हिन्दी उपन्यास
उद्भव संबंधी मान्यता
मनोज कुमार
उपन्यास के उद्भव के संबंध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। डॉ. गुलाब रॉय, शिवनारायण श्रीवास्तव आदि विद्वानों की धारणा है कि भारतीय उपन्यासों के अंकुर भारत की प्राचीनतम साहित्य में ही उपलब्ध हैं। वे कहीं बाहर से नहीं आए।
किन्तु डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, नलिनी विलोचन शर्मा तथा हजारी प्रदाद द्विवेदी इससे सहमत नहीं हैं। उनकी मान्यता है कि उपन्यास का संबंध संस्कृत की प्राचीनतम औपन्यासिक परंपरा से जोड़ना विडंबंना मात्र है।
अनेक विद्वान हिन्दी उपन्यास का पश्चिमी साहित्य की देन मानते हैं। उनके अनुसार 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में, भारतेन्दु युग में, जब हमारे यहां हिन्दी उपन्यासों का श्रीगणेश हुआ था, यह विधा पश्चिमी साहित्य में पूर्ण रूप से विकसित थी। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रभाव के कारण सर्वप्रथम बांगला साहित्य, पश्चिमी साहित्य की इस पूर्ण विकसित विधा से प्रभावित हुआ। परिणामस्वरूप बंग्ला उपन्यासों की रचना हुई। बंगभाषा में बहुत अच्छे उपन्यास निकल चुके थे। बांग्ला साहित्य की इस साहित्यिक परिवर्धन से भारतेन्दु युगीन साहित्यकारों ने हिन्दी उपन्यासों की आवश्यकता को अपरिहार्य समझा।
क्या यह मान्यता सही है?
क्या भारतीय उपन्यासों को पश्चिम के मापदंडों पर परखना उचित है?
क्या भारतीय उपन्यास का विकास यूरोप से पूर्ण रूप में हुआ है?
… और यदि ऐसा नहीं है है तो यह भिन्नता क्या है?
नामवर सिंह ने इन प्रश्नों को विचारा। उनका मानना है कि …
आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास उपन्यासों के बिना अधूरा है। हिन्दी में उपन्यास साहित्य के उद्भव की चर्चा करते हुए एक तरफ़ तो कुछ लोगों ने भारतीयता की लहर के चलते, भारतीय उपन्यास के बारे में कुछ ऐसी स्थापनाएं की, जिससे यह लगता है कि वे लेखन की एक खास तरह की परंपरा को भारतीय परंपरा के रूप में स्थापित करना चाहते हैं।
दूसरी ओर भारतीय साहित्य में कुछ ऐसे लोग थे जिन्होंने धारणा बनाई कि यह विधा भारतीय परंपरा के अनुरूप नहीं है। इस वर्ग के लोगों के मतानुसार उपन्यास तो भारतीय है ही नहीं। उनके अनुसार यह यूरोपीय विधा है और इसका जन्म पश्चिम में हुआ। अंग्रेज़ों के भारत आगमन के साथ भारतीयों का भी परिचय इस विधा से हुआ। यूरोपीय विधा के रूप में भारत में इसका आयात किया गया। बाहर से लाई गई यह विधा भारतीय ज़मीन पर रोपी गई है। पर इसके साथ मुश्किल यह हुआ कि इसे ठीक से आरोपित नहीं किया गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि यह ठीक से विकास नहीं कर सका। कुछ लोगों ने तो यहां तक कहा कि भारतीय उपन्यास जैसी कोई चीज़ है ही नहीं। हमारे यहां न तो श्रेष्ठ उपन्यास लिखे गए और न ही महान उपन्यास।
ठीक से यदि विचार किया जाए तो हम पाते हैं कि दूसरी तरह की धारणा को स्वीकार करने में कुछ सैद्धान्तिक स्थापनाएं बाधक हैं। इसलिए ज़रूरी है कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले उन सैद्धान्तिक स्थापनाओं की जांच-पड़ताल कर ली जाए।
