रविवार, 31 जनवरी 2010

बदलते परिवेश में अनुवादकों की भूमिका (भाग-१)

बदलते परिवेश में अनुवादकों की भूमिका (भाग-१)

अनुवाद का मूलमंत्र


जहां एक ओर पिछले कुछ दशकों में सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में अभूतपूर्व बदलाव आया है वहीं दूसरी ओर हिंदी के ज़रिए एक वैश्‍विक क्रांति का आगाज़ हुआ है। इसमें सिनेमा और टेलीविजन का बहुत बड़ा हाथ है। आज विज्ञापन की दुनियां में हिंदी का बोलबाला है। हिंदी धरावाहिकों को भी इसका बहुत बड़ा श्रेय जाता है। न सिर्फ हिंदीतर भाषी बल्कि विदेशी भी यह समझ चुके है कि अगर आम भारतीयों को कोई संदेश देना है तो हिंदी को माध्यम बनाना ही होगा।

1949 में हमने यह तय किया था कि हम सरकारी काम काज में हिंदी का उपयोग करेंगे। यानी हिंदी हमारी राजभाषा होगी। प्रशासन में राजभाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग और प्रगामी प्रयोग पर जोर दिया गया। इसके फलस्वरूप शिक्षा और प्रशासन में भारतीय भाषा को नई भूमिका मिली। अनुवाद एक व्यापक विषय बन गया। अनुवाद का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य हो गया। अनुवाद और राजभाषा दोनों ही क्षेत्र का काफी विकास हुआ है। अब अनुवाद और राजभाषा को एक ही अध्ययन विषय माना जा रहा है। आज पूरे विश्‍व में तेज़ी से बदलाव आ रहा है। अत: बदलते परिवेश में अनुवाद के संदर्भ में अनेक बिंदुओं का विकास अब ज़रूरी हो गया है। इसमें अनुवउदकों की भूमिका काफी बढ़ जाती है।

आज बाज़ारवाद के असर में हिंदी भाषा के बदलते रूप से कौन नहीं परिचित है। यह एक व्यवसायिक हिंदी का रूप इख़्तियार कर चुकी है। इसक चौतरफा विस्तार हो रहा है। इसके फलस्वरूप हिंदी ने इस घोर व्‍यावसायिक युग में संचार की तमाम प्रतिस्‍पर्धाओं को लाँघ अपनी गरिमामयी उपस्थिति भी दर्ज कराई । जिसका रोजमर्रा की जिंदगी में कोई खास उपयोग नहीं है वह प्रायः आम लोगों के लिए कोई विशेष महत्‍व नहीं रखती। मशीनी युग के भाग-दौड़ में वही चीज स्‍वागतेय है जिसका सीधा और तीव्र प्रभाव पड़ता हो। परिवर्तन ही एक मात्र शाश्‍वत है। हिंदी को भी रूढिवादिता एवं परंपरावादिता से बाहर निकल कर दैनिक जीवन की छोटी-बड़ी सभी आवश्‍यकताओं की पूर्ति के लिए बाजार के मान-दंड पर खड़ा होना पड़ा है। इस हिंदी का सौन्दर्य अलंकारों से नहीं साधारनीकरण से है। आज अनेक विदेशी उत्‍पादों के विज्ञापन भारत में हिंदी में किए जाते हैं ऐसी हिंदी में जो आम आदमी से लेकर खास आदमी तक पर प्रभाव डाल सके। फलत: हिंदी के ज़रिए रोजगार के नए-नए अवसरों का समावेश हुआ है।

हालांकि साहित्‍य के अलावे ज्ञान-विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में भी हिंदी का इतिहास कमजोर नहीं रहा है, अपितु ज्ञान-विज्ञान का हस्‍तांतरण मजबूत भाषा की विशेषता रही है। आज की तारीख में चिकित्‍सा, अभियंत्रण, पारिस्थितिकी, अर्थशास्‍त्र से लेकर विभिन्‍न भाषाओं से साहित्‍य का हिंदी में अनुवाद करने वालों की भारी मांग है। यह पूर्णतः अनुवादक पर निर्भर करता है कि वह जिस भाषा से और जिस भाषा में अनुवाद कर रहा है उन भाषाओं पर उसका कितना अधिकार है और इन भाषाओं की अनुभूतियों में वह कितनी तारतम्‍यता कायम रख सकता है। एक सफल अनुवादक वही होता है जो अनुदित कृति में भी मूल कृति की नैसर्गिक अनुभूतियों को अपरिवर्तित रखे। अनुवाद करते समय स्रोत भाषा की रचना के परिवेश और प्रसंग को समझकर ही अनुवादक को लक्ष्य भाषा में अनुवाद करना चाहिए। अपने किसी आत्मीय को बहुत दिनों के बाद देखकर अगर कोई पश्‍चिम के देशों का विदेशी कहे “You cane as sunlight” तो इसका अनुवाद हिंदी में तुम सूर्यप्रकाश की तरह आए के स्थान पर तुम्हारे आने से बड़ी खुशी हुई सही होगा।

कार्यालयों में अनुवाद का प्रयोग एक विशेष प्रयोजन के लिए होता है। राजभाषा हिंदी के ज़रिए हमारा प्रयास भारत के सभी प्रांतों, अंचलों और जनपदों के बीच सौहार्द्र, सौमनस्य व परस्पर स्नेह से एक सूत्र में बांधने का होना चाहिए। राजभाषा के प्रयोग का अधिकाधिक अवसर तभी मिलेगा जब उसमें सभी भारतीय भाषाओं के शब्दों का सहज समावेश हो। अनुवाद और अनुवादक की सार्थकता तभी है जब प्रवाहमय भाषा का प्रयोग होगा। भाषा में सदैव नए प्रयोग चलते रहते हैं। हिंदी भाषा में भी बाज़ारवाद, वैश्‍वीकरण, भौगोलीकरण एवं भूमंडलीकरण के कारण कई नए प्रयोग हो रहें हैं। अनुवादकों को इस बात का ख़ास ख़्याल रखना चाहिए। उन्हें इन परिवर्तनों को अपनी सहज प्रवृत्ति के रूप में ढ़ालना चाहिए। सहज प्रवृत्ति से सहज भाषा निर्मित होती है। सहज भाषा ही सर्वग्राह्य होगी। अनुवादकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि हिंदी भाषा को इतना बोझिल और कृतिम न बना दिया जाए कि इसकी सहजता नष्ट होने लगे। प्रचलित और सबकी समझ में आने वाली व्यवहार-कुशल हिंदी ही सर्वग्राह्य हो सकती है। सरकारी कार्यालयों में साहित्यिक और व्याकरण सम्मत हिंदी का आग्रह रख हम इसका विकास नहीं कर सकेंगे। यहां की शब्दावली में न तो भावनाओं का प्रवाह होता है न विचारों की प्रबलता। यहां मात्र माध्यम बनने की नियति होती है। अनासक्त तटस्थता यहां के अनुवाद का मूलमंत्र है।

