नाट्य साहित्य
नया नाटक और जगदीशचंद्र माथुर
सृजनशीलता का नया रूप प्रकट करने वाला नया नाटक संबंधों के आंतरिक यथार्थ की खोज करता है। यह बाह्य यथार्थ की जगह आंतरिक यथार्थ को नाटक में रूपायित करता है। व्यक्ति के गहरे अंतर्द्वन्द्व, उलझाव, भटकाव आदि के माध्यम से वर्तमान जीवन की दशाओं को व्यंजित करता है। शैली शिल्प के स्तर पर इस तरह के नाटक में प्रतीकात्मक प्रस्तुतिकरण की जाती है। इससे नाट्य-वस्तु अधिक व्यंजक और काव्यात्मक स्वरूप ग्रहण करती है। नया नाटककार अधुनिकता व्यंजक संवेदना को व्यक्त करने के लिए मिथकीय या पौराणिक प्रसंगों को नयी तार्किकता के साथ प्रस्तुत करता है।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पश्चिम में लोगों की मानसिकता ऐसी हो गई थी जिसमें आध्यात्मिक चिंतन और सामाजिक व्यवस्था लोगों को निरर्थक लगने लगा था। मूल्यहीनता, अनास्था, बढ़ते जा रहे थे। जीवन विसंगतियों से भरा लगने लगा था। मानवीय विघटन थी। उलझाव और संत्रास से मानव त्रस्त था। आक्रोश व्यंजक ब्रेखट की रंगचेतना संत्रास के सामाजिक या बाहरी चेहरे को मामूली आदमी का संत्रास रूपायित करने लगीं। जबकि दूसरी तरफ़ अस्तित्ववादी और विसंगत नाटककार व्यक्तिविशेष के आंतरिक संत्रास और उलझाव को नाट्यबद्ध करने लगे।
ब्रेख्ट की धारणा पर व्यक्तित्वखोजी मानव की झलक सबसे पहले जगदीश चन्द्र माथुर के ‘कोणार्क’ (1946) में देखने को मिलती है। माथुर जी 1941 बैच के आई.ए.एस. थे। बिहार के हाजीपुर अनुमंडल में एस.डी.ओ. नियुक्त हुए। अपने कर्मशील जीवन के तीस वर्ष उन्होंने वैशाली, नालंदा, मिथिला और मगध के जीर्णोद्धार और पुनर्निर्माण में लगाए। प्रतिवर्ष होने वाले भव्य वैशाली महोत्सव की परिकल्पना उन्हीं की थी। आकाशवाणी के महानिदेशक के तौर पर उन्होंने देश की सभी भाषाओं और कला-साहित्य की प्रतिभाओं को उससे जोड़ा। उन्होंने ‘दस तस्वीरें’ और ‘जिन्होंने जीना जाना’ रेखाचित्र की रचना की। ‘परम्पराशील नाट्य तथा प्राचीन भाषा नाट्य संग्रह’ शोध-प्रबंध लिखा। 12 वर्ष की आयु में ‘मूर्खेश्वर राजा’ नामक प्रहसन लिखा। 14-15 वर्ष की उम्र में ‘लवकुश’ और ‘शिवाजी’ नामक एकांकी की रचना की। 19 वर्ष की आयु में चर्चित ‘मेरी बांसुरी’ एकांकी की रचना की। इनके एकांकी संग्रह हैं, - ‘भोर का तारा’ और ‘ओ मेरे सपने’।
कुछ समय के लिए इनकी नियुक्ति उड़ीसा में हुई थी। वही इन्होंने ‘कोणार्क’ की रचना की। इस नाटक में मंचीय सार्थकता और नयी जटिल जीवनानुभूतियों की नाटकीय रचनात्मकता लक्षित होती है। इसमें नायिका नहीं है। नायक सर्वहारा वर्ग का एक श्रमिक है। उसके चरित्र में मामूली न्याय से वंचित सामाजिक अस्तित्व के प्रति गहरी चिंता मिलती है। विभिन्न प्रकार के पात्रों, घटनाओं आदि को इसमें इस प्रकार संयोजित किया गया है कि वे विशिष्ट नाटकीय स्थिति में संश्लिष्ट हो उठते हैं। कोणार्क का निर्माण एक गहरे अंतर्द्वन्द्व का परिणाम है, एक प्रकार का उदात्तीकरण है। शिल्पी विशु की रचना की रचना-प्रक्रिया अनेक तरह के अंतःसंघर्षों से प्रेरित है – एक विशेष बिन्दु पर पहुंच कर तो परिवेश का संघर्ष अंतःसंघर्ष से मिल कर इतना उद्वेलनपूर्ण हो उठा है कि रचयिता विशु अपनी रचना का विध्वंस स्वयं कर देता है। कलाकार का युग-युग से मौन पौरुष, जो सौंदर्य-सृजन क्के सम्मोहन में अपने को भूल जाता है, कोणार्क के खंडन में फूट निकलता है।
