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शनिवार, 26 नवंबर 2011

पुस्तक परिचय – 8 : जूठन

पुस्तक परिचय – 8

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IMG_0568मनोज कुमार

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व्योमकेश दरवेश, मित्रो मरजानी, धरती धन न अपना, सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, अकथ कहानी प्रेम की, संसद से सड़क तक, मुक्तिबोध की कविताएं

IMG_1955हमें भारतीय समाज के सबसे उपेक्षित और वंचित दलित वर्ग के जीवन सरोकारों को मानवीय दृष्टिकोण से जानने का प्रयास करना चाहिए। साथ ही हमें भारतीय समाज व्यवस्था के जाति आधारित स्वरूप, जातिगत भेदभाव और गैरबराबरी को जन्म देने वाली धार्मिक तथा ब्राह्मणवादी प्रवृत्तियों को समझना चाहिए। तभी हम सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक न्याय के लिए प्रतिबद्ध साहित्य की पहचान कर सकेंगे। इसी दिशा में पिछले कुछेक दशकों में दलित सामाजिक आंदोलन की साहित्यिक अभिव्यक्ति के रूप में दलित साहित्य का उभार हुआ है।

IMG_1957हिंदी साहित्य में अपनी सशक्त रचनाओं के योगदान से दलित विमर्श की दस्तक देने वाले ओमप्रकाश वाल्मीकि हिंदी दलित साहित्य के अग्रणी लेखक हैं। वे पिछले साल ही सेवानिवृत्त हुए हैं। उत्तरप्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के बरला गांव के दलित परिवार में जन्मे वाल्मीकि जी हमारे संगठन (आयुध निर्माणी, देहरादून) में सेवारत थे। इस सप्ताह के पुस्तक परिचय में हमने सामाजिक सड़ांध को उजागर करनेवाले दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा “जूठन” को लिया है। श्री वाल्मीकि दलित जीवन की व्यथा, छटपटाहट, सरोकारों को अपनी कहानियों के माध्यम से वे अभिव्यक्ति देते रहे हैं। उनकी रचनाएं दलित जीवन के अनुभवों की अभिव्यक्ति है, जो एक ऐसे यथार्थ से हमारा साक्षात्कार कराती है, जो हजारों सालों तक रचनाकारों की रचना का विषय ही नहीं बना। ऐसी उफनती पीड़ा, अंधेरे कोनों में व्याप्त वेदना, अपमानित जीवन का संत्रास, दारुण ग़रीबी, विवशता, दीनहीन होने की वेदना को ओमप्रकाश वाल्मीकि ने रचनात्मक अभिव्यक्ति दी है। साथ ही दबे कुचले शोषित पीड़ित जन समूह की अस्मिता को मुखर करके सामाजिक विसंगतियों पर चोट की है।

इस पुस्तक में ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित जीवन की त्रासदी को अभिव्यक्त किया है। एक जगह अपने आत्मकथ्य में उन्होंने कहा है, हिंदी साहित्य की सामंती ब्राह्मणवादी प्रवृत्तियों ने जिन विषयों को त्याज्य माना, जिन्हें अनदेखा किया उन पर लिखना मेरी प्रतिबद्धता है।” जूठन इनकी आत्मकथा है जिसमें स्वयं के दलित जीवन की सच्चाइयों को बेबाक होकर अतीशय प्रामाणिकता के साथ अभिव्यक्त किया है। इसकी रचना के समय की अनुभूति के बारे में वे लिखते हैं, “इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे। एक लम्बी जद्दोजहद के बाद मैंने सिलसिलेवार लिखना शुरु किया। तमाम कष्टों, यातनाओं, उपेक्षाओं, प्रताड़नाओं को एक बार फिर जीना पड़ा, उस दौरान गहरी मानसिक यंत्रणाएं मैंने भोगी। स्वयं को परत-दर-परत उधेड़ते हुए कई बार लगा कितना दुःखदायी है यह सब! कुछ लोगों को यह अविश्वसनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता है।”