ज़ारी है ----

शनिवार, 30 जनवरी 2010

आम आदमी की हिंदी प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए (भाग-7)

आज चक दे इंडिया हिट है!!

यह भी कहा जाता है कि बाज़ारवाद के असर में हिंदी भाषा के बदलते रूप से लोग आतंकित हैं। कुछ यह कहते मिल जाएंगे कि हमें बाज़ार की हिंदी से नहीं बाज़ारू हिंदी से परहेज़ है। उनका यह मानना है कि ऐसी हिंदी -- भाषा को फूहड़ और संस्कारच्युत कर रही है। यह अत्यंत दुखद और संकीर्णता से भरी स्थिति है। यह मात्र पान-ठेले के लोगों की समझ में आने वाली भाषा मात्र बन कर रह जाएगी। जिस बाज़ारू भाषा को बाज़ारवाद से ज़्यादा परहेज़ की चीज़ कहा जा रहा है वह वास्तव में कोई भाषा रूप ही नहीं है। कम से कम आज के मास कल्चर और मास मीडिया के जमाने में। आज अभिजात्य वर्ग की भाषा और आम आदमी और बाज़ारू भाषा का अंतर मिटा है। क्योंकि आम आदमी की गाली-गलौज वाली भाषा भी उसके अंतरतम की अभिव्यक्ति करने वाली यथार्थ भाषा मानी जाती है। उसके लिए साहित्य और मीडिया दोनों में जगह है, ब्लॉग पर भी। आज सुसंस्कृत होने की पहचान जनजीवन में आम इंसान के रूप में होने से मिलती है। दबे-कुचलों की जुबान बनने से मिलती है, गंवारू और बाज़ारू होने से मिलती है। यह हिन्दी उनकी ही भाषा में पान-ठेले वालों की भी बात करती है, और यह पान-ठेले वालों से भी बात करती है, और उनके दुख-दर्द को समझती और समझाती भी है। साथ ही उनमें नवचेतना जागृत करने का सतत प्रयास करती है। अत: यह आम आदमी की हिंदी है, बाज़ारू है तो क्या हुआ। बाज़ार में जो चलता है वही बिकता है और जो बिकता है वही चलता भी है।

प्राय: यह देखने में आता है कि अनुवादों की दुरूहता, तत्सम् शब्दों के प्रयोग के रुझान के कारण हिंदी भाषा को इतना बोझिल और कृतिम बना दिया जाता है कि इसकी स्वाभाविकता नष्ट होने लगती है। प्रचलित और सबकी समझ में आने वाली व्यवहार-कुशल हिंदी ही संपर्कभाषा का रूप ले सकती है। सरकारी कार्यालयों में साहित्यिक और व्याकरण सम्मत हिंदी का आग्रह रख हम इसका विकास नहीं कर सकेंगे। सामान्य बोलचाल में प्रचलित अंग्रेज़ी, पुर्तगाली, अरबी, फ़ारसी, उर्दू से लेकर देश की तमाम बोलियों और प्रादेशिक भाषाओं के शब्दों के हिंदी में प्रयोग से सही अर्थों में यह जनभाषा बन सकेगी और तभी हिंदी और हिंदीतर भाषाईयों के बीच की दूरी पट सकेगी। हिन्दी की विकास यात्रा में इसे हिंगलिश बनाने का किंचित प्रयास स्तूत्य नहीं है। हां, इसे निश्‍चय ही और अधिक प्रयोजनमूलक यानी फंक्शनल बनाया जाए। प्रयोजनमूलक हिन्दी जीवन और समाज की ज़रूरतों से जुड़ी एक जीवन्त, सशक्त और विकासशील हिन्दी भाषा है। आज ऐसी ही प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए हमारा प्रयास भारत के सभी प्रांतों, अंचलों और जनपदों को सौहार्द्र, सौमनस्य व परस्पर स्नेह से एक सूत्र में बांधने का है। तभी तो आज चक दे इंडिया हिट है!!

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शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

आम आदमी की हिंदी प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए (भाग-6)

साहित्य से अलग के क्षेत्र

साहित्य से अलग के क्षेत्र जैसे विज्ञान, चिकित्सा, विधि, प्रशासन आदि में जिस भाषा का प्रयोग होता है वह भाषा जीवन व्यवहार और ज्ञानपरक विचार-विश्लेषणमूल्यांकन विवेचन और प्रस्तुतिकरण की भाषा होती है। उसकी एक अलग तकनीकी शब्दावली होती है, जिसके प्रयोग के बिना उसके कार्य को आगे बढ़ाया ही नहीं जा सकता। चूंकि हिंदी की बोलियों में विज्ञान, चिकित्सा, विधि, प्रशासन आदि क्षेत्रों संबंधी चिंतन अनुशासन का विकास हुआ ही नहीं था इसलिए उसकी शब्दावलि की कोई बोलीगत परंपरा विकसित नही थी। आधुनिक पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान, चिकित्सा, विधि, प्रशासन आदि की शब्दावली के लिए हिंदी शब्दावलि में पर्याय निर्धारित करने के प्रश्न पर काफी विवाद उठा। एक वर्ग संस्कृत के धातुओं को लेने के पक्ष में था तो दूसरा वर्ग अरबी-फ़ारसी। यह टकराव का कारण बना। शब्दावलि तैयार तो की गई पर न तो यह पूर्ण है न ही निर्दोष। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों विज्ञान, चिकित्सा, विधि, प्रशासन आदि में हिंदी को कार्य का माध्यम बनाने के प्रयास को आज तक गंभीरतापूर्वक नहीं लिया गया है। चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो या कार्य क्षेत्र, विभिन्न विषयों के लोग हिंदी माध्यम से अपने को दूर रखने की कोशिश ही करते रहे।

