एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो। इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए, कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए, इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े, और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए! किंतु शहीदों की आहों से शापित लोहा, कच्चा धागा। एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो। जय बोलो उस धीर व्रती की जिसने सोता देश जगाया, जिसने मिट्टी के पुतलों को वीरों का बाना पहनाया, जिसने आज़ादी लेने की एक निराली राह निकाली, और स्वयं उसपर चलने में जिसने अपना शीश चढ़ाया, घृणा मिटाने को दुनियाँ से लिखा लहू से जिसने अपने, “जो कि तुम्हारे हित विष घोले, तुम उसके हित अमृत घोलो।” एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो। कठिन नहीं होता है बाहर की बाधा को दूर भगाना, कठिन नहीं होता है बाहर के बंधन को काट हटाना, ग़ैरों से कहना क्या मुश्किल अपने घर की राह सिधारें, किंतु नहीं पहचाना जाता अपनों में बैठा बेगाना, बाहर जब बेड़ी पड़ती है भीतर भी गाँठें लग जातीं, बाहर के सब बंधन टूटे, भीतर के अब बंधन खोलो। एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो। कटीं बेड़ियाँ औ’ हथकड़ियाँ, हर्ष मनाओ, मंगल गाओ, किंतु यहाँ पर लक्ष्य नहीं है, आगे पथ पर पाँव बढ़ाओ, आज़ादी वह मूर्ति नहीं है जो बैठी रहती मंदिर में, उसकी पूजा करनी है तो नक्षत्रों से होड़ लगाओ। हल्का फूल नहीं आज़ादी, वह है भारी ज़िम्मेदारी, उसे उठाने को कंधों के, भुजदंडों के, बल को तोलो। एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो। हरिवंश राय बच्चन |
सोमवार, 29 अगस्त 2011
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।..
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देश के प्रति निश्छल प्रेम की सार्थक अभिव्यक्ति ही बच्चन जी की इस कविता का मूलाधार है । शहीदों के बलिदान और गुलामी की जकड़न के साथ उन्मुक्त होने की चाह किसके मन में उत्पन्न नही होती है । हर व्यक्ति इसके लिए अपना सर्वस्व लुटा देने के लिए हर संभव प्रयास करता है लेकिन हम लोगों मे से ही कुछ ऐसे लोग निकल जाते है जो हर बंधनों को तोड़ कर अपनी मंजिल पा ही लेते हैं । पोस्ट अच्छा लगा ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
बहुत सुन्दर ....बधाई
जवाब देंहटाएंKamaal kee rachana hai!
जवाब देंहटाएंजय हिंद
जवाब देंहटाएंवाह. नि:संदेह बहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ऊर्जावान रचना...
जवाब देंहटाएंकठिन नहीं होता है बाहर की बाधा को दूर भगाना,
जवाब देंहटाएंकठिन नहीं होता है बाहर के बंधन को काट हटाना,
ग़ैरों से कहना क्या मुश्किल अपने घर की राह सिधारें,
किंतु नहीं पहचाना जाता अपनों में बैठा बेगाना,
बाहर जब बेड़ी पड़ती है भीतर भी गाँठें लग जातीं,
बाहर के सब बंधन टूटे, भीतर के अब बंधन खोलो।
एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।
.... bachchan ji kee rachna ko prastut karke aapne samay ka saath diya hai
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी की गई है! यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
जवाब देंहटाएंबच्चन जी की उत्कृष्ट रचना पढवाने के लिये हार्दिक आभार्।
जवाब देंहटाएंbahut sunder aur urjaawaan rachanaa .bahut badhaai aapko.
जवाब देंहटाएंplease visit my blog.
www.prernaargal.blogspot.com
देश प्रेम की अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंदेश प्रेम की अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंदूसरी आज़ादी भी इसी जयकार से हासिल होगी।
जवाब देंहटाएंदेशप्रेम की भावना का अद्भुत प्रवाह है.
जवाब देंहटाएंसचिन को भारत रत्न नहीं मिलना चाहिए. भावनाओ से परे तार्किक विश्लेषण हेतु पढ़ें और समर्थन दें- http://no-bharat-ratna-to-sachin.blogspot.com/
अच्छी कविता पढ़वाने के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंखोज कर इतनी भावपूर्ण रचना प्रस्तुत करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद. वैसे आज के संघर्ष में ये समसामयिक बन गयी है.
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