हैं। ये कमजोरियां स्त्री की नियति भी नहीं हैं।

“पुरुष जैसे औरत को काम में लेता है, औरत भी वैसे ही पुरुष का व्यवहार कर सकती है। औरत भी तो कह सकती है तू नहीं तो कोई और सही।”

“औरत के आर्थिक अवदान को नकारने की परम्परा रही है। पहले गृहस्थी में उसके श्रम को नकारा जाता है, फिर मुख्यधारा में यदि उसे स्थान दिया जाता है तब उस स्त्री को या तो अपवाद मानकर पुरुषवर्ग अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है, या फिर उसे परे ढकेल दिया जाता है।”

“एक स्वतन्त्र स्त्री के प्रति रखरखाव की भावना गायब क्यों हो जाती है? पुरुष कमज़ोर स्त्री से ही क्यों प्यार करता है? और सबल स्त्री से चिढ़ता क्यों है?”

इस किताब का लक्ष्य यह भी है -- अव्यक्त को व्यक्त करना , निजी को सार्वजनिक करना, तभी यह व्यक्तिगत को सामाजिक बनाती है। जीवन के अनेक उलझी परतों को खोलती है।

“याद नहीं आता कि प्यार और सन्तुष्टि के क्षण कभी दो दिन भी मेरे जीवन में स्थायी रहे हों। एक अवैध रिश्ते को जीकर दिखलाने के प्रयास का शायद यही हश्र होना था, इससे भिन्न और कुछ नहीं।”

यह आत्मकथा एक आन्दोलन है। आत्मकथा अपने पाठकों को बाध्य करती है कि वे खुद भी अपने-आप से सवाल करें एवं वर्ग, जाति एवं संस्कृति के प्रभाव को समझें।

“स्त्री भी न्याय और औचित्य की मांग करेगी। इस नए सर्जित संसार में प्रगति का प्रशस्त मार्ग, घर की देहरी से निकलकर अनन्त छोर तक जाता है। स्त्री को यह समझना होगा। इन प्रश्नों पर संवाद होना चाहिए जो पीढ़ियों को घेरता हो। अपनी तमाम निर्भरता के बावजूद, एक सफल व्यवसायी महिला होते हुए भी एक इस सम्बन्ध के कारण लोगों की ताना-बोली और उपेक्षा का दंश सहने को विवश थी।”

'अन्या से अनन्या' प्रभा की आत्मकथा सारे भेद खोल देती है। यह दो-चार (रसीदी टिकट, एक कहानी यह भी, गुड़िया के भीतर गुड़िया और माई स्टोरी जैसी) महत्वपूर्ण आत्मकथाओं में है।

'अन्या से अनन्या' में अंतिम प्रसंग है डॉ.साहब केंसर हो जाता है। डॉक्टर साहब कहते हैं, “अपने सांई भगवान से मेरे लिए दो साल मांग दो।” मिसेज सर्राफ़ कहती हैं, “अब आपको ही सब संभालना होगा। आप जो सेवा कर पाएंगी वह मैं नहीं कर पाऊंगी।” प्रभा जब पचास की थीं तब डॉक्टर साहब चल बसे। उनकी अर्थी के निकट परिवारजन थे, प्रभा परिवार में नहीं थीं, किसी तरह माला शव के पास रख पाईं।

“प्यार को कार्य रूप में परिणत करने के लिए जिस साहस की ज़रूरत पड़ती है हमारे पास वह नहीं था। हम दोनों बड़े बुजदिल इंसान थे।

“उनकी स्मरण सभा में उन्हें कई रूपों में सम्बोधित और याद किया गया। कलकत्ते के वरिष्ठ नागरिक, समाजसेवी, सफल डॉक्टर ... पीछे पत्नी और बच्चों को छोड़कर गए हैं। प्रभा खेतान नामक स्त्री का कहीं भी ज़िक्र नहीं था।”

प्रभा खेतान का प्रेम अवैध भी था, तो अंतरंग था और क्षुद्र नहीं उदात्त था। परिवार कथा में प्रभा का नाम हो, न हो, प्रभा को प्रेमिका ही कहा जाएगा रखैल नहीं।

 

