काव्य प्रयोजन (भाग-5)नव अभिजात्यवाद और काव्य प्रयोजन |
पिछली चार पोस्टों मे हमने (१) काव्य-सृजन का उद्देश्य, (लिंक) (२) संस्कृत के आचार्यों के विचार (लिंक), (३) पाश्चात्य विद्वानों के विचार (लिंक) और (४) नवजागरणकाल और काव्य प्रयोजन (लिंक) की चर्चा की थी। जहां एक ओर संस्कृत के आचार्यों ने कहा था कि लोकमंगल और आनंद, ही कविता का “सकल प्रयोजन मौलिभूत” है, वहीं दूसरी ओर पाश्चात्य विचारकों ने लोकमंगलवादी (शिक्षा और ज्ञान) काव्यशास्त्र का समर्थन किया।। नवजागरणकाल के साहित्य का प्रयोजन था मानव की संवेदनात्मक ज्ञानात्मक चेतना का विकास और परिष्कार। आइए अब पाश्चात्य विद्वानों की चर्चा को आगे बढाएं। हमने नवजागरण युग की चर्चा करते हुए पाया कि एक नई चेतना का उदय हुआ। इटली में शुरू हुए इस विचार का धीरे-धीरे फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैंड तक विस्तार हुआ। पुनरूद्धार और प्रत्यावर्तन के इस यूरोपीय रेनेसां, व्यक्ति को मध्ययुगीन बंधनों से मुक्त करने का यह आंदोलन, व्यक्ति स्वतंत्रता की भावना को आगे बढ़ाने का प्रबल केंद्र बना। पर बीतते समय के साथ व्यक्ति स्वातंत्र्य की भावना अतिवाद में बदल गई। इससे अराजकता फैलने लगी। इसके कारण लोगों का झुकाव अभिजात्यवाद की ओर होने लगा। नवअभिजात्यवाद के उदय ने साहित्य जगत को भी प्रभावित किया। फ्रांस में अरस्तु के सिद्धांत की नई व्याख्याएं हुई। कार्लीन, रासीन, बुअलो आदि ने नए नियम बनाए। उनका मानना था कि श्रेष्ठ कृतियां वही कही जा सकती हैं जिनमें कथा तथा संरचना की गरिमा हो। वे भव्यता के साथ साथ संतुलन को भी सृजन का प्रमुख गुण मानते थे। अठारहवीं शताब्दी तक यह नियोक्लासिज़्म इंग्लैंड भी पहुंच गया। यहां पर नव अभिजात्य विचारधारा के प्रमुख प्रवक्ता थे डॉ. सैम्युअल जॉनसन, जॉन ड्राइडन, अलेक्जेंडर पोप, जोसेफ एडिसन। नव अभिजात्यवादियों का यह मानना था कि साहित्य प्रयोजन में आनंद और नैतिक आदर्शों की शिक्षा को महत्व दिया जाना चाहिए। |
शुक्रवार, 3 सितंबर 2010
काव्य प्रयोजन (भाग-5) नव अभिजात्यवाद
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प्रशंसनीय ।
जवाब देंहटाएंजानकारी के लिये धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी जानकारी।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा , ज्ञानवर्द्धक लेख ..आभार
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी मिल रही है………………आभार्।
जवाब देंहटाएंआज की कक्षा में साहित्य के एअक और पहलु पर जानकारी मिली.. सुंदर !
जवाब देंहटाएंनव अभिजात्यवादियों की बात पल्ले नहीं पड़ती। पश्चिमी विचारकों ने आनंद को आध्यात्मिक अर्थों में लिया होगा,इसकी संभावना कम ही है। नैतिक शिक्षापरक साहित्य के उपदेशात्मक हो जाने का ख़तरा रहता है।
जवाब देंहटाएंमनोज जी,
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए धन्यवाद ।
बहुत अच्छा , ज्ञानवर्द्धक लेख | बढ़िया पोस्ट..बधाई!
जवाब देंहटाएंउपयोगी जानकारी के लिए आपको धन्यवाद
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंAbhijatyavad ke pravartak kaun hai
जवाब देंहटाएंAbhijatyavad ke pravartak kaun hai
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