सोमवार, 3 दिसंबर 2012

मधुशाला ...भाग --9 / हरिवंश राय बच्चन

जन्म -- 27 नवंबर 1907 
निधन -- 18 जनवरी 2003 

मधुशाला ..... भाग --- 9 



कल? कल पर विश्वास किया कब करता है पीनेवाला
हो सकते कल कर जड़ जिनसे फिर फिर आज उठा प्याला,
आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है,
कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुटिल की मधुशाला।।६१।

आज मिला अवसर, तब फिर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हाला
आज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला,
छेड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ,
एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला।।६२।

आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला,
भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला,
और लगा मेरे होठों से भूल हटाना तुम जाओ,
अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले प्रणय की मधुशाला।।६३।

सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कञ्चन का प्याला
छलक रही है जिसमें  माणिक रूप मधुर मादक हाला,
मैं ही साकी बनता, मैं ही पीने वाला बनता हूँ
जहाँ कहीं मिल बैठे हम तुम़ वहीं गयी हो मधुशाला।।६४।

दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर ऊब उठी साकीबाला,
भरकर अब खिसका देती है वह मेरे आगे प्याला,
नाज़, अदा, अंदाजों से अब, हाय पिलाना दूर हुआ,
अब तो कर देती है केवल फ़र्ज़ -अदाई मधुशाला।।६५।

छोटे-से जीवन में कितना प्यार करुँ, पी लूँ हाला,
आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला',
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।६६।

क्या पीना, निर्द्वन्द न जब तक ढाला प्यालों पर प्याला,
क्या जीना, निश्चिंत  न जब तक साथ रहे साकीबाला,
खोने का भय, हाय, लगा है पाने के सुख के पीछे,
मिलने का आनंद न देती मिलकर के भी मधुशाला।।६७।

मुझे पिलाने को लाए हो इतनी थोड़ी-सी हाला! 
मुझे दिखाने को लाए हो एक यही छिछला प्याला!
इतनी पी जीने से अच्छा सागर की ले प्यास मरुँ,
सिंधु -तृषा दी किसने रचकर, बिंदु-बराबर मधुशाला।।६८।

क्या कहता है, रह न गई अब तेरे भाजन में हाला,
क्या कहता है, अब न चलेगी मादक प्यालों की माला,
थोड़ी पीकर प्यास बढ़ी तो शेष नहीं कुछ पीने को,
प्यास बुझाने को बुलवाकर प्यास बढ़ाती मधुशाला।।६९।

लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला,
लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला,
लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का,
लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला।।७०।
क्रमश: 

9 टिप्‍पणियां:

  1. लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला,
    लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला,
    लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का,
    लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला।

    मधुशाला में मेरी सर्वाधिक प्रिय पंक्तियाँ .... आभार !

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  2. कई बार पढ़ी मधुशाला लेकिन इसा तरह पढ़ने से उतने अंश को पठन और मनन कुछ नए अर्थ देता है . अंतिम पंक्तियाँ बहुत ही सुन्दर हाँ और एक यथार्थ को समेटे हुए जो कह रही हैं वह शाश्वत सत्य है।

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  3. लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला,
    लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला,
    लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का,
    लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला
    आह जीवन दान सा देतीं पंक्तियाँ.

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  4. इसी बहाने बच्चन जी की यादें भी ताजा हो जाती हैं। धन्यवाद।

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  5. सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कञ्चन का प्याला
    छलक रही है जिसमें माणिक रूप मधुर मादक हाला,
    मैं ही साकी बनता, मैं ही पीने वाला बनता हूँ
    जहाँ कहीं मिल बैठे हम तुम़ वहीं गयी हो मधुशाला।।६४।
    कहतें हैं मस्जिद किसी जगह का नाम नहीं है जिस जगह नमाज पढो वही जगह पाकीज़ा (मस्जिद )हो जाती है -जहां कहीं मिल बैठे हम तुम वहीँ रही हो मधु शाला ,

    पीड़ा में आनंद जिसे हो आये मेरी मधुशाला ....

    शुक्रिया इस याद को ताज़ा करवाने का बहाना दिया आपने बच्चन जी को पुन :पढवाया .

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