पुस्तक का नाम

अन्या से अनन्या

लेखिका

प्रभा खेतान

प्रकाशक

राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड

संस्करण

पहला संस्करण : 2010

मूल्य

175 रुपए

पेज

287

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

हिन्दी.blogspot.com या हिन्दी.tk लिखिए जनाब न कि hindi.blogspot.com या hindi.tk


हाल ही में अनिल.blogspot.com से गुजरा। अचंभित था कि ब्लॉग का नाम तो हिन्दी में दिखता है, लेकिन ब्लॉग का पता जिसे यू आर एल कहते है, वह हिन्दी में, अपनी लिपि नागरी में! फिर वहाँ अपनी प्रतिक्रिया में भी यह पूछ बैठा कि यह कैसे होगा? अगले दिन अपने फुरसतिया जी फेसबुक पर फुरसत में मिल गये। उनसे पूछा और बस धीरे-धीरे काम हो गया। अब आप भी देख लीजिए कि कैसे होता है ये सब! उम्मीद है कि बहुत कम लोग जानते होंगे। तो क्यों न हिन्दी ब्लॉगों के आधे पते, जिनपर हमारा बस चलता है (क्योंकि ब्लॉगस्पॉट डॉट कॉम तो रहेगा ही। मालिक हम नहीं, ब्लॉगर है, गूगल है), उनको अपनी भाषा हिन्दी के साथ-साथ अपनी लिपि नागरी में कर दिया जाय। लेकिन लफड़ा यह है कि ब्लॉग तो बन चुका है। फिर तरीका तो एक ही है कि नया ब्लॉग बनाया जाय। कौन-सा पैसा लगता है! और फिर उस ब्लॉग के साथ अपने वर्तमान ब्लॉग को ऐसे बाँध दिया जाय कि नये ब्लॉग पते पर जाते ही वर्तमान ब्लॉग खुल जाय। इसे तकनीकी भाषा में रिडायरेक्ट करना कहते हैं। चलिए, यही सब यहाँ देखते-करते हैं।
     आपके पास अपना ब्लॉग है ही। आपको सबसे पहले एकया ब्लॉग बनाना होगा जिसके पते में आप नागरी लिपि का इस्तेमाल चाहते हैं। जैसे एक ब्लॉग जिसका यू आर एल ( पता या वेब एड्रेस ) हो - हिन्दी.blogspot.com , यह हमें बनाना है। सबसे पहले हमें यह जानना होगा कि ब्लॉगस्पॉट पर हिन्दी नाम से हम ब्लॉग बना पाएंगे या नहीं? आप पहले भी ब्लॉग बनाते समय इस प्रक्रिया से गुजर चुके हैं। ब्लॉगर ब्लॉग बनाते वक्त हमसे हमारा अभीष्ट या मनोवांछित ब्लॉग पता ( या यू आर एल) पूछता है, फिर उसकी उपलब्धता जाँचकर बताता है कि हमारे द्वारा दिया गया पता हमें मिल सकता है या नहीं? फिलहाल हमें नागरी लिपि में पता चाहिए, इसलिए हमें यह जान लेना चाहिए कि वास्तव में हमारा पता दिखेगा हिन्दी.blogspot.com की तरह लेकिन यह बाह्य दृश्य होगा, न कि मूल रूप से ऐसा होगा। 
     सबसे पहले आपको यहाँ जाना है। यहाँ जानेपर आप यूनिकोड से पनीकोड में किसी वेब पते का या शब्द का परिवर्तित रूप देख सकते हैं। आप जिस पते को प्राप्त करना चाहते हैं, उसको हिन्दी में यानी नागरी लिपि में लिख कर नीचे नार्मल टेक्स्ट टू पनीकोड बटन दबायें। अब आपको अगले बॉक्स में xn-- से शुरू होने वाला एक कोड मिलेगा। नीचे चित्र में देखें।



यहाँ सिर्फ हिन्दी लिखकर भी पनीकोड में बदला जा सकता था। आप देख रहे हैं कि हिन्दी की जगह j2bd4cyah0f मिला। xn-- सबमें मिलेगा। यानी हिन्दी का पनीकोड रूप j2bd4cyah0f मिला। बस हो गया आधा काम। अब आप अपने ब्लॉगर के डैशबोर्ड में जाकर नया ब्लॉग बनाने का विकल्प चुनें। नया ब्लॉग बनाने की प्रक्रिया से आप परिचित होंगे ही। नये ब्लॉग के लिए जब ब्लॉगर आपसे ब्लॉग पता माँगे, तब आप पनीकोड वाले शब्द को रखे। ध्यान रहे यहाँ पनीकोड को लिखते समय में xn-- छूट न जाय। पनीकोड बहुत महत्वपूर्ण है। चित्र में आप देख सकते हैं।