सरकारी क्षेत्र के सृजनात्‍मक लेखन की बात करें तो हम पाते हैं कि प्रशासनिक क्षेत्र में हिंदी के उपयोग के सरकारी प्रयास का समुचित माहौल ही नहीं बना। अनुवाद की प्रक्रिया हिंदी में सोचने, समझने और लिखने की सहज स्थिति से दूर हटती गई। रोज़मर्रा के व्यवहार के अभाव में प्रशासनिक हिंदी में असहजता ही नहीं आई बल्कि यह अटपटी हिंदी बनकर रह गई। कार्यालयों में यह बात आए दिन सुनी जा सकती है कि हिंदी को ख़तरा अंग्रेज़ी से नहीं, अपनों से है, ख़ास तौर से शुद्धतावादियों से। कार्यालय को कठिन और दफ़्तर को सरल, वेतन को कठिन और तनख़्वाह को सरल सिद्ध करते हुए ऐसे लोग हिंदी के संस्कृतकरण के ख़िलाफ लड़ाई लड़ते रहते हैं। ऐसे लोगों का तर्क है कि तत्सम शब्दों के इस्तेमाल से हिंदी संकीर्ण होती जा रही है। वे हिंदी को शुद्धतावादियों के ख़ेमे से बाहर निकाल कर सर्वग्राह्य बनाने के भरसक प्रयास में ये जुटे रहते हैं।

आज हिंदी के कई रूप देखने को मिलते हैं। छत्तीसगढ़ी हिंदी, झारखंडी हिंदी, मुंबइया हिंदी, बिहारी हिंदी, अंडमान की हिंदी, कर्नाटक की हिंदी, हैदराबादी हिंदी आदि। हिंदी के प्रचार-प्रसार में हिंदीतर भाषी क्षेत्रों में हिंदी भाषी क्षेत्रों की श्रम शक्ति का भी काफी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। हिंदीतर भाषी प्रदेशों में हिंदी भाषी प्रदेशों के श्रमिक काम करने जाते हैं। वे प्राय: अनपढ़ या कम शिक्षा प्राप्त होते हैं। उनके साथ संवाद स्थापित करने के लिए स्थानीय लोगों को हिंदी का ही सहारा लेना पड़ता है। फलत: उन क्षेत्रों में हिन्दी का प्रसार प्रचार होता है और आंचलिकता की छाप लिए एक अलग हिंदी का रूप देखने को मिलता है।

----- अभी ज़ारी है ....


गुरुवार, 28 जनवरी 2010

आम आदमी की हिंदी प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए (भाग-५)



सृजनात्‍मक लेखन
   

अब बात करते हैं अनुवाद की। हालांकि साहित्‍य के अलावे ज्ञान-विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में भी हिंदी का इतिहास कमज़ोर नहीं रहा है, अपितु ज्ञान-विज्ञान का हस्‍तांतरण मजबूत भाषा की विशेषता रही है। आज की तारीख में चिकित्‍सा, अभियंत्रण, पारिस्थितिकी, अर्थशास्‍त्र से लेकर विभिन्‍न भाषाओं से साहित्‍य का हिंदी में अनुवाद करने वालों की भारी मांग है। अनुवाद के संबंध में कहा जाता है कि कोई भी भाषा अपने आप में इतनी कंजूस होती है कि वो अपना सौन्‍दर्य दूसरी भाषा से बांटना नहीं चाहती। अतः यह पूर्णतः अनुवादक पर निर्भर करता है कि वह जिस भाषा से और जिस भाषा में अनुवाद कर रहा है उन भाषाओं पर उसका कितना अधिकार है और इन भाषाओं की अनुभूतियों में वह कितनी तारतम्‍यता क़ायम रख सकता है। एक सफल अनुवादक वही होता है जो अनुदित कृति में भी मूल कृति की नैसर्गिक अनुभूतियों को अपरिवर्तित रखे।
   
अब आते हैं भाषा विज्ञान पर । सूचना प्रोद्यौगिकी के चरम विकास ने विश्‍व को एक ग्‍लोबल विल्‍लेज बना दिया है। पूरी दुनिया में आज एक दूसरे को समझने की होड़ लगी हुई है। और इस एक-दूसरे को समझने में भाषाओं का अहम् स्‍थान है। हमारे संबंध सांस्‍कृतिक हों या व्‍यावसायिक, भाषाओं का महत्‍व सर्वथा है। अतः आज विभिन्‍न भाषाओं के बीच संबंध का अध्‍ययन भी ज़ोर-शोर से चल रहा है। अतः हर जगह भाषा-विज्ञानियों (linguisticians  &  philologists)  की मांग है। भारतीय भाषा-वैज्ञानिक भी किसी से कम नहीं हैं। अतः हिंदी भाषा का विकास, व्‍याकरण, दूसरी भाषाओं से इसका संबंध, देश, काल, इतिहास, भूगोल एवं अन्‍य भाषाओं का हिंदी पर प्रभाव व अन्‍य भाषाओं को हिंदी की देन आदि का वृहत अध्‍ययन सम्‍प्रति किसी भी तकनिकी शिक्षा से कम फलदायी नहीं है।
    अब बात करें सृजनात्‍मक लेखन की। आज बाज़ारबाद शबाब पर है। उत्‍पादक तरह-तरह से उपभोक्‍ताओं को लुभाने का प्रयास करते हैं। ऐसे में विज्ञापन की भूमिका महत्‍वपूर्ण हो जाती है। उत्‍पाद भौतिक हो इसके लिए उनके विज्ञापन में ऐसी सृजनात्‍मकता दिखाई जाती है कि उपभोक्‍ताओं पर उसका सीधा असर पड़े। दिवा-रात्री समाचार चैनल, एफ.एम. रेडियो और विज्ञापन एजेंसियों की बाढ़ ने रोजगार के ऐसे आयाम खोले हैं कि हिंदी के परम्‍परागत लेखकों के अलावे ऐसे लेखकों की मांग बेतहासा बढ़ी है जो किसी विषय को बिना लाग लपेट बेवाक और संक्षिप्‍त शब्‍दों में पूरी रचनात्‍मकता के साथ प्रस्‍तुत कर सके।
इंटरनेट पर भी हिंदी का अभूतपूर्व विकास हो रहा है। इंटरनेट पर हिंदी की कई वेबसाइटें हैं। हिंदी के कई अख़बार नेट पर उपलब्ध हैं। कई साहित्यिक पत्रिकाएं नेट पर पढ़ी जा सकती हैं। हिंदी में ब्लॉग लेखक आज अच्छी रचनाएं दे रहें हैं। भारत में इलेक्ट्रॉनिक जनसंचार माध्यमों का प्रयोग दिनोंदिन बढ़ रहा है। यह देश की संपर्क भाषा के रूप में हिंदी के विकास का स्पष्ट संकेत देता है।
-----  अभी ज़ारी है ....