हेगेल ने कहा था कि उपन्यास आधुनिक मध्य वर्ग का महा काव्य है। कुछ इसी तरह के विचार लुकास ने भी दिए। इस सिद्धांत के मानने वालों के अनुसार चूंकि मध्य वर्ग या बुर्जुआ यूरोप में ही पैदा हुआ, भारत में यह देर से विकसित हुआ है, इसलिए वह एक तरह से परजीवी या परोपजीवी रहा। इसलिए वह अपना महाकाव्य वैसे तैयार नहीं कर सका जैसा यूरोप में किया। ये पूरी की पूरी बात कुछ लोगों द्वारा स्वीकार कर ली गई। किन्तु इस धारणा से भारतीय उपन्यास साहित्य के मुख्य चरित्र को समझने में कठिनाई है। इस समझ के चलते भारतीय उपन्यास लेखन में अपनी पहचान बनाने वाले लेखकों का अवमूल्यन भी हुआ। उदाहरण के लिए ऐसे लोगों के द्वारा प्रेमचंद के बारे में यह कहा गया कि उनके उपन्यास अंग्रेज़ी में लिखे उपन्यास की नकल की गई दूसरे-तीसरे दर्ज़े के यथार्थवादी उपन्यास हैं। इन उपन्यासों का महत्त्व इस रूप में स्वीकार किया गया कि ये तो भारत के गावों और भारत के किसानों के बारे में लिखे गए हैं।
इन बातों की परख करने के लिए हमें यह देखना होगा कि भारतीय हिन्दी उपन्यास के पीछे कौन सी जीवन दृष्टि है, कौन सी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है, और फिर इस पृष्ठभूमि में वे कौन सा विशिष्ट चरित्र ग्रहण करते हैं। इसका उत्तर टटोलने के लिए हमें 19वीं सदी के उपन्यासों पर खास तौर से ध्यान देना होगा। उन उपन्यासों का ऐतिहासिक महत्त्व तो हम आज भी स्वीकार करते हैं पर उन्हें अविकसित और कलाहीन मानते हैं। मतलब कहने का यह कि हम यह तो मानते हैं कि इनसे उपन्यासों के उदय का आभास तो मिलता है लेकिन ये महत्वपूर्ण नहीं हैं। हिन्दी का पहला उपन्यास ‘परीक्षा गुरु’ माना जाता है। ‘परीक्षा गुरु’ एक अंग्रेज़ी ढंग का ‘नॉवेल’ है। लेखक ने इसी समझ के तहत इसे लिखा भी है। पर जगमोहन सिंह के ‘श्यामा स्वप्न’ को लोगों ने कहा कि यह तो उपन्यास है ही नहीं। उनके ऐसा मानने का कारण यह था कि इसमें कविता की बहुत सारी पंक्तियां उद्धृत हैं। किन्तु कई ऐसे उपन्यास हैं जिनमें कविता की पंक्तियां उद्धृत हैं। ‘अज्ञेय’ जी ने शेखर एक जीवनी में कविता की पंक्तियां उद्धृत की है। इसके कारण कोई क्षति उनकी नहीं हुई है, कोई आलोचना भी उनकी नहीं की गई है। लेकिन ‘श्यामा स्वप्न’ को उपन्यास नहीं माना गया। इससे यह समझ बनती है कि उपन्यासों का उन देशों में संबंध उस चरित्र से है जिसे हम उपनिवेशवादी चरित्र कहते हैं। उपनिवेशों में जहां साहित्य की एक बड़ी लंबी और समृद्ध परंपरा रही हो, भारत में जहां ‘कादम्बरी’ की रचना हुई हो, जहां ‘दस कुमार चरित’ लिखा गया हो, जहां ‘जातक कथा’ लिखे गए हों, जहां ‘कथा सरित सागर’ रचा गया हो, जहां ‘वसुदेव कथा कृतियां’ हो, उस देश में कैसे संभव है कि आगे चलकर के जब आधुनिक भारतीय भाषा में गद्य का विकास होता है तब वह उससे किस रूप में जुड़ता है, क्या ग्रहण करता है?
एक वे वर्ग थे जो अंग्रेज़ी के उपन्यास को सामने रखकर के रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का यथार्थ चित्र उपस्थित करते थे लेकिन कुछ दूसरे उपन्यास यथार्थवादी शैली में नहीं लिखे गए हैं बल्कि उन्हें आप रोमांस कह सकते हैं, रमनाख्यान कह सकते हैं, जो अद्भुत की और फैण्टेसी की सृष्टि करते हैं और इस क्रम में भारत ही नहीं भारत के बाहर भी आरंभिक उपन्यास आमतौर से फैंटेसी के रूप में लिखे गए हैं। उदाहरण के लिए पहला अमेरिकी प्रसिद्ध उपन्यास ...... एक एडवेंचर कथा है, एक जीवन और साहस की कहानी है। यह प्रतीकात्मक शैली में लिखी गई है। इस क्रम में हम पाते हैं कि जहां स्वाधीनता की भावना जिन उपनिवेशों में प्रबल थी वहां उपन्यास का उदय और ढ़ंग से हुआ है। वहां उपन्यास का उदय मध्य वर्ग के महा काव्य के रूप में नहीं हुआ है, बल्कि उपनिवेशों में उपन्यास का उदय राष्ट्रीय रूपक के रूप में हुआ है। इसका लेखक कभी-कभी इतिहास का सहारा लेता था, तो कभी-कभी इतिहास के अलावा कल्पित कथा का सहारा लेता था। 19वीं सदी में भारत के सबसे बड़े उपन्यासकार बंकिम चंद्र का उपन्यास ‘दुर्गेश नंदिनी’ यथार्थवादी या ऐतिहासिक तरह का उपन्यास नहीं है, बल्कि एक तरह का रोमांटिक उपन्यास है, रमनाख्यान है। ‘कपालकुण्डला’ एक फैंटेसी है। इस दृष्टि से हिन्दी में अगर कोई उपन्यास ‘श्यामास्वप्न’ है, वह फैंटेसी के रूप में है।
