रविवार, 26 सितंबर 2010

कहानी ऐसे बनी–५ :: छोड़ झार मुझे डूबन दे !

कहानी ऐसे बनी– 5

छोड़ झार मुझे डूबन दे !

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतीम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रहे इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

(1) 'नयन गए कैलाश ! कजरा के तलाश !!'
(2) 'न राधा को नौ मन घी होगा... !'
(3) "जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!

(4) जग जीत लियो रे मोरी कानी ! ….
छोड़ झार मुझे डूबन दे !" यह कहावत हमने बचपन में सुनी थी, बड़गामा वाली भौजी के मुंह से। अब क्या बताएं ...! बडगामा वाली भौजी जब अपने अनोखे अंदाज़ में हाथ झटक-झटक कर यह कहावत कह रही थीं तो हमारी तो हंसी का ठिकाना ही नहीं रहा !  हंसते-हंसते लोट-पोट हो गए हम। लगता है आप भी गुदगुदा गए हैं... तो 'कहानी ऐसे बनी' में आज चलिए हमारे गाँव। आपको इस कहावत के मूल का ठिकाना वहीं मिलेगा।
बडगामा वाली भौजी गाँव में हमारे  पड़ोस में ही रहती  हैं । अरे वो बुद्धन भैय्या हैं ना... सात भाइयों मे सबसे छोटे... उनकी तीसरी पत्नी हैं। अब वृद्धस्य तरुनी भार्या... तो प्राणों से भी प्रिय होती हैं। ऊपर से तीसरी पत्नी.... भूल गए हैं तो रामायण याद कीजिये। एकदम वैसी ही थी बडगामा वाली भौजी। घर भर की दुलारू ! समझ लीजिये कि मान न मान ! मैं तेरा मेहमान !! बुद्धन भैय्या तो भौजी को हथेली पर ही रखते थे। रखेंगे कैसे नहीं ? अगर ये भी चली गयीं तो इस उम्र में उनका क्या होगा ??
भौजी को घर भर के इस कमजोर नस का पता था, इसलिए वो बात-बात पर 'ब्लैक-मेल' करती थीं। ‘बुलकी (मोती लगा हुआ नाक में पहना जाने वाला गहना) ला दो नहीं तो... बोलूंगी नहीं!’ … ‘ झुमका ला दो नहीं तो.... नैहर चली जाउंगी!!’ ….  और डांट-डपट किस चिडियां का नाम है, भौजी तो एक कड़क आवाज पर कुँआ-पोखर दौड़ पड़ती थी और लोग-बाग पीछे-पीछे मनाने दौड़ते थे। लेकिन धीरे-धीरे यह बात सभी के समझ में आ गयी कि भौजी करेंगी-वरेंगी कुछ नहीं खा-म-खा धमकी देती हैं।
एक दिन शाम के समय बुद्धन भैय्या का पारा चढा हुआ था। कुछ बात हुई और भौजी फिर आँखों से गंगा-यमुना और मुंह से आशीर्वाद की झड़ी लगाए दौड़ पड़ीं तालाब की ओर। लोगों ने रोका तो बोली, "नहीं..... अब जहां अपना पति ही दुःख-दर्द समझने वाला नहीं रहा वहाँ जी कर क्या करना? ... अब तो बस कमला माई के शरण लग जाएँ। इसी पोखर मे डूब कर ई पापी दुनिया को छोड़ दें !"
उधर से तमतमाए भैय्या भी बोले, " हाँ ! जाओ ! जाओ !! डूब ही जाना !!! रोज-रोज के इस खटर-पटर से छुटकारा तो मिले !"
"हाँ..हाँ... जा रही हूँ... ! मैं खुद इस खिच-खिच में जीना नहीं चाहती...!!" बोलती हुई भौजी चल रही हैं आगे और देख रही हैं पीछे.. ! अब भी कोई बचाने या रोकने के लिए आ रहा है कि नहीं.. !!!
अरे यह क्या? ... हमारे बुद्धन भैय्या तो आज दालान पर ही जमे रहे... ! अच्छा बुद्धन भैय्या नहीं तो कोई अरोसी-पड़ोसी भी नहीं दौड़ रहा है....! मुझे लगा कि कुछ गड़बड़ न हो जाए? ... इसलिए भौजी तो आगे साबरमती एक्सप्रेस की तरह भाग रही थीं पर हम पसिंजर की तरह पीछे-पीछे आये। जब तक हम तालाब के मेड़ तक पहुंचे भौजी तो बिलकुल किनार तक पहुचं गयी थी। हम देखने लगे कि भौजी अब छलाँग लगाएं और हम दौड़-दौड़ के सब को ताजा समाचार बता दें। लेकिन यह क्या ... भौजी तो पानी में डूबने के बदले बार बार पीछे मुड़ कर देख रही हैं और पता नहीं किस से लड़ रही हैं ? हमने कुछ देर तमाशा देखा और फिर पूछा, " क्या हुआ भौजी... ? अरे वहाँ किस से बतिया रही हो ?"
भौजी रोते-धोते बोली, "अब हम से कुछ न पूछो बबुआ ! ये सारा जहान हमरा दुश्मन हो गया है ! अब देखो ना डूब कर प्राण देने आये तो यहाँ भी... इस झार ने साड़ी पकड़ लिया ! पता नहीं हमारे भाग्य में और कितना दुःख बदा है !"
इतना कह भौजी फिर से उलझ गयी झार से ! कह रही हैं,"छोर झार मुझे डूबन दे.... छोर मेरी साड़ी... अब हम डूब के ही रहेंगे !! ... जिनके साथ सात फेरे लिए, जीने-मरने की क़समें खाई, वही अपना न रहा तो तुम अब क्यों रोक रहे हो... !! छोड़ झार... छोड़ झार मुझे डूबन दे!" भौजी एक घंटे तक ऐसे ही झार से उलझी रही तब बात हमारी समझ में आ गई!
मैं उनके नज़दीक  गया। भौजी के हाथ पकड़ कर उन्हें बड़े प्यार से समझाया, " क्या भौजी ! समझदार हो कर आप भी नासमझ जैसी हरकत करती हो। अरे खट-पट कहाँ नहीं होता! ... इस से अपना परिवार छूट जाता है, क्या ... ? चलो-चलो !!"
भौजी ने दो-चार बार तो दिखावटी आना-कानी की और फिर चल दीं हमारे साथ। अब देखिये, भौजी जब डूबने जा रही थीं तो उस झार ने उन्हें पकड़ लिया था लेकिन अब  लौटते समय एकदम फ्री हो गयीं। खैर भौजी तो लौट आईं लेकिन एक कहावत जरूर बना दीं ! उस दिन से धमकी दिखा कर बहाना बनाने वालों के लिए भौजी की कहावत अमर हो गयी, "छोर झाड़ मुझे डूबन दे !"