इस तरह आप नया ब्लॉग तो बना चुके। अब आप ब्राउजर में पता हिन्दी.blogspot.com भरेंगे और आपका ब्लॉग खुल जाएगा।
अब अगर आप पहले से ब्लॉग के स्वामी हैं, तो आप भला क्यों सारे लेखों को इस नये ब्लॉग पर डालना चाहेंगे? वैसे यह भी आसान है और ब्लॉगर इसकी सुविधा देता है। लेकिन हम यहाँ यह चाहते है कि नये पते को ब्राउजर में भरते ही आपका वर्तमान ब्लॉग खुल जाय, तब? अब देखिए कि यह कैसे किया जा सकता है।
आप पहले अपने डैशबोर्ड में जाकर नये ब्लॉग के (जैसे यहाँ हिन्दी.blogspot.com) डिज़ाइन में जाकर HTML मे संपादित करें चुनें। फिर <b:include data='blog' name='all-head-content'/> को खोजिए। कंट्रोल के साथ एफ दबाकर भी खोज सकते हैं। यह अंश मिल जाने पर ठीक इसके बाद <meta content='0;url=http://hindibhojpuri.blogspot.com' http-equiv='refresh'/> चिपका देना है। यहाँ url= के बाद आप उस ब्लॉग का पता भरें जिससे हिन्दी.blogspot.com पर जाते ही वह ब्लॉग खुल सके। जैसे यहाँ तिरछे अक्षरो में मेरे ब्लॉग का पता url= के बाद रखा गया है, वैसे आप भी कर सकते हैं।
चित्र में देखिए।


डॉट टीके से

अगर आपके ब्लॉग का नाम बड़ा है और आप चाहते हैं कि यह छोटा हो सके ताकि दूसरों को बताते समय, उन्हें छोटा नाम याद रखना पड़े, तो डॉट टीके की सहायता ली जा सकती है। यानी आप ब्लॉग के पता में अब सिर्फ .tk लिखकर काम चला सकते हैं। इस तरह अब हिन्दी.blogspot.com की जगह सिर्फ हिन्दी.tk से काम चला सकते हैं। डॉट टीके पर पता पाने के लिए आपको पनीकोड में बदले बिना अपने ब्लॉग का पता सीधे नागरी-यूनिकोड में भरना होता है। आप जैसे ही डॉट टीके खोलेंगे, आपके सामने यह होगाः



आप यहाँ सीधे इच्छित डोमेन नाम भरें, फिर गो बटन दबाएँ। उपलब्धता के आधार पर आपको आगे बढना होगा। यह बहुत आसान है। जैसे मैंने हिंदी भरा (यहाँ आपको पनीकोड में बदलने की जरूरत नहीं है) ताकि हिंदी.tk नाम मुझे मिल सके। यह नाम उपलब्ध था। फिर अगले चरण में आप उस ब्लॉग या साइट पते को भर सकते हैं, जिसे आप अपने .tk डोमेन पर जाते ही खोलना चाहते हैं। नीचे चित्र देखें-




फारवर्ड दिस डोमेन टू चुनते हुए यूज योर न्यू डोमेन के बॉक्स में उस ब्लॉग का पता भरें, जिसे आप अपने .tk डोमेन पर जाते ही खोलना चाहते हैं। जैसे मैंने अपने ब्लॉग का पता भर दिया। रजिस्ट्रेशन लेंथ में 12 महीने चुन लें। अभी जैसी कि मेरी जानकारी है, मुफ्त में नवीकरण या रिन्यूअल कराते हुए हम इस समय अवधि को फिर से विस्तार दे सकते है।
.tk के नियम-कानून आप यहाँ पढ सकते हैं। फिलहाल इतना ही ध्यान देना है कि सिर्फ तीन डॉट टीके नाम आप इस्तेमाल कर सकते हैं। (हम कितने शरीफ़ हैं, आप जानते ही है) याद रहे कि मुफ़्त सेवा में कोई गारंटी नहीं होती। बस यही नियम हैं। एक और नियम कि आपकी उम्र 18 साल से ज्यादा हो, यह कोई बात हुई?
हाँ, तो हो गया काम। अब जब कोई हिंदी.tk खोलेगा तब, मेरा ब्लॉग खुल जायेगा। ज्यादा माथापच्ची नहीं करके आजमाइए इसे।