इस पुस्तक में उन सभी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहलुओं को गंभीरतापूर्वक परखा गया है, जिसके कारण दलित उत्पीड़न का प्रश्न एक गहन समस्या बनी हुई है। वाल्मीकि जी लिखते हैं, “दलित जीवन की पीड़ाएं असहनीय और अनुभवदग्ध हैं। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। एक ऐसी समाज-व्यवस्था में हमने सांसें ली हैं, जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति असंवेदनशील भी …”

इस कथन में सिर्फ़ एक व्यक्ति की नहीं, संपूर्ण दलित समाज की विवशता, व्यथा और मानसिक त्रास की सच्चाई व्यक्त हो रही हैं। अपने मोहल्ले का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं, “अस्पृश्यता का ऐसा माहौल कि कुत्ते-बिल्ली, गाय-भैंस को छूना बुरा नहीं था लेकिन यदि चूहड़े का स्पर्श हो जाए तो पाप लग जाता था। सामाजिक स्तर पर इनसानी दर्ज़ा नहीं था। वे सिर्फ़ ज़रूरत की वस्तु थे। काम पूरा होते ही उपयोग खत्म। इस्तेमाल करो, दूर फेंको।”

मेहनत मज़दूरी में किसी से पीछे न हटने वाले इस समाज के लोगों को खाना खा चुके बारातियों के जूठन मिलते थे। लेखक लिखते हैं “जब मैं इन सब बातों के बारे में सोचता हूं तो मन के भीतर कांटे उगने लगते हैं, कैसा जीवन था? दिन-रात मर-खपकर भी हमारे पसीने की क़ीमत मात्र जूठन, फिर भी किसी को कोई शिकायत नहीं। कोई शर्मिंदगी नहीं, कोई पश्चाताप नहीं।”

पढ़ने-लिखने में होनहार बालक ओमप्रकाश बहुत सारी बाधाओं के बीच अपनी पढ़ाई लिखाई की और और्डनेंस फ़ैक्टरी देहरादून में जब एप्रेंटिस के रूप में भरती हुआ, तो अपने पिता को चिट्ठी लिखकर बताता है, वह पढ़ाई छोड़कर एप्रेंटिस बनकर रक्षामंत्रालय की फ़ैक्टरी में प्रवेश पा गया है। पिता को संतोष हुआ कि अब कारखाने में मशीन के कल-पुर्जों का तकनीकी काम सीखेगा, अच्छा ही हुआ जात से तो पीछा छूटा। उनके इस उद्गार पर ओमप्रकाश लिखते हैं, “लेकिन ‘जाति’ से मृत्युपर्यंत पीछा नहीं छूटता, इस तथ्य से वे अंत तक अपरिचित रहे।”

एक बड़ा ही मार्मिक वर्नण है इस आत्मकथा में। मुम्बई के पास एक जगह है अम्बरनाथ। वहां के और्डनेंस फ़ैक्टरी में काम करते हुए ओमप्रकाश की घनिष्ठता एक ब्राह्मण परिवार से हो गई। वाल्मीकि उपनाम के कारण वे भी उन्हें ब्राह्मण समझ रहे थे। उनकी पुत्री ओमप्रकाश को पसंद करने लगी। पर उनके घर में एक बार ओमप्रकाश के सामने किसी दोस्त को, जो महार जाति का था, चाय अलग बर्तनों में पिलाई गई। तब उन्हें लगा कि हो न हो ये लोग उन्हें सवर्ण समझ रहे हों। अपनी प्रेमिका से उन्होंने स्पष्ट कहना उचित समझा और जब यह सच उस लड़की को मालूम हुआ तो उस वाकये का ज़िक्र करते हुए वाल्मीकि जी लिखते हैं,

