शनिवार, 26 जून 2010

कबीर जयन्‍ती … पर

कबीर जयन्‍ती … पर

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--- --- मनोज कुमार

हमारे देश के हिन्दू समाज में प्राचीन काल से ही वेदों पर आधारित परंपरा मान्य रही है। मध्यकाल तक आते-आते वर्णाश्रम व्यवस्था जटिल हो चुकी थी। जातियों में विभाजित समाज में हर तरह का भेद-भाव विद्यमान था। मनुष्यता स्त्री-पुरुष, ऊंच-नीच एवं अनेक धर्मों में बंटी हुई थी। छुआछूत के कठोर नियम थे। ईश्‍वर की उपासना एवं मोक्ष प्राप्ति में भी भेद-भाव था। वैदिक कर्मकांड तथा ॠढिवादिता से स्थिति बड़ी जटिल थी। समय-समय पर इस व्यवस्था के प्रति प्रतिक्रियाएँ जन्म लेती रहीं। ये प्रतिक्रियाएँ रूढिवादी समाज में परिवर्तन के लिए अल्प प्रयास ही साबित हुईं। किन्तु चौदहवीं तथा पंद्रहवीं शताब्दी में आस्था एवं भक्ति के मध्य से व्यापक आंदोलन की एक ऐसी बलवती धारा फूटी जिसने वर्ण-व्यवस्था पर आधारित समाज, कट्टरता एवं रूढिवादिता पर आधारित धर्मांधता को चुनौती दी।

समय-समय पर संत, विचारक और सुधारक भक्ति-मार्गी विचारधारा के द्वारा सुधारों का प्रयास करते रहे और यह एक आंदोलन का रूप लेता गया। इस आंदोलन से संतों का एक नया वर्ग आगे आया। जातिप्रथा, अस्पृश्यता और धार्मिक कर्मकांड का विरोध कर सामाजिक एवं धार्मिक प्रथाओं में सुधार इनका लक्ष्य था। इस आंदोलन के संतों ने अनेक जातियों एवं सम्प्रदायों में विभक्त समाज, अनेक कुसंस्कारों से पीड़ित देश, सैंकड़ों देवताओं और आडंबरों एवं कट्टरता में उलझे धर्म, के भेद-भाव की दीवार को ढहाने का एक सार्थक प्रयास किया। संतों ने समाज में लोगों के बीच वर्तमान आपसी वैमनस्य को मिटाने और सामाजिक वर्ग विभेद को समाप्त कर सबको समान स्तर पर लाने का प्रयास किया।

इन्हीं संतों में से एक थे संत कबीर। महात्मा कबीर के जन्म के विषय में भिन्न- भिन्न मत हैं। "कबीर- चरित्र- बाँध'' में कहा गया हौ कि संवत् चौदह सौ पचपन (१४५५) विक्रमी ज्येष्ठ सुदी पूर्णिमा सोमवार के दिन, निर्गुणपंथी संत कबीर का जन्म हुआ। वे भक्त संत ही नहीं समाज सुधारक भी थे। उन्होंने अंधविश्‍वास, कुरीतियों और रूढिवादिता का विरोध किया। विषमताग्रस्त समाज में जागृति पैदा कर लोगों को भक्ति का नया मार्ग दिखाना इनका उद्देश्य था। जिसमें वे काफ़ी हद तक सफल भी हुए। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयास किए। उन्होंने राम-रहीम के एकत्व पर ज़ोर दिया। उन्होंने दोनों दर्मों की कट्टरता पर समान रूप से फटकार लगाई।

पाहन पुजे तो हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़।
ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार।।

वे मूर्ति पूजा और कर्मकांड का विरोध करते थे। वे भेद-भाव रहित समाज की स्थापना करना चाहते थे। उन्होंने ब्रह्म के निराकार रूप में विश्‍वास प्रकट किया। एकेश्‍वरवाद के समर्थक कबीर का मानना था कि ईश्‍वर एक है। उन्होंने व्यंग्यात्मक दोहों और सीधे-सादे शब्दों में अपने विचार को व्यक्त किया। फलतः बड़ी संख्या में सभी धर्म एवं जाति के लोग उनके अनुयायी हुए। कबीर दास जी के अनुयाई कबीरपंथी कहलाए। उनके उपदेशों का संकलन बीजक में है।

