नाट्य साहित्य
नया नाटक - संवेदना और शिल्प का नाटक
स्वाधीनता के बाद हिंदी-गद्य की सर्वांगीण उन्नति हुई। भारत ने ग़ुलामी की जंज़ीरों को तोड़ कर आज़ादी की सुखद और स्फूर्तिदायक सांस ली। इसका परिणाम यह हुआ कि गद्य के क्षेत्र में नये आयामों का उद्घाटन हुआ। अपने मनोभावों को अभिव्यक्ति देने के लिए सर्वथा नवीन साहित्यरूपों का प्रश्रय लिया जाने लगा। नवनिर्माण पर बल दिया जाने लगा। कथ्य की कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए सर्वथा नये प्रतीक, उपमान या बिंब ही प्रयुक्त नहीं हुए, बल्कि फ्लैशबैक, चेतना-प्रवाह आदि शैलियों का भी प्रयोग किया जाने लगा। कथानक को गौण मानने तथा पात्रों का मनोवैज्ञानिक चित्रण करने की प्रवृत्तियों के लेखक मानव-मन के सूक्ष्म से सूक्ष्म संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने में सफल हो सके। इस प्रकार जटिल से जटिलतर होते हुए जीवन-यथार्थ की प्रखर चेतनात्मक अभिव्यक्ति मिली। रचनाकार समस्याओं को यथार्थ की ज़मीन पर ही यथार्थ को देखने, झेलने और रचने को प्रेरित हुए। फलतः प्रचलित साहित्यरूपों की अभ्यस्तता को तिरस्कृत करते हुए नये सहित्यरूप, नयी अभिव्यक्तियां और नयी शैली जन्मी।
हिंदी नाटक भी रंगमंच और यथार्थ से जुड़कर नयी दिशा की ओर उन्मुख हुआ। जगदीशचन्द्र गुप्त और मोहन राकेश ने प्रसाद की नाट्य शैली का अनुकरण करते हुए रंग-शिल्प के नये प्रयोग किए। मंचीय सार्थकता और नयी जटिल जीवनानुभूतियों की नाटकीय रचनात्मकता के लिए इन्होंने संवेदना की नयी भूमियों का उद्घाटन किया। इन्होंने ऐतिहासिक और पौराणिक नाटकों मे लेखन में नये रंग भरे जिससे ‘नया नाटक’ लिखने की एक नई शुरुआत संभव हुई। इन्होंने नाटक लेखन को इस तरह से लिया कि नाटक लेखन और रंगमंच के बीच घनिष्ठ रिश्ता क़ायम हुआ। नाट्य कला में यह एक नया विकास था। संवेदना का स्वर भी आधुनिक बोध के नए स्वरूप को लिए था।
प्रसाद शैली से भिन्नता के कारण इनको हिंदी में नया नाटक या गंभीर नाटक लिखने की शुरुआत करने वाला नाटककार माना गया। धीरे-धीरे इस ढ़र्रे पर शिल्प और संवेदना से युक्त नाटक लिखने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी। और फिर हिंदी में नया नाटक का दौर चल पड़ा। जगदीश चन्द्र माथुर कृत ‘कोणार्क’ (1951) और मोहन राकेश कृत ‘आषाढ़ का एक दिन’ (1956), ‘लहरों के राजहंस’ (1963) में ऐतिहासिक कथानक का आधार तो था, लेकिन शिल्प और संवेदना का एक बदला हुआ आधुनिक रूप दिखा। इनमें समाज और व्यक्ति के जीवन की आंतरिकता के गहरे और जटिल यथार्थ का नाटकत्व प्रकट हुआ। इनमें मनोवैज्ञानिक गहराई के साथ जीवन के यथार्थ का चित्रण किया हुआ है। एक और विशेषता यह है कि इनमें नाट्य-भाषा और अभिनय के बीच अभिन्न रिश्ता क़ायम किया गया। हिंदी में रंगमंच लेखन की यह एक नई शुरुआत थी।
साठोत्तर के वर्षों में प्रकृतिवादी यथार्थ पर बल दिया जाने लगा। इस तरह के नाटकों में मनोवैज्ञानिक यथार्थ के केन्द्र से मानवीय रिश्तों और उन रिश्तों की संवेदनात्मक स्थितियों को प्रकाशित किया गया। इसप्रकार स्पष्ट बाह्य यथार्थ से कुछ अलग हटकर व्यक्ति के आन्तरिक यथार्थ का चित्रण करना ‘नया नाटक’ की एक विशिष्ट प्रवृत्ति बनकर प्रकट हुई।
संवेदना और शिल्प का नाटक
नया नाटक आज़ादी के बाद सपनों के क्रमशः टूटने से उपजी विवशता और निराशा की संवेदना का नाटक है। बीसवीं सदी के छठे दशक के मध्य से हम पाते हैं कि शिक्षित जनमानस आंतरिक विघटन और घुटन का अनुभव करने लगा। मानव मन की पलने वाली आशाएं टूटीं। इससे एक मोहभंग की स्थिति पैदा हुई। नयी पीढ़ी में कुंठा, वर्जना, घुटन, संत्रास, निराशाएं और आशंका ने जन्म लिया। उसके पहले कुछ वर्षों तक ऐसी स्थिति नहीं था। हालाकि विभाजन का दंश और गांधी जी की हत्या कचोटती रही फिर भी आज़ादी मिलने का हर्ष था, पहली पंचवर्षीय योजना की आंशिक सफलता की ख़ुशी थी। इसलिए सामान्य शिक्षित व्यक्ति अपने को दिशाहीन नहीं समझता था। किंतु साठोत्तर काल तक आते-आते आंतरिक संकट बढ़ गए। रचनाकारों का ध्यान इस ओर गया। इसी आंतरिक संकट को मूर्त करने के लिए नया नाटक का विकास हुआ। आंतरिकता के जटिल संसार को रंगमंचीय प्रतिबद्धता के साथ रूपायित करने के कारण हिंदी का नया नाटक, गंभीर सर्जनात्मक नाट्य सर्जन का आभास देने लगा। (… ज़ारी ….)
