सोमवार, 10 मई 2010

काव्यशास्त्र-१४

आचार्य राजशेखर

आचार्य परशुराम राय

04092008148-001 आचार्य राजशेखर का काल दसवीं शताब्‍दी का आरम्‍भ माना जाता है। ये विदर्भ राज्‍य के निवासी थे। आचार्य दण्‍डी के बाद ये दूसरे आचार्य है जो कश्‍मीर के बाहर के थे। वैसे इनका कार्यक्षेत्र कन्‍नौज रहा है। इन्‍होंने स्‍वयं अपने “बालरामायण” नामक नाटक में उल्‍लेख किया है कि कन्‍नौज के प्रतिहार वंश के राजा महेन्द्रपाल और महिपाल इनके शिष्‍य थे।

ये यायावर वंश में उत्‍पन्‍न महाराष्‍ट्र के प्रसिद्ध कवि अकालजलद के पौत्र थे। इनके पिता दुर्दुक थे और माँ शीलवती थी। यायावर वंश में इनके पितामह के अतिरिक्‍त सुरानन्‍द, तरल आदि अनेक विद्वान कवि हुए है। कवित्‍व तथा शास्‍त्रीय प्रतिभा वंश-परंपरा से विरासत के रूप में इन्‍हें मिली थी। इनकी पत्‍नी अवन्तिसुन्‍दरी भी बड़ी ही विदुषी एवं कवित्‍व प्रतिभा से संपन्‍न थीं। आचार्य राजशेखर अपने ग्रन्‍थ “काव्‍यमीमांसा” में कई स्‍थानों पर अपनी पत्‍नी के साहित्यिक मतों का उल्‍लेख किया है। कर्पूरमज्जरी में आचार्य ने अपनी पत्‍नी का परिचय निन्‍नलिखित शब्‍दों में दिया है (संस्‍कृत छाया) –

चाहुमानकुलमौलिमालिका राजशेखरकवीन्‍द्रगेहिनी।

भर्तुः कृतिमवन्तिसुन्‍दरी यो प्रयोक्‍तुमेवमिच्‍छति।।

आचार्य राजशेखर कवि और नाटककार के रूप में भी जाने जाते हैं। बालरामायण, बालभारत, विद्धशाल भज्जिका और कर्पूरमज्जरी ये चार इनके द्वार प्रणीत नाटक है। इनमें से कर्पूरमज्‍जरी नाटक प्राकृत भाषा में लिखा गया है। इनका पाँचवा ग्रंथ काव्‍यमीमांसा है, जो काव्‍यशास्‍त्र से संबंधित है। अट्ठारह अध्‍यायों में विभक्‍त यह ग्रंथ अपने ढंग का अनूठा है।

काव्‍यमीमांसा को कविशिक्षा से संबंधित ग्रंथ माना जाता है और इसी आधार पर आचार्य राजशेखर को भारतीय काव्‍यशास्‍त्र के इतिहास में कवि शिक्षा संप्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। इस सम्‍प्रदाय में आचार्य राजशेखर के बाद आचार्य क्षेमेन्‍द्र, आचार्य अरि सिंह, आचार्य अमरचन्‍द्र, आचार्य देवेश्‍वर आदि ने कार्य किया है।

काव्‍यमीमांसा के प्रथम अध्‍याय का नाम शास्‍त्र संग्रह, दूसरे का शास्‍त्रनिर्देश, तीसरे का काव्‍यपुरूषोत्‍पत्ति, चौथे का पदावाक्‍यविवेक, पांचवें का काव्‍यपादकल्‍प, छठवें का भी पदवाक्‍यविवेक, सातवें का पाठप्रतिष्‍ठा, आठवें का काव्‍यार्थयोनि, नवें का अर्थव्‍याप्ति और दसवें अध्‍याय का नाम कविचर्या तथा राजचर्या है। 11 – 13 अध्‍यायों में अपने पूर्ववर्ती कवियों के अभिप्राय को समझने की युक्ति और सीमा का उल्‍लेख किया गया है। 14-16 अध्‍यायों में देश, काल, प्रकृति आदि के माध्‍यम से कवि – समय का वर्णन मिलता है। सत्रहवें अध्‍याय में देश-विभाग और अठारहवें में काल-विभाग का उल्‍लेख किया गया है।

काव्‍यमीमांसा को यदि विश्‍वकोष कहा जाए, तो अतिश्‍योक्ति नहीं होगी। इस ग्रंथ के कारण आचार्य राजशेखर का नाम भारतीय काव्‍यशास्त्र के इतिहास में सदा अमर रहेगा।

इति। 05092008479-001

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