एक और लाभ है अपनी लिपि मे ब्लॉग पता रखने का
       
    हिन्दी या हिंदी का लफड़ा स्वाभाविक है। क्योंकि हमारे लिए भले ही यह एक ही शब्द है लेकिन मशीन के लिए ये दो अलग-अलग शब्द हैं। इस अनुस्वार की समस्या से बचने के लिए मैंने हिन्दी और हिंदी दोनों नामों से ब्लॉस्पॉट और टीके, दोनो जगह सारी सेटिंग एक ही रख दी ताकि दोनों में से किसी एक के लिखने पर ब्लॉग खुले। लेकिन इस अनुस्वार को छोड़ दें तो अपनी लिपि में पता रखने के बड़े फायदे हैं। मान लीजिए अंग्रेजी में एक ब्लॉग हैं kamal या bharadwaj, अब पढनेवाला इसे क्या पढे? कमल या कमाल या कामल, भरद्वाज या भारद्वाज या भारद्वज या भाराद्वाज या भारदवज या भरदवज? हिन्दी या संस्कृत में भरद्वाज और भारद्वाज दो अलग शब्द हैं और इनके अर्थ भी अलग हैं। एक पिता है और दूसरा पुत्र। यह रोमन लिपि के कारण स्पष्ट नहीं हो सकता। इसका समाधान है नागरी लिपि। तो अपनी लिपि का फायदा उठाने में पीछे क्यों रहें, जबकि यह शुद्धता और स्पष्टता की ओर ले जाती है।

परदे के पीछे

वास्तव में हिन्दी.blogspot.com ब्लॉग का पता होगा यह http://xn--j2bd4cyah0f.blogspot.com लेकिन यह अब मशीन की जिम्मेदारी है कि वह हिन्दी.blogspot.com को http://xn--j2bd4cyah0f.blogspot.com में बदलकर तब खोले। पनीकोड का सारा खेल नये ब्राउजरों में होता है जैसे मोज़िला, गूगल क्रोम आदि में। इंटरनेट एक्सप्लोरर के नये संस्करणों में भी होना चाहिए। इंटरनेट एक्सप्लोरर के बारे में नहीं कह सकता क्योंकि इसपर मैंने देखा नहीं। सम्भवतः इंटरनेट एक्सप्लोरर 7 या उसके बाद के संस्करणों में पनीकोड सहायता मौजूद होनी चाहिए।

पनीकोड क्या है, इस लफड़े में पड़ने की जरूरत नहीं। बस अपनी लिपि में ब्लॉग पता बन गया, बात खतम!
तो क्यों नहीं आज से सब अपने ब्लॉग का पता अपनी लिपि में कर दें। आपका क्या खयाल है? इसे अधिक से अधिक ब्लॉगरों तक पहुँचाइये। एक आन्दोलन बना दें इसको... 


12:14 / 23 दिसम्बर 2011- 


रिडायरेक्ट करते वक्त <b:include data='blog' name='all-head-content'/> खोजने में जिन्हें परेशानी या मुश्किल मालूम पड़ती हो, वे 15वीं पँक्ति में देखें (डिजाइन के एचटीएमएल संपादित / एडिट वाले विकल्प में)  <b:include data='blog' name='all-head-content'/> अंश मिलेगा। बस इसके बाद <title><data:blog.pageTitle/></title> मिलेगा। आपको इन दोनों के बीच  <meta content='0;url=http://hindibhojpuri.blogspot.com' http-equiv='refresh'/> वाला अंश रख देना है, जिसमें ब्लॉग का पता होना चाहिये। यानी आपको 15वीं और 16 पँक्ति के बीच <meta content='0;url=http://hindibhojpuri.blogspot.com' http-equiv='refresh'/>, ऐसा अंश  रख देना है। इस तरह  पहले की 16वीं पँक्ति अब 17वीं पँक्ति हो जाएगी।





गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

पाटलिपुत्र की कथा

164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_nअनामिका

सभी सुधी पाठकों को अनामिका का सादर प्रणाम ! पिछले दो अंकों में हमने कथासरित्सागर से शिव-पार्वती जी की कथा और वररुचि की कथा पढ़ी..और मैंने अगली कड़ी में पाटलिपुत्र नगर की कथा प्रस्तुत करने का वायदा करके आपसे विदा ली थी तो लीजिये प्रस्तुत है पाटलिपुत्र की कथा जिसे आज हम पटना के नाम से जानते हैं.....