बुधवार, 27 जनवरी 2010

आम आदमी की हिंदी प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए (भाग-४)



संचार में भाषा की भूमिका

प्रयोजनमूलक हिंदी में शामिल घटकों में प्रमुख हैं, पत्रकारिता, भाषा-विज्ञान, (linguistics  &  philology)  अनुवाद और सृजनात्‍मक लेखन।
 
दरअसल प्रयोजनमूलक हिंदी की संकल्‍पना पत्रकारिता से ही ली गयी है और व्‍यवहारिक तौर पर यह हिंदी पत्रकारिता का पर्याय माना जाता है। जन-संपर्क और विज्ञापन भी लगभग इसी की परिधि में आ जाते हैं। अतः हिंदी की पत्रकारिता की भाषा, शैली, इतिहास और व्‍यापार का अध्‍ययन, प्रयोजनमूलक हिंदी के दायरे में आ जाता है। आज जिस प्रकार हिंदी मीडिया बूम पर है और इसमें जिस रफ़्तार से देशी और विदेशी निवेश हो रहे हैं, उसे देखते हुए इसमें व्‍यवहृत भाषा, प्रयोजनमूलक हिंदी का वर्तमान तो सुदृढ़ है ही भविष्‍य भी उज्‍जवल नज़र आता है।

संचार में भाषा की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण है। जनसंचार का काम भाषा के बिना असंभव है। जनसंचार का काम हिंदी पत्र पत्रिकाएं देश की आज़ादी के पहले से ही करती आ रहीं हैं। हिंदी को जानने व समझने वालों का एक बहुत बड़ा वर्ग है भारत में। हिंदी के विकास की यात्रा में हिंदीतर भाषी प्रदेशों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। 1857 में कलकत्ता विश्‍व विद्यालय में हिंदी  विभाग की स्थापना की गई थी। एक हिंदीतर भाषी नलिन मोहन सांन्याल सबसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी में एम.ए. किया। भूदेव मुखोपाध्याय ने 1887 में आज के हिंदीभाषी प्रदेश बिहार में हिंदी का पाठ्यक्रम तैयार करवाया था। हिंदी के पहले समाचार पत्र उदंत मार्तंड का प्रकाशन जुगल किशोर शुक्ल द्वारा कोलकाता में हुआ था। यह एक हिंदीतर भाषी प्रदेश है। आज के दिनों में भी हिंदीतर भाषी प्रदेशों में हिंदी के पत्र काफी लोकप्रिय हैं। हिंदी दैनिक समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका का बैंगलुरु से पिछले 13-14 वर्षों से लगातार प्रकाशन हो रहा है। बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका चंदामामा का प्रकाशन चेन्नई से हुआ। इसके संपादक हिंदीतर भाषी शौरि रेड्डी थे। हैदराबाद से कभी कल्पना निकलती थी। आज वहां हिंदी मिलाप चल रहा है। कोलकाता देश को सन्मार्ग देता है। अंडमान-निकोबार द्वीप समूह से भी सरकारी अख़बार द्वीप समाचार हिंदी में निकलता है। आज हिंदी के अख़बारों की प्रसार संख्या सर्वाधिक है। इन पत्र-पत्रिकाओं ने हिंदी की लोकप्रियता बढ़ाने के अलावा समाज में सांस्कृतिक पुनर्जागरण और राष्ट्रीय एकता की भावना पैदा करने में सराहनीय योगदान किया है।
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मंगलवार, 26 जनवरी 2010

आम आदमी की हिंदी प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए (भाग-३)



हिंदी को माध्यम बनाना ही होगा



--- --- मनोज कुमार


जनसंचार के सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा और टेलीविजन ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में वैश्‍विक क्रांति दी है। हिंदी फिल्म भारत के हर कोने में देखी और पसंद की जाती है। विदेशों में भी हिंदी सिनेमा सितारों की लोकप्रियता काफी बढ़ी है। अंग्रेज़ी फिल्में हिंदी में डब करके प्रस्तुत की जा रहीं हैं। प्रयोजनमूलक हिंदी का सबसे बड़ा उपयोग मीडिया और विज्ञापन के क्षेत्र में है। टेलीविजन पर विज्ञापन की दुनियां में हिंदी का बोलबाला है। विज्ञापन की दुनियां का हिंदी के बगैर काम नहीं चलता। विज्ञापन गुरु यह जान और मान चुके हैं कि माल अगर बेचना है तो उन्हें हिंदी में ही बाज़ार में उतरना पड़ेगा। हां ये जो हिंदी परोसी जा रही है उसे कुछ लोग हिंगलिश की संज्ञा देते हैं। परन्तु यह सर्वग्राह्य हिंदी है। आज हर कोई हिंदी बोल समझ लेता है, लिख पढ़ भले न पाए। इस सुखद स्थिति में हिंदी को लाने का बहुत बड़ा श्रेय हिंदी सिनेमा और हिंदी धरावाहिक को जाता है, इस बात से इंकार नही किया जा सकता।


