बुधवार, 23 जून 2010

अपना अपना आनंद

--- --- मनोज कुमार

कोलकाता की उमस भरी तपती-जलती दोपहरी को बड़े साहब का संदेश मिला कि इस बार का राजभाषा सम्‍मेलन हम देहरादून में करेंगे। कोलकाता के 40 डिग्री सेल्सियस का तापमान और लगभग 100 प्रतिशत की आर्द्रता वाले माहौल में भी लगा कि कोई शीतल बयार आकर छूकर चली गई हो।

 

तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार हम पिछले सप्‍ताहांत (11-12 जून) देहरादून में सम्‍मेलन कर आए। गर्मियों में देहरादून जाना एक सुखद अनुभव रहा। देहरादून उत्तराखण्ड की राजधानी है। हम मैदानी इलाकों में रहने वालों के लिए पहाड़ी स्‍थल तक की यात्रा एवं स्‍थान परिवर्तन से बहुत राहत मिलती है। कईयों के मुंह से देहरादून की जलवायु की प्रशंसा सुन रखी थी। गर्मियों में भी वहां हल्‍की सी ठंड रहती है। लू तो कभी चलती ही नहीं। हरे भरे जंगल चारों ओर फैले हैं। फिर, मसूरी की सैर का आनंद ही अलग है।

कुछ ही दूरी पर सहस्रधारा है। सहस्रधारा में पहाड़ की चट्टानों से निरन्तर पानी की झड़ी लगी रहती है। प्रकृति की इस सुंदरता का वर्णन मुझे सदैव आह्लादित किए रहता था कि यह सब एक बार अपनी आंखों से देखकर तृप्त हो जाऊँ।

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सहस्रधारा जाने के लिए पक्‍की सड़क है। तीन पहाडि़यों को पार कर सहस्रधारा तक पहुँचा जा सकता है। पहाड़ों की घुमावदार एवं ऊँची-नीची सड़कें और हरे-भरे पेड़–पौधे शहर छोड़ते ही साथ हो लेते हैं। एक पहाड़ी नाले के ऊपर सहस्रधारा की चट्टानें हैं। उसके नीचे गुफा है, जिसमें पानी झरता रहता है- बहुत ही ठंडा, बूंद-बूंद, फुहारों की तरह और इसीसे छोटी-छोटी असंख्य धाराएं बन जाती हैं। गरमी अधिक थी, अतः धाराएं कम थीं। शायद बरसाती दिनों में सहस्र धाराएं अवश्य बन जाती होंगी।

यहां आकर चारो ओर एकांत, शांत और स्‍वच्छ वातावरण की मेरी उम्‍मीदों पर मानों पानी फिर गया। मोटर की आवाजों का शोर, चाय, पान, सिगरेट, पूरी मिठाइयों की दुकानें और इनसे उपजी गंदगियां- जूठे पत्तल, दोने, कुल्‍हड़, प्‍लास्टिक की बोतलें, गिलास, सिगरेट बीड़ी के टुकड़े, खाली डिब्‍बे, पान की पीक आदि नाले के सड़े पानी की दुर्गंध के साथ चारो ओर बिखरे पड़े थे। ये सब हमारी ही तो देन हैं। हम अपनी प्रकृति का आनन्द लेने के बहाने उसको नष्‍ट करने का मजा लेते हैं। उसे अशोभन, अनाकर्षक और कुरूप बना देते हैं। सहस्रधारा से अविरल झरता पानी प्रकृति के साथ हुए अत्‍याचार पर आंसू बहाता प्रतीत हुआ।

IMG_0161 हमारा अगला पड़ाव मसूरी था। मसूरी देहरादून से ऊपर 32-35 कि.मी. चढ़ने पर आता है। रास्‍ते में प्रकाशेश्‍वर मंदिर पड़ता है। और उससे पहले ही, चढ़ाई शुरू होने के पहले, सांई बाबा का मंदिर है। यह यात्रा भी हमने मोटर से की। हालाकि, पहाड़ पर पैदल चलने, चढ़ने का आनंद ही कुछ और होता है। यद्यपि चढ़ाई कष्‍टकर होती ही है, खासकर उनके लिए जिन्‍हें चढ़ने का तरीका नहीं आता। पांवो में दर्द हो जाता है, सांस फूलने लगती है। लेकिन जो चढ़ने का आनंद लेते हैं उन्‍हें तो इसमें भी आनंद ही आता है। जीवन में कुछ पीड़ा न हो, कुछ कष्‍ट न हो, कुछ कठिनाई न हो तो आदमी किस चुनौती पर जिए। चुनौतियों से प्ररेणा लेकर जो चढ़ाई करता है, विजयश्री उसे ही मिलती है।

 