पिछले अंक – १. कथासरित्सागर : शिव- पार्वती प्रसंग  २. वररुचि की कथा

पाटलिपुत्र की कथा

(वररुचि ने काणभूति से कहा)- उपाध्याय वर्ष ने सारा ज्ञान तो हमें दिया ही, उसके साथ उन्होंने हमें अनेक कथाएं भी सुनाई थीं.उनमे से एक कथा पाटलिपुत्र नगर के निर्माण की है, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ.

गंगाद्वार(हरिद्वार) में कनखल नाम का पावन तीर्थस्थल है, जहाँ से इंद्र के हाथी एरावत ने उशीनर पहाड़ के शिखर को तोड़ कर गंगा की धरा पर उतारा था. उसी कनखल में  एक ब्राह्मण ने तप कर के तीन पुत्र प्राप्त किये. वे तीनो पुत्र अपने माता-पिता के स्वर्ग सिधारने के पश्चात विद्या अध्ययन के लिए राजगृह पहुंचे. राजगृह में विद्या अध्ययन करके वे दक्षिण की ओर चल पड़े और वहां कुमार कार्तिकेय का उन्होंने दर्शन किया. इसके पश्चात् वे समुद्रतट पर बसी चिंचिनी नामक नगरी में पहुंचे और वहां भोजिक नाम के एक ब्राह्मण के घर रहने लगे. उस ब्राह्मण के तीन कन्याएँ थीं. उसने इन तीनो को उपयुक्त वर मान कर अपनी उन कन्याओं से तीनो ब्राह्मण कुमारों का विवाह कर दिया और स्वयं गंगाद्वार की ओर चला गया. वे ब्राह्मणकुमार अपने श्वसुर के घर में रहने लगे.

कुछ समय बाद उस नगरी में सूखा पड़ जाने से भीषण अकाल हो गया. तब घबरा कर वे तीनों ब्राह्मण अपनी पत्नियों को छोड़ कर भाग गए. उनकी पत्नियाँ घर में अकेली रह गयी. उन तीनों में मंझली बहन गर्भवती थी. वे तीनों विपत्ति के समय में अपने पिता के एक मित्र यज्ञदत्त के घर चली आई और किसी तरह अपने शील व् चरित्र की रक्षा करती हुई तथा अपने अपने पतियों का ध्यान करती हुई बहुत कष्ट में जीवन बिताने लगीं.

कुछ समय बीतने पर मंझली बहिन ने एक पुत्र को जन्म दिया. तीनों बहनें बच्चे के प्रति अत्यधिक ममता से भर उठीं और अपना स्नेह उस पर उड़ेलने लगीं.

एक बार वे तीनों उस बच्चे को अपने अपने अंकों में बारी-बारी से खिला रही थीं और वात्सल्य से गदगद हो रही थीं, उसी समय आकाश में भगवान शिव और पार्वती विहार करने को निकले. कुमार कार्तिकेय की माता पार्वती ने भगवान शिव के अंक में बैठ कर धरती का यह अनुपम दृश्य देखा. देख कर वे आह्लादित हुई, उच्छवासित हुई, और भगवान शिव से बोलीं - देखिये,देखिये तो भगवन, ये तीनों बहनें उस बच्चे को कैसे स्नेह से खिला रही हैं, लाड़ कर रही हैं. उन्हें विश्वास है कि यह दुधमुहाँ  बच्चा बड़ा होकर उनका लालन-पालन करेगा, उनकी देखभाल करेगा. भगवन, अब आप इन दुखियारी नारियों पर दया कीजिये. कुछ ऐसा कर दीजिये कि यह बच्चा आगे चल कर अपनी इन दुखियारी माताओं का पालन-पोषण कर सके.

