सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

सच क्षितिज का .....



द्वंद्व में घिरा मन
कब महसूस कर पाता है
किसी के एहसासों को ?
और वो एहसास
जो भीगे - भीगे से हों
मन सराबोर हो
मुहब्बत के पैमाने से
लब पर मुस्कराहट के साथ
लगता है कि -
प्यार के अफ़साने
लरज रहे हों।
नही समझ पाता ये मन -
कुछ नही समझ पाता ,
ख़ुद के एहसास भी
खो से जाते हैं
सारे के सारे अल्फाज़
जैसे रूठ से जाते हैं
कैसे लिखूं
अपने दिल की बात ?
न मेरे पास
आज नज़्म है , न शब्द
और न ही लफ्ज़
खाली - खाली आंखों से
दूर तक देखते हुए
बस क्षितिज दिखता है ।
जिसका सच केवल ये है कि
उसका कोई आस्तित्व नही होता ।

24 टिप्‍पणियां:

  1. इतने सुंदर शब्द ...सुंदर अलफाज़ ...जीवन की सच्चाई बयान कर रहे है ...द्वंद्व से सच मे क्षितिज पर कोई भाव नहीं दिखते ...प्रेम का आधार ...अद्वैत भाव है ....पूर्ण समर्पण मे ही प्रेम है ....बहुत सार्थक रचना दी ...

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  2. द्वंद्व में घिरा मन
    कब महसूस कर पाता है
    किसी के एहसासों को ?
    और वो एहसास
    जो भीगे - भीगे से हों
    ....

    भीगे शब्‍द भीगा सा मन लिए
    कुछ भी कहने में असमर्थ
    बहुत ही उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति ...
    सादर

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  3. खाली - खाली आंखों से
    दूर तक देखते हुए
    बस क्षितिज दिखता है ।
    जिसका सच केवल ये है कि
    उसका कोई आस्तित्व नही होता ।

    कितना बडा सच कहा है …………ऐसा ना जाने कितनी बार होता है।

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  4. अगर होता तो उसके मिलने की गुनगुनाहट मेरे साथ होती

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  5. अरे मेरा कमेन्ट स्पैम मे गया ...

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  6. बहुत सुंदर बात कही, इसी को कहेंगे न कि चमकती हुई हर चीज सोना नहीं होती और क्षितिज भी ऐसे ही है.

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  7. बहुत बहुत सुन्दर कविता दी.....
    बहुत सुन्दर बात..

    सादर
    अनु

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  8. bahut khoobsoorti se man ke bhaavon ko shabd diye hain.

    isiliye kahte hain shareer ki aankho ko dhone k sath sath man ki aankho ko bhi dhote rahna chaahiye.....saaf dikhne lagega hai.....ya inka bhi no. badh gaya hai ? :-)

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    1. यहाँ दृष्टि का नंबर बदलने की बात मेरी समझ से परे है .... कृपया स्पष्ट करें कि क्या कहना चाहती हैं ?

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    2. द्वन्द्व मन का विषय है। द्वन्द्व के आभास को दूर करने के लिये मन को ही सशक्त बनाना पड़ता है। सम्भवतः, मन की आँखें धोते रहने से अनामिका जी का यही आशय रहा होगा। मन जब मोहावृत्त हो जाता है तभी द्वन्द्व को देख पाता है। मन यदि "नारद" हो जाय तो क्षितिज का सत्यार्थ देख सकने में समर्थ हो जाता है।
      यदि दार्शनिक पक्ष को छोड़ दें तो कविता कोमल भावों से लिखी गयी है ......ऐसे द्वन्द्व कभी न कभी तो मन में उपजते ही हैं ...यह सामान्य व्यवहार में प्रायः देखा जाता है।

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    3. :) :) कौश्लेंद्र जी ,

      आँखें धोने तक तो ठीक है लेकिन मैंने नंबर बदलने की बात पूछी थी ...

      आपने इस रचना को गंभीरता से पढ़ा और सराहा ...आभार

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    4. chill...chill sangeeta ji itna pareshaan hone ki jarurat nahi hai meri kidding par....no. badhne se matlab....door-drishti k kamjor hone se hai...means...man ki aankhon se dwand roopi vikaron aur dwesh ka parda hata kar dekha jaaye to kshitiz saaf dikhega....kyuki jo upar se dikhta he vo sach nahi hota....so iske aage majak me likha tha ki yadi man ki aankho ka no. bhi badh gaya hai to ise (soch ko ) change karne ki jarurat hai.

      ummeed hai meri baat aur majak samajh me aa gaye honge.

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  9. बिलकुल सही -जो दिखता हैं,सब सच नहीं होता !

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  10. दार्शनिकता से भरपूर अद्वितीय रचना ! बहुत सुन्दर !

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  11. खाली आँखों से दिखता है वह क्षितिज जिसका होना सिर्फ आभास है !
    द्वंद्व के बीच मानसिक स्थिति पर प्रकाश डालती हैं पंक्तियाँ !

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  12. जब तक शरीर है मन का अस्तित्‍व तो रहेगा ही। हम इसे सत्‍कार्यों में लगाए या फिर अनावश्‍यक चाहतों में बर्बाद कर दें यह स्‍वयं के सोच की बात है।

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  13. मन द्वंद्व में घिरता ही है एहसासों के कारण।

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  14. नज़्म के बोल मन के किसी कोमल तंतु को हल्के से स्पंदित कर दे रहे हैं।

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  15. गहन अभिव्यक्ति ...वाकई ऐसा ही महसूस होता है .....कभी कभी ....

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  16. अभिव्यक्ति के लिए शब्द नहीं है ,इसलिए केवल " बेहतरीन " लिख रहा हूँ

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  17. द्वंद्व में घिरा मन
    कब महसूस कर पाता है
    किसी के एहसासों को ?
    Ye bhee jeevan ka kaisa sach hai!

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