इस विवेचन से जो सिद्धान्त-सूत्र निकलता है वह यह है कि भारत में उपनिवेशवादी दौर में उपन्यास का विकास यूरोपिय उपन्यासों के रास्ते नहीं हुआ, बल्कि वह अपने प्राचीन परंपरा की रोमांस, फैंटेसी और स्वप्नलोक की अद्भुत कथा के रूप में हुआ और इसके द्वारा राष्ट्र की मुक्ति की आकांक्षा राष्ट्रीय चेतना के रूप में हुआ। सच्चे भारतीय उपन्यास का उदय राष्ट्रीय रूपक (National Allegory) के रूप में हुआ। इस राष्ट्रीय रूपक को आगे चलकर के यथार्थ जीवन की घटनाओं ने एक दूसरा रूप दिया जिसे एक तरह से यथार्थवादी कह सकते हैं। इस दृष्टि से देखें तो प्रेमचंद के सारे उपन्यास जिन्हें हम यथार्थवादी उपन्यास के रूप में देखते हैं, जिसे हम गांव के किसान का संघर्ष के कथा के रूप में देखते हैं, वह राष्ट्रीय रूपक है। चाहे वह ‘रंगभूमि’ का सूरदास हो, या ‘गोदान’ का होरी। होरी की सारी चिंता – गाय है। गाय उसे मिलती भी है, मिलकर भी हाथ से निकल जाती है। खेत निकल जाता है, वह किसान से मज़दूर हो जाता है। औपनिवेशिक व्यवस्था के तहत एक ज़मींदार एक ऐसी समाज व्यवस्था का अंग बनता है, जिसमें गोदान को राषट्रीय रूपक के रूप में देखा जा सकता है।
इसलिए जार्ज लुकास या हेगेल का कथन भारतीय उपन्यास के साथ न्याय नहीं करता। इस दृष्टि से विचार करने पर हमें यह कहना पड़ेगा कि भारतीय उपन्यास के विकास का इतिहास नए सिरे से लिखा जाना चाहिए, जिसके केन्द्र में मध्य वर्ग का जीवन नहीं बल्कि वह स्वाधीनता संग्राम के विकास की टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं पर होकर गुज़रता हुआ विकसित हुआ है। और ज़ाहिर है कि इसके समांतर उपन्यास की एक दूसरी भी धारा है, लेकिन मुख्य धारा भारतीय उपन्यासों की वही है जिसकी नींव प्रेमचंद ने डाली थी। जिसका विकास रेणु में हुआ। आगे चलकर रागदरबारी में हुआ। और इन उपन्यासों के ढ़ांचों को लेकर, साथ ही इनकी शैलियों को लेकर और फिर देखें कि प्रच्छन्न रूप में कैसे ये उपन्यास यथार्थ ठेठ यूरोपीय यथार्थवादी उपन्यास नहीं हैं, जिस रूप में प्रेमचंद के उपन्यास को यथार्थवादी उपन्यास कहा जाता है। हमलोगों ने, खास तौर से मार्क्सवादी आलोचकों ने, जो यथार्थ और यथार्थवाद का पल्ला पकड़े हैं, वे भूल जाते हैं कि ये यथार्थ तक तो बात ठीक है क्योंकि इनका संबंध जीवन की वास्तविकता से है, लेकिन वास्तविकता कई रूपों में अपने आपको व्यक्त करती है, कभी-कभी वास्तविकता फैंटेसी के रूप में भी व्यक्त होने को बाध्य होती है। कुछेक उपन्यास उसे फैंटेसी की सृष्टि करती है। इसलिए हिन्दी उपन्यास और यथार्थवाद को इस तरह से देखने पर हम भारतीय उपन्यास के साथ न्याय नहीं कर सकते।
हिंदी उपन्यास सम्बन्धी धारणाओं को जानकार ज्ञानवर्धन हुआ ...वैसे हिंदी उपन्यास ही क्या किसी भी विधा के सम्बन्ध में विद्वानों के विचारों में मतैक्य नहीं है ..चाहे वह काल विभाजन सम्बन्धी हो या विधा सम्बन्धी ....लेकिन आपने विचारों को संतुलित रूप से प्रस्तुत कर सराहनीय कार्य किया है ...आपका आभार
जवाब देंहटाएंनामवर जी का विश्लेषण सटीक प्रतीत होता है.
