इतिहास :: "ये फसल इसलिए उगाता हूँ कि क्योंकि इन्हें खा नहीं सकता" –१
मनोज कुमार
पिछ्ले अंक से ज़ारी …..
एक निश्चित आय का स्त्रोत निर्धारित हो जाने के बावजूद भी अंग्रेजों की साम्राज्यवादी लालसा बढ़ती ही जा रही थी। लगातार भू-करों को बढ़ाते रहना राजनीतिक दृष्टि से बुद्धिमता पूर्ण नहीं था। 1813 के बाद भारत में व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया और मुक्त व्यापार की नीति अपनाई गई। अंगरेजों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था के उपनिवेश के रूप में इस्तेमाल किया। शुरू में तो वे व्यापारियों की तरह यहाँ से धनादोहन कर रहे थे। भारतीय वस्तुओं को यहाँ से खरीद कर इंगलैंड एवं यूरोप के बाजार में बेचकर मुनाफा कमा रहे थे। पर इंग्लैंड में हुंए औद्योगिक क्रांति के उपरान्त इस पूरे व्यापार का पैटर्न ही बदल गया।
मुक्त व्यापारिक व्यवस्था ने भारत को इंगलैंड के वस्त्र एवं अन्य उद्योग धंघों के लिए कच्चे माल का स्रोत बना दिया। फलतः ब्रिटिश पूँजीपतियों के लिए भारत एक मंडी बन गया। चूँकि औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप ब्रिटेन में उद्योग काफी फल-फूल रहे थे अतः उसे सस्ते कच्चे माल की आवश्यकता थी एवं उसके लिए अंगरेजों को भारत सबसे अच्छी जगह दिखाई दिया। भारत उनके लिए कच्चे माल का उत्पादन करने वाला देश बना दिया गया। और उसी कच्चे माल से इंगलैंड में तैयार वस्तुएं फिर भारत में लाकर बेची जाती थी। यह हुई दोहरी मार। इस परिवर्तन के कारण हमें अब केवल उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन करना पड़ता था जिनकी इंगलैंड की मिलों की आवश्यकता थी। भारत अब विश्व के बाजारों के लिए फसल उगाने लगा।
कहने को तो आधुनिकीकरण की ओर उठाया गया यह एक कदम था, लेकिन भारतीय कृषकों के पास अच्छी खेती करने के उपयुक्त साधनों का अभाव था। दूसरी बात थी, कर तो मुद्रा में देना था। इसलिए भी किसान को अब उन फसलों को उगाना मजबूरी हो गई थी जिसको बाजार में आसानी से खरीदा बेचा जा सके। पहले किसान वे चीजें उगाते थे जिसको वे खाते थे या जिनका गांवों में विनिमय हो जाता था। किन्तु अब वे उस तरह की फसल उगाने को मजबूर थे जो बाजार एवं ब्रिटिश की मांगो पर निर्धारित होता था। इस तरह उत्पादन के स्वरूप में मूलभूत परिवर्तन आया। फलस्वरूप न सिर्फ भारत के पारम्परिक हस्तशिल्प को जोरदार आघात लगा बल्कि कृषि के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय परिवर्तन हुआ।
पारम्परिक कृषि को छोड़ कर कृषक चाय, कपास, गन्ने आदि की पैदावार कर रहे थे, ताकि उन्हें उसका बाजार आसानी से मिल सके। कृषि को बाजार व्यवस्था से जोड़ा गया। इस प्रक्रिया को "कृषि का वाणिज्यीकरण" कहा जाता है। अब किसान वे वस्तुएं उगाने लगे जिनका देशी और विदेशी बाजार के दृष्टिकोण से अधिक मूल्य था। जैसे बंगाल में जूट, पंजाब में गेहूँ पैदावार पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। चाय काफी, कपास, पटनसन, गन्ना, तम्बाकू, नील, रबर आदि कुछ ऐसी ही फसलें थीं। किसानों को इनका उत्पादन करने के लिए विवश किया गया, जिससे इंगलैंड के उद्योगों को कच्चा माल मिल सके। कृषि के वाणिज्यीकरण की इस प्रक्रिया को अंगरेजों द्वारा आधुनिकीकरण एवं वृद्धि एवं विकास की निशानी बताया जाता था। क्या यह सोच सही थी? क्या ये विकास था? क्या कृषक सही मायने में लाभदायक स्थिति में थे?
आइए विचार करें।
कृषि के वाणिज्यीकरण की सरल व्याख्या है कि जो अधिशेष है उसके लिए बाजार है। उन्हें वहां बेचकर आमदनी प्राप्त की जा सकती है। फलतः ग्रामीण इलाके की समृद्धि होगी। अधिक अतिरेक अधिक आय। अगले चरण में कैपिटलिष्ट फार्मिंग का आना यानि उत्पादकता में वृद्धि। परन्तु यह प्रक्रिया इतनी सरल भी नहीं थी। बड़े शातिर एवं पक्के तरीके से भारतीय धन का शेषण करना ही अंगरेजों के मंशे थे। विभिन्न क्षेत्रों एवं विभिन्न समयों में इसकी पद्धति भी अलग अलग थी। वह फसल की प्रकृति पर निर्भर करती थी। जैसे चाय की खेती हमारे विदेशी शासक खुद किया करते थे। यदि किसी ने उनकी इच्छा के विरूद्ध कुछ भी आनाकानी की तो उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। कम पैसे देकर उनसे अधिक मजदूरी कराई जाती थी। उनका तो हर कीमत पर अधिक से अधिक मुनाफा कमाना ही उद्देश्य था। बिल्कुल दासता की प्रथा का नमूना था यह।
अगले अंक में ....... अभी ज़ारी है .......
अच्छी जानकारी परक पोस्ट।
जवाब देंहटाएंसार्थक लेख ....अच्छी जानकारी के लिए आभार
जवाब देंहटाएंइतने कुछ के बाद भी,लोगबाग यह कहने से नहीं चूकते कि अंगरेजों का ज़मानी ही अच्छा था। हद है।
जवाब देंहटाएंइत्निहास को देखने की नई दृष्टि नई सोच...
जवाब देंहटाएंतथ्यपरक पोस्ट!!
जवाब देंहटाएंderi ke liye kshama chaahti hun.
जवाब देंहटाएंshukriya is post dwara hame hamare itihaas se avgat karane ke liye.
baat agar angrezo ke jabardasti apni manchahi kheti karane ki kii jaye to is mudde par kudrishti nahi rakhni chaahiye kyuki kabhi na kabhi hamara desh bhi parivartan ki disha me sochta...angerjo ne apni jarurat ke hisab se parivartan kiya (aur vo samay se pahle ho gaya) .bas fark itna hai.
ant ke pahre ki baat par aate hain ki angrezo ki manmaani na hone par vo amaanveey vyvahaar karte the..ye dukhad hai...aise me yahi kaha ja sakta hai ki ham bhaarteey us samay itne bhole the ki unke shatir dimag ki soch ko na to samajh pate the na hi koi achook tod nikal pate the..aur yahi vajah rahi ki ham 200 saal tak unke shatir dimag ki chakki me piste rahe aur apni kitno hazaro lakho bahan bhaiyon ka khoon bahane ke baad hi unse chhutkaara pa sake.
ek bar fir se shukriya..is prastuti ke liye.
ज्ञानवर्धक आलेख के लिए धन्यवाद।
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