शमशेर के काव्य में प्रकृति
मनोज कुमार
शमशेर बहादुर सिंह के अनुसार कलाकार जीवन के किसी जाहिरी रूप को अभिव्यक्त नहीं करता, वह उसके कलात्मक रूप को अभिव्यक्त करता है। उन्हें जहां एक ओर मनोवैज्ञानिक यर्थाथवादी कवि माना गया वहीं दूसरी ओर आत्मपरक कवि भी कहा गया है। इसका उचित कारण है। उनकी रचनाओं में सामाजिक विषयों का फैलाव नहीं है। जीवन के छोटे-छोटे सुख-दुख, विचार, मनःस्थितियां, उनकी कविताओं का विषय बनती है। लेकिन इन्हें वे उनके पूरे संदर्भों में देखकर चित्रित करते हैं।
प्रकृति के अलग-अलग रंग शमशेर पर गहरा प्रभाव डालते रहे हैं। वे प्रायः रंगों और गतियों में ही प्राकृतिक रूपों को ढलता हुआ देखते हैं।
"उदिता" की भूमिका में शमशेर लिखते हैं –
"शामों की झुरमुट में, जब पच्छिम के मैले होते हुए लाल पीले बैगनी रंग हर चीज को लपेट कर अपने गढे मिलेजुले धुंधलके में खोने से लगते हैं आपने क्या उस वक्त भी ध्यान दिया है कि कैसे हर चीज एक खामोश राग में डूबने लगती है.....?"
आसमान और रंग उनकी कविताओं में विशेष रूप से प्रस्तुत होते रहे हैं। “उदिता" में शाम के समय के बादलों का चित्रण ... क्या चित्रकारी ही है! शमशेर जिस सूक्ष्मता से बादल और उस के बीच से आ रही किरणों के रंगों को पहचाना है वह किसी और कवि की रचनाओं में नहीं मिलता।
बादल अक्टूबर के
हल्के रंगीन ऊदे
मद्धम मद्धम
रुकते-से आ जाते
इ त ने पास अपने।
लग रहा है मानो तटस्थ भाव से दृश्य का अंकन वो नहीं करते बल्कि उनका मन इन प्राकृतिक चित्रों में घुला मिला है। यह इस कदर है कि यह बताना कठिन है कि प्राकृतिक दृश्य उनके मन पर असर डाल रहे हैं या कवि का मन ही प्रकृति को अपनी कल्पना के रंग में निहार रहा है। रंग के साथ साथ गति का विवरण और शब्दों को तोड़कर गति को विलंबित कर देने से धीरे धीरे सरकते बादलों का अद्भुत चित्र मिलता है।
एक्-इक पत्ता साकत्
ठै रा, संध्या भा में
सु न ता - सा कुछ किस को
इ त ने पास अपने ।
या दों की द्वा भा एँ
बा दल के भा लों पर
चमकी-सी लय होने
धीरे-धीरे-धीरे
इ त ने पास अपने।
जैसे क्षितिज के नीचे जाते सूरज का मंद प्रकाश अचानक बादलों के ऊपर चमक उठता है, वैसे ही मन में यादें कौंध जाती है। फिर उसी प्रकाश की तरह लय भी हो जाती है।
यर्थाथ दर्शन का शमशेर का अपना नजरिया है। शमशेर की कविता पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि शाम के धुंधलके में जब सारी चीजें गुम होने लगती है, तब कभी-कभी वक्त के बहते हुए धारे में एक ठहराव सा आता महसूस होता है।
शमशेर ने प्रकृति के कुछ अत्यंत अछूते बिंब और उनसे जुड़ी हुई अपनी खास संवेदना के चित्र हिंदी कविता को दिए हैं। जैसे इस चांद को देखिए
संवलाती ललाई में लिपटा हुआ
काफी ऊपर
तीन चौथाई खामोश गोल सादा चांद
आगे चलकर यह चांद जब कवि मन में उतर जाता है तो बिम्ब देखिए...
रात में ढलती हुई तमतमाई-सी
लाजभरी शाम के
अंदर
वह सफेद मुख
किसी ख्याल के बुखार का
चांद अपना रूप छोड़कर कवि की संवेदना में बदल जाता है। और कवि तब अपनी मनःस्थिति के अंदर के साथ साथ एक रेखा चित्र खींचता है ...
बादलों में दीर्घ पश्चिम का
आकाश मलिनतम।
ढके पीले पांव
जा रही रूग्णा संध्या।
... ... ... ...
नील आभा विश्व की
हो रही प्रति पल तमस।
बीमार शाम का पीलापन रात के गहरे अंधेरे में तबदील हो रहा है। पर ऐसा लगता है मानो शाम की खिड़की खुली रह गई है। जैसे शाम बीत गई है, कवि का भाव भी बीत चुका है। वह इस खुली खिड़की से झांकता है
विगत संध्या की
रह गई है एक खिड़की खुली।
झांकता है विगत किसका भाव।
इस खुली खिड़की के कारण कवि के मन पर छाया अंधेरा उसे पूरी तरह ग्रसित नहीं कर पाया है और वह कहता है ...