माथुर जी का दूसरा ऐतिहासिक नाटक है ‘शारदीया’ (1959)। उन्होंने नागपुर के म्यूज़ियम में पांच गज की एक साड़ी देखी जिसका वजन मात्र पांच तोला था। इसे मराठों और हैदरबाद के निज़ाम के बीच 1795 में हुए खुर्दा युद्ध में बन्दी बने एक अज्ञात व्यक्ति ने ग्वालियर क़िले के तहख़ाने में आजीवन कारावास का दंड भुगतते हुए बुना था। लेखक ने ग्वालियर क़िले का वह कक्ष देखा और बाहर-भीतर के अंधेरे, अकेलेपन, घुटन और बेड़ियों में जकड़े उस कलाकार तथा उसकी प्रेमिका की सजीव-साकार कल्पना कर डाली। इसका नायक नरसिंह राव अर्ध-ऐतिहासिक पात्र है। प्रेम और सर्जनात्मक प्रक्रिया का प्रश्न इसमें उठाया गया है। इसमें जहां एक ओर भाषा की सरलता है वहीं दूसरी ओर नाटकीय स्थितियों की तीव्रतापूर्वक प्रस्तुति है।
माथुर जी का तीसरा नाटक ‘पहला राजा’ (1969) है। यह नाटक ऐतिहासिक-पौराणिक पृष्ठभूमि पर आधारित होने पर भी युगीन संदर्भों से जुड़ा है। माथुर जी ने आधुनिक समय की समस्याओं, विसंगतियों और जटिलताओं को अन्योक्ति-नाटक के रूप में प्रस्तुत किया है। नाटक में घटनाओं और पात्रों की प्रतीकात्मकता काफ़ी प्रभावित करती है। पौराणिक संदर्भ को लेकर उनकी चौथी कृति ‘दशरथनंदन’ (1974) और पांचवीं कृति ‘रघुकुल रीति’ (मरणोपरान्त) है।
इन नाटकों माथुर जी ने अन्तश्चेतना की भूमिका में स्थित तथ्य के अनुसंधान के लिए मनोविज्ञान का संबल ग्रहण किया और तार्किकता का सहारा लिया। इनकी नाट्य-कला में विविध रंग-शैलियों के सार्थक तत्त्वों का रचनात्मक प्रयोग, काव्यात्मकता, भावेश, तरलता, प्रगतिशील दृष्टिकोण, सामाजिक सरोकार और रंग-शिल्प के दिलचस्प प्रयोग दिखाई पड़ते हैं। भारतीय रंग-परंपरा के साथ इन्होंने पश्चिमी त्रासद-तत्त्व का सुन्दर सामंजस्य स्थापित किया।
संदर्भ ग्रंथ
१. हिन्दी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र, सह सं. डॉ. हरदयाल २. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली – खंड ९ ३. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारीप्रसाद द्विवेदी ४. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ. श्याम चन्द्र कपूर ५. हिन्दी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ६. मोहन राकेश, रंग-शिल्प और प्रदर्शन – डॉ. जयदेव तनेजा ७. हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास – डॉ. दशरथ ओझा ८. रंग दर्शन – नेमिचन्द्र जैन ९. कोणार्क – जगदीश चन्द्र माथुर १०. जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि नाटक के लिए रंगमंच – महेश आनंद ११. अन्धेर नगरी में भारतेन्दु के व्यक्तित्व के स र्जनात्मक बिन्दु – गिरिश रस्तोगी, रीडर, हिन्दी विभाग, गोरखपुर विश्व विद्यालय १२. रंगमंच का सौन्दर्यशास्त्र – देवेन्द्र राज अंकुर १३. दूसरे नाट्यशास्त्र की खोज - देवेन्द्र राज अंकुर १४. आधुनिक भारतीय नाट्य-विमर्श – जयदेव तनेजा
नया नाटक और जगदीश चंद्र माथुर के संबंध में प्रस्तुत जानकारी अच्छी लगी । संदर्भ ग्रंथों का उल्लेख भी इस विधा के बारे में अच्छी जानकारी अर्जित करने वालों के लिए लाभदायक रहेगा । धन्यवाद ।
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