संत कबीर का मानना था कि सभी धर्मों का लक्ष्य एक ही है। सिर्फ़ उनके कर्मकांड अलग-अलग होते हैं। पुजारी वर्ग कर्मकांड पर अधिक ज़ोर देकर भेद पैदा करते हैं।

माला फेरत जुग गया, मिटा न मनका फेर।

कर का मनका डारि कै, मन का मनका फेर।।

उनका यह भी मानना था कि जाति प्रथा उचित नहीं है और इसे समाप्त कर देना चाहिए। वे एक आलोचक थे। उनका मानना था कि समाज की रूढिवादिता एवं कट्टर्वादिता की निन्दा करके ही इसे समाप्त किया जा सकता है। कबीर को अपने समाज में जो मान्‍यतजा मिली वह प्रमाण है कि वे अपने परिवेश की ही उपज थे। वह समय भारतीय इतिहास में आधुनिकता के उदय का समय था। इस आधुनिकता का बीज यहां की परंपरा से ही अंकुरित हुआ था। वर्णव्यवस्‍था की परंपरा से जकड़ा समाज जाति-पाति से मुक्ति की आवाज उठा रहा था। सामाजिक अन्‍याय के प्रति रोष इस संत की रचनाओं में व्‍याप्‍त है। कबीर मूलतः कवि हैं। उनकी काव्‍य संवेदना में प्रेम, मृत्‍यु और समाज एक दूसरे में गुंथे हुए हैं। कबीर हिंदी के महान कवियों में से हैं।

संत कबीर दास महान चिन्‍तक, विचारक और युग द्रष्‍टा थे। वे ऐसे समय में संसार में आए जब देश में नफरत और हिंसा चारों तरफ फैले हुए थे। हिंदु-मुसलमानों, शासक-प्रजा, अमीर गरीब के देश-समाज बंटा हुआ था, गरीबी और शोषण से लोग त्रस्‍त थे। ऐसे समय में संत कबीर ने धर्म की नयी व्‍याख्‍या प्रस्‍तुत की। उन्‍होंने कहा कि अत्‍याचारियों से समझौता करना और जुल्‍म सहना गलत है। उन्‍होंने समाज में उपस्थित भेदभाव समाप्‍त करने पर बल दिया। दोनों समुदाय को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। उन्‍होंने कहा था,

वही महादेव वही मुहम्‍मद ब्रह्मा आदम कहिए।

कोई हिंदू कोई तुर्क कहावं एक जमीं पर रहिए।

कबीर की सामाजिक चेतना उनकी आध्‍यात्मिक खोज की परिणति है। उनकी रचनाओं का गहन अध्‍ययन करें तो हम पाते हैं कि वे धर्मेतर अध्‍यात्‍म का सपना देखने वाले थे। ऐसा अध्‍यात्‍म जो मनुष्‍य सत्ता को ब्रह्मांड सत्ता से जोड़ता है। उन्‍होंने धर्म की आलोचना की। वे जब हिंदू या मुसलमान की आलोचना करते हैं तो उसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कोई नया धर्म प्रवर्तन करना चाहते थे।

धर्म के नाम पर व्‍याप्‍त आडम्‍बर का वे सदा विरोध करते रहे। धार्मिक कुरीतियों को उनहोनें जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रण लिया। साधक के साथ-साथ वे विचारक भी थे। उनका मानना था कि इस जग में कोई छोटा और बड़ा नहीं है। सब समान हैं। ये सामाजिक आर्थिक राजनीतिक परिस्थिति की देन है। हम सब एक ही ईश्‍वर की संतान है।

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

आज भी इस संसार में हिंसा, आतंक, जातिवाद आदि के कारण निर्दोष लोगों पर अत्‍याचार हो रहे हैं। ऐसी भयावह परिस्थिति में कबीर ऐसे युगप्रवर्तक की आवश्‍यकता है जो समाज को सही राह दिखाए। कबीर तो सच्‍चे अर्थों में मानवतावादी थे। उन्‍होंने हिंदू और मुसलमानों के बीच मानवता का सेतु बांधा। पर आज वह सेतु भग्नावस्‍था में है। इसके पुनः निर्माण की आवश्‍यकता है। कबीर के विचार समाज को नई दिशा दिखा सकता है।

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