शिव मुस्कुराये ! बोले - कहने की आवश्यकता ही नहीं है देवी ! इस बच्चे ने पिछले जन्म में अपनी पत्नी के साथ मेरी बड़ी अराधना की है. इसकी पत्नी थी पाटली. इस समय वह राजा महेंद्र वर्मा की बेटी है. इस जन्म में भी वह फिर इसकी पत्नी होगी. तुम कह रही हो, तो मैं इन दुखियारी माताओं को कुछ आश्वासन तो अभी दिए देता हूँ.

भगवन शिव पार्वती से ऐसा कह रहे थे, तभी धरती पर रात हो गयी. तीनों बहनें उस बच्चे को अपने अंक में लिपटाए हुए सो गयी और तीनों ने एक साथ एक एक सपना देखा. सपने में वे देखती हैं कि साक्षात भगवान् शिव उनसे कह रहे हैं कि तुम अपने इस बच्चे से बार-बार पुत्रक, पुत्रक ऐसा कहती हो, तो यह पुत्रक नाम से ही प्रसिद्द होगा. प्रतिदिन इसके सिरहाने एक लाख स्वर्णमुद्रा मिलती रहेंगी और आगे चल कर यह राजा बनेगा.

समय बीतता गया. पुत्रक बड़ा होने लगा. एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ प्रतिदिन मिलती रहीं. माताएं बहुत आनंदित होती रहीं. सुख के दिन लौट आये. पुत्रक राजा बना. वह प्रतिदिन बहुत सी स्वर्णमुद्राएँ दान में दे देता था. धीरे धीरे उसकी ख्याति चारों  ओर फैलने लगी. धीरे धीरे ये बात उसके भागे हुए पिता तथा पितृव्यों तक भी पहुंची और वे अपनी ससुराल में लौट आये. कुछ दिन तो वे अपने पुत्र की अतुल संपत्ति का उपभोग करते हुए सुख से रहे, पर धीरे धीरे उनके मन में फिर पाप सामने आने लगा. वे राजा पुत्रक को मार कर उसका राज्य हड़पने की इच्छा से उसे विंध्यवासिनी देवी के दर्शन कराने के बहाने वहां ले गए. मंदिर के भीतर उन्होंने बधिकों को तैनात कर दिया और पुत्रक को पहले देवी के दर्शन करने भेज दिया. बधिक उसकी हत्या करने को उद्यत हुए, तो उसने बधिकों से पूछा कि तुम लोग मुझे क्यों मार रहे हो ? बधिकों ने कहा - तुम्हारे पिता और पितृव्यों ने हमें सोना देकर तुम्हारी हत्या के काम में हमें नियोजित किया है. पुत्रक ने कहा - मैं तुम्हें सारे अमूल्य आभूषण दे देता हूँ. तुम लोग मुझे छोड़ दो. मैं किसी से कुछ न कहूँगा और यहाँ से चला जाऊंगा.

बधिकों ने उसकी बात मान ली. उन्होंने पुत्रक के पिता और पितृव्यों से झूठ कह दिया कि हमने पुत्रक को मार डाला है. वे लोग संतुष्ट होकर चिन्चनी नगरी लौट आये, पर पुत्रक के मंत्रियों को उन पर संदेह हुआ और मंत्रियों ने उन तीनों को मरवा डाला.

इधर पुत्रक संसार से विरक्त हो कर विन्ध्य के गहन वन में चला गया. वहां घुमते हुए उसे दो राक्षसों को बाहुयुद्ध के लिए कमर कसे हुए देखा. उसने राक्षसों से पूछा - तुम लोग कौन हो और क्यों लड़ना चाहते हो ?

राक्षसों ने कहा - हम दोनों मयासुर के लड़के हैं. हमारे पास पैतृक धन के रूप में एक पात्र, एक लाठी और दो खडाऊं हैं. हम दोनों में जो बलवान होगा, वह इस धन को प्राप्त करेगा. इसलिए अब हम अपने इस धन के लिए युद्ध करने वाले हैं.

पुत्रक को उनकी बात सुन कर हंसी आ गयी और उसने कहा - बस इतने से धन के लिए तुम दोनों भाई एक दूसरे को मारने पर उतर आये ?