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शाम ढलने से पहले हम केम्प्टी फॉल पहुँच गए। जोरों से बहती हुई हवा थी। सर्द! ठंढी!! कँपकँपी दिलाने वाली!!! मौसम का मिजाज कितना बदल गया था। प्रकृति के सौंदर्य में दुबका मन किसी अनजाने एकाकीपन के वशीभूत, मसूरी के केम्‍प्टी फॉल के इर्द-गिर्द के वातावरण का आनंद ले रहा था। सीधी सड़क। ऊँचाई को जाती सड़क। पहाड़ी ढलान। ढलता सूरज। और आसमान में फैली लालिमा। मालरोड की भीड़ को छोड़ हम केम्‍प्‍टी फॉल का सौन्‍दर्य निहार रहे थे। ऊँचाई से झरने की गिरती धारा के मोहक नाद के बीच हवा के चलने पर वृक्षों का मर्मर स्‍वर और चिडि़यों का मन को मोहने वाला कलरव। ऊपर से देखें तो नीचे देहरादून की रोशनियाँ टिमटिमाते तारों का भ्रम दिलाती हैं। मानों आसमान जमीन पर उतर आया हो। एक भ्रम और भ्रम के इस आभास का आनंद। सहज होने पर मन को झटका लगा। मैं कल्पना लोक की उड़ान पर था। लगा यह कैसा अज्ञान था जिसने मुझे घेर रखा था।

डिजराइली ने कहा था-

‘अपने अज्ञान का आभास होना ही ज्ञान की तरफ़ बढ़ा एक कदम है।’

मैं अब वर्तमान में था।

शोरगुल, धमाके, ठहाकों के बीच पहाड़ की चोटी से गिरता झरना और केम्‍प्‍टी फॉल का यह नजारा कुदरत से प्यार करने वालों को आनंदित करता है। शहर की भीड़-भाड़, उमस-तमस, कोलाहल-हलचल चहल-पहल से दूर पहाड़ो की वादियों में, झरने की कलकल करती धारा और सूर्य की ढलती हुई किरणों को निहारते हम! पक्षियों के चहचहाते हुए सुरों का आनंद लेते मन में ये पंक्तियां गूंज रहीं थीं –

IMG_0136 जीवन क्‍या है निर्झर है

मस्ती ही इसका पानी है

सुख दुख के दोनों तीरों से

चल रहा राह मनमानी है।

निर्झर में गति ही जीवन है,

यह गति रूक जाएगी जिस दिन

मर जाएगा मानव समाज,

जग के दुर्दिन की घडि़यां गिन-गिन।

 

खाने पीने के शौकीन लोगों के लिए एक से एक ढाबा, रेस्‍तराँ और होटल मिले। जहां जायकेदार खाना और उसका आनंद लूटते लोग उमड़े पड़े थे। लेकिन, झरने के नीचे एक गुफा (खोह) नुमा संरचना मुझे महात्‍माओं और संतो के आसपास होने का भ्रम दे गई और इसी सोच से मुझे आनंद की अनुभूति होने लगी। मेरी उत्सुकता मुझे उस गुफा में खींच ले गई जहां लगा कि कोई मुनि जल की आसनी पर भगवान के प्रति सम्‍पूर्ण आस्‍था से ध्‍यानस्‍थ हैं और प्रभु की समीपता का आनंद लूट रहे हैं।

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ऊपर के लोग भी आनंद में थे। अपना-अपना आनंद है। कोई उस जल-प्रपात के तरण ताल में हिलोरें ले-लेकर आनंद लूट रहा था तो कोई सोमरस की खुमारी का। किसी जोड़े के चहरे पर नव विवाहित होने की मस्‍ती थी, तो कोई अपनी ढलती उम्र का आनंद ले रहा था। आनंद की प्राप्ति के लिए हम क्‍या कुछ नहीं करते? हां आनंद की परिभाषा और मायने हमारे लिए अलग-अलग हैं।

वहां पहुंच कर कैमरे में तस्‍वीरें कैद करते वक्‍त अपने ब्लॉग के लिए एक पोस्ट बन सकने की कल्‍पना मात्र से मुझे असीम आनंद का अनुभव हो रहा था। वैसे आनंद की परिभाषा भी बदलती रहती है। जब आ रहा था तो बीच रास्‍ते में एक शिव मंदिर पड़ा। वहां शिव के दर्शन से ज्‍यादा भीड़ उमड़ी पड़ी थी प्रसाद ग्रहण में। प्रसाद पाने की अनियमितता, धक्‍का-मुक्‍की और तुमसे पहले मैं की छीना-झपटी के बीच प्रसाद पाने का आनंद मुझे फर्स्‍ट डे फर्स्‍ट शो दीवार फिल्‍म देखने के लिए प्राप्‍त किए गए टिकट के आनंद सा लगा।

