शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

कुरुक्षेत्र …. चतुर्थ सर्ग ...( भाग - 7 )रामधारी सिंह दिनकर

 Draupadi Cheer Haran
किन्तु बुद्धि नित खड़ी ताक में
                रहती घात  लगाए
कब जीवन का ज्वार शिथिल हो
                  कब वह उसे दबाये ।
 
और सत्य ही , जभी रुधिर का
                वेग तनिक कम होता
सुस्ताने को कहीं ठहर
                जाता जीवन का सोता ।
 
बुद्धि फेंकती तुरत जाल निज
                 मानव फंस जाता है
नयी नयी उलझने लिए
             जीवन सम्मुख  आता है ।
 
क्षमा या कि प्रतिकार , जगत में
              क्या कर्त्तव्य मनुज का ?
मरण या कि उच्छेद  ? उचित
              उपचार कौन है रूज का ?
 
बल - विवेक में कौन श्रेष्ठ है ,
               असि वरेण्य या अनुनय ?
पूजनीय  रुधिराक्त विजय
             या करुणा - धौत  पराजय ?
 
दो में कौन पुनीत शिखा है ?
               आत्मा की या मन की ?
शमित - तेज वय की मति शिव
               या गति उच्छल यौवन की ?
 
जीवन की है श्रांति घोर ,हम
                जिसको वय कहते हैं ,
थके सिंह  आदर्श ढूंढते ,
             व्यंग -  वाण सहते हैं ।
 
वय हो बुद्धि - अधीन चक्र पर
               विवश घूमता जाता
भ्रम को रोक समय को उत्तर ,
                 तुरत नहीं दे पाता ।
 
तब तक तेज लूट पौरुष का
                   काल चला जाता है ।
वय  - जड़  मानव ग्लानि - मग्न हो
               रोता - पछताता  है ।
 
वय का फल भोगता रहा मैं
              रुका सुयोधन  - घर में
रही वीरता पड़ी  तड़पती
                बंद अस्थि- पंजर में ।
 
न तो कौरवों का हित साधा
               और न पांडव का ही ,
द्वंद्व - बीच उलझा कर रक्खा
               वय ने मुझे सदा ही ।
 
धर्म , स्नेह , दोनों प्यारे थे
                बड़ा कठिन निर्णय था ,
अत: एक को देह , दूसरे-
               को दे दिया  हृदय था ।
 
किन्तु , फटी जब घटा , ज्योति
                     जीवन की पड़ी दिखाई
सहसा  सैकत - बीच स्नेह की
                   धार उमड़ कर छाई ।
 
धर्म पराजित हुआ , स्नेह का
                 डंका बजा  विजय  का ,
मिली देह भी उसे , दान था
                   जिसको मिला हृदय था ।
 
भीष्म न गिरा  पार्थ के शर से ,
                     गिरा भीष्म का वय था ,
वय का तिमिर भेद वह मेरा ,
                      यौवन हुआ उदय था ।
 
 
क्रमश:

16 टिप्‍पणियां:

  1. भीष्म न गिरा पार्थ के शर से ,
    गिरा भीष्म का वय था ,
    वय का तिमिर भेद वह मेरा ,
    यौवन हुआ उदय था ।
    बहुत आनंद आ रहा है पढ़ने में..

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  2. सभी कुछ अर्थपूर्ण है....अति सुन्दर!...शिवरात्री के पावन पर्व पर हार्दिक बधाई!

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  3. जीवन की है श्रांति घोर ,हम
    जिसको वय कहते हैं ,
    थके सिंह आदर्श ढूंढते ,
    व्यंग - वाण सहते हैं ।
    अहा! कितनी गूढ़ बात कह गए दिनकर जी।

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  4. अर्थपूर्ण और बेहतरीन रचना ..

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  5. क्षमा या कि प्रतिकार,बल या कि विवेक,आत्मा या कि मन-यह दुविधा अस्तित्व के साथ ही जीवन में आई प्रतीत होती है। तभी देव-दानव दोनों इस द्वंद्व के शिकार दिखते हैं!

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  6. बहुत आनंद आ रहा है पढ़ने में| धन्यवाद।

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  7. अनुपम भाव संयोजन के साथ बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  8. भीष्म न गिरा पार्थ के शर से ,
    गिरा भीष्म का वय था ,
    वय का तिमिर भेद वह मेरा ,
    यौवन हुआ उदय था ।
    दिनकर जी को कभी पढ़ना एक नया अनुभव होता है फिर चाहे अनुशीलन 'उर्वशी 'का हो या कुरुक्षेत्र का

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  9. AB PACHHTAYE HOT KYA JAB CHIDIYA CHUG GAYI KHET...IS Lokokti ka ye sabse bada aur dukhdayi udaahran hai hamare itihas ka.

    bahut sunder shrinkhla.

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    1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    2. ab pachhtaaye...line ko pahale pooree karane kaa kasht kare.

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    3. ऊपर ये लोकोक्ति पूरी ही लिखी है ...


      अब पछताए क्या होत जब चिड़ियाँ चुग गयी खेत

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