उल्लेखनीय नाटक :
विशेष नाट्यप्रवृत्ति के आधार पर डॉ. गिरीश रस्तोगी ने इस प्रकार वर्गीकरण किया है -
भारतीय रंगतत्व अन्वेषक
लक्ष्मी नारायण लाल कृत : सूर्यमुख, एक सत्य हरिश्चन्द्र, मिस्टर अभिमन्यु, दर्पण, अब्दुल्ला दीवाना, सूखा-सरोवर, मादा कैक्टस, अंधा कुंआ, आदि।
गत्यवरोधक विध्वंसक
मोहन राकेश कृत : आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे-अधूरे
सूक्ष्म सौन्दर्यबोधक
सुरेन्द्र वर्मा कृत : द्रौपदी, सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक, आठवां सर्ग
समकालीन चेतना संकेतक
गिरिराज किशोर कृत : प्रजा ही रहने दो
शैली अन्वेषक
मुद्राराक्षस कृत : मरजीवा, तिलचिट्टा, योर्स फेथफुली
विडम्बना उद्धारक
डॉ. शंकर शेष कृत : एक और द्रोणाचार्य
प्रयोग धर्मी
ज्ञानदेव अग्निहोत्री कृत : शुतुर्मुर्ग
रमेश बख्शी कृत : देवयानी का कहना है, तीसरा हाथी
हमीदुल्ला कृत विसंगत नाटक : उलझी आकृतियां, दरिन्दे, उत्तर उर्वशी।
बृजमोहन शाह कृत : त्रिशंकु
लोकशैली अन्वेषक
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना कृत : बकरी
मणि मधुकर
कुछ अन्य महत्वपूर्ण नाटक :
ललित सहगल कृत : हत्या एक आकार की
अज्ञेय कृत : उत्तर प्रियदर्शी
दया प्रकाश सिन्हा कृत : कथा एक कंस की
रेवती शरन शर्मा कृत : राजा बलि की नयी कथा
नरेन्द्र कोहली कृत : शम्बूक की हत्या
सुशील कुमार सिंह कृत : सिंहासन ख़ाली है
काशी नाथ सिंह कृत : धोआस
विस्तृत जानकारी .. काश नाटक के बारे में पहले ही इतनी जानकारी रही होती .. मंच पर मचित करने के लिए नाटक ढूँढने में कम मेहनत लगती :)
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी है
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
hardik aabhar ...... mai abhi snatkotar ke dwitiya varsh me hun, insabko mujhe apne pathykram me padhna hai .....achha laga aakar
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपका पोस्ट ज्ञानपरक होने के साथ-साथ संवेदना और शिल्प के नाटकों के बारे में सार्थक जानकारी से पूर्ण है । इसे पढ़ने के बाद कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि हम अभी साहित्य के विस्तृत महासागर में एक भटके हुए नाविक के समान हैं । यह पोस्ट हम सबके लिए Light House की भूमिका का निर्वहन करने में अपनी सार्थकता को सिद्ध करता है । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित जानकारी...पढ़ कर अच्छी मानसिक खुराक मिली...आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति , आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति , आभार
जवाब देंहटाएंयह आलेख बहुत महत्वपूर्ण है....इस महत्वपूर्ण प्रस्तुति के लिए आपको हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंविस्तृत जानकारी.मोहन राकेश के नाटक मुझे बहुत पसंद थे.
जवाब देंहटाएंनाटक के इतिहास का एक पन्ना पढवाने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंयह स्तुत्य है कि कई ब्लॉगर हिंदी साहित्य के इतिहास के विविध पक्षों पर उपयोगी जानकारी को डिजिटल रूप दे रहे हैं. यह अत्यंत उपादेय प्रयोग है.
रंगमंच के विषय में विस्तृत जानकारी उपलब्ध करवाई है आपने. धन्यवाद.
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