बादलों के घने नीले केश
चपलतम आभूषणों से
भरे लहरते हैं
बायु-संग सब ओर
बादल कवि को अब आभूषणों से सजे नीले लहराते देश की तरह लग रहे हैं। यानि शाम जब रात में ढलने लगी तो कवि का मन रूग्न नहीं है। कविता की भाव-भूमि देखिए कि आरंभ में अवसाद के कारण जो स्थिरता थी वही अब गति में बदल गया लगता है।
शमशेर की प्रकृति पर लिखी कविताओं को शमशेर के मन में पढ़ना होता है। उसकी भंगिमाएं और उसकी संवेदनाओं का संबंध तभी समझ आएगा। आधुनिक हिंदी कविता में इस तरह की अभिव्यक्ति और कहीं नहीं मिलती। तभी तो उन्हें बिम्बों का कवि कहा गया है।
शमशेर के लिए प्रकृति सामाजिक जटिलताओं में पलायन के बाद की शरण-स्थली नहीं है। वह उन्हें समाज की ओर लौटा ले जाती है। दरअसल प्रकृति उन पर चारों ओर से हमला करके उनकी इंद्रियों को उत्तेजित कर देती है। वह उनकी मानवीय संवेदना का विस्तार बन जाती है।
उड़ते पंखों की परछाइयां
हल्के झाड़ से धूप को समेटने की
कोशिश हो जैसे।
धूप को समेटने की कोशिश व्यर्थ है। यह अगर सिर्फ़ बाहर फैला हो तो समेटी भी जा सके पर –
धूप मेरे अंदर भी
इसलिए तो
कह कर कवि यह जताता है कि धूप को अलग करना कठिन है। शमशेर की प्रकृति संवेदना को अलग से पकड़ना भी उतना ही कठिन है। क्योंकि यह उनकी मानवीय संवेदना के अंदर धंसी है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रकृति शमशेर के काव्य में यथार्थवादी ढंग से अंकित नहीं होती। अभिव्यक्त प्रकृति-चित्र में उनका मन इस कदर घुला-मिला रहता है कि यह बता पाना कठिन होता है कि प्राकृतिक दृश्य मन पर असर डाल रहा है या कवि मन ही प्रकृति को अपने ख्यालों के रंग से निहार रहा है।
एक महान कवि के अछूते पहलू पर प्रकाश डालती रचना!!
जवाब देंहटाएंबिम्बों के कवि शमशेर जी की कविताओं में प्रकृति के बारे में गहन विश्लेषण पढकर अत्यंत प्रसन्नता हुई।
जवाब देंहटाएं... saarthak post ... aabhaar !!!
जवाब देंहटाएंयह वर्ष शमशेर जी की जन्मशताब्दी वर्ष भी है.. वैसे तो उन्हें प्रकृति का कवि नहीं कहा गया लेकिन आपने उनके काव्य में प्रकृति के तत्व की अच्छी व्याख्या की है.. उन्हें नामा करते हुए उनकी एक कविता प्रस्तुत करता हूँ:
जवाब देंहटाएं"यह विवशता
कभी बनती चाँद
कभी काला ताड़
कभी ख़ूनी सड़क
कभी बनती भीत, बांध
कभी बिजली की कड़क, जो
क्षण प्रतिक्षण चूमती-सी पहाड़।
यह विवशता
बना देती सरल जीवन को
ख़ून की आंधी
यह विवशता
मौन में भी है अथाह
भावनाओं के सलीब
स्वयं कांधा बन उठे-से हैं
कठिनतम।
हड्डियों के जोड़
खुल रहे हैं।
टूटते हैं बिजलियों के स्वप्न के आंसू;
आंख सी सूनी पड़ी है भूमि।
क्रांत अंतर में अपार
मौन।"
कवि की कविताओं का सूक्ष्म विश्लेषण किया है ...ज्ञानवर्द्धक लेख
जवाब देंहटाएंप्रकृति का वर्णन दर्शाती रचना दिखा रही है कि शमशेर जी प्रकृति के कितने नजदीक थे |आपने बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तूत किया है उनका यह पक्ष |
जवाब देंहटाएंबधाई
आशा
कवि मे प्रकृति है या प्रकृति मे कवि……………बेहद तारतम्य है पता ही नही चल रहा…………कवि से रु-ब-रु करवाने के लिये आभारी हूँ।
जवाब देंहटाएंशमशेर जी की कविताओं की सुन्दर समीक्षा। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंशमशेर जी के काव्य में प्रकृति चित्रण उनके पर्यावरण प्रेमी होने का प्रमाण है.
जवाब देंहटाएंवर्तमान में इसकी अधिक आवश्यकता है. आप द्वारा उनका और उनके काव्य का उल्लेख समीचीन है और आपके भी पर्यावरण के प्रति प्रेम को उजागर करता है, मनोज जी.
साधुवाद इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए
shamsher bahadur singh ji par sunder prastuti.........
जवाब देंहटाएंये स्वानुभूति से स्वतःस्फूर्त कविताएं हैं। आप इस तरह रचने नहीं बैठ सकते।
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