आज लोग यह समझ चुके है कि अगर पूरे हिन्दुस्तान को कोई संदेश देना है तो हिंदी को माध्यम बनाना ही होगा। हिंदी ही भारत के जनसंचार माध्यमों की भाषा है। आज अनेक विदेशी उत्‍पादों के विज्ञापन भारत में हिंदी में किए जाते हैं, ऐसी हिंदी में जिसे उस कंपनी के सी.ई.ओ. से लेकर भारत के गांवों का किसान तक समझ जाता है। शीतल पेय कोकाकोला का विज्ञापन कहता है पीयो सर उठा के, मतलब गर्व से पीयो। जो इसका यह अर्थ नहीं समझ पायेंगें वो इतना तो समझ ही जायेंगें की सर को ऊपर कर के कोकाकोला पीने में मजा आता है। लेकिन कहा जाए कि कृपया अपने मस्‍तक को उर्ध्‍व कर कोकाकोला का पान करें तो इसमें नाहक ज़्यादा समय और ज़्यादा ऊर्जा लगेगा और सुनने में शायद ये कुछ कोमल कान्‍त लगे किंतु अधिकांश हिन्‍दीभाषी भी इसका अभिप्राय नहीं समझ पायेंगें। यहाँ कोमल शब्‍दों वाले दूसरे मधुर वाक्‍य का कोई प्रयोजन नहीं है जबकि चार सामान्‍य शब्‍दों वाला पहला वाक्‍य अपने अभिप्राय का वहन करने में कहीं अधिक सफल है, तो यही है प्रयोजनमूलक हिंदी। शहर के हृदय स्‍थल में अवस्थित नगर भवन के विशाल प्रांगन में अपार जन-समूह के बीच एक महती जनसभा आयोजित की गयी। अब इतना लिखने की जगह ये भी लिखा जा सकता है कि नगर भवन में एक जनसभा हुई।  


     कल से हम प्रयोजनमूलक हिंदी के घटकों पर एक नज़र डालेंगे। प्रयोजनमूलक हिंदी में शामिल घटकों में प्रमुख हैं, पत्रकारिता, भाषा-विज्ञान, (linguistics  &  philology)  अनुवाद और सृजनात्‍मक लेखन।

    

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सोमवार, 25 जनवरी 2010

आम आदमी की हिंदी प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए (भाग-२)


आम आदमी की हिंदी
प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए (भाग-२)
मनोज कुमार

आइये, सबसे पहले देखते हैं कि हिन्‍दी को प्रयोजनमूलक कहने की आवश्‍यकता क्‍यों पड़ी। दरअसल हिन्‍दी का साहित्‍य बहुत पुराना है। यह देव-भाषा संस्‍कृत के बहुत समीप है। आज भी संस्‍कृत के मूल शब्‍द हिन्‍दी में तत्‍सम और उनके विकृत रूप तद्भव नाम से उपयोग में है। अतः इसका इतिहास भी उसी अनुपात में पुराना होना स्‍वाभाविक ही है। नब्‍बे के दशक में काशी हिंदू विश्‍वविद्यालय के पहल पर हिंदी के पौराणिक पाठ्यक्रम से आम तौर पर अप्रसांगिक हो चले अंशों को काट कर और वर्तमान परिदृश्‍य में उपयोगी तत्‍वों को ज़ोर कर एक ऐसा पाठ्यक्रम विकसित किया गया जो आम-ज़रूरतों को पूरा कर सके। बेशक, मशीनी युग के भाग-दौड़ में वही चीज स्‍वागतेय है जिसका सीधा और तीव्र प्रभाव पड़ता हो। परिवर्तन ही एक मात्र शाश्‍वत है। फलस्‍वरूप हिंदी को भी पौरानिकता की चारदीवारी से निकलकर आधुनिकता का आवरण ओढ़ना पड़ा। दैनिक जीवन की छोटी-बड़ी तमाम आवश्‍यकताओं की पूर्ति के लिए बाज़ार के मान-दंड पर खड़ा होना पड़ा। और हिन्‍दी जैसी समर्थ, उदार और लोचदार भाषा तो ऐसे परिवर्तनों के लिए तैयार ही थी, अंततः बन गई प्रयोजनमूलक। प्रयोजनमूलक बोले तो बाज़ारू। मतलब बिना लाग-लपेट उतनी ही और वैसी ही हिन्‍दी जो निर्दिष्‍ट आवश्‍यकता को संतुष्‍ट कर सके। आज हिंदी केवल शास्‍त्रीय लेखन की भाषा नहीं अपितू बाज़ार की भाषा है। विश्‍व का दूसरा सबसे बड़ा मीडिया उद्योग अंग्रेज़ी के बाद हिन्‍दी उद्योग पर आधारित है।

प्रयोजनमूलक हिंदी में लालित्‍य, अलंकार और सौंदर्य कतई आवश्‍यक नहीं बल्कि प्रभावोत्‍पादकता और सम्‍प्रेषनीयता ही वरेन्‍य है। अभिप्राय यह है कि अकादमिक हिन्‍दी के अलावे प्रयोजनमूलक हिंदी के रूप में एक ऐसी भाषा का विकास हुआ है जो जन-संचार अर्थात मास-कम्‍युनिकेशन की भाषा है। जिस भाषा में रोमांच है,‍ जिसमें   ट्विस्ट है, जिसमें टेस्‍ट है और जिसे हिन्‍दी भाषियों के अतिरिक्‍त हिन्‍दीतरभाषी भी आसानी से समझ सकते हैं। प्रयोजनमूलक हिन्‍दी वह है जो लालित्‍य के बोझ से न दब कर खरी-खरी कहता है। ऐसा नहीं कि इसमें सौन्‍दर्य नहीं है। किंतु इसका सौन्दर्य अलंकारों से नहीं साधारनीकरण से है। सफल संवाद-अदायगी, हमेशा की तरह आज भी इसकी मूलभूत विशेषता है। आज हिन्‍दी केवल स्‍वान्‍तः सुखाय या रसिक समाज हर्षाय ग्रंथों की भाषा नहीं है। वरन लाखों हाथों को काम और करोड़ो लोगों के पेट की आग बुझाने की भाषा है और यही है प्रयोजनमूलक हिंदी।
      