जवाब देंहटाएंएक अर्थपूर्ण प्रस्तुति। आभार इस ज्ञानवर्धक आलेख के लिए।
जवाब देंहटाएंआप का बलाँग मूझे पढ कर आच्चछा लगा , मैं बी एक बलाँग खोली हू
जवाब देंहटाएंलिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
मै नइ हु आप सब का सपोट chheya
joint my follower
हिंदी गद्य साहित्य, विशेषकर उपन्यास विधा के बारे में तथ्पूर्ण विश्लेषण रोचक, सर्गाभित एयर चिंतान्परल लगा. अभी तो इतना ही शेष मनन करने के बाद. सराहनीय पोस्ट. बधाई स्वीकार करें सार्थक संचयन के लिए. आपकी खोजी वृत्ति को सलाम.
जवाब देंहटाएंआज आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएं...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंबधाई ||
आपके यह आलेख विज्ञान के विद्यार्थी को भी साहित्य से लुभाने लगे हैं.. उपन्यास पढना एक बात है और उनकी वैज्ञानिक जेनेसिस दूसरी बात.. यहाँ आकर अपने बौनेपन का एहसास होता है!!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंउपन्यास आधुनिक युग की उपज है - उस युग की जिसका दृष्टिकोण सर्वथा व्यक्तिवादी हो गया है, अराजकता का बोलबाला है, बाहरी दुनिया में तो कम, हमारे आंतरिक जगत में अधिक। समष्टि को दबाकर व्यक्ति ऊपर उठ आया है। इन्हीं परिस्थितियों का प्रतिफल हमारा उपन्यास साहित्य है। प्रेमचंद ने कहा है कि मैं उपन्यास को मानव जीवन का चित्र मात्र समझता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल त्तत्व है।
जवाब देंहटाएंज़ाहिर है कि भारतीय परंपरा ऐसी नहीं थी। यहाँ तो समाज सर्वोपरि था और वसुधैव कुटुंबकम्, सर्वे भवंतु सुखिनः का भाव प्रचलित था। अतः इसी तत्व के आधार पर उपन्यास के उद्भव पर विचार किया जाना सही रहेगा। गद्य की परंपरा की शरुआत कादंबरी से माना जा सकता है। कथानकों में परिवर्तन सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार होता रहा।
मनोज जी का अच्छा प्रयास है।
अधिकांश उपन्यासकार अपने पात्रों को अपने हाथों की कठपुतलियां बना कर छोड़ते हैं, जिससे वे पूर्णतया अस्वाभाविक प्रतीत होते हैं और हमारे जीवन से दूर हट जाते हैं तथा हमारी सहानुभूति का अधिकार भी खो देते हैं. शरत बाबु के विप्रदास, प्रेमचंद के सूरदास और होरी की स्वाभाविकता इतनी है कि वे हमारी अपनी धरती के जन्मे प्रतीत होते हैं. इसके विपरीत अज्ञेय का शेखर ऐसा प्रतीत होता है जैसे धरती और आकाश के बीच कल्पनाओं के धरातल पर उत्पन्न हुआ है. अज्ञेय ने शेखर की प्रेरणा प्रसिद्ध पाश्चात्य उपन्यासकार रोम्या रोलाँ के ज्याँ क्रिस्ताफ से ली है. कहना चाहूंगी की कल्पना का संतुलित प्रयोग होना चाहिए जिससे कथानक की स्वाभाविकता नष्ट न हो क्यूंकि कल्पना का अत्यधिक प्रयोग भी कथानक को अविश्वसनीय बना देता है. अतः यह भी निश्चित है की उपन्यासकार को अपने पात्रों के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए. चरित्र जितने ही जाने पहचाने और स्वाभाविक होते हैं उतनी ही उपन्यासों की सफलता असंदिग्ध होती है.
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्द्धक और छात्रोपयोगी लेख...धन्यवाद
जवाब देंहटाएंहिन्दी उपन्यास-उद्भव सम्बन्धी मान्यता पर इस रचना में काफी रोचक व सशक्त सामग्री दी गयी है। साधुवाद।
जवाब देंहटाएंहिंदी उपन्यास का उद्भव पश्चिमी साहित्य की देन है। सर्वप्रथम बांगला साहित्य में इस विधा की शुरूआत हुई एवं कालान्तर में हिंदी साहित्य से जुड़े साहित्यकारों ने इसे देश काल एवं तदयुगीन वातावरण के साथ तादाम्य स्थापित कर इस विधा को एक अलग पहचान दी। पोस्ट प्रशंसनीय है।
जवाब देंहटाएंसुझाव है-Allegary की जगह Allegory लिखें।
धन्यवाद सर।
हिंदी उपन्यास...उद्भव और विकास पर एक बहुत ही सार्थक लेख....
जवाब देंहटाएंनामवर सिंह का विश्लेषण ........बहुत अच्छा लगा