बाबा नागार्जुन की कविताएं-44
30 जून 1911 - 5 नवंबर, 1998
बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अब की मैंने जी-भर देखी
पकी-सुनहली फसलों की मुसकान
-- बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अब की मैं जी-भर सुन पाया
धान कुटती किशोरियों की कोकिल-कंठी तान
-- बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अब की मैंने जी-भर सूँघे
मौलसिरी के ढेर-ढेर से ताजे-टटके फूल
-- बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अब की मैं जी-भर छू पाया
अपनी गँवई पगडंडी की चंदनवर्णी धूल
-- बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अब की मैंने जी-भर तालमखाना खाया
गन्ने चूसे जी-भर
-- बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अब की मैंने जी-भर भोगे
गंध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श सब साथ-साथ इस भू पर
-- बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनो के बाद हुए बाबा (नागार्जुन) से दिल दो-चार...बहुत दिनो के बाद...आभार
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों के बाद इस देश में रूप -रस गंध की कमी हो गयी
जवाब देंहटाएंबाबा नागार्जुन को नमन...
जवाब देंहटाएंबाबा नागार्जुन ने तो बहुत दिन बाद यह सब महसूस भी कर लिया ..लेकिन आज के दौर में ऐसे एहसास कहाँ मिलते हैं ..अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंKavi ne bahut dinoke bad Kay pays
जवाब देंहटाएंअप्रतिम कविता /उपलब्धी का धन्यवाद ! नागार्जून की "मन करता है " नही मील रही/
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