विज्ञान की चरम उन्‍नति से हिंदी को भी नए आयाम मिले हैं। वर्तमान युग आई. टी. युग है। और सूचना प्रोद्यौगिकी के क्षेत्र में भारत दुनिया भर में अपनी धाक मनवा चुका है। विज्ञान की इस शाखा में पूरा विश्‍व भारतीय मस्तिस्‍क का कायल है। दूसरी बात कि सूचना प्रोद्यौगिकी  के विकास ने पूरी दुनिया को एक सूत्र में पिरो दिया है। यहीं से तकनीक के एक नए व्‍यवसाय का उदय होता है, जिसका नाम है आउटसोर्सिंग। अर्थात तकनीक हस्‍तांतरण या दुनिया के किसी कोने में बैठ कर दूसरे कोने को तकनिकी समाधान देना। आज आउटसोर्सिंग बिजिनेस में भारत का कोई सानी नहीं है। पश्चिमी देशों में तो आउटसोर्सिंग के लिए टर्म ही बन गया है, “It’s been Bangalored”. क्‍योंकि पश्चिमी देशों के मुक़ाबले भारतीय अभियंता किसी तकनीक को काफी कम लागत और कम समय में कुशलता के साथ विकसित कर देते हैं। यह भी कारण है कि बहुत बड़ी संख्‍या में विदेशी दृष्टि भारत की ओर लगी हुई है।
      
ज़ाहिर है, कहीं भी व्‍यवसाय करने के लिए वहाँ की भाषा समझना अनिवार्य है। कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इस कार्य के लिए बिहारीलाल की सतसई या विद्यापति की पदावली को तो काम में लाया नहीं जा सकता। अतः भारत में जो भाषा यह काम बड़े पैमाने पर कर सकती है, वही प्रयोजनमूलक हिंदी है। बात चाहे सॉफ्टवेयर की हो या अन्‍य उपभोक्‍ता उत्‍पादों की, विश्‍व की बड़ी से बड़ी बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनी की नज़र आज भारतीय बाज़ार पर टिकी हुई है। और बिना हिंदी के भारतीय बाजार पर क़ब्ज़ा करना अगर असंभव नहीं तो मुश्किल ज़रूर है। और जो भाषा इस बाज़ार को चलाने में उपयुक्‍त है वही प्रयोजनमूलक हिंदी है। यही वजह है कि अभियंत्रण जैसी तकनीकी विधा के बाद अब हिंदी जैसे शास्‍त्रीय विधा के शिक्षकों की पश्चिमी देशों में भारी मांग हो रही है। हाल ही में प्रतिष्‍ठित अन्‍तरराष्‍ट्रीय पत्रिका फोर्ब्‍स में कहा गया था कि आगामी दो वर्षों में यूरोप और अमेरिका के देश लगभग पचास हज़ार हिंदी शिक्षकों की नियुक्ति के बारे में सोच रहे हैं।

                           -----   अभी ज़ारी है ....

रविवार, 24 जनवरी 2010

आम आदमी की हिंदी प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए

आम आदमी की हिंदी
प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए
मनोज कुमार


आज संचार का युग है। इस युग में संचार माध्यमों ने अपनी एक अलग पहचान बना ली है। पिछले कुछ दशकों से जनसंचार माध्यमों का अभूतपूर्व उदय हुआ है। सांस्कृतिक, शिक्षा, विकास और सामाजिक विकास में सूचना और संचार का काफी अहम योगदान रहा है। देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने में संचार तंत्र काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।    

अब यह बहस का मुद्दा हो गया है कि संचार माध्यम हिंदी को बना रहा है या बिगाड़ रहा है। कुछ लोग इसे व्यवसायिक हिंदी का नामाकरण कर अलग रास्ता दे रहे हैं। यह प्रयोजन मूलक हिंदी है। यह चौतरफा फल-फूल रही है। फैल रही है।  बांग्मय की आदि-भाषा संस्‍कृत से आसूत हिन्‍दी का भाषाई और साहित्यिक इतिहास सर्वथा एवं सर्वदा समृद्ध रहा है ! संस्‍कृत, अपभ्रंश, अबहट, प्राकृत और पाली से होती हुई हिन्‍दी ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, अंगिका, बज्जिका जैसे उपभाषाओं के साथ आज खड़ी बोली की संज्ञा धारण कर चुकी है! समस्‍त साहित्यिक गुणों से लैस एवं सुव्‍यवस्थित वर्णमाला और सुगम, सुदृढ़ व्‍याकरण के बावजूद इक्‍कीसवीं सदी की व्‍यावसायिकता जब हिन्‍दी को केवल शास्‍त्रीय भाषा कह कर इसकी उपयोगिता पर प्रश्‍नचिह्न लगाने लगी तब इस समर्थ भाषा ने प्रयोजनमूलक हिन्‍दी का कवच पहन न केवल अपने अस्तित्‍व की रक्षा की, वरण इस घोर व्‍यावसायिक युग में संचार की तमाम प्रतिस्‍पर्धाओं को लाँघ अपनी गरिमामयी उपस्थिति भी दर्ज कराई।

यही प्रयोजनमूलक अथवा फन्‍क्‍शनल हिंदी आज पत्रकारिता की भाषा है जिसमें खरबों के देशी-विदेशी निवेश हो रहे हैं। किंतु ऐसा नहीं है कि प्रयोजनमूलक संज्ञा पाने के बाद हिंदी पत्रकारिता का उदय हुआ है। हिंदी तो पत्रकारिता की भाषा तब से है जब इसका प्रयोजन बिल्‍कुल असंदिग्‍ध था। स्‍पष्‍ट शब्‍दों में कहें तो हिन्‍दी पत्रकारिता का शंखनाद हिन्‍दी साहित्‍यकारों के द्वारा अठाहरहवीं शताब्‍दी के उत्‍तरार्ध में ही किया जा चुका था। भारतीय स्‍वतंत्रता संग्राम में हिंदी पत्रकारिता की भूमिका अवर्णीनीय है। आधुनिक हिंदी साहित्‍य के युगपुरूष भारतेंदु हरिश्‍चंद्र की कवि-वचन सुधा और हरिश्‍चन्द्र मैग्जिन इसका प्रमाण है। उसके बाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, माखन लाल चतुर्वेदी, आयोध्‍या सिंह उपाध्‍याय हरिऔध से लेकर प्रेमचंद तक सभी नामचीन साहित्‍यकार हिन्‍दी पत्रकारिता के आकाश में दैदीप्‍यमान नक्षत्र की तरह उज्‍जवल रहे हैं।