जब भी कोई औकात से ज्यादा बात कर जाता है और पूरा न होने के पीछे बहानेबाजी करता है, तब हमारे मुंह से अनायास निकल जाता है,

"छोड़ झार मुझे डूबन दे!"

13 टिप्‍पणियां:

  1. लोकोक्तियों के नेपथ्य से आती यह बानी बहुत सार्थक है। आप एक परम्परा को भावी पीढ़ियों के लिए सँजो रहे हैं। आभार।

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  2. लोकोक्तियों की कथायें रोचक होती हैं साथ ही इनमे छुपे गूढ रहस्य जीवन दर्शन के ही पहलू होते हैं। धन्यवाद

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  3. lokokti ke piche ka itihaas... uski kahani... aur kahne ka nirala andaaz , post ko saarthakta pradaan kar rahe hain!
    extremely appreciable,
    regards,

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  4. लोकोक्ति को बताने के लिए बहुत बढ़िया कथा ....:):)
    अच्छी प्रस्तुति

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  5. जब भी कोई औकात से ज्यादा बात कर जाता है और पूरा न होने के पीछे बहानेबाजी करता है, तब हमारे मुंह से अनायास निकल जाता है,
    bahut hi sunder kahanai hai

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  6. मजेदार , डूबते मन ने झाड़ को तिनका बना सहारा लिया , सीख देती हुई कहानी ।

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  7. अनुभव और दर्शन का सार हैं ये लोकोक्तियां, और बहुत अच्छे अंदाज में इसके मायने सम्झाये हैं। ’देसिल बयना’ पर पढ़ते रहते हैं हम और ज्ञान और आनंद भी प्राप्त करते हैं।
    आभारी हैं सर, आपके।

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  8. हम क्या लिखें कुछ कहेंगे तो आप कहेंगे छोड़ झार मुझे डूबन दे..हाहाहाहा..कहावत जीवन दर्शन है...

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