सोमवार, 28 जून 2010

काव्यशास्त्र-२०

काव्यशास्त्र-२० ::

आचार्य अरिसिंह

और आचार्य अमरचन्द्र


- आचार्य परशुराम राय

 

J0148757 आचार्य राम चन्द्र गुणचन्द्र की भाँति आचार्य युगल अरिसिंह - अमरचन्द्र का नाम प्रमुख है। ये दोनों एक ही गुरु आचार्य जिनदन्त सूरि के शिष्य हैं और जैन आचार्यों की परम्परा में आते हैं।

काव्यशास्त्र के क्षेत्र में इन दोनों आचार्यों ने मिलकर 'काव्यकल्पलतावृत्ति' नामक ग्रंथ की रचना की है। इस ग्रंथ की रचना पूर्ववर्ती परम्परा से हटकर की गई है। इसका प्रतिपाद्य विषय कविशिक्षा है अर्थात् इसमें काव्य के गुण, दोष, अलंकार आदि का निरूपण न करके, काव्य रचना के नियमों का विवेचन किया गया है। यह ग्रंथ चार प्रतानों में विभक्त है और इनमें छन्दसिद्धि, शब्दसिद्धि, श्लेषसिद्धि और अर्थसिद्धि के उपायों का निरूपण मिलता है।

इसके अला वा दोनों आचार्यों के स्वतंत्र रूप से लिखे ग्रंथ भी मिलते हैं।

आचार्य अरिसिंह ने अपने मित्र वस्तुपाल जैन, जो गुजरात के ढोलकर राज्य के मंत्री थे, की प्रशंसा में 'सुहत्सकीर्तन' नामक एक काव्य लिखा।

आचार्य अमरचन्द्र ने 'काव्यकल्पलतावृत्ति' में अपने तीन ग्रंथों का उल्लेख किया हैं - छनदोरलावली, 'काव्यकल्पलतावृत्ति' और अलंकारप्रबोध।

अन्तिम दोनों ग्रंथों का सम्बन्ध भी काव्यशास्त्र से है। इनका एक 'जिनेन्दचरितम्' नामक ग्रंथ भी मिलता है। यह 'पद्यानन्द' के नाम से भी जाना जाता है।

आचार्य देवेश्वर

चौदहवीं शताब्दी में आचार्य युगल अरिसिंह अमरचन्द्र के बाद जैन विद्वान आचार्य देवेश्वर का नाम आता है। इनके द्वारा 'कविकल्पलता' नामक ग्रंथ की रचना की गई, जिसमें मामूली से शैली भेद के साथ आचार्य युगल अरिसिंह - अमरचन्द्र द्वारा विरचित 'काव्यकल्पलतावृत्ति' का अनुकरण मात्र है। यही कारण है कि यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के क्षेत्र में अपना कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं बना पाया।

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