आज से दो दशक पहले तक पत्र पत्रिकाओं के स्तम्भ सीमित होते थे धर्म, साहित्य, संस्कृति, ज्योतिष, राजनीति, समाज-सुधार, समाज कल्याण, आदि। आज फैशन, फिल्म, इंटरनेट, मोबाइल, एसएमएस, ब्लॉग, शेयर बाज़ार, आदि से जुड़े समाचार भी प्रमुखता पाते हैं। इन सब विषय वस्तुओं के अलावा स्थानीय छाप लिए हिंदी एक नए रंग में देखने को मिलती है।

यह कहना कि प्रयोजनमूलक हिंदी आधुनिक युग की देन है मेरे ख्‍याल से तर्कसंगत नहीं है। आधुनिक युग ने हिन्‍दी को केवल प्रयोजनमूलक नाम दिया है कोई प्रयोजन नहीं। अगर यह कहें कि हिंदी आज प्रयोजनमूलक है तो यह भी मालूम होना चाहिए कि हिन्‍दी निस्‍प्रयोजन कब थी ? अगर हिंदी निस्‍प्रयोजन होती तो लगभग चार सौ साल पूर्व रचित तुलसीदास के रामचरित मानस की एक-एक चौपाई आज चरितार्थ नहीं होती। अगर व्‍यावसायिकता की बात करें तो भारत के साथसाथ मलेशिया, फिजी, मोरिशस, करेबिआई द्वीप समूह के अतिरिक्‍त दुनिया भर में पढ़े जाने वाला रामचरित मानस भारत के प्रतिष्ठित गीता प्रेस, गोरखपुर से सर्वाधिक छपने वाली किताब का खिताब पा चुका है। तो जिस भाषा में ऐसे एक-दो नहीं बल्कि अनंत कालजयी साहित्‍य के सृजन की क्षमता हो वह निस्‍प्रयोजन कैसे हो सकती है? आखिर किसी भाषा का प्रयोजन क्‍या है? अभिव्‍यक्ति! और यही अभिव्‍यक्ति लोकहित का उद्देश्‍य धारण कर देश और काल की सीमा से परे चिरंजीवी हो साहित्‍य कहलाने लगता है। इस प्रकार इस बात में कोई दो राय नही कि हिन्‍दी में अभिव्‍यक्ति और साहित्‍य-सृजन दोनों की अपार क्षमता है। अतः यह संस्‍कृत तनया अपने जन्‍मकाल से ही प्रयोजनवती रही है। सो हमारा उद्देश्‍य हिन्‍दी का प्रायोजन अथवा इसकी प्रयोजनमूलकता सिद्ध करना कतई नहीं है। किंतु आज जिस प्रयोजनमूलक हिंदी की चर्चा ज़ोर-शोर से की जा रही है उससे मुंह चुराना भी उपयुक्‍त नहीं है।

                                    -----    अभी ज़ारी है ....

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

राष्ट्रभाषा और राजभाषा

राष्ट्रभाषा और राजभाषा


 --- मनोज कुमार


बात मैं एक अनुभव से शुरु करता हूं। तब ब्लाग लेखन से नया-नया ही जुड़ा था। यह भ्रांति पाल रखी थी कि ज़्यादा-से-ज़्यादा ब्लाग पर जाकर कमेंट देने से लोग मेरे ब्लाग पर भी आयेंगे। और इस सिद्धांत का पालन करने के चक्कर में कुछ न कुछ कमेंट देता फिरता था। इसी चक्कर में एक ब्लाग पर निम्नलिखित कमेंट एक ब्लागर की हैसियत से दिया

मैं आपके आलेख में व्यक्त किये गए विचारों से सहमत हूं। कोई विवाद नहीं, एक विचार रखना चाहता हूं। विनम्रता के साथ। मैं व्याकरण का विशेषज्ञ भी नहीं हूं। पर राजभाषा के क्रियान्वयन से जुड़ा हूँ। मैं पहले फिर से स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं भी यह मानता हूं कि हिन्दी का ही व्याकरण अपनाया जाना चाहिए।
पर यहों जो उदाहरण दिए गये हैं, हो सकता है कि उन्हें राजभाषा के वैयाकरणों ने अभी तक राजभाषा की शब्दावली में जगह न दिया हो। तब तक की स्थिति के लिए राजभाषा में नियम है कि उन शब्दों को आप वैसा ही बोलें जैसा अंग्रेजी में बोलते हैं और लिखने वक़्त वैसे ही देवनागरी में लिखें। इसलिए शायद Channels (चैनेल्स) Blogs (ब्लॉग्स) को देवनागरी में वैसा चैनेल्स ब्लॉग्स लिखा जाता है।

इसके जवाब में एक कमेंट आया इस प्रकार --

@मनोज कुमार

राजभाषा के वैयाकरणवेत्ताओं ने अभी तक राजभाषा की शब्दावली में जगह न दिया हो। ('.... जगह न दी हो|' सही प्रयोग होगा.)

राजभाषा क्रियान्वयन से जुड़े लोगों से भाषा में इतनी शुद्धता की उम्मीद तो की ही जा सकती है. 

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व्याकरण के नियम अनऔपचारिक और जनमानस में रूढ़ होते हैं. इन्हें सरकार की किसी नियम पुस्तिका के चश्मे से ही नहीं देखा जा सकता, और देखा भी नहीं जाना चाहिए. जहाँ तक शुद्धता सम्बन्धी मुद्दे का प्रश्न है, यह मुद्दे भाषा के जानकारों, विद्वानों और बोलने वालों पर छोड़ दिए जाने चाहिए. सरकार और बाज़ार ही भाषा को नष्ट-भ्रष्ट करने के सबसे बड़े अपराधी हैं.

किस किस बात पर और कब तक हम सरकार के भरोसे रहेंगे, क्या सरकार में बैठे लोग ईश्वर हैं?

सरकारी कामों की गति सब जानते ही हैं, जब तक ब्लॉग जैसे शब्दों पर इनकी नज़रे इनायत होगी. ब्लॉग पुराने ज़माने की बात हो चुका होगा और इसके आगे की तकनीक आ चुकी होगी. 

