मंगलवार, 9 मार्च 2010

ठहाके


राजभाषा पत्रिकाओं से ...
आयुध निर्माणी बोर्ड कोलकाता की राजभाषा पत्रिका उन्मेष से

लघुकथा
ठहाके
--- --- मनोज कुमार
शर्माजी और वर्माजी में गहरी दोस्ती है। दोनों एक साथ एक ही दफ़्तर में काम करते थे। तीन दशक से भी अधिक की नौकरी करने के बाद दोनों एक साथ ही दो वर्ष पूर्व सेवा निवृत्त हुए। उनकी मित्रता आज भी यथावत बनी हुई है। वे रोज़ मॉर्निंग वाक के लिए साथ ही जाते हैं। घर के समीप ही एक पार्क है, गोल्डन पार्क। प्रतिदिन उस पार्क में गप-शप करते, हँसी-ठहाके लगाते हुए वे सैर करते हैं और टहलना सबसे अच्छा व्यायाम है को चरितार्थ करते हैं। पार्क के कोने में लाफ्टर क्लब के कुछ सदस्य एकत्रित होते हैं। शर्माजी-वर्माजी को यह क्लब रास नहीं आता। इस अर्टिफिशियल हँसी के लिए कौन इसका सदस्य बने। हम तो नेचुरल ठहाके लगाते ही हैं।
उस दिन पार्क के कोने वाले हिस्से से गुज़रते हुए उन्हें ठहाकों की आवाज़ सुनाई नहीं दी। विस्मय हुआ। शर्माजी ने वर्माजी से पूछा, बंधु, इन्हें क्या हुआ? आज इनके ठहाके नहीं गूंज रहे !”
वर्माजी ने कहा, रेसेशन का दौर है। मंहगाई आसमान छू रही है।
शर्माजी ने कहा, उसका ठहाकों से क्या लेना देना?
वर्माजी ने समझाया, शर्माजी ये नया युग है। हमारा ज़माना थोड़े ही रहा। हम तो फाकामस्ती में भी ठहाके लगाते रहें हैं। आज तो हर चीज़ में कटौती करनी पड़ रही है। लोग अब ठहाकों की जगह छोटी सी मुस्कान से ही काम चला ले रहें हैं।

4 टिप्‍पणियां:

  1. हर वास्तु का बाजारीकरण हो गया है....हंसी का भी ...अच्छी लघुकथा

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  2. इस लघुकथा के माध्यम से
    बहुत करारा व्यंग्य किया गया है!
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    सच भी यही है!
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    लघुकथाकार द्वारा बहुत सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है!
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    इसे पढ़कर बहुत ख़ुशी हुई!

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  3. आधुनिक जीवन और लुप्‍त होती संवेदनाओं का सफतापूर्वक उकेरा है आपने..........

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