सोमवार, 21 जनवरी 2013

मधुशाला .... भाग 16 / हरिवंश राय बच्चन

जन्म -- 27 नवंबर 1907 
निधन -- 18 जनवरी 2003 

मधुशाला ..... भाग ---16

मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला,
मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,
मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा,
जिसकी जैसी रुचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१।

यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला,
यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला,
किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही,
नहीं-नहीं कवि  का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२। 

कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला,
कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला!
पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा,
कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३।

विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला
यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला,
शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई,
जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४।

बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला,
कलित कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,
मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,
विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।

मधुशाला  के स्वर्ण जयंती वर्ष पर रचित नयी रुबाईयाँ --- रचनाकाल - 1985 
घिस जाता पड़ कालचक्र में, हर खाकी जामा वाला , 
पर अपवाद बनी बैठी है , मेरी यह साकीबाला , 
जितनी मेरी उम्र वृद्ध में उससे ज्यादा लगता हूँ 
अर्धशती की हो कर के भी षोडश वर्षी मधुशाला । 

गली - गली की खाक छानता, फिरा कभी यह मतवाला , 
लिए हाथ में टूटा - फूटा छूंछा मिट्टी का प्याला 
किसी कीमिया से मिट्टी से उसने वह मधुरस खींचा 
आज स्वर्ण की सीढ़ी पर चढ़ शीश उठाती मधुशाला । 

पाँच दशक पहले हिन्दी के गढ़ का तोड़ जटिल ताला 
मिट्टी के घट प्याले ले कर निकला था यह मतवाला ,
सुख दुख की रसरंजित मदिरा उसने ऐसी बरसाई 
मरुस्थली कविता थी तब की, अब कविता की मधुशाला । 

देश दुश्मनों ने जब हम में जहर फूट का था डाला 
भूल गए जो तब टूटी थी लाखों प्यालों की माला ? 
सीख सबक उस कटु अनुभव से अब हमने है क़स्द लिया - 
फिर न बंटेंगे पीने वाले फिर न बंटेगी मधुशाला । 
 
परिशिष्ट  से

स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला।

मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।

बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही
और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।

पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।

समाप्त 




9 टिप्‍पणियां:

  1. शुभकामनाये आदरेया-
    प्रस्तुतियों का सतत कर्म-
    आभार ||

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  2. पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
    बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
    किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
    तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।


    यहाँ तक नहीं पहुंची थी , ये पंक्तियाँ कुछ नया कह रही हैं और निहित शब्द वाकई एक पिता के भावों को जिस तरह समेटे हुए हैं वो भाव विभोर करने वाले हैं।
    इस को हम तक पहुँचाने के लिए आभार !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. रेखा जी ,
      आपने सही कहा है .... यह रुबाइयाँ मधुशाला के स्वर्ण जयंती के अवसर पर अलग से डाली गईं हैं .... आभार इसे पढ़ने का ।

      हटाएं
  3. बच्चन जी को जब भी पढ़ें एक आह्लाद भर जाता है... आभार !

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह वाह वाह , यह विशेष मधुशाला नहीं पढ़ पाई थी मैं. बहुत आभार पढवाने का.
    गज़ब की श्रृंखला रही.

    जवाब देंहटाएं
  5. मैने तो पूरी मधुशाला आपके द्वारा ही पढी …………हार्दिक आभारी हूँ …………एक दिव्य ऊँचाई को छूती है मधुशाला।

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  6. मधुशाला स्वच्छन्द जीवन शैली का पर्याय है।

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