भारत में विभिन्न प्रकार के टीवी चैनल आए उन्नीस वर्ष बीत गए, पर आज भी चैनल शब्द 'राजभाषा की शब्दावली' की प्रतीक्षा सूची में ही टंगा है.

फिर मैंने अपने निम्न्लिखित विचार  व्यक्त किये थे -

**राजभाषा क्रियान्वयन से जुड़े लोगों से भाषा में इतनी शुद्धता की उम्मीद तो की ही जा सकती है. 
-- अशुद्धि से अवगत कराने के लिए थैंक्स।
**किस किस बात पर और कब तक हम सरकार के भरोसे रहेंगे, क्या सरकार में बैठे लोग ईश्वर हैं?
-- नहीं, नहीं। मेरे अनुसार।
** सरकार और बाज़ार ही भाषा को नष्ट-भ्रष्ट करने के सबसे बड़े अपराधी हैं.
--- जी।
**भारत में विभिन्न प्रकार के टीवी चैनल आए उन्नीस वर्ष बीत गए, पर आज भी चैनल शब्द 'राजभाषा की शब्दावली' की प्रतीक्षा सूची में ही टंगा है.
-- जो चैनल केन्द्रीय सरकार के अधीन नहीं हैं उन पर राजभाषा के नियमों को मानने की बाध्यता नहीं है।
** हिंदी को सही अर्थ में जनभाषा और राजभाषा बनाने के लिए सामूहिक प्रयत्न की आवश्यकता है। 
--- मैंने तो यह पढ़कर थोड़ी सी बात रखी थी यह कहते हुए कि मैं आपकी बातों से सहमत हूं। क्या पता था कि सर मुड़ते ही ओले पड़ेंगे।
मैं इससे भी सहमत हूं--
**व्याकरण के नियम अनऔपचारिक और जनमानस में रूढ़ होते हैं. इन्हें सरकार की किसी नियम पुस्तिका के चश्मे से ही नहीं देखा जा सकता, और देखा भी नहीं जाना चाहिए. जहाँ तक शुद्धता सम्बन्धी मुद्दे का प्रश्न है, यह मुद्दे भाषा के जानकारों, विद्वानों और बोलने वालों पर छोड़ दिए जाने चाहिए.

अब मैं अपनी बात पर आता हूं।

1.    वह टिप्पणी मैंने एक ब्लागर की हैसियत से की थी पर सरकार को भी कोसा गया।

2.    उस टिप्पणी (सरकारी कामों की गति सब जानते ही हैं, जब तक ब्लॉग जैसे शब्दों पर इनकी नज़रे इनायत होगी. ब्लॉग पुराने ज़माने की बात हो चुका होगा और इसके आगे की तकनीक आ चुकी होगी. ) ने मुझे प्रेरित किया कि मैं राजभाषा के प्रति समर्पित एक ब्लाग से जुड़ूं। और राजभाषा क्रियान्वयन से जुडे़ लोगों से आह्वान करूं कि वे भी इससे जुड़ें और सबको यह बतायें कि आप सरकार की नीतियों के अनुपालन के साथ-साथ हिन्दी साहित्य के प्रति भी क्या योगदान करते हैं ... कर रहे हैं।

3.    योगदान से संबंधित आज एक ही उदाहरण देना चाहता हूं। केंद्रीय सरकार का निर्देश है कि सभी कर्यालयों की पुस्तकालय के लिये ख़रीदी जाने वाली पुस्तकों के कुल मूल्य से आधे की पुस्तकें हिन्दी साहित्य की होनी चाहिये। इसके अलावे अख़बार और पत्रिकायें भी। इसे वहां के कर्मचारी पढते हैं। सिर्फ़ हमारे संगठन में साठ इकाइयां हैं, यानि साठ पुस्तकालय।


अब विषय पर आता हूं। आम तौर पर यह कहते सुना जाता है कि हिन्दी भारत कि राष्ट्रभाषा है। यदि ऐसा है तो फ़िर बंगला, मराठी, तमिल, कन्नड़ आदि क्या है? स्वतंत्रता के पहले पूरा देश हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहता था। इसके बारे में विस्तार से चर्चा अलग से एक लेख में करूंगा। आज़ादी के बाद आज़ाद भारत के संविधान ने हिन्दी को केन्द्र सरकार की राजकाज की भाषा, यानी राजभाषा माना।  राजभाषा बनाम राष्ट्रभाषा बहस में हम नहीं पड़ना चाहते। हम यहां सिर्फ़ राजभाषा हिन्दी की बात करेंगे।


 संविधान की धारा 351 के तहत हिन्दी भाषा के विकास के लिए यह निदेश है कि हिन्दी भाषा की प्रसार व्रिद्धि करना, उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामासिक संस्क्रिति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो सके तथा उसकी आत्मीयता में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी और अष्टम अनुसूची में उल्लिखित अन्य भारतीय भाषाओं के रूप, शैली और पदावली को आत्मसात करते हुए तथा जहां आवश्यक हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिये मुख्यत: संस्क्रित से तथा गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी सम्रिद्धि सुनिश्चित करना संघ का कर्तव्य होगा।


संविधान की अष्टम अनुसूची





क्र.सं

भाषा

०१

असमिया

०२

बंगला

०३

बोडो

०४

डोगरी

०५

गुजराती

०६

हिन्दी

०७

कन्न्ड़

०८

कश्मीरी

०९

कोंकणी

१०

मैथिली

११

मलयालम

१२

मणीपुरी

१३

मराठी

१४

नेपाली

१५

उड़िया

१६

पंजाबी

१७

संस्क्रित

१८

संथाली

१९

सिंधी

२०

तमिल

२१

तेलुगु

२२

उर्दू





हज युग में हर भाषा के दो रूप होते हैं, पहला उसका साहित्यिक रूप और दूसरा कामकाजी रूप, ... प्रयोजनी, ... प्रयोजनमूलक रूप। हिन्दी का  साहित्यिक रूप तो काफ़ी संपन्न है। विकसित है। इसका प्रयोजनमूलक रूप अभी अपनी शैशवावस्था में है। कल से हम उसकी ही चर्चा शुरु करेंगे। आज इतना ही। नमस्कार!!