सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 1 / रामधारी सिंह " दिनकर "

आज से प्रति सोमवार रामधारी दिनकर द्वारा रचित " रश्मिरथी " यहाँ प्रस्तुत किया जाएगा .... आभार 

रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात पुण्य का हो । इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है । 


जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।
किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,
सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।

ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।

जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,
उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी।
सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्‌भुत वीर।

तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी
जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास,
अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।

अलग नगर के कोलाहल से, अलग पुरी-पुरजन से,
कठिन साधना में उद्योगी लगा हुआ तन-मन से।
निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर,
वन्यकुसुम-सा खिला जग की आँखों से दूर।

नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुञ्ज-कानन में।
समझे कौन रहस्य ? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,
गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल।

जलद-पटल में छिपा, किन्तु रवि कब तक रह सकता है?
युग की अवहेलना शूरमा कब तक सह सकता है?
पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जाग,
फूट पड़ी सबके समक्ष पौरुष की पहली आग।

रंग-भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे,
बढ़ा भीड़-भीतर से सहसा कर्ण शरासन साधे।
कहता हुआ, 'तालियों से क्या रहा गर्व में फूल?
अर्जुन! तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धूल।'

'तूने जो-जो किया, उसे मैं भी दिखला सकता हूँ,
चाहे तो कुछ नयी कलाएँ भी सिखला सकता हूँ।
आँख खोल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार,
फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।'

इस प्रकार कह लगा दिखाने कर्ण कलाएँ रण की,
सभा स्तब्ध रह गयी, गयी रह आँख टँगी जन-जन की।
मन्त्र-मुग्ध-सा मौन चतुर्दिक् जन का पारावार,
गूँज रही थी मात्र कर्ण की धन्वा की टंकार।

क्रमश: 


16 टिप्‍पणियां:

  1. bahut achcha kin aap yahaan 'rashmirathi'ke ansh dekar......dhanybad.

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  2. bahut sundar , har kisi ne ye kavyakhand nahin padhe hain, han sune hai lekin usaka phir se padhane ke liye prastut karna bahut hi sarahniy kaam hai. isake liye aapko bahut bahut aabhar.

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  3. एक प्रभावशाली रचना के जीवंत हस्ताक्षर - रश्मिरथी का यह अर्थ अनुकरणीय लगा, सरल भाषा में सूर्यकिरणों के रथ पर सवार - जो कर्ण का ही था

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  4. " रश्मिरथी " की इस प्रस्‍तुति के लिये आपका बहुत-बहुत आभार

    सादर

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  5. आपने यह श्रृंखला चला कर हम जैसों का बहुत भला किया है. आभार.

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  6. रश्मिरथी का पहला भाग पढकर आनंद हुआ..आभार!

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  7. रश्मिरथी प्रस्तुत करने का आभार संगीता जी

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  8. बहुत सुन्दर श्रंखला का आरम्भ किया है संगीता जी ! दिनकर जी की ओजस्वी रचनाएं अब सहज सुलभ हो जायेंगी यह विचार ही आनंदित कर देता है ! आभार आपका !

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  9. एक बेहद ज़रूरी काव्य। इस ब्लॉग को समृद्ध कर रही हैं आप।

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  10. हिंदी ब्लॉगिंग , जिसको लोग गोबर पट्टी कहते हैं :( , को साहित्यिक समृद्धि देने का बहुत आभार !

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  11. आपका बहुत बहुत आभार | इस आलेख के ज़रिये आपने ब्लोग्गेर्स को जो स्थान दिया है वो काबिल-ए-तारीफ़ है हुज़ूर |

    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  12. नमस्ते सर, क्या यूनीकोड टाईपिंग में काम मिल सकता है? ई मेल MK39431@GMAIL.COM

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  13. पिछले दिनों व्यस्त रही परेशां भी....
    आज से रश्मिरथी पढ़ रही हूँ....

    आभार आपका संगीता दी....

    सादर
    अनु

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