“वह चुप हो गई थी, उसकी चंचलता भी गायब थी। कुछ देर हम चुप रहे। … वह रोने लगी। मेरा एस.सी. होना जैसे कोई अपराध था। वह काफ़ी देर सुबकती रही। हमारे बीच अचानक फासला बढ़ गया था। हजारों साल की नफ़रत हमारे दिलों में भर गई थी। एक झूठ को हमने संस्कृति मान लिया था।”

इस पुस्तक में लेखक ने दलितों के प्रति असहिष्णुता, तिरस्कार और अपमान दर्शाने की सवर्ण मानसिकता की घिनौनी प्रवृत्तियों का परदाफ़ाश किया है। जब वे इस आत्मकथा को लिख रहे थे, तब लेखक के कुछ मित्रों की सलाह थी कि खुद को नंगा करके आप अपने समाज की हीनता को ही बढ़ाएंगे। लेकिन लेखक का कहना है, “जो सच है, उसे सबके सामने रख देने में संकोच क्यों? … इस पीड़ा के दंश को वही जानता है जिसे सहना पड़ा।”

अपने घर के आस पास के माहौल का वर्णन करते हुए लिखते हैं, “‘चारों तरफ़ गंदगी भरी होती थी। ऐसी दुर्गंध कि मिनट भर में सांस घुट जाए। तंग गलियों में घूमते सूअर, नंग-धड़ंग बच्चे, कुत्ते, रोज़मर्रा के झगड़े, बस यह था वह वातावरण जिसमें बचपन बीता। इस माहौल में यदि वर्ण-व्यवस्था को आदर्श-व्यवस्था कहनेवालों को दो-चार दिन रहना पड़ जाए तो उनकी राय बदल जाएगी।”

जातिगत आधार पर भेद-भाव एक सामाजिक रोग है। ‘जाति’ ही जिस समाज में मान-सम्मान और योग्यता का आधार हो, सामाजिक श्रेष्ठता के लिए महत्वपूर्ण कारक हो, वहां यह लड़ाई एक दिन में नहीं लड़ी जा सकती है। लगातार विरोध और संघर्ष की चेतना चाहिए जो मात्र बाह्य ही नहीं, आंतरिक परिवर्तनगामी भी हो, जो सामाजिक बदलाव को दिशा दे। प्रस्तुत पुस्तक के माध्यम से ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित चेतना के विकास से नई पीढ़ी में अस्तित्व-अस्मिता के प्रति बढ़ती सजगता को भी रेखांकित किया गया है।

दलित जीवन के संपूर्ण सरोकारों को समेटती यह आत्मकथा केवल दलित जीवन की त्रासदी को ही अभिव्यक्त नहीं करती, बल्कि अन्य समाजों के साथ उसके संबंध, भेदभाव और जड़ मानसिकता को भी प्रकट करती है। अपने इस साहसपूर्ण सृजनात्मक प्रयास के द्वारा बहुत ही ईमानदारी से लेखक ने सच को सामने रखा है। देखी हुई यातना और भोगी हुई यातना के विवरण में फ़र्क़ होता है। यह कहावत सही तौर पर इस पुस्तक को पढ़ने के बाद खरी उतरती है कि “जिसके पांव न फटे बिवाई, वाह क्या जाने पीड़ पराई”। लेखक के भोगे हुए यथार्थ का दिल दहला देने वाला सच्चाईपूर्ण चित्रण इस पुस्तक में हुआ है। इसलिए अंत में यही कहना चाहूंगा कि यदि देखी हुई सच्चाई और भोगी हुई सच्चाई के फ़र्क़ को आप महसूस करना चाहते हैं, तो आप “जूठन” ज़रूर पढ़िए।

पुस्तक का नाम जूठन (आत्मकथा)

रचनाकार : ओमप्रकाश वाल्मीकि

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली

पहला संस्करण : 1997

तीसरी आवृत्ति : 2009

मूल् : 125 रु.