राक्षसों ने कहा - ये सामान्य वस्तुए नहीं हैं, जिनके लिए हम लड़ रहे हैं. लाठी से जो लिख दिया जाता है वो सत्य हो जाता है. पात्र में जिस प्रकार के भोजन का ध्यान करें, वह उसमे भर जाता है और खडाऊं पहन कर मनुष्य आकाशाचारी  बन जाता है.

यह सुन कर पुत्रक ने कहा - इन वस्तुओं के लिए परस्पर युद्ध करके किसी के प्राण लेना तुम लोगों के लिए उचित नहीं है. तुम दोनों में से दौड़ने में जो आगे रहे, वह तीनों वस्तुए ले ले.वे दोनों राक्षस उसकी बात मान कर दौड़ पड़े. जैसे ही वे दौड़े पुत्रक ने उनकी लाठी और पात्र हाथ मे उठाये और खदाउ पहन कर आकाश में उड़ गया. दोनो राक्षस बुद्धू बन गये.

पुत्रक आकाश में उड़ कर नीचे उतरा, और एकांत में एक जर्जर मकान को देख कर उसमें चला गया. वहाँ उसने एक बूढ़ी स्त्री को देखा. उसने बुढ़िया को कुछ धन दिया और उसके मकान मे छुप कर रहने लगा.

एकबार बातचीत करते हुए बुढ़िया उससे बोली - बेटा मैं चाहती हूँ कि तेरे लिए कोई अच्छी सी बहू मिल जाए. इस राज्य के राजा की कन्या बड़ी सुंदर है.वह तेरे ही योग्य है, पर उसे रनिवास में बड़े कड़े पहरे में रखा जाता है.

बुढ़िया की बातें सुन-सुन कर पुत्रक के मन में उस राज्य की राजकुमारी पाटली के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया और वह ख़ड़ाऊ पहन कर आकाश मार्ग से रनिवास मे घुस गया. पर्वत के शिखर के समान उँचे महल मे उसने खिड़की से भीतर जाकर रात के समय एकांत मे सोई हुई पाटली को देखा. खिड़की से आती चांदनी उस पर पड़ रही थी और वह थक कर सोयी हुई कामदेव की मूर्तीमती शक्ति जैसी लगती थी.

पुत्रक ने धीरे से उसे आलिंगन करके जगा दिया. पहले तो पाटली अचानक उसे सामने देख कर लज्जित और चकित रह गयी. फिर धीरे धीरे दोनों में बातचीत हुई, बात बढ़ी और दोनों ने गन्धर्व विवाह कर लिया. फिर दोनों प्रतिदिन रात में मिलने लगे.

कुछ दिनों बाद पाटली के तन पर कुछ चिन्ह देख कर रनिवास के पहरेदारों ने राजा को खबर की. राजा ने एक चतुर स्त्री को राजकुमारी की निगरानी के लिए नियुक्त कर दिया. उस स्त्री ने पुत्रक को रात में राजकुमारी से मिलते देखा और चोरी से पुत्रक के वस्त्रों पर महावर से चिन्ह बना दिए.

अगले दिन राजा के सैनिकों ने खोजते खोजते वस्त्रों पर लगे महावर के चिन्हों के द्वारा पुत्रक को पहचान कर पकड़ लिया और राजा के सामने प्रस्तुत किया. राजा को अपने ऊपर कुपित जान कर पुत्रक ने खडाऊं पहनी और आकाश में उड़ गया. वह सीधा रनिवास पहुंचा और पाटली से बोला तुम्हारे पिता को हमारा रहस्य पता चल गया है, आओ हम आकाश में उड़ चलें.

पाटली उसके साथ चलने को तुरंत तैयार हो गयी और वह उसे अंक में उठाये हुए उड़ता उड़ता गंगा के किनारे पहुंचा. यहाँ दोनों सुख से रहने लगे. पुत्रक अपनी प्रिया पाटली को अपने पास के दिव्य पात्र से मनोवांछित भोजन कराता. पाटली ने गंगा के तट पर निवास करने की इच्छा प्रकट की, तो उसने लाठी से वहां एक नगर लिख दिया. तत्काल पाटलिपुत्र नगर बस गया.

ये प्रसंग यहीं समाप्त होता है.

नमस्कार !