आनंद हमें भटकाता भी है। आदमी आनंद प्राप्‍त करने के लिए कहां-कहां नहीं भटकता है। अब देखिए, जब रात गहराने लगी तो मन भटकने लगा कि चलो भाई! जल्‍दी करो, देहरादून भी वापस पहुंचना है। अब आनंद का कारण बदलने लगा। क्‍योंकि अब वापस देहरादून पहुंचकर जो आनंद मिलने वाला था उसकी उत्‍कंठा जागृत होने लगी थी।

हम धन-दौलत, मद-मोह, पद-वैभव लेकर कहां जाएंगे। जब जाएंगे – तब यहीं धरा रह जाएगा सब! तो इस गुफा के अंदर जल की आसनी पर बैठे ऋषि की कल्‍पना का विस्‍तार मुझे भरमाने भी लगा। मन में आया कि यदि हम उनकी तरह भगवान के बारे में जान भी लें तो हमें क्‍या मिलेगा? क्‍या भगवान स्‍वयं मिल जाएंगे?

इस कल्‍पना और इन्हीं मनोभावों के वशीभूत हमने अपने चारो तरफ नजर दौड़ाई तो मुझे लगा ये जो लोग हैं, जो हंस रहे हैं, गा रहे हैं, प्राकृतिक सौदंर्य का आनंद उठा रहे हैं, सब स्‍वस्थ प्रसन्‍न होने का ढोंग और स्वांग रच रहे हैं। कहीं न कहीं ये सब भीतर से अस्वस्‍थ हैं। कुछ जुमले जो मैंने गौर से सुनने की कोशिश की इस प्रकार थे –

‘देखो कैसे इतरा रहा है’

‘हूंह, पानी में ऐसे कूद रहा है मानो कभी स्‍वीमिंग पूल में नहाया ही न हो’

‘देखो कैसे लड़कियों को घूर रहा हैआदि।

ये परनिंदा, ईर्ष्‍या, द्वेष आदि का आनंद लूटते लोग – ये स्‍वस्‍थ भी हैं या मानसिक रूप से विकल?

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मैं फिर उस गुफा की तरफ मुड़ता हूँ। मेरी कल्‍पना फिर परवान चढ़ती है। मुझे लगता है उसमें धयानस्‍थ जो मुनि है, वही सच्‍चा आनंद लूट रहे हैं- भक्ति का, भगवत प्रेम का। उन्हें बाहरी आनंद की चाह नहीं, वह तो आन्‍तरिक आनंद की अमृत धारा से सराबोर हैं।

वापसी की यात्रा में ऐसा प्रतीत हुआ कि जो मनःस्थिति लेकर हम देहरादून आए थे उसमें बड़ा अन्‍तर आ गया है। मोटर के कैसेट प्‍लेयर पर फिर वही गीत बज रहा था जो जाते समय बजा था –

दिल ढूंढता, है फिर वही

फुरसत के रात दिन,

बैठे रहे तसव्‍वुर-ए-जाना किए हुए ।

इस गीत ने जाते समय मन में जो ताना-बाना बुना था अब वह टूट रहा था। हम वापस जा रहे थे, देहरादून के बारे में एक अलग अनुभव के साथ। फिर कोलकाता। फिर उमस, फिर गर्मी!!

9 टिप्‍पणियां:

  1. तृप्त हुई आत्मा हरतरफ गर्मी गर्मी पढ़ने के बाद!!

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  2. वैसे तो देहरादून में अनेक दर्शनीय स्थल हैं. लेकिन सहस्त्रधारा उनमें प्रमुख है. सुन्दर वर्णन और चित्र.

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  3. फिर से सब कुछ याद आ गया!
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    कैंपटी फाल का नज़ारा बहुत आकर्षक है!
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    दर्जनों बार गुजर चुका हूँ, इस मार्ग से!
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    आपने तो एक बार में ही
    बहुत बढ़िया ढंग से वर्णन कर डाला!
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    तब ब्लॉगिंग की सुविधा नहीं थी!

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  4. यहां आकर चारो ओर एकांत, शांत और स्‍वच्छ वातावरण की मेरी उम्‍मीदों पर मानों पानी फिर गया।

    हम अपनी प्रकृति का आनन्द लेने के बहाने उसको नष्‍ट करने का मजा लेते हैं। उसे अशोभन, अनाकर्षक और कुरूप बना देते हैं। सहस्रधारा से अविरल झरता पानी प्रकृति के साथ हुए अत्‍याचार पर आंसू बहाता प्रतीत हुआ।

    हम लोगों ने सच ही हर जगह का हाल ऐसा ही बाना छोड़ा है ..अपना अपना आनन्द ..रोचक लगा ..देहरादून और उसके आस पास का इलाका तो चप्पा चप्पा देखा हुआ है ...

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  5. अच्छा यात्रा संस्मरण ...

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  6. अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार

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  7. मन तृप्त हो गया. आपका यात्रा -वृतांत बहुत ही मनमोहक था ऐसा लग रहा था जैसे हम खुद ही वहां पहुँच गए हैं ...आभार

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